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भारत
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भारत की कृषि क्यों है संकट में?
किसान खेती छोड़ रहे हैं या आत्महत्या कर रहे हैं, इसके पीछे के कारणों का एक संक्षिप्त विश्लेषणI
पी.जी. अम्बेडकर
07 Nov 2017
Translated by ओबैद
agriculutral crisis

पिछले कुछ सालों में भारत में महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान सहित कई राज्यों में किसानों ने विरोध प्रदर्शन किया। किसानों के इस तरह के असंतोष में देश भर से 182 किसानों के संगठन एक साथ आए हैं ताकि किसान मुक्ति यात्रा (किसान लिबरेशन रैली) के बैनर तले देशभर में अपने आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति का गठन किया जा सके। उन्होंने किसानों को एकजुट करने और उनकी मदद करने के लिए लाभकारी कीमतों और कृषि नीति की माँग को लेकर तीन रैलियाँ की। पूर्वी भारत में तीसरा चरण प्रगति पर है। 20 नवंबर को बड़े पैमाने पर विरोध करने के लिए सभी किसान दिल्ली में इकट्ठा होंगे।

भारत में कृषि वाले बड़े समुदाय में यह गुस्सा कृषि क्षेत्र में बढ़ती कठिनाइयों का प्रत्यक्ष परिणाम है क्योंकि भूमिहीन मालिकों को छोड़कर कृषि बड़े पैमाने पर किसानों के लिए बहुत अधिक घाटे वाला हो गया है। इस संकट के अन्य उल्लेखनीय लक्षण वर्षों से किसानों द्वारा आत्महत्या और कृषि छोड़ने की बढ़ती संख्या हैं।

सरकार ने हाल ही में उच्चतम न्यायालय में स्वीकार किया कि मुख्य रूप से नुकसान और कर्ज की वजह से पिछले चार वर्षों में लगभग 48,000 किसान अपनी ज़िन्दगी खत्म कर चुके हैं। सरकार के राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आँकड़ों से पता चलता है कि यही प्रवृत्ति 1997-2012 के दौरान रही, इस दौरान करीब 2,50,000 किसानों ने अपना जीवन गँवाया, इस अवधि के बाद सरकार विवरण देना बंद कर दिया।

जनगणना के आँकड़ों के मुताबिक कृषि संकट का एक अन्य लक्षण यह है कि 2001 और 2011 के बीच 90 लाख किसानों ने खेती करना छोड़ दिया। इसी अवधि में कृषि श्रमिकों की संख्या 3.75 करोड़ बढ़ी, यानी कि 35% की वृद्धि हुई।

कुल मिलाकर तथ्य यह है कि कृषि क्षेत्र में ये गंभीर संकट है जो इसे प्रभावित कर रहा है जो भारत में रोजगार का सबसे बड़ा स्रोत है और पूरे देश को भोजन प्रदान करता है। यह न सिर्फ किसानों के लिए बल्कि सभी भारतीयों के लिए गहरी चिंता का विषय है, क्योंकि अंततः यह हम सभी को प्रभावित करता है।

संकट के विभिन्न कारक

वर्ष 1951 में कृषि ने देश के कुल रोजगार का 70% हिस्सा तथा सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 51% से अधिक योगदान दिया। लेकिन 60 साल बाद वर्ष 2011 में कृषि और संबद्ध क्षेत्रों ने लगभग 55% रोजगार प्रदान किया, जबकि जीडीपी में इसका योगदान नाटकीय रूप से गिर कर 14% रह गया।

इसका मतलब है कि कम उत्पादन वाले कृषि क्षेत्र कामगारों के एक बहुत बड़े तबके को रोज़गार मुहैया करवा रहा हैI इस क्षेत्र में क्षमता से ज़्यादा किसान और श्रमिक मौजूद हैं जो कम-से-कम आय पर जीने को मजबूर हैंI ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि माना जाता था कि औद्योगिक क्षेत्र में हुई वृद्धि से कृषि में लगे लोगों की अतिरिक्त आबादी को रोजगार मिल जाएगा जो नहीं हुआ। औद्योगिकीकरण की धीमी रफ्तार, निर्यात उन्मुखीकरण जैसी गलत नीतियों की वजह से नहीं बल्कि भारतीय पूँजीपतियों का भारी उद्योग में निवेश करने से इनकार और सेवा क्षेत्र के लिए प्राथमिकता इसके पीछे के कुछ कारण हैं।

कृषि पर निर्भर बड़ी आबादी के लिए वैकल्पिक रोज़गार उपलब्ध कराने के लिए किसी भी नीति का न होना तथा एक के बाद एक सभी सरकारों की भूमि सुधार लागू करने में नाकामी से यह संकट बढ़ गया है।

अन्य कारक भूमि का बढ़ता हुआ विभाजन भी है। वर्ष 1971-71 में कृषि पर निर्भर परिवारों के लिए भूमि का औसत आकार 2.28 हेक्टेयर था। वहीं 2010-11 तक कृषि जनगणना के अनुसार किसानों के लिए प्रति किसान औसतन भूमि केवल 1.15 हेक्टेयर उपलब्ध थी। अगर हम अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के समुदायों के किसानों की स्थिति को देखे तो हालत  और भी खराब है। वर्ष 1980-81 में अनुसूचित जातियों के किसानों के पास औसत भूमि 1.15 हेक्टेयर थी, जो 2010-11 में 0.8 हेक्टेयर रह गया। इसी प्रकार अनुसूचित जनजाति के किसानों के लिए इसी अवधि में 2.44 हेक्टेयर से 1.52 हेक्टेयर तक हो गयी।

ये इसका एक पहलू है: कृषि पर आश्रितों की बड़ी संख्या तथा किसानों के पास भूमि का आकार कम होना। लगभग 67% किसान 1 हेक्टर से कम ज़मीन पर खेती करते हैं तथा 18% किसान 1 से 2 हेक्टेयर भूमि के मालिक हैं जिसका मतलब यह है कि भारत में किसानों का 85% मामूली या छोटे किसान हैं, जबकि 0.7% किसान के पास 10.5% कृषि भूमि है।

अब हम दूसरे पहलू को देखें कि किसान कृषि से कितना कमा सकते हैं?

'डब्लिंग फार्मर्स इनकम' (किसानों की आय दोगुनी करने) पर बनी अशोक दलवाई की अध्यक्षता वाली समिति ने अपनी रिपोर्ट में अनुमान लगाया था कि वर्ष 2011 में गैर-कृषि व्यवसाय में लगे एक व्यक्ति को एक किसान की तुलना में 3.1 गुना अधिक लाभ हुआ था। एक व्यक्ति जो कृषि मजदूर के रूप में कार्यरत था उसकी आय एक किसान की तुलना में 60 प्रतिशत कम थी।

राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) द्वारा कृषि परिवारों पर 70वीं राउंड की सर्वेक्षण रिपोर्ट वास्तव में दिखाती है कि किसानों की स्थिति देश में कितनी गंभीर है। इसमें यह दिखाया गया है कि कृषि से किसानों की आय इतनी कम है कि उनका खर्च उनकी आय से अधिक है। वे किसान जिनका 1 एकड़ से कम भूमि पर स्वामित्व या कृषि करते थे, उन्हें कृषि कार्यों से केवल 1,308 रुपये प्रति माह अर्जित किया जबकि उनके घर का मासिक व्यय 5,401 था। 4,093 रूपये के शेष व्यय को पूरा करने के लिए उस परिवार को खेती के अलावा अन्य स्रोतों की तलाश करनी पड़ी। ज़्यादातर निजी ऋणदाता है जो उच्च ब्याज़ दरों पर पैसे उधार देंगे।

डीएफआई की समिति ने टिप्पणी की कि जो लोग 2.5 एकड़ से कम भूमि के मालिक हैं या कृषि करते हैं वे नुकसान उठाते हैं। लेकिन एनएसएसओ के अध्ययन में यह पता चला कि 5 एकड़ भूमि रखने वाले लोग भी अपने मासिक खर्च को पूरा करने के लिए खेत से पर्याप्त कमा नहीं करते थे। उनकी आय और व्यय के मुकाबले 28.5% की हानि हुई।

रोज़ाना मजदूरी करने वाले कृषक श्रमिकों में पुरुष प्रति दिन 230-290 रुपए और महिला 196-220 रुपए के बीच औसत कमाए। जुताई, बुवाई जैसे ये काम मौसमी है। इस तरह के काम में भारत के करीब 14.43 करोड़ लोग निर्भर हैं। कृषि मज़दूर जो अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के थे, ये कुल भूमिहीन लोगों का लगभग 42% है।

इसके अलावा बढ़ती लागत ने किसानों के बोझ को और बढ़ा दिया है। डीएफआई कमेटी ने भारत के प्रमुख राज्यों में खेती किए जाने वाले 23 फसलों के लागत लाभ का विश्लेषण किया और निष्कर्ष निकाला कि "कुल लागत में वृद्धि" कृषि से वास्तविक आय में गिरावट के लिए ज़िम्मेदार थी।

न्यूजक्लिक ने तेलंगाना के एक किसान पी मलइयाह से बात की जो करीब 5 एकड़ जमीन में धान की खेती करते हैं, इस भूमि में से 3 एकड़ परिवार की अपनी है जबकि 2 एकड़ भूमि लीज़ पर ली है। उन्होंने कहा कि एक अनुमान में धान की कृषि के लिए प्रति एकड़ करीब 20,000 रुपए खर्च होता है। इसलिए 5 एकड़ जमीन पर धान की खेती के लिए उन्हें जरूरी खर्चों को पूरा करने के लिए एक लाख रुपए उधार लेना पड़ेगा। इसमें बिजली, पानी, कर और अपने स्वयं के श्रम जैसे अन्य लागतों को छोड़ दें। यह पैसा 24-36% वार्षिक ब्याज़ दर पर ऋणदाता से उधार लिया जाएगा। आखिर में किसान के पास कुछ भी नहीं बचता है, यहाँ तक कि खेती में उसकी और उसकी पत्नी द्वारा की गई मेहनत की कीमत भी नहीं।

खर्चों को पूरा करने के लिए किसानों को बैंकों से या स्थानीय ऋणदाताओं से अपनी फसलों को बोने के लिए उधार लेना पड़ता है। ज़्यादातर मामलों में स्थानीय ऋणदाता होते हैं जो कर्ज देते हैं। एनएसएसओ आँकड़ों के मुताबिक 52% से अधिक किसान औसतन 47,000 रुपए प्रति परिवार कर्ज़दार हैं। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्यों में लगभग 93% और 89% किसान प्रति परिवार क्रमशः 1,23,400 और 93,500 रूपए के कर्ज़दार हैं।

उच्च ब्याज़ दरों के बावजूद किसान जोखिम लेते हैं और खेती करते हैं। वे तब निराश हो जाते हैं जब उनके उत्पादन की उचित कीमत नहीं मिलती है। केवल कृषि उत्पाद का एक छोटा-सा हिस्सा ही न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) प्राप्त करता है और करीब 90 प्रतिशत से अधिक किसान व्यापारियों की दया पर हैं जो बाज़ार मूल्य निर्धारित करते हैं।

इस बीच राज्य ने कृषि क्षेत्र का सहायता देना बंद कर दिया है। खुले बाज़ार से सब कुछ खरीदे जाने चाहिए। और विस्तार समर्थन सेवाओं की कोई सहायता नहीं है जैसाकि राज्य ने हरित क्रांति के बाद इन्हें बंद कर दिया या बहुत कम कर दिया। दिल्ली साइंस फोरम के डी रघुनंदन ने कहा कि हरित क्रांति के दौरान विस्तारित सेवाएँ कार्य कर रही थी और सरकारी अधिकारियों ने किसानों को नई प्रौद्योगिकियों और कार्य को अपनाने में मदद की। इन सेवाओं के समाप्त होने के बाद सरकार बहुराष्ट्रीय कीटनाशक और बीज कंपनियों को उनके स्थानीय एजेंटों को सब कुछ समझाने की ज़िम्मेदारी उठाने की अनुमति दी जो कि बीज, उर्वरक और कीटनाशकों का कारोबार करते हैं।

कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश जो वर्षों से अर्थव्यवस्था को संचालित करता है काफी कम हो गया है। सरकार ने वर्ष 1960-65 में कृषि पर कुल योजना राशि का 12-16% खर्च किया गया लेकिन हमारे देश ने 2007 में 11 वीं योजना के लिए प्रगति की तो कृषि पर खर्च कम होकर सिर्फ 3.7% रह गया।

पैदावार बढ़ाने के लिए सिंचाई महत्वपूर्ण है। खाद्य तथा कृषि संगठन (एफएओ) का कहना है कि सिंचाई 100 से 400% तक फसलों की पैदावार बढ़ाती है। लेकिन भारत में 140.8 मिलियन हेक्टेयर बोए गए क्षेत्र का लगभग 78 मिलियन हेक्टेयर है जो कि कुल बोया क्षेत्र का 64% है, वर्षा से सिंचित है। यह दुखद स्थिति सरकार द्वारा सिंचाई क्षेत्र की उपेक्षा के कारण है। कृषि मंत्रालय की रिपोर्ट (स्टेट ऑफ इंडियन एग्रिकल्चर) मानती है कि वर्ष 1990 के बाद से सरकार ने फंड को कम करके सिंचाई की उपेक्षा की।

कृषि के प्रति सरकार अपनी वर्तमान नीति में परिवर्तन करके कृषि क्षेत्र को एक लाभदायक और टिकाऊ क्षेत्र बनाया जा सकता है। सबसे पहले, भूमि सुधारों को भूमि सीलिंग कानूनों के सख़्त अनुपालन सुनिश्चित करने और भूमिहीनों के बीच अतिरिक्त भूमि का पुनर्वितरण सुनिश्चित करके लागू किया जाना चाहिए। पट्टेदारों को उनके पंजीकरण और कार्यकाल की सुरक्षा प्रदान करने से संरक्षित किया जाना चाहिए। सरकार की वसूली न्यूनतम समर्थन कीमतों के साथ विभिन्न प्रकार के उत्पाद तक विस्तार किया जाना चाहिए। सरकार को सिंचाई और इमारत के बुनियादी ढांचे के तहत और अधिक भूमि लाने के लिए निवेश करना चाहिए। खेत को बाजारों से जुड़ना चाहिए ताकि खराब होने वाले उत्पाद को जल्दी से पहुँचाया जा सके। किसानों को ऋण सुविधाएँ प्रदान की जानी चाहिए, खासकर छोटे और सीमांत किसानों और एससी/एसटी किसानों पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। कृषि पर एक स्थायी नीति बनाने के दौरान जलवायु परिवर्तन और कृषि पर इसके प्रभाव पर विचार किया जाना चाहिए। इसके लिए कृषि अनुसंधान संस्थानों को अच्छी तरह से वित्त पोषित किया जाना चाहिए और कृषि विस्तार सेवाएँ मजबूत की जानी चाहिए।

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