NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
अंतरराष्ट्रीय
लैटिन अमेरिका
अमेरिका
अर्थव्यवस्था
भारत को अमेरिका के साथ संबंधों को नए सिरे से परिभाषित करने की जरूरत
हमारे लिए इंडो-पैसिफिक का इलाका सामरिक रणनीति नहीं है बल्कि भगौलिक विवरण है। जिसके साथ और सहयोग से चलना हमारी जरूरत है। यह दोनों वक्तव्य यह बतातें हैं कि भारत की राय चीन पर अमेरिका से बिलकुल उल्टी है।
अजय कुमार
27 Jun 2019
Pompeo

"हम यह जानते हैं कि ईरान दुनिया में आतंक फैलाने वाला दुनिया का सबसे बड़ा देश है। और भारत के लोग भी पूरी दुनिया भर में फैले आतंक से परेशान है। इसलिए मैं यह सोचता हूं हमारी साझी समझ यही है कि हमें इससे लड़ना चाहिए।' ये शब्द भारत आए अमेरिकी स्टेट ऑफ सेक्रटरी माइक पोम्पियो के हैं। जिसे उन्होंने दोनों देशों के साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान बोला।

इसके बाद आतंकवाद से जुड़े मसले पर भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने बहुत कुछ कहा  लेकिन खासकर माइक पोम्पियों के इस बयान पर कुछ नहीं किया। कूटनीतिक बोलचाल की भाषा में इसका चाहे जो भी अर्थ निकला जाए लेकिन एक आधारभूत अर्थ तो यह निकलता है कि अमेरिका ईरान को लेकर अपने कड़े रुख पर कायम है। किसी भी देश के साथ अपने संबंध  तय करते समय इसमें बदलाव नहीं करना चाहता।

अमेरिका का सेक्रेटरी ऑफ स्टेट अमेरिका की विदेश नीतियां तय करता है। सेक्रेटरी ऑफ स्टेट विदेशी मसलों पर अमेरिका के राष्ट्रपति का मुख्य सलाहकार होता है। मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल का यह पहला अवसर है,जब अमेरिका का एक स्टेट अधिकारी भारत आए हैं। जून 28-29 को जापान के ओसाका में G-20 देशों की बैठक होगी। इस बैठक में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प से प्रधानमंत्री मोदी की मुलाकात भी होगी। जानकारों का कहना है कि इस मुलाकात की रुपरेखा तैयार करने के लिए माइक पोम्पियो यहां आएं है।  

इसके अलावा दोनों देशों के बीच हुए कूटनीतिक बातचीत का सिलसिला ऐसा है कि आर्थिक मोर्चे पर विदेश मंत्री एस जयंशंकर ने कहा अगर आप किसी से व्यापार करते हैं और अगर व्यापार करने वाला सबसे बड़ा ट्रेडिंग पार्टनर है तो यह असंभव है कि कुछ व्यापारिक मसले न उभरे। मैं सोचता हूं कि परिपक्वव रिश्ता वाले माहौल में इन मसलों से निपटने की योग्यता होती है। इसी विषय पर माइक पोम्पियो का कहना था कि आर्थिक मसलों पर जुड़े हम अपने मतभेदों को दोस्ती की भावना से सुलझा लेंगे। कहने का मतलब है कि आर्थिक मसलों पर चल रहे विवाद पर स्पष्ट बातचीत नहीं हुई। बातचीत के दौरान टैरिफ और काउंटर टैरिफ जैसे विवादों से अलग रहा गया।  

जहां तक एस-400 मिसाइल सिस्टम सौदे और अन्य रक्षा सौदों की बात है तो इस पर भारत ने स्पष्ट कहा कि हम वही करेंगे, जो राष्ट्र के हित में होगा। इस दौरान जयशंकर से पूछा गया कि क्या अमेरिका के काट्सा कानून का असर भारत के रूस के साथ एस-400 सौदे पर भी पड़ेगा।

जयशंकर ने कहा- हमारे कई देशों के साथ रिश्ते हैं। हमारी कई साझेदारियां हैं और उनका इतिहास है। हम वही करेंगे जो हमारे देश के हित में होगा। इसका एक हिस्सा हर देश की स्ट्रैटजिक पार्टनरशिप भी है, जिसके तहत दूसरे देशों के हितों को भी समझना और सराहा जाना चाहिए। 

इस बयान में यह साफ़ है कि भारत ने अंतरराष्ट्रीय सम्बन्ध के अपने आधारभूत सिद्धांत को स्वीकार किया है कि भारत अपने देश के हित को ध्यान में रखकर ही काम करेगा।

इस पूरी बातचीत के संदर्भ में भारत-अमेरिका के सम्बन्ध में किस तरह से चल रहा है, उसे भी समझने की जरूरत है। 

अमेरिका और भारत के संबंध या किसी भी दो देशों के अंतरराष्ट्रीय संबंध में पूरी दुनिया के समीकरण तो भूमिका निभाते ही हैं लेकिन कुछ पक्षकार ऐसे होते हैं, जिनकी भूमिका अधिक होती है। यहां भी भारत-अमेरिका संबधों को तय करने में रूस और चीन के साथ हिन्द-प्रशांत महासागरीय देशों की भूमिका अधिक होती है। 

इस समय अमेरिका और भारत का संबंध बहुत बदला हुआ है। वैसा नहीं है जैसा मीडिया की आम बहसों में सुनते हैं। डिफेन्स के मामलें को छोड़ दिया जाए तो भारत-अमेरिका संबंध मोदी के पहले कार्यकाल में आधे दौर के बाद बहुत अच्छे नहीं रहे हैं। 

डिफेन्स के अलावा दूसरे मामलों पर बात करने से पहले थोड़ा सा डिफेन्स से जुड़े मामलों को समझ लेते हैं। आज के समय में भारत, अमेरिका से सबसे अधिक डिफेन्स की खरीददारी करता है।  

शीत युद्ध के समय भारत सोवियत रूस पर निर्भर हुआ करता था। साल 2007 के बाद दोनों देशों के बीच डिफेन्स के क्षेत्र में तकरीबन 15 बिलियन डॉलर का करार हो चुका है। जिसमें तकनीकी तौर पर बहुत अधिक उन्नत हथियारों के साथ एयरक्राफ्ट कैरियर तक शामिल हैं। इसमें टेक्नोलॉजिकल ट्रांसफर भी शामिल है। यह भी शामिल है कि अमेरिका किसी भी समय भारत के मिल्ट्री लॉजिस्टिक्स जैसे कि बंदरगाह, नौसैनिक स्थलों  को अपने  डिफेन्स उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल कर सकता है। 

इस तरह से भारत और अमेरिका के बीच बढ़ता हुआ डिफेंस का व्यापार तो है ही साथ में राणनीतिक उद्देश्य भी हैं। रणनीतिक उद्देश्य यह कि अमेरिका चीन की चुनौती को भारत के साथ सकारात्मक सम्बन्ध बनाकर कम कर सकता है। 

अमेरिका का रूस और चीन जैसों देशों के साथ कमजोर सम्बन्ध है। एशिया में अपनी मजबूत साख बनाने की भरपाई वह भारत के साथ अच्छे सम्बन्ध बनाकर कर सकता है।  

भारत के लिहाज से डिफेन्स का करार एक लिहाज से ठीक है तो एक लिहाज से कमजोर भी है।  इस जटिल दुनिया में जहां सभी देश एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं वहां केवल एक देश के साथ बड़ता हुआ डिफेन्स करार एक कमजोर रणनीति का हिस्सा है।

दूसरे शब्दों में ऐसे समझा जाए कि अमेरिका भी पाकिस्तान को सैन्य उपकरण उपलब्ध करवाता है। ऐसा हो सकता है कि अमेरिका चाहे तो पाकिस्तान को डिफेन्स जानकारियां मुहैया करवा दे या युद्ध तो पाकिस्तान और भारत करे लेकिन उस पर नियंत्रण अमेरिका का हो या अमेरिका चाहे तो युद्ध के समय अचानक से सैन्य उपकरण की उपलब्ध्ता बंद करवा दे। 

जहां तक डिफेन्स के अलावा दूसरे मामले हैं वहां पर मोदी सरकार का पहला कार्यकाल और अमेरिका के बीच बहुत अच्छे सम्बन्ध नहीं रहे हैं। इसमें सबसे प्रमुख कारण के तौर पर राष्ट्रपति ट्रम्प ने काम किया है। यह केवल व्यापारिक मसलों से जुड़ा नहीं है। लेकिन सभी तरह के मसलों से जुड़ा है। 

पूर्व राजदूत भद्र कुमार कहते हैं कि मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में अमेरिका का भारत के प्रति नजरिया अनिश्चित रहा है। कब एक छोर से दूसरे छोर पर चला जाता है, यह पता नहीं चलता है। जैसे कि इंडो पैसिफिक संबंधों पर अमेरिका का भारत के प्रति नजरिया बहुत अधिक अनिश्चित है। चीन इसमें मुख्य कारण के तौर पर दिखता है।

ट्रम्प ने भारत और अमेरिका के व्यापार संतुलन को लेकर समय-समय पर भारत की बहुत तीखी आलोचना की है। वह अमेरिकी सामानों के आयातों पर आयात शुल्क कम करें। इसी रुख को अपनाते हुए साल 1974 से चले आ रहे जनरलाइज्ड सिस्टम ऑफ़ प्रिफरेंस का करार खत्म कर लिया। 

इस करार के तहत भारत से निर्यात होने वाले तकरीबन 200 मिलियन डॉलर के व्यापार पर किसी भी तरह का शुल्क या कर या टैरिफ अमेरिकी सरकार नहीं लगाती थी। अब इसे खत्म कर दिया गया है। यानी अब भारत से होने वाले किसी भी तरह के निर्यात पर कर लगना शुरू हो गया है। 

इसकी प्रतिक्रिया में भारत ने भी अमेरिका से आयात होने वाली तकरीबन 28 वस्तुओं पर टैरिफ यानी आयात शुल्क की दर बढ़ा दी है। इस तरह से भारत और अमेरिका के बीच एक किस्म का ट्रेड वार भी जारी है। जानकारों का कहना है कि यह लड़ाई केवल ट्रम्प के तीखे रुख की वजह से हो रही है।  

मोदी सरकार के पहले तीन साल के कार्यकाल में भारत की विदेशी नीति पूरी तरह से अमेरिका की तरफ झुकी हुई दिख रही थी। ऐसा लग रहा था कि भारत अपनी जमीनी भौगोलिक सच्चाई को भूलकर अलग थलग काम कर रहा है। चीन पर ध्यान नहीं दे रहा है। चीन से जुड़े मुद्दों को अनदेखा कर रहा है। जैसे कि दक्षिण चीन सागर के मुद्दे पर अमेरिका के साथ मिलकर जॉइंट स्टेटमेंट जारी करना। जबकि भारत जैसे देश की तरफ अपने भूगोल से बहुत अलग मौजूद दक्षिण चीन सागर के इलाके में किसी तरह के महत्वपूर्ण हस्तक्षेप की जरूरत नहीं पड़ती है। लेकिन भारत ने हस्तक्षेप किया। 

भद्र कुमार कहते हैं कि इस समय अमेरिका और भारत के बीच बहुत तेजी से डिफेन्स करार हो रहा था और भी बहुत कुछ ऐसा हो रहा था जिससे यह लग रहा था कि भारत-अमेरिका की तरफ झुक रहा है। एक बड़े देश होने के नाते अपने पड़ोस में मौजूद बड़ी शक्ति को नकार रहा है। इसलिए दोकलाम के विषय पर सीमा-विवाद को लेकर भारत और चीन के बीच तीखी बहस हुई। स्थिति युद्ध तक पहुंच गयी थी। लेकिन अचानक से यह स्थिति वुहान समिट के दौरान शांत हो गई। वुहान समिट के दौरान प्रधानमंत्री ने चीनी राष्ट्रपति से अनौपचारिक बैठक की थी। 

भद्र कुमार कहते हैं कि सूत्र भी बताते हैं कि इस बातचीत में अमेरिका से किसी भी तरह के इनपुट नहीं लिए गए थे। इस तरह से दोकलाम विवाद के शांत होने के साथ यह भी साफ़ हो रहा था कि राजनयिक सम्बन्ध बनाने में भारत फिर से अपने आधारभूत तत्व 'बिना किसी दबाव में अपने हितों को देखते हुए स्वायत्त होकर राजनयिक संबंध' बनाने की तरफ लौट रहा है।

यह स्थिति भारत के लिए तो ठीक थी लेकिन अमेरिका की सामरिक रणनीति के लिए ठीक नहीं थी। जहां पर वह चीन की बढ़ती शक्ति को संतुलित करने के लिए भारत का सहारा ले रहा था।  और अभी हाल फिलहाल अमेरिका और चीन के बीच का ट्रेड वॉर हमारे समाने है। 

इसके अलावा अमेरिका और रूस के बीच का संघर्ष जगजाहिर है। रूस अब विश्व की मजबूत शक्ति नहीं रह गया है। फिर भी अमेरिका को सबसे अधिक परेशानी रूस से ही होती है। इसलिए भारत और रूस के बीच पिछले साल हुई एस-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम डील पर अमेरिका ने नाराजगी जताई थी। डोनाल्ड ट्रम्प प्रशासन ने धमकी देते हुए कहा है कि भारत का यह फैसला अमेरिका और भारत के रिश्तों पर गंभीर असर डालेगा। 

अमेरिकी विदेश विभाग के एक अफसर ने कहा था “नई दिल्ली का मॉस्को से रक्षा समझौता करना बड़ी बात है, क्योंकि ‘काट्सा कानून’ के तहत दुश्मनों से समझौता करने वालों पर अमेरिकी प्रतिबंध लागू होते हैं। ट्रम्प प्रशासन पहले ही साफ कर चुका है कि इस कानून के बावजूद समझौता करने वाले देश रूस को गलत संदेश पहुंचा रहे हैं। यह चिंता की बात है।’’ पुतिन और मोदी की नजदीकियां, ट्रम्प और मोदी के दुराव पर भारी पड़ती है। फिर भी भारत को इससे भी बाहर निकलना है। 

अभी हाल में ही 13 जून को अमेरिका की तरफ से साउथ सेंट्रल एशिया के लिए नियुक्त सीनियर ब्यरो ने आधिकारिक मंच पर यह कहा था कि हम चीन को इतनी आजादी नहीं देंगे कि वह इंडो पैसिफिक एरिया में अमेरिका के सहयोगी देशों के हितों को नुकसान पहुंचाएं।  

यह वक्तव्य प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पीछले साल संग्रीला समिट के दौरान सिंगापूर में दिए गए वक्तव्य बिलकुल अलग है, जहां पर वह यह कहते हैं कि भारत को अमेरिका के साथ संबंधों को नए सिरे से परिभाषित करने की जरूरत है।

हम यह जानते हैं कि ईरान दुनिया में आतंक फैलाने वाला दुनिया का सबसे बड़ा देश है। और भारत के लोग भी पूरी दुनिया भर में फैले आतंक से परेशान है। इसलिए मैं यह सोचता हूं हमारी साझी समझ यही है कि हमें इससे लड़ना चाहिए।' ये शब्द भारत आए अमेरिकी स्टेट ऑफ सेक्रटरी माइक पोम्पियो के हैं। जिसे उन्होंने दोनों देशों के साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान बोला।

इसके बाद आतंकवाद से जुड़े मसले पर भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने बहुत कुछ कहा  लेकिन खासकर माइक पोम्पियों के इस बयान पर कुछ नहीं किया। कूटनीतिक बोलचाल की भाषा में इसका चाहे जो भी अर्थ निकला जाए लेकिन एक आधारभूत अर्थ तो यह निकलता है कि अमेरिका ईरान को लेकर अपने कड़े रुख पर कायम है। किसी भी देश के साथ अपने संबंध  तय करते समय इसमें बदलाव नहीं करना चाहता।

अमेरिका का सेक्रेटरी ऑफ स्टेट अमेरिका की विदेश नीतियां तय करता है। सेक्रेटरी ऑफ स्टेट विदेशी मसलों पर अमेरिका के राष्ट्रपति का मुख्य सलाहकार होता है। मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल का यह पहला अवसर है,जब अमेरिका का एक स्टेट अधिकारी भारत आए हैं। जून 28-29 को जापान के ओसाका में G-20 देशों की बैठक होगी। इस बैठक में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प से प्रधानमंत्री मोदी की मुलाकात भी होगी। जानकारों का कहना है कि इस मुलाकात की रुपरेखा तैयार करने के लिए माइक पोम्पियो यहां आएं है।  

इसके अलावा दोनों देशों के बीच हुए कूटनीतिक बातचीत का सिलसिला ऐसा है कि आर्थिक मोर्चे पर विदेश मंत्री एस जयंशंकर ने कहा अगर आप किसी से व्यापार करते हैं और अगर व्यापार करने वाला सबसे बड़ा ट्रेडिंग पार्टनर है तो यह असंभव है कि कुछ व्यापारिक मसले न उभरे। मैं सोचता हूं कि परिपक्वव रिश्ता वाले माहौल में इन मसलों से निपटने की योग्यता होती है। इसी विषय पर माइक पोम्पियो का कहना था कि आर्थिक मसलों पर जुड़े हम अपने मतभेदों को दोस्ती की भावना से सुलझा लेंगे। कहने का मतलब है कि आर्थिक मसलों पर चल रहे विवाद पर स्पष्ट बातचीत नहीं हुई। बातचीत के दौरान टैरिफ और काउंटर टैरिफ जैसे विवादों से अलग रहा गया।  

जहां तक एस-400 मिसाइल सिस्टम सौदे और अन्य रक्षा सौदों की बात है तो इस पर भारत ने स्पष्ट कहा कि हम वही करेंगे, जो राष्ट्र के हित में होगा। इस दौरान जयशंकर से पूछा गया कि क्या अमेरिका के काट्सा कानून का असर भारत के रूस के साथ एस-400 सौदे पर भी पड़ेगा।

जयशंकर ने कहा- हमारे कई देशों के साथ रिश्ते हैं। हमारी कई साझेदारियां हैं और उनका इतिहास है। हम वही करेंगे जो हमारे देश के हित में होगा। इसका एक हिस्सा हर देश की स्ट्रैटजिक पार्टनरशिप भी है, जिसके तहत दूसरे देशों के हितों को भी समझना और सराहा जाना चाहिए। 

इस बयान में यह साफ़ है कि भारत ने अंतरराष्ट्रीय सम्बन्ध के अपने आधारभूत सिद्धांत को स्वीकार किया है कि भारत अपने देश के हित को ध्यान में रखकर ही काम करेगा।

इस पूरी बातचीत के संदर्भ में भारत-अमेरिका के सम्बन्ध में किस तरह से चल रहा है, उसे भी समझने की जरूरत है। 

अमेरिका और भारत के संबंध या किसी भी दो देशों के अंतरराष्ट्रीय संबंध में पूरी दुनिया के समीकरण तो भूमिका निभाते ही हैं लेकिन कुछ पक्षकार ऐसे होते हैं, जिनकी भूमिका अधिक होती है। यहां भी भारत-अमेरिका संबधों को तय करने में रूस और चीन के साथ हिन्द-प्रशांत महासागरीय देशों की भूमिका अधिक होती है। 

इस समय अमेरिका और भारत का संबंध बहुत बदला हुआ है। वैसा नहीं है जैसा मीडिया की आम बहसों में सुनते हैं। डिफेन्स के मामलें को छोड़ दिया जाए तो भारत-अमेरिका संबंध मोदी के पहले कार्यकाल में आधे दौर के बाद बहुत अच्छे नहीं रहे हैं। 

डिफेन्स के अलावा दूसरे मामलों पर बात करने से पहले थोड़ा सा डिफेन्स से जुड़े मामलों को समझ लेते हैं। आज के समय में भारत, अमेरिका से सबसे अधिक डिफेन्स की खरीददारी करता है।  

शीत युद्ध के समय भारत सोवियत रूस पर निर्भर हुआ करता था। साल 2007 के बाद दोनों देशों के बीच डिफेन्स के क्षेत्र में तकरीबन 15 बिलियन डॉलर का करार हो चुका है। जिसमें तकनीकी तौर पर बहुत अधिक उन्नत हथियारों के साथ एयरक्राफ्ट कैरियर तक शामिल हैं। इसमें टेक्नोलॉजिकल ट्रांसफर भी शामिल है। यह भी शामिल है कि अमेरिका किसी भी समय भारत के मिल्ट्री लॉजिस्टिक्स जैसे कि बंदरगाह, नौसैनिक स्थलों  को अपने  डिफेन्स उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल कर सकता है। 

इस तरह से भारत और अमेरिका के बीच बढ़ता हुआ डिफेंस का व्यापार तो है ही साथ में राणनीतिक उद्देश्य भी हैं। रणनीतिक उद्देश्य यह कि अमेरिका चीन की चुनौती को भारत के साथ सकारात्मक सम्बन्ध बनाकर कम कर सकता है। 

अमेरिका का रूस और चीन जैसों देशों के साथ कमजोर सम्बन्ध है। एशिया में अपनी मजबूत साख बनाने की भरपाई वह भारत के साथ अच्छे सम्बन्ध बनाकर कर सकता है।  

भारत के लिहाज से डिफेन्स का करार एक लिहाज से ठीक है तो एक लिहाज से कमजोर भी है।  इस जटिल दुनिया में जहां सभी देश एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं वहां केवल एक देश के साथ बड़ता हुआ डिफेन्स करार एक कमजोर रणनीति का हिस्सा है।

दूसरे शब्दों में ऐसे समझा जाए कि अमेरिका भी पाकिस्तान को सैन्य उपकरण उपलब्ध करवाता है। ऐसा हो सकता है कि अमेरिका चाहे तो पाकिस्तान को डिफेन्स जानकारियां मुहैया करवा दे या युद्ध तो पाकिस्तान और भारत करे लेकिन उस पर नियंत्रण अमेरिका का हो या अमेरिका चाहे तो युद्ध के समय अचानक से सैन्य उपकरण की उपलब्ध्ता बंद करवा दे। 

जहां तक डिफेन्स के अलावा दूसरे मामले हैं वहां पर मोदी सरकार का पहला कार्यकाल और अमेरिका के बीच बहुत अच्छे सम्बन्ध नहीं रहे हैं। इसमें सबसे प्रमुख कारण के तौर पर राष्ट्रपति ट्रम्प ने काम किया है। यह केवल व्यापारिक मसलों से जुड़ा नहीं है। लेकिन सभी तरह के मसलों से जुड़ा है। 

पूर्व राजदूत भद्र कुमार कहते हैं कि मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में अमेरिका का भारत के प्रति नजरिया अनिश्चित रहा है। कब एक छोर से दूसरे छोर पर चला जाता है, यह पता नहीं चलता है। जैसे कि इंडो पैसिफिक संबंधों पर अमेरिका का भारत के प्रति नजरिया बहुत अधिक अनिश्चित है। चीन इसमें मुख्य कारण के तौर पर दिखता है।

ट्रम्प ने भारत और अमेरिका के व्यापार संतुलन को लेकर समय-समय पर भारत की बहुत तीखी आलोचना की है। वह अमेरिकी सामानों के आयातों पर आयात शुल्क कम करें। इसी रुख को अपनाते हुए साल 1974 से चले आ रहे जनरलाइज्ड सिस्टम ऑफ़ प्रिफरेंस का करार खत्म कर लिया। 

इस करार के तहत भारत से निर्यात होने वाले तकरीबन 200 मिलियन डॉलर के व्यापार पर किसी भी तरह का शुल्क या कर या टैरिफ अमेरिकी सरकार नहीं लगाती थी। अब इसे खत्म कर दिया गया है। यानी अब भारत से होने वाले किसी भी तरह के निर्यात पर कर लगना शुरू हो गया है। 

इसकी प्रतिक्रिया में भारत ने भी अमेरिका से आयात होने वाली तकरीबन 28 वस्तुओं पर टैरिफ यानी आयात शुल्क की दर बढ़ा दी है। इस तरह से भारत और अमेरिका के बीच एक किस्म का ट्रेड वार भी जारी है। जानकारों का कहना है कि यह लड़ाई केवल ट्रम्प के तीखे रुख की वजह से हो रही है।  

मोदी सरकार के पहले तीन साल के कार्यकाल में भारत की विदेशी नीति पूरी तरह से अमेरिका की तरफ झुकी हुई दिख रही थी। ऐसा लग रहा था कि भारत अपनी जमीनी भौगोलिक सच्चाई को भूलकर अलग थलग काम कर रहा है। चीन पर ध्यान नहीं दे रहा है। चीन से जुड़े मुद्दों को अनदेखा कर रहा है। जैसे कि दक्षिण चीन सागर के मुद्दे पर अमेरिका के साथ मिलकर जॉइंट स्टेटमेंट जारी करना। जबकि भारत जैसे देश की तरफ अपने भूगोल से बहुत अलग मौजूद दक्षिण चीन सागर के इलाके में किसी तरह के महत्वपूर्ण हस्तक्षेप की जरूरत नहीं पड़ती है। लेकिन भारत ने हस्तक्षेप किया। 

भद्र कुमार कहते हैं कि इस समय अमेरिका और भारत के बीच बहुत तेजी से डिफेन्स करार हो रहा था और भी बहुत कुछ ऐसा हो रहा था जिससे यह लग रहा था कि भारत-अमेरिका की तरफ झुक रहा है। एक बड़े देश होने के नाते अपने पड़ोस में मौजूद बड़ी शक्ति को नकार रहा है। इसलिए दोकलाम के विषय पर सीमा-विवाद को लेकर भारत और चीन के बीच तीखी बहस हुई। स्थिति युद्ध तक पहुंच गयी थी। लेकिन अचानक से यह स्थिति वुहान समिट के दौरान शांत हो गई। वुहान समिट के दौरान प्रधानमंत्री ने चीनी राष्ट्रपति से अनौपचारिक बैठक की थी। 

भद्र कुमार कहते हैं कि सूत्र भी बताते हैं कि इस बातचीत में अमेरिका से किसी भी तरह के इनपुट नहीं लिए गए थे। इस तरह से दोकलाम विवाद के शांत होने के साथ यह भी साफ़ हो रहा था कि राजनयिक सम्बन्ध बनाने में भारत फिर से अपने आधारभूत तत्व 'बिना किसी दबाव में अपने हितों को देखते हुए स्वायत्त होकर राजनयिक संबंध' बनाने की तरफ लौट रहा है।

यह स्थिति भारत के लिए तो ठीक थी लेकिन अमेरिका की सामरिक रणनीति के लिए ठीक नहीं थी। जहां पर वह चीन की बढ़ती शक्ति को संतुलित करने के लिए भारत का सहारा ले रहा था।  और अभी हाल फिलहाल अमेरिका और चीन के बीच का ट्रेड वॉर हमारे समाने है। 

इसके अलावा अमेरिका और रूस के बीच का संघर्ष जगजाहिर है। रूस अब विश्व की मजबूत शक्ति नहीं रह गया है। फिर भी अमेरिका को सबसे अधिक परेशानी रूस से ही होती है। इसलिए भारत और रूस के बीच पिछले साल हुई एस-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम डील पर अमेरिका ने नाराजगी जताई थी। डोनाल्ड ट्रम्प प्रशासन ने धमकी देते हुए कहा है कि भारत का यह फैसला अमेरिका और भारत के रिश्तों पर गंभीर असर डालेगा। 

अमेरिकी विदेश विभाग के एक अफसर ने कहा था “नई दिल्ली का मॉस्को से रक्षा समझौता करना बड़ी बात है, क्योंकि ‘काट्सा कानून’ के तहत दुश्मनों से समझौता करने वालों पर अमेरिकी प्रतिबंध लागू होते हैं। ट्रम्प प्रशासन पहले ही साफ कर चुका है कि इस कानून के बावजूद समझौता करने वाले देश रूस को गलत संदेश पहुंचा रहे हैं। यह चिंता की बात है।’’ पुतिन और मोदी की नजदीकियां, ट्रम्प और मोदी के दुराव पर भारी पड़ती है। फिर भी भारत को इससे भी बाहर निकलना है। 

अभी हाल में ही 13 जून को अमेरिका की तरफ से साउथ सेंट्रल एशिया के लिए नियुक्त सीनियर ब्यरो ने आधिकारिक मंच पर यह कहा था कि हम चीन को इतनी आजादी नहीं देंगे कि वह इंडो पैसिफिक एरिया में अमेरिका के सहयोगी देशों के हितों को नुकसान पहुंचाएं।  

यह वक्तव्य प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पीछले साल संग्रीला समिट के दौरान सिंगापूर में दिए गए वक्तव्य बिलकुल अलग है,जहां पर वह यह कहते हैं कि हमारे लिए इंडो-पैसिफिक का इलाका सामरिक रणनीति नहीं है बल्कि भगौलिक विवरण है। जिसके साथ और सहयोग से चलना हमारी जरूरत है। यह दोनों वक्तव्य यह बतातें हैं कि भारत की राय चीन पर अमेरिका से बिलकुल उल्टी है।  

इस तरह से माइक पोम्पियो का आना अमेरिका की रणनीति का हिस्सा है तो भारत की रणनीति में अमेरिका से लेकर चीन और रूस तक को अपने साथ रखना है। इसके साथ भारत फिर से अपने पुराने सामरिक रणनीतियों की तरफ जा रहा है। जहां पर अमेरिका की तरफ अधिक झुकाव से अधिक जरूरत इस बात कि है कि भारत एशिया में मौजूद अपने सहयोगियों की तरफ अधिक झुकाव रखे।

S Jaishankar
Mike Pompeo
Mike Pompeo India Visit
Narendra modi
Ministry of External Affairs
tarrifs
america sanction to iran

Related Stories

तिरछी नज़र: सरकार जी के आठ वर्ष

कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित

ग्राउंड रिपोर्टः पीएम मोदी का ‘क्योटो’, जहां कब्रिस्तान में सिसक रहीं कई फटेहाल ज़िंदगियां

भारत के निर्यात प्रतिबंध को लेकर चल रही राजनीति

गैर-लोकतांत्रिक शिक्षानीति का बढ़ता विरोध: कर्नाटक के बुद्धिजीवियों ने रास्ता दिखाया

बॉलीवुड को हथियार की तरह इस्तेमाल कर रही है बीजेपी !

PM की इतनी बेअदबी क्यों कर रहे हैं CM? आख़िर कौन है ज़िम्मेदार?

छात्र संसद: "नई शिक्षा नीति आधुनिक युग में एकलव्य बनाने वाला दस्तावेज़"

भाजपा के लिए सिर्फ़ वोट बैंक है मुसलमान?... संसद भेजने से करती है परहेज़

हिमाचल में हाती समूह को आदिवासी समूह घोषित करने की तैयारी, क्या हैं इसके नुक़सान? 


बाकी खबरें

  • blast
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    हापुड़ अग्निकांड: कम से कम 13 लोगों की मौत, किसान-मजदूर संघ ने किया प्रदर्शन
    05 Jun 2022
    हापुड़ में एक ब्लायलर फैक्ट्री में ब्लास्ट के कारण करीब 13 मज़दूरों की मौत हो गई, जिसके बाद से लगातार किसान और मज़दूर संघ ग़ैर कानूनी फैक्ट्रियों को बंद कराने के लिए सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रही…
  • Adhar
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: आधार पर अब खुली सरकार की नींद
    05 Jun 2022
    हर हफ़्ते की तरह इस सप्ताह की जरूरी ख़बरों को लेकर फिर हाज़िर हैं लेखक अनिल जैन
  • डॉ. द्रोण कुमार शर्मा
    तिरछी नज़र: सरकार जी के आठ वर्ष
    05 Jun 2022
    हमारे वर्तमान सरकार जी पिछले आठ वर्षों से हमारे सरकार जी हैं। ऐसा नहीं है कि सरकार जी भविष्य में सिर्फ अपने पहनावे और खान-पान को लेकर ही जाने जाएंगे। वे तो अपने कथनों (quotes) के लिए भी याद किए…
  • न्यूज़क्लिक डेस्क
    इतवार की कविता : एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' का तर्जुमा
    05 Jun 2022
    इतवार की कविता में आज पढ़िये ऑस्ट्रेलियाई कवयित्री एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' जिसका हिंदी तर्जुमा किया है योगेंद्र दत्त त्यागी ने।
  • राजेंद्र शर्मा
    कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित
    04 Jun 2022
    देशभक्तों ने कहां सोचा था कि कश्मीरी पंडित इतने स्वार्थी हो जाएंगे। मोदी जी के डाइरेक्ट राज में भी कश्मीर में असुरक्षा का शोर मचाएंगे।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License