NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
भारतीय राजनीति में मोदी स्वयं में एक विपत्ति की तरह है
फासिस्टों, नाजियों से लेकर तालिबानियों और आइसिस के कारनामों तक में, जिनके पास समाजवाद की तरह का आम लोगों के उत्थान का कोई विकल्प भी नहीं था, आम गरीब लोगों ने ही बंदूकें उठा कर हिस्सा लिया है...
अरुण माहेश्वरी
20 Dec 2017
modi

हिमाचल प्रदेश और गुजरात, दोनों में नया कुछ नहीं हुआ। दोनों ने अपनी परंपराओं का निर्वाह किया। हिमाचल प्रदेश ने हर पांच साल में शासक दल को बदलने की और गुजरात में बीस साल से एक ही दल भाजपा को सत्ता पर लाने की परंपरा का।

फिर भी यह सच है कि गुजरात के चुनाव पर सबकी खास नजर थी। 2019 के आम चुनाव में क्या होगा, इसके संकेतों को पढ़ने के लिये ही गुजरात चुनाव पर सब नजर गड़ाये हुए थे। मोदी के साढ़े तीन साल के शासन के अनुभवों से हर कोई उनके प्रभाव में एक गिरावट का अनुभव करता है। नोटबंदी और जीएसटी की तरह के उनके अस्थिरताकारी कदमों, आर्थिक क्षेत्र में लगातार गिरावट और रोजगार के मामलों में पैदा हुए भारी गतिरोध में फंसे लोग कितनी दूर तक मोदी का साथ दे पायेंगे, यह किसी भी समाजशास्त्री और राजनीति के जानकार लोगों की एक सहज जिज्ञासा का विषय है। और इस जिज्ञासा की वजह से ही सभी अपनी-अपनी तरह से मोदी-केंद्रित राजनीति के व्याख्या कर रहे हैं। जो मोदी भक्त हैं, वे तो इस प्रकार के किसी सवाल से ही परहेज करते हैं और मोदी को एक स्वयंसिद्ध अनिवार्यता मान कर चलने पर बल देते हैं। लेकिन जो मोदी के खिलाफ हैं, वे निश्चित तौर पर इस प्रकार के तमाम सवालों से भारतीय राजनीति में मोदी तत्व को समझते हुए उसे खोलने की कोशिश कर रहे हैं।

इसमें कोई शक नहीं है कि भारतीय राजनीति में मोदी स्वयं में एक विपत्ति की तरह है जिसे यूरोपीय संदर्भों में सबसे नग्न रूप में फासीवाद और नाजीवाद के रूप में देखा गया है, एशियाई, अफ्रीकी संदर्भों में धार्मिक तत्ववाद के रूप में, तालिबान, लश्करे तय्यबा और आइसिस के रूप में देखा गया। किसी भी प्राकृतिक विपत्ति की तरह ही इस प्रकार की राजनीतिक विपत्ति का भी हमेशा एक ऐसा समताकारी प्रभाव होता है जिससे गरीब अमीर सभी समान रूप से प्रभावित होते हैं और इसी एक वजह से उसके प्रति समाज के कमजोर और पीड़ित तबकों का एक स्वाभाविक आकर्षण और समर्थन भी होता है। एक स्थिर और अनड़ जीवन कमजोर तबकों के लिये कहीं ज्यादा तकलीफदेह और असहनीय हुआ करता है। फासिस्टों, नाजियों से लेकर तालिबानियों और आइसिस के कारनामों तक में, जिनके पास समाजवाद की तरह का आम लोगों के उत्थान का कोई विकल्प भी नहीं था, आम गरीब लोगों ने ही बंदूकें उठा कर हिस्सा लिया है। भारत में मोदी के नोटबंदी के तुगलकी कदम से जो तूफान आया था तब अरबों लोग सड़कों पर उतर कर बैंकों के सामने कतारों में खड़े होने के लिये मजबूर हो गये। आम लोगों ने अपने जीवन में पैदा कर दी गई इस विपत्ति को सिर्फ इसलिये खुशी-खुशी स्वीकार लिया क्योंकि वह दूसरे तमाम लोगों के दुख में अपने लिये संतोष की जगह देख रहा था। अन्यों को देख कर ही तो आदमी खुद की कामनाओं को तय किया करता है !

मोदी गुजरात के चुनाव और उसके पहले हुए उत्तर प्रदेश के चुनावों को दिखा कर कहते हैं कि भारत आज उनके कथित सुधार (reform) और बदलाव (transform) के लिये तैयार है ! उत्तर प्रदेश और गुजरात के पूरे चुनावों के दौरान मोदी ने जहां विकास शब्द का नामोच्चार तक करने से परहेज किया, अब कहते हैं — 'विकासवाद की जीत हुई है' ! नोटबंदी और जीएसटी तो ऐसी चीजें हैं जिनका मोदी किसी भी जन-प्रचार के दौरान भूल कर भी उल्लेख नहीं करते हैं, लेकिन चुनाव जीतने के बाद उसके परिणामों को इन्हीं चीजों के अनुमोदन की तरह पेश करते हैं !

आम लोगों के मनोविज्ञान के साथ मोदी का यह जो विचित्र सा खेल है, आज जरूरी है कि इसकी तह में जाकर इसे खोला जाए। मोदी यह तो जान गए हैं कि आम लोग किसी भी प्रकार की सामान्य विपदा से, वह भले प्राकृतिक हो या आदमी की पैदा की हुई, रोजमर्रा के जीवन की परेशानियों में हमेशा फंसे रहने और अनिश्चय से भरा जीवन जीने के लिये मजबूरीवश कभी भी बहुत ज्यादा परेशान नहीं होता है। बल्कि विपत्ति के उन क्षणों में ही वह अपने को दूसरे सभी लोगों के समकक्ष पाकर कुछ संतुष्ट ही होता है। लेकिन अभी तक मोदी को यह जानना बाकी है कि जब बार-बार ऐसी विपत्तियों को बुला कर, सभी लोगों को सड़कों पर लाकर बाद में मुट्ठी भर लोगों को लाभ पहुंचाने के अलावा आम लोगों के हासिल के नाम पर और ज्यादा दुख-कष्ट के कुछ नहीं होता, तब अंतत: लोगों में शासन की निष्ठुरता और तुगलकीपन के विरूद्ध विद्रोह की चेतना भी पैदा होने लगती है। आम लोगों की चेतना में ठगे जाने का यह अहसास धीरे-धीरे अपनी जगह बनाता है, लेकिन बनाता जरूर है।

नोटबंदी, जीएसटी, रोजगारों में कमी और आर्थिक गतिरोध से जुड़ी वास्तविकता की इसी पृष्ठभूमि में अभी भारत के हर चुनाव में यह देखने को रह जाता है कि आम लोगों ने कितनी दूर तक मोदी के इस छल-छद्म को पहचाना है और कितनी दूर तक आज भी वे उनके अस्थिरताकारी तेवरों के मोहपाश में फंसे हुए हैं। लोगों में चुनाव के वक्त के राजनीतिक विमर्शों के बीच से ऐसी कोई चेतना पैदा न होने पाए, इसीलिये हर बार मोदी ध्रुवीकरण की राजनीति का दामन थामने के लिये मजबूर होते हैं।

लेकिन इस बार के गुजरात के चुनाव परिणामों से यह साफ है कि कृषि अर्थ-व्यवस्था, अनौपचारिक अर्थ-व्यवस्था को मोदी ने जो नुकसान पहुंचाया है, उनके प्रभाव से इन चुनावों को पूरी तरह से बचाया नहीं जा सका है। यद्यपि भाजपा गुजरात में अपने फैलाये सांप्रदायिक विष की बदौलत इस बार जीत गई है, लेकिन इन चुनावों ने उनके तुगलकीपन से प्रभावित तमाम तबकों को अब मैदान में उतार दिया है। इसका असर आने वाले दिनों के दूसरे चुनावों और 2019 के चुनाव पर भी काफी पड़ेगा। बस जरूरत इस बात की है कि विपक्ष की ताकतें गुजरात के चुनाव से सही शिक्षा लेते हुए अपनी आगे की रणनीति तय करें।

विपक्ष को न सिर्फ आर्थिक मुद्दों पर ही, बल्कि अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दों पर भी मोदी का एक प्रति-आख्यान पेश करते हुए दृढ़ता के साथ धर्म-निरपेक्षता की भारत की परंपरगत नीति पर टिके रहना चाहिए और विपक्ष की ताकतों के सबसे बड़े संयुक्त मोर्चे के निर्माण की दिशा में काम करना चाहिए। किसी भी भ्रमवश यह नहीं भूलना चाहिए कि मोदी और आरएसएस-भाजपा 21वीं सदी के फासिस्टों के अलावा और कुछ नहीं है, जैसे तालिबानी और आइसिस वाले हैं। भले आज वे पूरी तरह से उनके जैसा आचरण न कर रहे हो, राजसमंद की घटना भले ही एक अकेली, अलग-थलग घटना क्यों न हो, लेकिन वह घटना इन ताकतों के तल तक को एक कौंध के साथ प्रकाशित कर देने के लिये काफी है। वे जो आज दिखाई देते हैं और वे जो तत्वत: हैं, इन दोनों के बारे में सही समझ के मेल से ही इनसे संघर्ष का कोई सही रास्ता तैयार किया जा सकता है।      

Courtesy: हस्तक्षेप
Modi
gujrat election 2017
Fascism
Nazism
BJP

Related Stories

भाजपा के इस्लामोफ़ोबिया ने भारत को कहां पहुंचा दिया?

कश्मीर में हिंसा का दौर: कुछ ज़रूरी सवाल

सम्राट पृथ्वीराज: संघ द्वारा इतिहास के साथ खिलवाड़ की एक और कोशिश

हैदराबाद : मर्सिडीज़ गैंगरेप को क्या राजनीतिक कारणों से दबाया जा रहा है?

ग्राउंड रिपोर्टः पीएम मोदी का ‘क्योटो’, जहां कब्रिस्तान में सिसक रहीं कई फटेहाल ज़िंदगियां

धारा 370 को हटाना : केंद्र की रणनीति हर बार उल्टी पड़ती रहती है

मोहन भागवत का बयान, कश्मीर में जारी हमले और आर्यन खान को क्लीनचिट

मंडल राजनीति का तीसरा अवतार जाति आधारित गणना, कमंडल की राजनीति पर लग सकती है लगाम 

बॉलीवुड को हथियार की तरह इस्तेमाल कर रही है बीजेपी !

गुजरात: भाजपा के हुए हार्दिक पटेल… पाटीदार किसके होंगे?


बाकी खबरें

  • hisab kitab
    न्यूज़क्लिक टीम
    महामारी के दौर में बंपर कमाई करती रहीं फार्मा, ऑयल और टेक्नोलोजी की कंपनियां
    26 May 2022
    वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम की वार्षिक बैठक में ऑक्सफैम इंटरनेशनल ने " प्रोफिटिंग फ्रॉम पेन" नाम से रिपोर्ट पेश की। इस रिपोर्ट में उन ब्यौरे का जिक्र है जो यह बताता है कि कोरोना महामारी के दौरान जब लोग दर्द…
  • bhasha singh
    न्यूज़क्लिक टीम
    हैदराबाद फर्जी एनकाउंटर, यौन हिंसा की आड़ में पुलिसिया बर्बरता पर रोक लगे
    26 May 2022
    ख़ास बातचीत में वरिष्ठ पत्रकार भाषा सिंह ने बातचीत की वरिष्ठ अधिवक्ता वृंदा ग्रोवर से, जिन्होंने 2019 में हैदराबाद में बलात्कार-हत्या के केस में किये फ़र्ज़ी एनकाउंटर पर अदालतों का दरवाज़ा खटखटाया।…
  • अनिल अंशुमन
    बिहार : नीतीश सरकार के ‘बुलडोज़र राज’ के खिलाफ गरीबों ने खोला मोर्चा!   
    26 May 2022
    बुलडोज़र राज के खिलाफ भाकपा माले द्वारा शुरू किये गए गरीबों के जन अभियान के तहत सभी मुहल्लों के गरीबों को एकजुट करने के लिए ‘घर बचाओ शहरी गरीब सम्मलेन’ संगठित किया जा रहा है।
  • नीलांजन मुखोपाध्याय
    भाजपा के क्षेत्रीय भाषाओं का सम्मान करने का मोदी का दावा फेस वैल्यू पर नहीं लिया जा सकता
    26 May 2022
    भगवा कुनबा गैर-हिंदी भाषी राज्यों पर हिंदी थोपने का हमेशा से पक्षधर रहा है।
  • सरोजिनी बिष्ट
    UPSI भर्ती: 15-15 लाख में दरोगा बनने की स्कीम का ऐसे हो गया पर्दाफ़ाश
    26 May 2022
    21 अप्रैल से विभिन्न जिलों से आये कई छात्र छात्रायें इको गार्डन में धरने पर बैठे हैं। ये वे छात्र हैं जिन्होंने 21 नवंबर 2021 से 2 दिसंबर 2021 के बीच हुई दरोगा भर्ती परीक्षा में हिस्सा लिया था
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License