NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
क्या शरजील इमाम का बचाव किया जा सकता है?
दक्षिणपंथी हिंदुत्व सबाल्टर्न का प्रतिनिधित्व करता है, लेकिन उसका चरित्र प्रतिगामी है; जबकि दलित-बहुजन राजनीति वाम और दक्षिणपंथ में अंतर करने से इनकार करती है; और वाम-उदारवादी राजनीति ढलान पर है।
अजय गुदावर्ती
05 Feb 2020
Translated by महेश कुमार
शरजील इमाम

हाल ही में शरजील इमाम के ख़िलाफ़ राजद्रोह का केस लगना और इस संबंध में उनकी गिरफ़्तारी क्या मुसलमानों को ग़लत रौशनी में पेश करने और समाज का ध्रुवीकरण करने की भाजपा-आरएसएस गठबंधन की राजनीति के अभियान का हिस्सा है। हालांकि राजद्रोह के आरोप का विरोध करना लाज़मी है, लेकिन यहाँ एक सवाल पर ध्यान दिया जाना चाहिए: कि आख़िर शरजील इमाम की राजनीति क्या दर्शाती है और क्या इसका बचाव किया जाना चाहिए?

असम में विरोध और उस पर इमाम की अतिशयोक्तिपूर्ण टिप्पणी के अलावा, वास्तविक मुद्दा उनके द्वारा अपनी मुस्लिम पहचान को दर्ज करना है। वह राजनीतिक कार्यक्रम में धार्मिक नारे लगाने के मामले  में अडिग हैं और इस बात पर ज़ोर देता है कि अगर आप मुसलमानों के सच्चे शुभचिंतक हैं तो हिंदुओं को उनका समर्थन करना चाहिए। उसने एनआरसी/सीएए के ख़िलाफ़ सार्वजनिक समारोहों में इस्लामिक धार्मिक नारे लगाने पर आपत्ति जताने के लिए शशि थरूर को "इस्लामोफ़ोबिक" कहा था। सीएए का विरोध कर रहे कई मुस्लिम छात्र और कार्यकर्ता इमाम से असहमत हैं, क्योंकि उनका मानना है कि उनकी समझ "दक्षिणपंथी इस्लामवादी" है।

जेएनयू में दलित-बहुजन संगठन बापसा (BAPSA) ने इमाम का समर्थन किया है। यह भारत की चुनावी राजनीति में हाल में हुआ विकास है, जिसमें एआईएमआईएम (AIMIM) और महाराष्ट्र की वंचित बहुजन अगाड़ी  मुसलमानों और "निम्न" जाति के बहुजन को एक साथ लाने के लिए एक स्वतंत्र स्पेस खोजने की आवश्यकता पर ज़ोर देती है।

भारतीय समाज की कई परते हैं और बनावट जटिल है। वर्तमान में, विभिन्न तरह के चिंतन अपनी प्रधानता के स्पेस के लिए लड़ रहे हैं। कांग्रेस, वाम दलों और स्वतंत्र सामाजिक संगठनों, शिक्षाविदों और कार्यकर्ताओं के नेतृत्व में उदार वामपंथी/संविधानवादियों के बीच त्रिपक्षीय विभाजन मौजूद है; दलित-बहुजन संगठन  मुसलमानों के साथ संयुक्त लामबंदी की संभावना को खोज रहे हैं (चंद्रशेखर आज़ाद को हाल ही में ऐसा करते देखा है); और भाजपा-आरएसएस और उनके "फ्रिंज" संगठनों के नेतृत्व में पुनरुत्थानवादी हिंदुत्ववादी राजनीति काम कर रही है। निस्संदेह, इन समूहों में प्रत्येक की लड़ाई और संघर्ष की गतिशीलता अन्य चिंतनों और उन रणनीतियों को प्रभावित करती है जिसे वे अपने लिए एक प्रधानता की स्थिति हासिल करने के लिए अपनाते हैं।

स्वतंत्र दलित-बहुजन/मुस्लिम राजनीति इस बात को उजागर करने का मज़बूत मामला बन रही है कि न तो वामपंथी/उदारवादी और न ही हिंदुत्व ब्रांड की राजनीति उन्हें स्वतंत्र स्पेस बनाने या उन्हें आवश्यक प्रतिनिधित्व प्रदान करने के लिए एक व्यवहारिक स्पेस प्रदान करती है। आंशिक रूप से, ऐसी स्थिति तब पैदा होती है जब समाज के निचले दर्जे को "विकास" की परिधि से बाहर छोड़ दिया जाता है। रोज़गार के मामले में या फिर शैक्षणिक संस्थानों में, विशेष रूप से अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण को 1990 तक गंभीरता के साथ लागू नहीं किया गया था, इसके बावजूद कि यह एक संवैधानिक तौर पर ज़रूरी क़दम है।

इधर, दलित-बहुजन यह भी तर्क देते हैं कि वाम/उदारवादी लोग शैक्षणिक संस्थानों के शीर्ष रहे हैं, लेकिन उन्होने भी उनके लिए अनुकूल स्थिति नहीं बनाई। इसलिए, उनका एकमात्र विकल्प एक स्वतंत्र आंदोलन या संगठन बनाना है जो उनसे संबंधित मुद्दों को उजागर कर सकता है। वाम/उदारवादी संगठनों ने उन्हें समायोजित करने के लिए कई महत्वपूर्ण बदलाव किए हैं, लेकिन पहचान और सम्मान के लिए बढ़ती आकांक्षाओं को समझने में वे विफल रहे हैं। इस असंतोष की बिना पर ही दलित-बहुजन के असंतोष को  जातिवादी हिंदुओं के "घटते गर्व" के साथ जोड़ने में हिंदुत्ववादी ताक़तें कामयाब रही हैं। जिन सांस्कृतिक मुहावरों का वे इस्तेमाल कराते वे गैर-अंग्रेजी भाषी, गैर-शहरी और विभिन्न जातियों के स्थानीय कुलीनों को अपील करने में सक्षम थे। शहरी-नागरिक समाज के खिलाफ यह सामान्य धारणा है जिसे एक समेकित हिंदू पहचान के रूप में व्यक्त किया गया है।

हिंदुत्ववादी ताक़तों के उदय ने एक शैतानी भूमिका निभाई है: इसने अभिजात वर्ग का विरोधी (लुटियंस दिल्ली के खिलाफ) होने की पहचान बनाई, फिर उसे प्रतिगामी सामाजिक रूढ़िवाद के साथ जोड़ा गया जो कि हिंदुओं, खासकर ब्राह्मणों, बनियों और क्षत्रिय के हितों को आगे बढ़ाने के लिए था। लेकिन, पारंपरिक अभिजात्य तबक़ा जो हिंदुत्व का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, उन सामाजिक कुलीनों के साथ जिनका अंतर था, जिन्होंने जाति और वर्ग के समान विशेषाधिकार का उपयोग करते हुए खुद को आधुनिक बनाया था, जिसके खिलाफ आज दलित-बहुजन एकजुट हैं। हक़दार आधुनिक कुलीन, को कम से कम प्रतीकात्मक रूप में ही सही हिंदुत्ववादी ताक़तों के उदय से उन्हें चुनौती मिली है।

आज, हम दक्षिणपंथी हिंदुत्व के बीच फंसे हुए हैं जो सांस्कृतिक सबाल्टर्न का प्रतिनिधित्व करता है लेकिन चरित्र में काफी प्रतिगामी है; एक दलित-बहुजन राजनीति जो वाम और दक्षिण के बीच भेद करने से इंकार करती है; जबकि वाम-उदारवादी राजनीति संविधान में निहित नागरिकता और अधिक सार्वभौमिक और समावेशी विचार पर लटकी है।

शरजील इमाम ब्रांड राजनीति का सवाल यह है कि क्या यह धार्मिक कट्टरवाद की राजनीति का प्रतिनिधित्व करती है या मुस्लिम होने के कारण उन्हे जो सम्मान मिलना चाहिए नहीं मिला और उनकी  भावना को व्यवस्थित रूप से दरकिनार किया गया और उसकी वैधता पर चोट की गई है। यहाँ इमाम की पिच एक विशिष्ट इस्लामिक पहचान की है - जहाँ वह बहुसंख्यक और अपेक्षाकृत विशेषाधिकार प्राप्त हिंदुओं को अपनी शर्तों पर विरोध प्रदर्शन में शामिल होने का आह्वान करता है, जिसमें धार्मिक नारे भी शामिल हैं - जो सार्वभौमिक न्याय और सम्मान के लिए ज़ोर देना है। या क्या यह बहिष्कृत है और क्या वह स्वयं के प्रति आधिपत्य जता रहा है? क्या इमाम के पास मौजूदा समय में इस तरह के धार्मिक दावे के बाहर कोई वास्तविक विकल्प है ताकि उन्हें न केवल एक नागरिक के रूप में माना जाए बल्कि उनका मुस्लिम होने के नाते सम्मान किया जाए?

हम जो देख रहे हैं वह एक ऐतिहासिक अंतराल और निरंतर सामाजिक पदानुक्रमों का परिणाम है। पवित्र-धर्मनिरपेक्ष राजनैतिक स्पेस में दखल और अपनी आवश्यक पहचान का दावा, प्रगतिशील-धर्मनिरपेक्ष राजनीति में विश्वास खोने से पैदा हुआ है, क्योंकि वह उसने अपना वादा पूरा नहीं किया। फिर भी, यह अविश्वास और विशिष्टता के उसी गतिशीलता को पुन: प्रस्तुत कर रहा है जिसे विचार की प्रधानता के द्वारा थोपा गया था।

यह वही गतिरोध है जो हिंदुओं की राजनीति के उग्रवादी और असहिष्णु ब्रांड का समर्थन करता है। असहिष्णुता जातियों, वर्गों और धर्मों के बीच अतीत के ख़िलाफ़ एक सार्वभौमिक भाषा बन गई है। यह एकमात्र तरीक़ा बन जाता है जब कोई राजनीतिक समुदाय के तौर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कर सकता है। जब तक कि हमें गरिमा और पहचान की जायज़ चिंताओं को अलग-अलग संप्रदाय और कट्टरपंथी असहिष्णुता से अलग करने का कोई रास्ता नहीं मिल जाता है, तब तक हम एक असफल लोकतंत्र की ओर बढ़ना जारी रखेंगे, चाहे वह वर्तमान हिंदुत्ववादी ब्रांड की राजनीति की तह में हो या किसी और तरह अपक्षयी अराजकता में हो। 

लेखक, सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज़, जेएनयू में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

AMU
Shaheen Bagh
Vanchit Bahujan
VBA
Dalit-Bahujan

Related Stories

शाहीन बाग से खरगोन : मुस्लिम महिलाओं का शांतिपूर्ण संघर्ष !

शाहीन बाग़ : देखने हम भी गए थे प तमाशा न हुआ!

शाहीन बाग़ ग्राउंड रिपोर्ट : जनता के पुरज़ोर विरोध के आगे झुकी एमसीडी, नहीं कर पाई 'बुलडोज़र हमला'

'नथिंग विल बी फॉरगॉटन' : जामिया छात्रों के संघर्ष की बात करती किताब

सवर्णों के साथ मिलकर मलाई खाने की चाहत बहुजनों की राजनीति को खत्म कर देगी

जहांगीरपुरी से शाहीन बाग़: बुलडोज़र का रोड मैप तैयार!

शाहीन बाग़ की पुकार : तेरी नफ़रत, मेरा प्यार

भारत को अपने पहले मुस्लिम न्यायविद को क्यों याद करना चाहिए 

केजरीवाल का पाखंड: अनुच्छेद 370 हटाए जाने का समर्थन किया, अब एमसीडी चुनाव पर हायतौबा मचा रहे हैं

भाजपा ने अपने साम्प्रदायिक एजेंडे के लिए भी किया महिलाओं का इस्तेमाल


बाकी खबरें

  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    केरल: RSS और PFI की दुश्मनी के चलते पिछले 6 महीने में 5 लोगों ने गंवाई जान
    23 Apr 2022
    केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने हत्याओं और राज्य में सामाजिक सौहार्द्र को खराब करने की कोशिशों की निंदा की है। उन्होंने जनता से उन ताकतों को "अलग-थलग करने की अपील की है, जिन्होंने सांप्रदायिक…
  • राजेंद्र शर्मा
    फ़ैज़, कबीर, मीरा, मुक्तिबोध, फ़िराक़ को कोर्स-निकाला!
    23 Apr 2022
    कटाक्ष: इन विरोधियों को तो मोदी राज बुलडोज़र चलाए, तो आपत्ति है। कोर्स से कवियों को हटाए तब भी आपत्ति। तेल का दाम बढ़ाए, तब भी आपत्ति। पुराने भारत के उद्योगों को बेच-बेचकर खाए तो भी आपत्ति है…
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    लापरवाही की खुराकः बिहार में अलग-अलग जगह पर सैकड़ों बच्चे हुए बीमार
    23 Apr 2022
    बच्चों को दवा की खुराक देने में लापरवाही के चलते बीमार होने की खबरें बिहार के भागलपुर समेत अन्य जगहों से आई हैं जिसमें मुंगेर, बेगूसराय और सीवन शामिल हैं।
  • डेविड वोरहोल्ट
    विंबलडन: रूसी खिलाड़ियों पर प्रतिबंध ग़लत व्यक्तियों को युद्ध की सज़ा देने जैसा है! 
    23 Apr 2022
    विंबलडन ने घोषणा की है कि रूस और बेलारूस के खिलाड़ियों को इस साल खेल से बाहर रखा जाएगा। 
  • डॉ. राजू पाण्डेय
    प्रशांत किशोर को लेकर मच रहा शोर और उसकी हक़ीक़त
    23 Apr 2022
    एक ऐसे वक्त जबकि देश संवैधानिक मूल्यों, बहुलवाद और अपने सेकुलर चरित्र की रक्षा के लिए जूझ रहा है तब कांग्रेस पार्टी को अपनी विरासत का स्मरण करते हुए देश की मूल तासीर को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए…
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License