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भारत
राजनीति
चुनाव 2019 : देखते ही देखते रसातल में चला गया भाजपा का चुनाव अभियान
सोचा ऐसा गया था कि जनता में एक अच्छी प्रचार मशीनरी के जरिये न हारने, यानी निश्चित जीत, का संदेश भेजा जाएगा लेकिन हुआ इसके उल्टा, जब असंगत शिकायतें, झूठ और दिन-प्रतिदिन के जाल-जंजाल तार-तार होते चले गए।
सुबोध वर्मा
15 May 2019
Translated by महेश कुमार
Narendra Modi

कुछ महीने पहले तक, किसी को भी ऐसा विश्वास नहीं था कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का चुनाव अभियान इतनी तेज़ी से बिखर जाएगा। सत्तारूढ़ पार्टी की चुनाव रणनीति को पहले ही परिभाषित किया जा चुका था - कम से कम सार्वजनिक रूप से – कि मोदी सरकार की ‘प्रचंड ’ उपलब्धियों के बारे में लोगों को बताना है। उनकी योजनाओं से 22 करोड़ लोग लाभान्वित होने थे और भाजपा ने तय किया कि इन लाभान्वित परिवारों के दरवाजे पर दीया (दीपक) जलाकर अभियान चलाया जाएगा।

भाजपा कार्यकर्ताओं के साथ वीडियो कांफ्रेंसिंग के माध्यम से बातचीत में, एक महिला कार्यकर्ता ने मोदी से सवाल किया कि वे कैसे इतनी सारी उपलब्धियों को याद रखें, ये तो बहुत सारी हैं! मोदी, मानो कुछ झेंपे, और फिर बड़ी सहजता से उस महिला को सलाह दी कि वे शायद इन्हे वर्ण-माला के जरिये याद कर सकते हैं – यानीए के लिए आयुष्मान भारत, बी के लिए बेटी बचाओ, इत्यादि। ये शुरुआती दिन थे, मासूमियत और खुशी से भरपूर। यह अभियान का पहला या ‘विकास’ का चरण था।

आज, यह सब सुदूर अतीत जैसा दिखता है। बीजेपी का अभियान कई स्तरों से गुजरा है और अंत में इसने खुद को एक विकृत, प्रतिक्रियात्मक, अपमानजनक अभियान में बदल दिया है। और देश अभियान में आई इस गिरावट को देख रहा है: हाल ही में आई एक रिपोर्ट के अनुसार मोदी को टीवी समाचार चैनलों पर 722घंटे का  समय मिला, राहुल गांधी (कांग्रेस अध्यक्ष) को  252 घंटे, अमित शाह (भाजपा अध्यक्ष) को 123 घंटे और मायावती (बहुजन समाज पार्टी की नेता) को 84 घंटे का समय मिला।

बालाकोट का दांव 

विकास के नाम पर चलाए गए अभियान के शुरुआती हफ्तों के बाद, 14 फरवरी को पुलवामा आतंकी हमला हुआ, इसके बाद 26 फरवरी को बालाकोट में हवाई हमला किया गया। अगर घंटों में नहीं तो कुछ ही दिनों में, पूरे अभियान को बदल  दिया गया। क्या यह इसलिए किया गया क्योंकि भाजपा के शीर्ष नेताओं को महसूस हो रहा था कि योजनाओं के आधार पर लोगों को लुभाने से काम नहीं चल रहा है या कि वे स्वाभाविक रूप से ‘राष्ट्रवाद’ के पाकिस्तान विरोधी ब्रांड की ओर प्रवृत्त हैं,कम से कम अब तक तो इसके बारे में कोई नहीं जानता। जैसा कि प्रधानमंत्री ने खुद बताया कि उन्होंने स्वयं शीर्ष रक्षा अधिकारियों को बादल छाए रहने पर हमले करने की सलाह दी थी। तो शायद, उन्होंने इस पूरी कवायद में एक चुनाव प्रचार अभियान की संभावना देखी - कौन जानता है? जो भी हो, यह चुनाव अभियान के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ था।

एक विश्लेषण से पता चला है कि 30 अप्रैल तक, मोदी ने 87 सार्वजनिक सभाओं को संबोधित किया और हर एक सभा में, केंद्रीय विषय बालाकोट की उपलब्धि था। प्रारंभ में, उनके भाषणों में योजनाओं के संदर्भ में बात की गई और निश्चित रूप से, कांग्रेस की अनिवार्य आलोचना भी थी। लेकिन अब अभियान पुलवामा/बालाकोट पर केंद्रित था : कैसे मोदी जी और उनकी सरकार ने निर्णायक और कठिन फैसले लिए, कैसे भारत ने पाकिस्तान के अंदर घुस कर दुश्मन को "उसके ही घर के अंदर" पटकी मारी, और कैसे शहीदों का बदला लिया गया, वगैरह। 

जिस चुस्ती के साथ भाजपा ने इस कहानी को अपनाया था, और जिस पैमाने पर इसका इस्तेमाल किया गया, इसमें कोई शक नहीं है कि यह कई उद्देश्यों की पूर्ति करता है। इसने बेरोजगारी, आर्थिक मंदी, किसानों की आय, श्रमिकों की मजदूरी, दलित अत्याचार, महिला सुरक्षा, आदिवासी भूमि अधिकार, नोटबंदी और जीएसटी (माल और सेवा कर) के कारण मध्यम, लघु और सूक्ष्म उद्योगों के विनाश जैसे मुद्दों पर मोदी सरकार के प्रदर्शन को पूरी तरह से दरकिनार कर दिया।

इसने हिंदुत्व की कथा को भी फिर से आगे बढाने की कोशिश की जो राम मंदिर के उल्टे पड़े दांव से दब गया था। याद रखें: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके सहयोगियों ने पिछले साल अक्टूबर से मंदिर के मुद्दे को फिर से उभारने की पूरी कोशिश की थी लेकिन नाकाम रहे। इतना ही कि विश्व हिंदू परिषद को इस साल फरवरी में अस्थायी रूप से आंदोलन को वापस लेना पड़ा। बालाकोट के जरिये ‘राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा’ की आड़ में, मुस्लिम के खिलाफ दुश्मनी फैलाने की एक नए दौर की शुरुआत की।

लेकिन उत्साही भाजपा को एक और झटका लगा। जैसे-जैसे समय बीतता गया, रणनीतिकारों को पता चलने लगा कि बालाकोट की कहानी भी अब बासी होने लगी है। इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ रहा है। कई चरण का चुनाव, जिसे उन्होंने अपनी रणनीति के अनुरूप सटीक रूप से तैयार किया था, वास्तव में दिखा रहा था किपरियों की गाथाओं पर बयानबाजी लंबे समय तक नहीं चलेगी। क्योंकि हकीकत का   बदसूरत  चेहरा सबसे मार्मिक कथाओं को भी  भांग कर देता है। 

यहां, उत्तर प्रदेश की सात-चरण की मतदान प्रक्रिया का उल्लेख किया जाना आवश्यक है, जिसने भाजपा की  अभियान की रणनीति को नष्ट करने में बड़ी भूमिका निभाई है। जब अप्रैल के तीसरे सप्ताह में, दूसरे और तीसरे चरण का मतदान हुआ, यह स्पष्ट था कि यूपी भाजपा के हाथ से फिसल रहा है। राष्ट्रवाद की लफ्फाजी के बावजूद, मोदी और शाह दोनों द्वारा सबसे अधिक रैलियां करने के बावजूद, आग लगाने वाले भाषणों के बावजूद, 80 सांसदों वाला यह सबसे बड़ा राज्य निश्चित रूप से उनके हाथों से फिसल रहा था। बीजेपी यूपी हार रही थी और इसके साथ ही दिल्ली भी।

आज क्या अभियान चलाया जा रहा है?

और इस सच्चाई को जानकर, अचानक से, बीजेपी के मास्टर रणनीतिकार और उनके नारे बनाने वाले और सोशल मीडिया के विशेषज्ञ घबरा गए। अब क्या करें?इसके साथ ही एक और मोड़ आ गया। अब अभियान अराजकता में उतर गया, और केवल घटनाओं के प्रति दैनिक प्रतिक्रिया दी जाने लगी, प्रतिद्वंद्वियों के विरुद्ध,विशेष रूप से कांग्रेस के विरुद्ध, पहले से ही बनी कुछ धारणाओं के को लेकर बयानबाज़ी शुरू कर दी गई।

नतीजतन, हम आए दिन मोदी को राहुल गांधी या किसी अन्य कांग्रेस के नेता के पिछले समय के बारे में प्रतिक्रिया देते हुए देखते हैं। कभी यह सिख विरोधी दंगों पर कांग्रेस नेता सैम पित्रोदा की भद्दी टिप्पणी पर प्रतिक्रिया दी जाती है, तो कभी वह अलवर में सामूहिक बलात्कार के मामले पर, कभी वह पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के इतिहास पर बोलते हैं, तो कुछ समय के लिए वे अपनी पिछड़ी जाति की उत्पत्ति के बारे में बोलते है, और इसी तरह के मुद्दो पर यह सब चल रहा है। हर दिन, एक नया मुद्दा, वह भी एक गैर-मुद्दा है जिसका जनता से कोई लेन-देना नहीं है। शायद, मोदी और उनके रणनीतिकार सिर्फ समाचार चैनलों को देख रहे हैं और उसके आधार पर नोट कर रहे हैं ताकि अगले दिन नेता अपनी चक्की में कुछ पीस सकें।

एक और विशेषता, जो बहुत तेज फोकस में सामने आई है, वह है मोदी की खुली और बार-बार की जाने वाली अपील, और उनके सभी नेता मोदी को वोट देने की बात करते हैं। वे कहते हैं कि "जब भी आप कमल के प्रतीक पर बटन दबाते हैं - याद रखें, आपका वोट नरेंद्र मोदी को जा रहा है," वह बार-बार घोषणा करते हैं। यह पागलपन (मेगालोमैनिया) नहीं है: क्योंकि उनके रणनीतिकारों को पता है कि यह एकमात्र तरीका है जिससे उन्हें मतदाताओं को समझाने की कोई उम्मीद है। लोग स्थानीय सांसदों से बहुत तंग आ चुके हैं, और शाह ने अपने डेटा एनालिटिक्स के आधार पर इतने सारे अज्ञात चेहरों को टिकट दिया है, कि बीजेपी अब केवल मोदी पर ही निर्भर हो सकती है। निस्संदेह, वह केवल एक पल की बल्लेबाजी के बिना यह सब कहते हुए बहुत खुश हैं।

बंगाल

बंगाल, निश्चित रूप से, चुनाव का एक बड़ा फोकस रहा है, जिसमें आठ सीटों का चुनाव छठे चरण और नौ सीटों में आख़िरी चरण में होगा। मोदी ने बंगाल में हुए छह चरणों (33 सीटों) के मतदान के दौरान  13 रैलियों को संबोधित किया। केवल यूपी में मोदी ने 21 रैलियों को अब तक संबोधित किया है, हालांकि यहां 67 सीटों के लिए मतदान हो चुका है। यह निश्चित रूप से, मूल रणनीति का अंतिम चीथड़ा है - जिसे मीडिया द्वारा ’लुक ईस्ट’ कहा जा रहा था । यह इस धारणा पर आधारित था कि बंगाल और ओडिशा की 63 सीटों में से अधिक सीटों को जीतने की जरूरत है, जहां  2014 में बीजेपी को केवल तीन सीटें मिली थीं।

लेकिन बंगाल में भाजपा के प्रचार की भड़काऊ सामग्री ने कई लोगों को आश्चर्य में डाल दिया। उन्होंने अपने सारे के सारे अंडे एक ही टोकरी में डाल दिए – मुद्दा बनाया कि मुस्लिम लोग बांग्लादेश से घुसपैठ करने वाले हैं और इसके साथ ममता बनर्जी की मिलीभगत है। उनके द्वारा नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिज़न्स (एनआरसी) और सिटिजनशिप अमेंडमेंट बिल, बेशक इस एजेंडे को आगे बढ़ाने का मुख्य मुद्दा था, लेकिन जैसे-जैसे समय बीता, बीजेपी का बंगाल अभियान तेज़ी से हिंदुत्व के अपने प्रमुख कदम पर आ गया, यह जय श्री राम के नाटकीय नारों के साथ एक चुनौती के रूप में पेश हुआ, इसके जरिये दीदी को हिंदुओं के खिलाफ भेदभाव करने वाली के रूप में चित्रण किया गया।

अंतिम मतदान दिवस (19 मई) के प्रचार के लिए केवल कुछ दिन शेष हैं और इसलिए, भाजपा की चुनावी रणनीति/अभियान का कुल योग किसी अध्ययन का विषय होना चाहिए कि किस तरह अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मारी जाती है या जिसे कहा जाता है कि ‘विनाशकाले विपरीत बुद्धि’।

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