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भारत
राजनीति
चुनाव 2019: एमपी में आदिवासियों का वोट बीजेपी के हाथों से जा रहा है?
पिछले साल हुए विधानसभा चुनावों में आदिवासियों के प्रभुत्व वाली 48 सीटों में बीजेपी केवल 16 सीट ही जीत पाई जबकि वर्ष 2013 में हुए चुनावों पार्टी ने 34 सीटों पर जीत दर्ज की थी।
काशिफ़ काकवी
05 Apr 2019
चुनाव 2019: एमपी में आदिवासियों का वोट बीजेपी के हाथों से जा रहा है?

बीजेपी की अगुवाई वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार द्वारा किए गए भारतीय वन अधिनियम 1927 में प्रस्तावित संशोधन को वापस लेने और वन अधिकार अधिनियम 2006 (एफ़आरए) को बरक़रार रखने की मांग करते हुए हज़ारों आदिवासियों ने मध्य प्रदेश के बुरहानपुर ज़िले में सोमवार 1 अप्रैल को 'आदिवासी अधिकार चेतवानी रैली' निकाली।

ये रैली जागृत आदिवासी दलित संगठन के बैनर तले आयोजित की गई थी जिसमें लगभग 5,000 से अधिक आदिवासियों ने भाग लिया। इन आदिवासियों ने अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई।

इस रैली को संबोधित करते हुए आदिवासी समाज के नेताओं ने सुप्रीम कोर्ट में मोदी सरकार की तरफ़ से आदिवासियों का पक्ष रखने में उदासीनता दिखाने के चलते आलोचना की। उन्होंने कहा कि आदिवासियों का पक्ष रखने में दिलचस्पी न होने के चलते आदिवासियों को वनों से निकलने का फ़ैसला सुनाया गया था।

शीर्ष अदालत ने 13 फ़रवरी को राज्य सरकारों को 17 राज्यों में फैले वन क्षेत्रों से लगभग दो मिलियन आदिवासियों को ख़ाली कराने का निर्देश दिया था। ये फ़ैसला मध्य प्रदेश के 2.26 लाख आदिवासी परिवारों को बेघर कर सकता है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने देश भर में आदिवासियों के अधिकार समूहों की ओर से बड़े पैमाने पर हुई प्रतिक्रिया के बाद अपने आदेश पर जुलाई 2019 तक रोक लगा दी है।

आदिवासी नेता प्रतिभा शिंदे ने कहा कि "आदर्श आचार संहिता लागू होने से तीन दिन पहले एनडीए सरकार ने एफ़आरए को अमान्य करने और आदिवासियों से सभी जनजातीय अधिकारों को छीनने के लिए भारतीय वन अधिनियम 1927 में संशोधन का प्रस्ताव पेश किया।" साथ ही उन्होंने कहा कि इस सरकार ने उद्योगपतियों और व्यापारियों को लाभ पहुँचाने के इरादे से ऐसा किया है।

उन्होंने मुख्यमंत्री कमलनाथ से सवाल किया है कि राज्य सरकार ने अभी तक सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का विरोध क्यों नहीं किया और इसके ख़िलाफ़ अपील क्यों नहीं की।

रैली को संबोधित करते हुए जागृति आदिवासी दलित संगठन की नेता माधुरी जगत ने कहा, “हाल ही में संसदीय स्थायी समिति के सामने पेश की गई एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले पांच वर्षों में लगभग 2.15 लाख एकड़ (86,89.09 हेक्टेयर) वन भूमि उद्योगों को दे दिया गया है। अब केंद्र सरकार शेष वनों को उद्योगपतियों और रियल एस्टेट व्यापारियों को सौंपने की योजना बना रही है। बीजेपी आदिवासी-विरोधी है। आदिवासी अधिकारों के लिए पीएम ने आवाज़ क्यों नहीं उठाई?”

क़रीब एक सप्ताह पहले केंद्र सरकार ने छत्तीसगढ़ में 4 लाख एकड़ वन भूमि अडानी समूह को सौंप दी। इसी तरह अरावली पहाड़ियों और कांत एन्क्लेव की हजारों एकड़ भूमि रीयल एस्टेट अन्य ग़ैर-वन गतिविधि के लिए मार्ग खोलने के लिए 27 फ़रवरी को हरियाणा की विधानसभा ने इस अधिनियम में संशोधन पारित किया। अरावली हिल्स और कांत एन्क्लेव सदियों से इस अधिनियम के तहत संरक्षित था।

माधुरी ने आगे कहा, “ये आदिवासी सदियों से इन वनों में रह रहे हैं और उन्हें बेघर होने के लिए मजबूर किया जा रहा है और सरकार उन्हें बेरहमी से भगा रही है। जो लोग इसका विरोध कर रहे हैं पुलिस उन्हें जेल भेज रही है और जुर्माना लगा रही है।”

बाद में उन्होंने मुख्यमंत्री कमल नाथ को संबोधित करते हुए ज़िला कलेक्टर को अपनी मांगों का एक ज्ञापन सौंपा।

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यह एकमात्र रैली नहीं है जहाँ आदिवासियों ने अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई। मध्य प्रदेश में 2018 के विधानसभा चुनावों से पहले आदिवासियों ने राज्य में तत्कालीन बीजेपी सरकार से नाराज़गी व्यक्त करते हुए कई रैलियाँ की थीं।

क्या मध्यप्रदेश में आदिवासी वोट बीजेपी के हाथों से निकल रहा है?

वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार मध्य प्रदेश में कुल 7.26 करोड़ आबादी में 21% आदिवासी हैं। चुनाव परिणाम बताते हैं कि इन आदिवासियों ने हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी के ख़िलाफ़ मतदान किया था। कुल 48 आदिवासी बहुल विधानसभा सीटों में से बीजेपी ने 16 सीटें ही जीतीं जबकि 2013 में बीजेपी ने 34 सीटें जीती थीं। दूसरी ओर कांग्रेस के पास 2013 में 14 सीटें थीं लेकिन इस बार 32 सीटों पर जीत दर्ज की।

नीचे दी गई तालिका से आदिवासी बहुल संसदीय सीटों और 2018 और 2013 के विधानसभा चुनावों के परिणाम का पता चलता है:

लोक सभा सीट विधानसभा सीट विधानसभा चुनाव परिणाम 2013 विधानसभा चुनाव परिणाम 2018
बीजेपी कांग्रेस बीजेपी कांग्रेस
शहडोल 8 6 2 4 4
मंडला 8 4 4 2 6
धार 8 6 2 2 6
रतलाम 8 7 1 3 5
बेतूल 8 7 1 4 4
खरगांव 8 4 4 1 7

विधानसभा चुनाव से कुछ सप्ताह पहले बीजेपी सरकार ने चरण पादुका योजना के तहत तेंदुआ पत्ता बीनने वालों को जूता चप्पल बाँटे जिससे बीजेपी को बड़ा नुकसान हुआ। आदिवासियों ने न केवल जूते और चप्पलों के साथ कई स्थानों पर विरोध प्रदर्शन किया बल्कि आदिवासियों के जीवन के साथ खिलवाड़ करने के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के इस्तीफ़े की भी मांग की।

मांगें

अनुसूची 5 का क्रियान्वयन जो आदिवासी क्षेत्रों को स्वायत्तता प्रदान करता है। पलायन पर रोक लगाने और गृह ज़िलों में नौकरियों का सृजन करने के साथ आदिवासियों की यह प्राथमिक मांग है। उनकी अन्य मांगों में वन भूमि का संरक्षण, वन अधिकार अधिनियम 2006 को लागू करना, भारतीय वन अधिनियम 1927 में प्रस्तावित संशोधन को रद्द करना और संविधान की 8वीं अनुसूची में गोंडी और भीली भाषाओं (आदिवासी भाषाओं) को जोड़ना शामिल है।

जय आदिवासी युवा शक्ति संगठन के नेता हीरालाल अलावा ने कहा, "वोटों का खिसकना 15 साल के बीजेपी के लंबे शासन के ख़िलाफ़ आदिवासी मतदाताओं के ग़ुस्से को दिखाता है। जिसने आदिवासियों को सिर्फ़ वोटों के लिए दबाया और शोषण किया। इस सरकार ने व्यापारियों को उनकी वन भूमि बेच दी।" हीरालाल कांग्रेस के टिकट पर धार ज़िले के मनावर सीट से लड़े और जीत हासिल की।

15-20 साल पहले की तुलना में आदिवासी मतदाता अब अपने अधिकारों को लेकर अधिक जागरूक हैं क्योंकि गोंडवाना गणतंत्र पार्टी का गठन 16 साल पहले उनकी पहचान दिलाने के प्रयास के रूप में किया गया था। ये पार्टी गोंड मतदाताओं के बीच काफ़ी प्रभावशाली है। पिछले विधानसभा चुनावों में मालवा क्षेत्र में भील आदिवासी नेतृत्व का उदय हुआ जिससे जय आदिवासी युवा शक्ति (जेएवाईएस) का गठन हुआ। ये पार्टी इस लोकसभा चुनावों में चार सीटों पर निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ने की योजना बना रही है।

जीजीपी और जेएवाईएस के अस्तित्व में आने से पहले पारंपरिक पार्टियाँ मौजूद थीं। हाल के वर्षों में आदिवासी लोगों ने नीतिगत मतदान के विपरीत सामान्य तौर पर सामूहिक रूप से मतदान किया।

संसदीय चुनावों में आदिवासी मतदाताओं का प्रभाव

मध्य प्रदेश की कुल 29 संसदीय सीटों में से आदिवासी समूह शहडोल, मंडला, धार, रतलाम, खरगोन और बेतूल सहित कम से कम छह सीटों पर बेहद प्रभाव डालते हैं जो अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित हैं। इन सीटों के अलावा वे कई अन्य सीटों जैसे बालाघाट, छिंदवाड़ा और खंडवा जैसी सीटों पर भी परिणामों को प्रभावित कर सकते हैं।

जीजीपी के अमन सिंह पोर्ते कहते हैं, “चीज़ें निश्चित रूप से बदल गई हैं और परिवर्तन स्पष्ट है। लोग दिन प्रति दिन जागरुक होते जा रहे हैं। यह महत्वपूर्ण है कि हमारा आंदोलन रंग ला रहा है। उदाहरण के लिए जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मंडला ज़िले में आए तो उन्हें यह कहना पड़ा 'जय बड़ा देव', इससे क्या हुआ? यह हमारी पहचान को लेकर जागरुकता है। हम प्रकृति पूजक हैं, हमारे लिए भगवान का अर्थ है 'भ’ भूमि के लिए ‘व’ वायु के लिए और 'न’ नीर के लिए। हम 'ग्राम स्वराज्य’ स्थापित करने करने के लिए काम कर रहे हैं, एक अलग पहचान बनाने और अनुसूची 5 को लागू करने के लिए काम कर रहे हैं, ताकि आदिवासी आबादी की आजीविका सुरक्षित हो सके। हमारे लोग अब संविधान में दिए गए अधिकारों को लेने के लिए जाग रहे हैं।”

मध्य प्रदेश के कई आदिवासी समुदायों में गोंड समुदाय का महाकौशल क्षेत्र में काफ़ी प्रभाव है और यह बालाघाट, मंडला और शहडोल में परिणामों को प्रभावित कर सकता है, जबकि भीलों की मालवा-निमाड़ क्षेत्र में भारी मौजूदगी है। कांग्रेस का विधायक और जेएवाईएस के संस्थापक डॉ. हीरालाल अलावा कहते हैं, “लेकिन महाकौशल से भिन्न, मालवा-निमाड़ में आदिवासी अपनी धार्मिक पहचान में नहीं हैं और भाषा और क्षेत्र से अधिक जुड़े हुए हैं। अनुसूची 5 के कार्यान्वयन के अलावा भील संविधान की अनुसूची 8 में भीली भाषा को शामिल करने और एक अलग भीलिस्तान क्षेत्र की भी मांग कर रहे हैं।”

अलावा कहते हैं, "अगर हम किसी भी पार्टी के साथ गठबंधन नहीं करते हैं तो हम चार सीटों पर स्वतंत्र उम्मीदवारों का समर्थन करेंगे।" राजनीतिक दल भी राज्य भर में आदिवासियों के बीच अधिकारों को लेकर बढ़ती जागरुकता से अवगत हैं।

मध्य प्रदेश आदिवासी कांग्रेस के अध्यक्ष अजय शाह मकरई कहते हैं, "हमारा नारा है 'एक तीर एक कमान, सारे आदिवासी एक समान'। समूह हो या व्यक्ति सभी की ज़रूरतों को पूरा करने का यह हमारा एजेंडा है। लेकिन हमारी प्राथमिकता पूरी आदिवासी आबादी की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करना है। ऐसा करने के बाद हम लोगों की समूह-आधारित आवश्यकताओं की ओर बढ़ेंगे। आदिवासी आबादी एकजुट थी। लेकिन 15 साल के लंबे बीजेपी शासन ने आदिवासियों के बीच अपने सहायक संगठनों के ज़रिए विभाजन पैदा कर दिया।” 

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