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भारत
राजनीति
चुनाव 2019; झारखंड: गठबंधनों की गाँठें ढीली करता उनका ही दांव
एक बात जो दोनों गठबंधनों के संदर्भ में एक समान दिख रही है, वो यह कि अवसरवादी जोड़–तोड़ और गेटिंग–सेटिंग के मामले में कोई किसी से कम नहीं है। ऐसे में चुनावी परिणाम जनता के हितों के अनुकूल कितना सही साबित होगा, ये गंभीर चुनौती है।
अनिल अंशुमन
24 Apr 2019
चुनाव 2019; झारखंड: गठनबंधनों की गाँठें ढीली करता उनका ही दांव

वर्तमान राजनीति में सब मुमकिन है, जो सबसे अधिक चुनावी मौसम में ही खुलकर नज़र आता है। जिसमें अवसरवादी दल–बदल, जोड़-तोड़, गेटिंग–सेटिंग और डील का राजनीतिक दांव, चुनावी रणनीति का कारगर नुस्खा बना लिया गया है। कुर्सी–गणित के तहत स्थापित राजनीतिक दल कब किसे अपना नेता बनाकर खड़ा कर देंगे, कहा नहीं जा सकता। इस होड़ में वामपंथी दलों को छोड़कर कोई भी सत्ताधारी दल या उनका नेता पीछे नहीं रहना चाहता। मज़ेदार बात है कि सारा खेल "विकास व देशहित" के नाम पर होता है और सबसे शातिर खिलाड़ी ही सबसे अधिक लोकतांत्रिक आदर्श व मूल्यों की दुहाई देते हुए नज़र आता है।  

झारखंड प्रदेश भी अवसरवादी जोड़–तोड़ की राजनीति के दांव खेलने का कुख्यात अखाड़ा रहा है। वर्तमान लोकसभा चुनावी परिदृश्य में भी इसे आसानी से देखा जा सकता है। जहाँ इस दांव के इस्तेमाल ने कई सीटों के चुनावी संघर्ष को "कड़ी टक्कर" में बदल दिया है। संभवतः ऐसा पहली बार हुआ है जब अखाड़े के खिलाड़ी दलों को उनका ही दांव परेशान किए हुए है। उम्मीदवार चयन को लेकर कई स्थानों पर सत्तारूढ़ गठबंधन से लेकर विपक्षी महागठबंधन तक की गांठों में काफ़ी खींच तान की स्थिति बनी हुई है। इस कारण चुनाव में होने वाले सुनियोजित 'भीतरघात' ने किसे कितना कड़वा स्वाद चखाया है, परिणाम ही बताएगा। इससे दोनों ही गठबंधन का नेतृत्व बेहद संशंकित है और डैमेज कंट्रोल की हर जुगत लगा रहा है। 

23 अप्रैल को राजधानी रांची में हुआ प्रधानमंत्री का प्रायोजित 'रोड शो' चुनावी अभियान के साथ-साथ पार्टी की आंतरिक स्थिति को विशेष रूप से चुस्त – दुरुस्त करने के लिए था। क्योंकि इस सीट पर निवर्तमान भाजपा सांसद व प्रदेश की ‘जाति विशेष' के कद्दावर नेता का टिकट उनकी अधिक उम्र का हवाला देकर काट दिया गया तो खुली बग़ावत कर उन्होंने निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर नामांकन कर दिया है। चतरा सीट की भी कमोबेश यही स्थिति है, यहाँ भी पार्टी का स्थानीय पार्टी नेता बग़ावत कर निर्दलीय खड़ा है। राजद की प्रदेश अध्यक्ष को कोडरमा सीट से पार्टी का प्रत्याशी बनाया जाना भी चर्चा में रहा है। क्योंकि दो माह पूर्व तक सार्वजनिक तौर पर हर मंच से वे मोदी जी व भाजपा को देश के लिए घातक बताते हुए इनके पतन की भविष्यवाणी कर रही थीं। लेकिन ‘विशेष सेटिंग' से ज्यों ही वे भाजपा प्रत्याशी बनीं तो पूर्व के बयानों से पल्ला झाड़ते हुए घोषणा कर दी कि – ‘दिल तो पहले से ही मिले हुए थे, दल से अभी मिली हूँ।' ग़ौरतलब है कि पिछले चुनाव में इस सीट के राजद जनाधार का वोट भाजपा प्रत्याशी को दिलाने की ख़बर फैली थी तो इन्होंने ज़ोरदार खंडन किया था। ‘जोड़ – तोड़' के तहत खड़े किए गए कई अन्य सीटों के प्रत्याशियों को लेकर भी स्थानीय पार्टी कार्यकर्ताओं में फ़िलहाल कोई आंतरिक उत्साह नहीं है। ख़बर है कि भाजपा ने चुनाव में निष्क्रिय भूमिका निभाने वाले अपने विधायकों–नेताओं पर संघ व उसकी अनुषंगी ईकाइयों से पैनी नज़र रखने का अंदरूनी निर्देश जारी किया है।  

“मात्र 14 संसदीय सीटों वाले झारखंड प्रदेश में षडयंत्र के तहत चार चरणों में चुनाव कराया जा रहा है" का आरोप लगाने वाले विपक्षी महागठबंधन की भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। मुख्य घटक दल कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष पर तो उनके ही कार्यकर्ताओं ने सोशल साईट पर ‘न जीतेंगे और न जीतने देंगे' का आरोप लगा दिया है। हज़ारीबाग़ सीट पर भी अपेक्षाकृत कमज़ोर प्रत्यशी देकर भाजपा को वाकओवर देने की भी चर्चा है। चतरा सीट पर महागठबंधन के कांग्रेस और राजद में ‘फ़्रेंडली मुक़ाबला' होने का सीधा लाभ भाजपा को ही मिलेगा। प्रदेश के आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र लोहरदगा, चाईबासा, जमशेदपुर व खूंटी इत्यादि सीटों पर भी कांग्रेस व झामुमो के बीच स्वाभाविक समन्वय नहीं बन पा रहा है। उधर महागठबंधन को ‘स्वार्थ गठबंधन' क़रार देकर मांडू (हज़ारीबाग़) के झामुमो विधायक ने तो बग़ावत कर ऐलान कर दिया है कि - “ मेरे मन में मोदी हैं, और देशहित में मैं इनके लिए खुलकर काम करूंगा, पार्टी को जो समझना है समझे।" संथाल परगना की गोड्डा सीट पर, पिछले चुनाव में बहुत कम वोटों से हारने वाले इकलौते मुस्लिम प्रत्याशी व क्षेत्र के प्रभावशाली कांग्रेसी नेता का टिकट काटे जाने से मुस्लिम आबादी का बड़ा हिस्सा महागठबंधन प्रत्याशी के ख़िलाफ़ है। कोयला नगरी की चर्चित धनबाद सीट पर भी कांग्रेस के वर्तमान प्रत्याशी को ‘बाहरी' होने के अंतर्विरोधों का सामना करना पड़ रहा है। 

चौथे से अंतिम चरण के तहत 29 अप्रैल से प्रदेश में सम्पन्न होने वाले लोकसभा चुनाव की वर्तमान स्थिति इतनी तरल है कि अंतिम आंकलन फ़िलहाल संभव नहीं है। किन्तु मीडिया प्रायोजित ख़बरों से परे ज़मीनी हक़ीक़त की आम चर्चाओं से यही बात उभर कर आ रही है कि 2014 में राज्य की 14 में से 12 सीटें हासिल करने वाली भाजपा की स्थिति इस बार उसके अनुकूल नहीं है। राज्य के व्यापक आदिवासी समुदाय से लेकर मुस्लिम व अन्य झारखंडी समाज का बड़ा हिस्सा उसके ख़िलाफ़ पूरी सक्रियता से खड़ा है। ऐसे में कुछेक सीटों पर यदि सहज सफ़लता मिल भी गयी तो वह महागठबंधनी वोटों के बिखराव के कारण होगी। महागठबंधनी जमात को भी अगर आशातीत सफ़लता नहीं मिलती है तो आपस में सही समन्वय नहीं होने से वोटों में बिखराव, मुख्य कारण होगा। लेकिन एक बात जो दोनों गठबंधनों के संदर्भ में एक समान दिख रही है, वो यह कि अवसरवादी जोड़–तोड़ और गेटिंग–सेटिंग के मामले में कोई किसी से कम नहीं है। ऐसे में चुनावी परिणाम जनता के हितों के अनुकूल कितना सही साबित होगा, ये गंभीर चुनौती है।

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