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भारत
राजनीति
चुनाव 2019; झारखंड: नेताओं के "बोल वचन" से टकराते आदिवासी समाज के ज़मीनी सवाल!
पूरे देश समेत झारखंड प्रदेश में भी जैसे-जैसे चुनावी चरण सम्पन्न होता जा रहा है, बड़े ही सुनियोजित ढंग से चुनाव को मुद्दाविहीन बनाकर मतदाताओं की अंधभावना भड़काने वाले नेताओं के द्वारा ‘बोल वचन' का अभियान चलाया जा रहा है।
अनिल अंशुमन
11 May 2019
चुनाव 2019; झारखंड:

झारखंड प्रदेश में लोकसभा के तीसरे चरण के चुनाव का प्रचार समाप्त हो चुका है और 12 मई को अगला मतदान होना है। इसके पहले सम्पन्न हुए दो चरणों के चुनाव में सात सीटों पर हुए मतदान के विश्लेषण में सत्ताधारी दल के उम्मीदवारों को बहुत सफ़लता नहीं मिलने की बात कही जा रही है। विशेषकर आदिवासी सुरक्षित क्षेत्र लोहरदगा व खूंटी के अलावा राजधानी रांची की सीट पर महागठबंधन प्रत्याशी कड़ी टक्कर दे रहें हैं। 2014 में इन सभी सीटों पर भाजपा ने सीधी जीत दर्ज की थी। उसी चुनाव में भाजपा की जीत वाली पलामू, चतरा और हज़ारीबाग़ सीट पर स्थिति अपेक्षाकृत अनुकूल होने का अनुमान तो है लेकिन कोडरमा में त्रिकोणीय संघर्ष जैसी स्थिति है। हालांकि पार्टी प्रवक्ता मीडिया ने इन सभी सीटों के साथ-साथ प्रदेश की बाक़ी सीटों पर भी जीत का दावा किया है। बहरहाल, स्थिति का अंतिम खुलासा तो मतगणना के दिन ही हो सकेगा। 

झारखंड प्रदेश में इस बार के लोकसभा के चुनावों में पहली बार ऐसा विडम्बनापूर्ण संयोग सामने आया है कि जिस क्षेत्र में मतदान पूर्व का चुनाव प्रचार समाप्त हो रहा है, ठीक उससे सटे हुए इलाक़ों में अगले चरण के चुनाव प्रचार के नाम पर पहले प्रधानमंत्री और उसके तुरंत बाद पार्टी राष्ट्रीय अध्यक्ष की भी सभा की जा रही है। मसलन, जब 29 अप्रैल को पलामू प्रमंडल में मतदान होना था तो उससे सटे लोहरदगा में प्रधानमंत्री और रांची में पार्टी अध्यक्ष की सभाएँ हुईं। 6 मई को जिन सीटों पर मतदान था, उसके पास के ज़िले चाईबासा और जमशेदपुर में इनकी सभाएँ की गईं। हालांकि विपक्ष ने इसे लेकर चुनाव आयोग में अपना विरोध भी दर्ज किया लेकिन यहाँ भी चुनाव आयोग ‘क्लीन चिट' की लाठी लेकर चौकीदारी में खड़ा हो गया। 

दूसरा विडम्बनापूर्ण संयोग है, पूरे देश समेत झारखंड प्रदेश में भी जैसे-जैसे चुनावी चरण सम्पन्न होता जा रहा है, बड़े ही सुनियोजित ढंग से चुनाव को मुद्दाविहीन बनाकर मतदाताओं की अंधभावना भड़काने वाले नेताओं के द्वारा ‘बोल वचन' का अभियान चलाया जा रहा है। 8 मई को जमशेदपुर की सभा में तो भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष ने अपने भाषण में साफ़ कह दिया कि – इस चुनाव में विकास नहीं, सिर्फ़ देश की सुरक्षा के लिए वोट दें! प्रायः सभी सभाओं में प्रधानमंत्री और अध्यक्ष के भाषणों में पुलमावा और सर्जिकल स्ट्राइक जैसे मुद्दों की भावनात्मक बातें हीं उछाली जा रहीं हैं। 

उक्त सुनियोजित कवायदों के बावजूद झारखंड प्रदेश के ग्रामीण समाज के लोग और विशेषकर आदिवासी समाज अपने ज़मीनी सवालों को लगातार इस चुनाव का एक निर्णायक मुद्दा बनाए हुए हैं। जिनकी ओर से ‘डबल इंजन' की भाजपा सरकार और उनके उम्मीदवारों को चुनाव में वोट नहीं देने की अपील में कहा जा रहा है कि, "भाजपा को वोट नहीं दें! क्योंकि इसने सदियों से आदिवासी समाज के परंपरागत ‘पत्थलगड़ी' की ग़लत व्याख्या तथा इसकी तुलना कश्मीर के पत्थरबाज़ों के समकक्ष ‘देशद्रोह‘ घोषित कर आदिवासी समाज का क्रूरता से दमन किया है। वर्षों पूर्व अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ किए गए बहादुराना विद्रोह से हासिल सीएनटी-एसपीटी एक्टों में संशोधन करने का अपराध किया है। भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक तथा लैंड-बैक योजना थोपकर झारखंड में आदिवासियों के बचे खुचे जल–जंगल–ज़मीन को कॉर्पोरेट कंपनियों की खुली लूट की पूरी छूट के हवाले कर दिया है। इसका विरोध कर रहे जन संगठनों के नेताओं और सामाजिक कार्यकर्त्ताओं–बुद्धिजीवियों पर ‘देशद्रोह–राजद्रोह' का मुक़दमा कर राज्य दमन चलाया है। झारखंडी व आदिवासी समाज का अस्तित्व संकट पैदा करने वाले विस्थापन और पलायन की मार सबसे अधिक भाजपा शासन में ही बढ़ी है। 

 

स्थापित मीडिया द्वारा आदिवासी समाज सवालों को अभी की चुनावी चर्चाओं से ग़ायब करने के तमाम प्रयासों के बावजूद उक्त सारे सवाल ज़मीनी धरातल पर मज़बूती से क़ायम हैं। जिसका जीवंत उदाहरण है कि अबतक सम्पन्न हुए चुनाव में आदिवासी बहुल्य क्षेत्रों के जिन मतदान केन्द्रों को ‘ख़तरनाक और अति संवेदनशील‘ घोषित कर उसे अर्ध सैन्यबलों की छवानी में तब्दील कर दिया गया था, वहाँ के वोटरों में सबसे अधिक सक्रियता दिखी। सभी आदिवासी सुरक्षित सीटों के चुनाव में विशेषकर भाजपा नेताओं–प्रत्याशियों की हालत कमज़ोर है। आदिवासी समाज की दुर्दशा व बदहाली के लिए विपक्षी महागठबंधन के दलों की पूर्व की सरकारों व उनके नेताओं को कोसने और छद्म देशहित की अंधभवनाएँ भड़काने के बावजूद यहाँ जीत की गारंटी नहीं हो पा रही है। 

चुनाव का परिणाम अभी आना बाक़ी है लेकिन फ़िलहाल ये स्थितियाँ स्पष्ट दर्शा रहीं हैं कि आदिवासी समाज के 'भोले-भाले-अशिक्षित और गँवार' होने का सदियों से गढ़ा गया मिथक अब नहीं चलने वाला है। जो विशेषकर इस चुनाव में तो खुलकर इस पहलू को स्थापित कर रहीं हैं कि ख़ुद को मुख्यधारा और सभ्य–शिक्षित व समझदार कहलाने वाले मतदाता समाज आज अपने सवालों को लेकर कहाँ खड़ा है और आदिवासी समाज कहाँ खड़े हैं? जिस पर अवामी शायर दुष्यंत जी ने काफ़ी पहले ही आगाह किया था कि,

"रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया,
इस बहकती हुई दुनिया को संभालो यारों!"
 

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