NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
कानून
भारत
राजनीति
नौकरी छोड़ चुके सरकारी अधिकारी का कुछ लिखने से पहले सरकार की मंज़ूरी लेना कितना जायज़?
यह अंदेशा ग़लत नहीं कहा जा सकता कि सरकार खुलकर कह रही है कि ख़बरदार! अगर नौकरी छोड़ने के बाद भी कुछ ऐसा बोला या लिखा जिससे सरकार पर आंच पड़े तो अंजाम बुरा हो सकता है।
अजय कुमार
13 Jun 2021
book

राष्ट्रीय सुरक्षा, भारत की एकता और अखंडता जैसे शब्द ऐसे हैं जिनके आगे रखकर किसी भी तरह की जानकारी की सांसे रोकी जा सकती हैं। ठीक इसके उलट भी है कि किसी भी ऐसी जानकारी को समाज में चलने फिरने से रोका जाना चाहिए जिससे राष्ट्रीय सुरक्षा और भारत की एकता अखंडता पर खतरा मंडराने लगे। इसलिए जब भी ऐसे बड़े शब्दों का इस्तेमाल हो तो यह परखने की कोशिश भी करना चाहिए कि किस शब्द का इस्तेमाल किन परिस्थितियों संदर्भों में किया जा रहा है।

पिछले हफ्ते भारत सरकार ने सरकार के बड़े अधिकारियों के रिटायरमेंट के बाद अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध से जुड़े एक नियम को जारी किया। नियम यह था कि इंटेलिजेंस और सिक्योरिटी ऑर्गेनाइजेशन के अधिकारी रिटायरमेंट के बाद अपने काम और अपने संगठन से जुड़े किसी भी तरह का प्रकाशन बिना सरकार के मंजूरी मिले नहीं कर सकते। अगर वे ऐसा करेंगे तो उन पर जरूरी कार्रवाई की जाएगी और उनका पेंशन रोक दी जाएगी। अब तक नियम यह था कि अपने कार्यकाल के दौरान ये सरकारी अधिकारी  सार्वजनिक मंच पर कुछ भी ऐसा बोल या लिख नहीं सकते जिससे सरकार की आलोचना होती हो। लेकिन रिटायरमेंट के बाद वह जो मर्जी सो लिखने और बोलने की स्वतंत्रता रखते थे। अब इस नियम के जरिए कि किसी किताब और लेख के प्रकाशन से पहले सरकार की मंजूरी लेनी पड़ेगी रिटायरमेंट के बाद मिलने वाली स्वतंत्रता के अंदर भी एक दीवार खड़ी कर दी गई है। यह नियम बनाने के पीछे भी सरकार ने वही तर्क दिया है जो भारत के संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संदर्भ में लिखा गया है कि कुछ भी ऐसा अभिव्यक्त नहीं किया जाएगा जिससे भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा और एकता अखंडता पर खतरा मंडराने लगे। 

पहली नजर में यह बात सबको ठीक भी लग सकती है लेकिन सवाल यही बनता है कि जब यह बात पहले से संविधान में मौजूद है। जब यह बात हर एक व्यक्ति के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़ी हुई है। तो आखिर कर बार-बार नियम के तौर पर बना कर सरकार क्या बताने की कोशिश करती है? 

इसे समझना कोई बहुत बड़ा रॉकेट साइंस नहीं है। पहले से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और उसके जायज निरबंधन होने के बावजूद सरकार इन प्रतिबंधों का जितना जायज इस्तेमाल करती है, उससे कहीं ज्यादा नाजायज इस्तेमाल करती हैं। कई ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे जहां पर राष्ट्रीय सुरक्षा और भारत की एकता अखंडता पर हमला जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर कई लोगों को जेल में बंद किया गया है। कहने का मतलब यह है कि अगर ऐसे नियमों से यह अंदेशा किया जाए कि सरकार खुलकर कह रही है कि खबरदार! अगर नौकरी छोड़ने के बाद भी कुछ ऐसा बोला या लिखा जिससे सरकार पर आंच पड़े तो अंजाम बुरा हो सकता है। तो ऐसे अंदेशे गलत नहीं कह जा सकते।

साल 1923 के ऑफिसियल सीक्रेट एक्ट के तहत भारत के प्रशासनिक अधिकारी अपनी जिम्मेदारियों की सीमा तय करते आए हैं। वह खुद-ब-खुद ऐसी जानकारियां को गुप्त ही रखते हैं जो किसी भी तरह से नुकसान पहुंचाने वाली हों। प्रशासनिक गलियों के जानकारों की माने तो रिटायरमेंट के बाद जब भी कोई प्रशासनिक अधिकारी कोई किताब लिखता है तो एक बार अपने संगठन के शीर्ष अधिकारी से अपनी किताब की ड्राफ्ट चेक करवा लेता है। यह अनौपचारिक तौर पर होता चला आया है। इसके पीछे की सबसे जरूरी मंशा यह होती है कि कोई ऐसी बात लीक न हो जाए जो वर्तमान में भी किसी छानबीन से जुड़ी हो, किसी ऑपरेशन से जुड़ी हो। लेकिन अब इसे औपचारिक नियम बना दिया गया है। यानी सरकार को प्रशासनिक अधिकारी के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नियंत्रित करने का पूरा अधिकार मिल चुका है। कल्पना कीजिए कि अगर कोई प्रशासनिक अधिकारी भीमा कोरेगांव घटना से संबंधित जानकारी अपने रिटायरमेंट के बाद प्रकाशित करवाना चाहता है तो क्या वह मौजूदा सरकार जैसी कोई सरकार हो तो प्रकाशित करवा पाएगा? ऐसे बहुत से उदाहरणों के बारे में ऐसे नियम आने के बाद कल्पना की जा सकती है।

जीके पिल्लई भारत सरकार में होम सेक्रेट्री रह चुके हैं। वह द हिंदू अखबार की इंटरव्यू में कहते हैं कि सबसे जरूरी सवाल तो यह बनता है कि आखिरकार यह निर्धारित कैसे किया जाएगा कि कौन सी जानकारी उजागर नहीं करनी है और कौन सी जानकारी उजागर करनी है। यह सब कुछ एक पद पर और पद पर बैठने वाले व्यक्ति पर निर्भर करेगा। वही यह तय करेगा कि कौन सी जानकारी संवेदनशील है, जिसे नहीं उजागर करना है। यानी सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि वह व्यक्ति किस तरह का फैसला ले रहा है। मेरी माने तो रिटायरमेंट के बाद 5 साल तक वैसी जानकारियां प्रकाशित नहीं होनी चाहिए जिनसे कोई वर्तमान का ऑपरेशन जुड़ा हुआ हो। जब उनका निहितार्थ खत्म हो जाए तब उन्हें भी प्रकाशित किया जा सकता है।

एक लोकतंत्र में जनता को जानने का अधिकार होता है। यकीनन यह बात बिल्कुल सही है कि  राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर काम करने वाले संगठन से जुड़ी जानकारियां बहुत अधिक संवेदनशील होती है। लेकिन फिर भी राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े संगठन का कामकाज बहुत अधिक अपारदर्शी होता है। उनके कामकाज और उनकी प्रक्रियाओं के बारे में खुलेआम बहुत कम जानकारी उपलब्ध हो पाती है। यह जानकारियां भी सार्वजनिक मंच पर उपलब्ध रहें यह एक लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करेगा। 

जीके पिल्लई कहते हैं कि अमेरिका में हर 30 साल के बाद सूचनाओं का डिक्लासिफिकेशन होता है। जो जानकारियां समय के लंबी यात्रा के बाद अपना तात्कालिक असर खो देती हैं उन्हें सार्वजनिक कर दिया जाता है। लेकिन भारत में ऐसा नहीं होता। मुझे अब भी समझ में नहीं आता कि आखिर क्यों साल 1962 के युद्ध से जुड़ी हेंडरसन ब्रुक रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गई है। जबकि इंटरनेट पर इसकी कई कॉपियां मिल जाती हैं। इसी तरह से जस्टिस मुखर्जी की सुभाष चंद्र बोस से जुड़ी रिपोर्ट भी सार्वजनिक कर देनी चाहिए। लेकिन यह सब कैद रखी गई हैं।  

कुछ जायज सूचनाओं को छोड़कर जो राष्ट्र सुरक्षा के लिए खतरा साबित हो सकती हैं बाकी सारी सूचनाओं का प्रकाशन जरूर होना चाहिए। हमें यह समझना चाहिए कि अगर हम जरूरी जानकारी और सूचनाओं को प्रकाशित नहीं करेंगे तो वह गैर कानूनी तरीके से सतह पर तैरने लगेंगी। जो गलत भी हो सकती हैं और सही भी। इसका बहुत बड़ा नुकसान हो सकता है। बहुत सारे जानकार कहते हैं कि साल 1971 के युद्ध में पाकिस्तान की तरफ से आरोप लगाया जाता था कि भारतीय सेना बांग्लादेश में हस्तक्षेप कर रही है। भारत की तरफ से से इनकार किया जाता था। लेकिन बाद में जब मामला शांत हुआ तो सेना के बहुत सारी अधिकारियों ने बांग्लादेश में हस्तक्षेप करने की बात अपनी किताबों में लिखी। तब जाकर आरोप-प्रत्यारोप स्पष्ट हुए। और सबसे अच्छी बात रही कि किसी पर ऑफिसियल सीक्रेट एक्ट के तहत कार्रवाई नहीं की गई। 

सैयद अकबरुद्दीन यूनाइटेड नेशंस में भारत के प्रतिनिधि रह चुके हैं। उनके मुताबिक इतिहास की घटनाओं का आंखों देखा ब्यौरा रखना, समझना और समझाना बहुत पुरानी और शानदार परंपरा है। इस तरह का विवरण जब अलग-अलग नजरिए के साथ रखा जाता है तो यह जनता के लिए बहुत फायदेमंद होता है। सरकार जानकारी मुहैया करवाएं या न करवाएं यह तनाव हमेशा चलता रहता है। यह केवल हमारे देश की बात नहीं है बल्कि दुनिया के हर देश में ऐसा होता है। अगर इतिहास के सफर पर चलते हुए देखा जाए तो हम पाएंगे कि जैसे जैसे हम भविष्य में आगे बढ़ते जा रहे हैं जानकारियां अधिक मिलती जा रही हैं। जितनी जानकारी आज है उससे अधिक आने वाले भविष्य में होगी। लेकिन कभी भी पूरी की पूरी जानकारी सार्वजनिक नहीं की गई है। एक बेहतर समाज बनाने के लिए यह बहुत जरूरी है कि प्रतिबंधों के बावजूद सारी जानकारी मिलती रहे। मैं खुद एक किताब लिखने जा रहा हूं। मैं एक ऐसी परंपरा से आता हूं जहां पर मेरा मानना है कि नेशनल सिक्योरिटी से समझौता किए बिना अधिक से अधिक पारदर्शिता, अधिक से अधिक जन जागरूकता फैलाई जा सकती है। मैं इसी रास्ते को अपनाते हुए अपनी किताब लिखूंगा। 

इस नियम का राजनीतिक विश्लेषण करने वाले जानकारों का कहना है कि नेशनल सिक्योरिटी क्या है? राष्ट्र की एकता और अखंडता कैसी जानकारियों से प्रभावित होगी? इन सब बातों पर ईमानदारी से सोचने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि इसे हर दौर में और परिस्थिति में परिभाषित करते रहना चाहिए। बहुत बारीक विश्लेषण होना चाहिए जो यह  बताए कि किसी जानकारी का कैसा असर पड़ सकता है? अगर रफाल की खरीदारी में वाकई कोई घोटाला हुआ है और कोई भूतपूर्व अधिकारी इसे मुखर होकर बताना चाहता है तो यह जानकारी जनता के सामने होनी चाहिए। लेकिन रफाल से जुड़े तकनीकी पहलू जिसे जानने का हक केवल रक्षा मंत्रालय और रक्षा विभाग के जानकारों को है उनको उजागर करने की जरूरत नहीं है। कहने का मतलब यह है कि सरकार का यह नियम अगर कायदे से पालन नहीं किया गया तो यह नियम सरकारी अधिकारियों के स्वतंत्रता को छीनने वाला नियम है। जिस तरह के मौजूदा हालात हैं उसमें इस नियम का असर कैसा होगा? इसका अंदाजा आप भी लगा सकते हैं।

freedom of speech of civil servant
freedom of speech of ritired civil servant
Modi
home ministry
Syed Akbaruddin
pension rules of civil servant

Related Stories

ग़ैर मुस्लिम शरणार्थियों को पांच राज्यों में नागरिकता

गृह मंत्रालय 2020 की समीक्षा: धूर्तता और सत्तावादी अहंकार की मिसाल?


बाकी खबरें

  • blast
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    हापुड़ अग्निकांड: कम से कम 13 लोगों की मौत, किसान-मजदूर संघ ने किया प्रदर्शन
    05 Jun 2022
    हापुड़ में एक ब्लायलर फैक्ट्री में ब्लास्ट के कारण करीब 13 मज़दूरों की मौत हो गई, जिसके बाद से लगातार किसान और मज़दूर संघ ग़ैर कानूनी फैक्ट्रियों को बंद कराने के लिए सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रही…
  • Adhar
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: आधार पर अब खुली सरकार की नींद
    05 Jun 2022
    हर हफ़्ते की तरह इस सप्ताह की जरूरी ख़बरों को लेकर फिर हाज़िर हैं लेखक अनिल जैन
  • डॉ. द्रोण कुमार शर्मा
    तिरछी नज़र: सरकार जी के आठ वर्ष
    05 Jun 2022
    हमारे वर्तमान सरकार जी पिछले आठ वर्षों से हमारे सरकार जी हैं। ऐसा नहीं है कि सरकार जी भविष्य में सिर्फ अपने पहनावे और खान-पान को लेकर ही जाने जाएंगे। वे तो अपने कथनों (quotes) के लिए भी याद किए…
  • न्यूज़क्लिक डेस्क
    इतवार की कविता : एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' का तर्जुमा
    05 Jun 2022
    इतवार की कविता में आज पढ़िये ऑस्ट्रेलियाई कवयित्री एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' जिसका हिंदी तर्जुमा किया है योगेंद्र दत्त त्यागी ने।
  • राजेंद्र शर्मा
    कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित
    04 Jun 2022
    देशभक्तों ने कहां सोचा था कि कश्मीरी पंडित इतने स्वार्थी हो जाएंगे। मोदी जी के डाइरेक्ट राज में भी कश्मीर में असुरक्षा का शोर मचाएंगे।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License