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भारत
राजनीति
इलेक्ट्रिसिटी सेक्टर में जारी संकट और क्रॉनी कैपिटलिज़्म
हमें क्रॉनी कैपिटलिज़्म के बजाए अंबेडकर के दृष्टिकोण को वापस लाने की जरूरत है, जिसमें नागरिकों को किफायती दामों पर बिजली उपलब्ध करवाना राज्य का कर्तव्य था।
प्रबीर पुरुकायास्थ
30 Nov 2019
power sector

1990 में शुरू हुए नवउदारवादी सुधारों के बाद इलेक्ट्रिसिटी सेक्टर की समस्याएं और ज़्यादा बढ़ गईं। एनरॉन स्टाइल के इन सुधारों के ज़रिए 90 के दशक में महंगी निजी ऊर्जा ग्रिड में लाई गई। इसके बाद 2003 का इलेक्ट्रिसिटी एक्ट आया, जिससे ऊर्जा उत्पादन की लाइसेंसिंग खत्म कर, ऊर्जा क्षेत्र के लिए योजनाबद्ध नीतियां बनाना बंद कर दिया गया। अब हमारे सामने एक नया प्रस्ताव आया है। इसमें बिजली को ले जाने वाले माध्यम और मालिकाना हक़ को अलग-अलग किया जाएगा। दूसरे शब्दों में कहें तो विधुत व्यापारी, जो बिजली निर्माण नहीं करते, वे बिजली खरीदेंगे और उसे ग्राहकों तक पहुंचाएंगे। इसे पहुंचाने के लिए जिन तारों का उपयोग होगा, उनका मालिक इन व्यापारियों के बजाए कोई दूसरा होगा। व्यापारी लाभ कमाएंगे और बिजली के उत्पादनकर्ता या बिजली तारों के मालिक घाटा सहेंगे। यह वाकई व्यापारियों के ‘हित’ में बनाई गई नीति होगी।

इन सब तरीकों का इस्तेमाल कर बिजली को एक कमोडिटी (वस्तु) बना दिया जाएगा, जिसे बाज़ार में खरीदा-बेचा जाएगा। बाज़ार के साथ दिक्कत है कि यह इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर के लिए काम नहीं करता, इलेक्ट्रिसिटी सेक्टर की तो बात दूर। बाज़ार उन सेक्टर में असफल साबित होते हैं जिनमें बड़े और लंबे वक्त के लिए निवेश की जरूरत पड़ती है। इलेक्ट्रिसिटी सेक्टर में यह भी दिक्कत है कि हमें बिजली की मांग और उत्पादन में हमेशा संतुलन बनाए रखना होता है, क्योंकि दूसरे उत्पादों की तरह इसका भंडारण नहीं किया जा सकता। इलेक्ट्रिसिटी सेक्टर की इन सब मांगों के चलते इसमें लंबे निवेश और योजनाबद्ध नीतियां बनाए जाने की जरूरत पड़ती है। इसलिए यहां राज्य तस्वीर में आता है।

सुधारों की असफलता स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड (SEBs) की उधारी देखकर भी समझ में आती है। यह राज्य सरकारों के स्वामित्व वाली वितरक कंपनियां हैं। नवउदारवादी सुधारों के बाद इनका कर्ज़ लगातार बढ़ता ही गया। यह कर्ज़ सुधार शुरू होने के वक्त 90 के दशक में बेहद कम हुआ करता था। 2002 में यह कर्ज बढ़कर 40 हजार करोड़ रुपये पर पहुंच गया। ऊर्जा उत्पादन में लाइसेंसिंग खत्म करने वाले 2003 के इलेक्ट्रिसिटी एक्ट के बाद 2012 में इन सरकारी कंपनियों का उधार 1.9 लाख करोड़ रुपये हो गया।

अब उधार को संभालने के लिए नई योजना की जरूरत थी। तब सरकार ने दोबारा इन कंपनियों के उधार को संभाला। आज हमारे पास UDAY नाम की स्कीम है। इसमें उधार को सुधारने के लिए केंद्र ने राज्यों को 3.8 लाख करोड़ का कर्ज़ दिया। हम जितने सुधार करते गए, राज्य सरकारें उधार के दलदल में उतना धसती गईं। इनके स्वामित्व वाली कंपनियों की बैलेंस सीट बदतर होती चली गईं। लेकिन इलेक्ट्रिसिटी सेक्टर की मूल समस्या का हल नहीं हुआ।

उत्पादन करने वाली कंपनियों की लाइसेंसिंग को प्लानिंग से अलग करना भी 2003 के इलेक्ट्रिसिटी एक्ट की असफलता का कारण बना। इसके चलते निजी उत्पादक इस क्षेत्र में आए। उन्होंने यह नहीं बताया कि वे कैसे बिजली को बेचेंगे; या हमें कितने अतिरिक्त उत्पादन की और जरूरत है। बिना प्लानिंग की वृद्धि का असर यह हुआ कि हमारी वास्तविक मांग से बहुत ज़्यादा बिजली उत्पादन हुआ। इसके चलते एक प्लांट का चालन समय गिरकर आज 50-55 फ़ीसदी पर आ गया। जबकि 90 के दशक में यह 70 से 75 फ़ीसदी तक हुआ करता था। यह हमारे संसाधनों का सही उपयोग नहीं है।

केंद्र सरकार ने इस दौर में उत्पादनकर्ताओं के लिए पैसे की उपलब्धता को भी सुलभ बनाया। सार्वजनिक बैंकों को अंबानी, अडानी, टाटा, बिड़ला जैसों को आसान लोन देने के लिए मजबूर किया गया। यह लोग आज वित्तीय संकट का सामना कर रहे हैं और बैंकों के लिए एनपीए पैदा कर रहे हैं।

इसके चलते बैंको को बहुत बड़ा झटका लगा और उनकी बैलेंस सीट बिगड़ गईं। अब उन्हें जनता के पैसे से बेल आउट पैकेज की जरूरत है। दूसरे शब्दों में कहें तो हम भारत के लोग, बैकों में मौजूद हमारे पैसे के ज़रिए पहले तो निजी कंपनियों को बड़ी पूंजी देते हैं। जब वे डूबने लगती हैं या चालाकी से बही-खाते में हेरफेर कर पैसा यहां-वहां करती हैं, तब भी हम नुकसान उठाते हैं और सरकारी खजाने (जैसे आयकर) से उनकी उधारी चुकाते हैं। यह फायदे के निजीकरण और घाटे के समाजीकरण का पारंपरिक मामला है, जो ''अच्छे'' क्रॉनी कैपिटलिज़्म की निशानी है।

नवीकरणीय ऊर्जा को जिस तरह से ग्रिड में शामिल किया गया है, उससे यह चलन और बढ़ा है। यहां भी सार्वजनिक कोष से निजी उत्पादकों को सस्ते और आसान लोन दिए गए। या फिर एनरॉ़न की तरह कांट्रेक्ट दिए गए। इनके चलते राज्य की वितरण कंपनियों को महंगी नवीकरणीय ऊर्जा को 20-25 साल के लिए लेना पड़ा।

जैसा गुजरात के मामले में हुआ, उस वक्त नरेंद्र मोदी वहां के मुख्यमंत्री थे। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक़, गुजरात के ऊर्जामंत्री सौरभ पटेल ने विधानसभा में एक लिखित जवाब में बताया कि प्रदेश सरकार ने 42 कंपनियों के साथ ''पॉवर परचेज़ एग्रीमेंट(PPAs)'' के तहत 15 रुपये प्रति यूनिट पर सौर ऊर्जा खरीदी। इस तरह की ऊर्जा का सबसे बड़ा निर्यातक अडानी पॉवर लिमिटेड था। इसी दौरान ''सोलर एनर्जी कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड'' से 4.50 रुपये प्रति यूनिट पर सौर ऊर्जा भी खरीदी गई। यह कॉरपोरेशन भारत सरकार के नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय के अंतर्गत आता है।

नवीकरणीय ऊर्जा को प्रोत्साहन देने की आड़ में वितरण कंपनियों को महंगी सौर और पवन ऊर्जा लेने और अपने कोयला संयंत्रों को रोकने या उत्पादन कम करने पर मजबूर किया गया। ऊपर से कांट्रेक्ट के ज़रिए उन्हें एक तय खपत करने को मजबूर किया जाता है, जिससे उन्हें ऐसी ऊर्जा के लिए एक तय कीमत देनी होती है, जिसे वो ले ही नहीं सकते।

यहां मुद्दा नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देना नहीं है। यह सही बात है कि ऊर्जा के नए स्त्रोंतो पर शुरूआत में निवेश ज्यादा होगा और उनपर सब्सिडी दिए जाने की जरूरत भी पड़ेगी। लेकिन यहां मुद्दा यह है कि इसका भारत जनता और राज्य सरकारों पर पड़ रहा है। जबकि नीतियां केंद्र सरकार बना रही है। वो भी क्रॉनी कैपिटलिस्ट के लिए, जिनकी इन नीतियों में जनता और राज्य के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं बनती।

भारतीय परिप्रेक्ष्य में बाज़ारों की असफलता का एक और कारण वितरण की पूरी जिम्मेदारी राज्य पर होना भी है। सुधारों के ज़रिए केंद्र सरकार पूरा भार वितरक पर डाल देती है, जो जनता को बिजली पहुंचाने के लिए जिम्मेदार होता है।  इन वितरण कंपनियों का स्वामित्व राज्य सरकारों के हाथ में होता है। बिजली दर ऊंची होने या इसकी आपूर्ति बाधित होने पर उन्हें जनता की नाराजगी का सामना करना पड़ता है।

इलेक्ट्रिसिटी सेक्टर की नीतियां केंद्र द्वारा दो तरीकों से इस्तेमाल की जाती हैं: A) सार्वजनिक बैंकों द्वारा ‘कोर सेक्टर लैंडिंग’ के जरिए निजी पूंजी पर सब्सिडी की मदद देकर। B) राज्य सरकारों को ग्राहकों को सब्सिडी देने के लिए केंद्रीय कोष से उधार के लिए मजबूर करना। यह उधार राज्यों की केंद्र पर निर्भरता को बढ़ाते हैं और उन्हें अपने लोगों की कीमत पर पूंजी हित की नीतियां मानने के लिए मजबूर करते हैं।

पिछले 30 सालों में इन बाज़ार सुधारों की असफलता ने ज़्यादा बड़ा संकट पैदा कर दिया है। अब निजी उत्पाद कंपनियों और सरकारी वितरक कंपनियों का उधार बैंकों और राज्यों की वित्तीय स्थिरता को खतरा पैदा कर रहा है। बैंको में एनपीए का सबसे बड़ा हिस्सा आज ऊर्जा कंपनियों का है। राज्य सरकारों के इस घाटे का सबसे बड़ा कारण वितरण कंपनियों का लगातार होता नुकसान है। लेकिन यह नुकसान भी इलेक्ट्रिसिटी सेक्टर में उत्पादन से ऊर्जा के वितरण तक दोबारा सोच पैदा नहीं कर पाए। जबकि कई सुधार खराब होते गए। बाजार की निर्मम नीतियों को नुकसान के बाद भी जारी रखा गया।

हम जब तक अपनी नीतियों का उद्देश्य नहीं समझेंगे, हम इलेक्ट्रिसिटी सेक्टर को नहीं समझ सकते हैं। 1948 में बनाए गए इलेक्ट्रिसिटी ड्रॉफ्ट में आंबेडकर ने इस बात को साफ किया है। इसके मुताबिक़, यह राज्य का कर्तव्य है कि वह अपने सभी नागरिकों को किफायती दाम पर बिजली उपलब्ध कराए। विद्युत उत्पादन और वितरण लाभ के लिए नहीं, बल्कि इसी उद्देश्य के लिए प्राथमिक है। 90 के दशक से इस सेक्टर में निजी पूंजी को बढ़ावा दिया गया और उन्हें फायदा कमाने में मदद की गई। जो हमारा वास्तविक दृष्टिकोण है कि विकास समतावादी होना चाहिए। वह आज सरकारों द्वारा समर्थित क्रॉनी कैपिटलिज्म के उलट था। हमें उसे वापस लाना चाहिए।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Continuing Crisis and Crony Capitalism in Electricity Sector

Electricity Act 2003
electricity distribution
Privatisation of Electricity
State Electricity Board
Electricity Sector in India
Modi government
Commodification of Electricity
Electricity Reforms
power sector

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