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कोविड-19 : वैक्सीन के मोर्चे पर अच्छी ख़बरें, लेकिन चुनौती अब भी बरक़रार
'क्या वैक्सीन हासिल होने के बाद हम कोरोना महामारी द्वारा पेश की गई सार्वजनिक स्वास्थ्य चुनौती का सामना बेहतर ढंग से कर पाएंगे? जब तक दुनिया में कोविड-19 मौजूद है, कोई भी देश सुरक्षित नहीं है। याद रखिए माइक्रोब्स सीमाओं का पालन नहीं करते।'
प्रबीर पुरकायस्थ
07 Dec 2020
कोविड-19

वैज्ञानिक समुदाय ने कोविड-19 महामारी का कुछ ऐसे जवाब दिया है, जैसा पहले कभी सोचा भी नहीं जा सकता था। केवल 12 महीने में हमारे पास कोविड-19 वैक्सीन की एक श्रंखला आने वाली है। यह एक बेहद खास उपलब्धि है। क्योंकि इससे पहले जो सबसे तेज वैक्सीन विकसित हुई थी, वह मम्पस (गले से जुड़ा एक रोग की वैक्सीन थी, जिसे चार साल में बनाया गया था। अहम बात यह भी है कि वैक्सीन बनाने के प्रतिभागी फाइजर-बॉयोएनटेक, मॉडर्ना, ऑक्सफोर्ड-एस्ट्रोजेनेका और गेमेल्या, चारों ने नियामक संस्थाओं द्वारा तय की गई 50 फ़ीसदी लक्षित सफलता दर से कहीं ज़्यादा कार्यकुशलता हासिल की है। फाइजर-बॉयोएनटेक को ब्रिटेन ने हरी झंडी दिखा दी है, वहीं गेमेल्या को पहले ही रूस अनुमति दे चुका है। यह नतीज़े हमें उम्मीद देते हैं कि अगर बड़े पैमाने पर तेजी से लोगों का टीकाकरण होता है, तो धीरे-धीरे जिंदगी सामान्य हो जाएगी। 

अगर इतने कम वक़्त में कई वैक्सीन मंचों का इस्तेमाल कर वैक्सीन को विकसित किया जा सकता है, तो ऐसा क्यों है कि संक्रामक रोग अब भी दो तिहाई वैश्विक आबादी को प्रभावित कर रहे हैं? आखिर कोरोना ने जब तक यह संदेश नहीं दिया कि माइक्रोब्स की कोई सीमा नहीं होती, तब तक बड़ी फॉर्मा कंपनियों के लिए वैक्सीन प्राथमिकता क्यों नहीं था?

हालांकि अब तक चारों वैक्सीन निर्माताओं ने अपनी सफलता के प्राथमिक नतीजे प्रेस स्टेटमेंट्स के ज़रिए जारी किए हैं, पर 20 से ज़्यादा वैक्सीन तीसरे चरण के ट्रॉयल में चल रहे हैं। इनमें से कुछ की सकारात्मक संभावना की उम्मीद है। वैक्सीन कैंडिडेट्स अलग-अलग तरह की तकनीक का इस्तेमाल कर रहे हैं। जैसे बॉयोएनटेक-फाइजर और मॉडर्ना पूरी तरह से नई तकनीक का इस्तेमाल कर रहे हैं। जबकि कुछ दूसरी कंपनियां जैसे भारत-बॉयोटेक और साइनोवेक निष्क्रिय वायरस को वैक्सीन के तौर पर उपयोग करते हैं, यह तकनीक 100 साल से भी ज़्यादा वक़्त से हमारे पास है।

अगर ज़्यादातर वैक्सीन, नियंत्रकों द्वारा दी गई 50 फ़ीसदी की कार्यकुशलता को पार कर जाती हैं, फिर सवाल उठेगा कि हम अपने लोगों के लिए कौन सी वैक्सीन का उपयोग करेंगे? क्या हम केवल कार्यकुशलता को ही अर्हता बनाएंगे या फिर वैक्सीन की लॉजिस्टिक्स सहूलियतों का भी ध्यान रखेंगे? जैसे फाइजर-बॉयोएनटेक और मॉडर्ना जैसी वैक्सीन को बेहद कम तापमान चेन की जरूरत पड़ती है, जबकि कुछ वैक्सीनों को सामान्य रेफ्रिजरेशन पर रखा जा सकता है। या फिर हम इस पर ध्यान देंगे कि किस वैक्सीन के ज़रिए, कितनी जल्दी हम टीकाकरण शुरू कर सकते हैं और इसकी कीमत क्या होगी?

फाइजर-बॉयोएनटेक और मॉडर्ना दोनों ने ही 90 फ़ीसदी कार्यकुशलता का दावा किया है। यह प्राथमिक आंकड़े हैं, जो डबल-ब्लाइंड ट्रॉयल में शामिल संक्रमितों की कम संख्या पर आधारित हैं। रूस की गेमेल्या वैक्सीन ने भी 90 फ़ीसदी से ज़्यादा कार्यकुशलता का दावा किया है। लेकिन यह दावे भी छोटे आंकड़ों पर आधारित हैं।

ऑक्सफोर्ड-एस्ट्रोजेनेका की संख्याएं थोड़ी जटिल हैं। कंपनी ने दो पूरी खुराक 28 दिन के अंतराल पर देने की योजना बनाई थी। लेकिन एक गलती की वज़ह से, कंपनी ने “कुछ वॉलेंटियर्स” को “कुल डोज़ में शामिल दो खुराकों” में पहले में आधी खुराक दी और दूसरी में पूरी खुराक दी गई। डोज में दोनों खुराक बराबर देने वाले टीकाकरण में 62 फ़ीसदी की कार्यकुशलता आई, जबकि आधी और पूरी खुराक के मिश्रण वाले टीकाकरण में 90 फ़ीसदी की कार्यकुशलता मापी गई। एस्ट्राजेनेका ने इसे 72 फ़ीसदी की कुल कार्यकुशलता बताया है।

वैक्सीन कार्यकुशलता से जुड़े इन आंकड़ों ने फाइजर और मॉडर्ना के स्टॉक कीमतों को बहुत उछाला, जाइलेड की रेमेडिसिविर के वक़्त भी ऐसा हुआ था। तब कम मामलों पर आधारित इस दवाई को सफल बता दिया गया था। जब ज़्यादा मामलों में ट्रॉयल हुआ, तो रेमेडिसिविर के मनचाहे नतीज़े नहीं आ पाए। खैर, जब चार वैक्सीन अच्छे शुरुआती नतीज़े दे रही हैं, तो हमें आशा करनी चाहिए कि 2020 की शुरुआत में हमारे पास सफल वैक्सीन का सेट होगा।

इस पृष्ठभूमि में, ऑक्सफोर्ड-एस्ट्रोजेनेका वैक्सीन की भारत में ट्रॉयल, जो सीरम इंस्टीट्यूट और इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च द्वारा की जा रही है, उसमें हुई एक घटना ने मीडिया का ध्यान अपनी ओर खींचा। ट्रॉ़यल में शामिल एक वॉलेंटियर को स्वास्थ्य संबंधी प्रतिकूल समस्याएं हो गईं, जिसके चलते उसे अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा। जब संबंधित शख्स को अस्पताल से छोड़ दिया गया, तब भी उसे समस्याओं का सामना करना पड़ता रहा। आखिरकार शख्स ने सीरम इंस्टीट्यूट पर मुकदमा दायर कर दिया। सीरम इंस्टीट्यूट और ICMR ने कहा कि ट्रॉयल की एथिक्स कमेटी ने मामले की जांच की है और पाया है कि शख्स के स्वास्थ्य में जो समस्याएं पैदा हुई हैं, वे वैक्सीन के चलते नहीं हैं। उन्होंने यह भी कहा कि जब सभी प्रक्रियाओं का पालन कर लिया गया और सभी अनुमतियां हासिल हो गईं, उसी के बाद दोबारा ट्रॉयल शुरू की गई। मीडिया में उल्लेखित एक आधिकारिक सूत्र के मुताबिक़, ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया ने मामले में जांच की, जिसमें पाया गया कि कथित स्वास्थ्य संबंधी "प्रतिकूल घटनाएं" संबंधित शख़्स को दी गईं वैक्सीन की खुराक से नहीं जुड़ी हैं।

वैक्सीन ट्रॉयल में हजारों स्वस्थ्य वॉलेंटियर्स ने हिस्सा लिया। ट्रॉयल के दौरान इनमें से कुछ खुद भी बीमार पड़ेंगे, जैसा बड़े समूहों में होता ही है। सवाल यह है कि उल्लेखित बीमारी वैक्सीन से संबंधित है या किसी दूसरी वज़ह से। ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका से ही जुड़ी एक पुरानी घटना के चलते इसकी ट्रॉयल को तात्कालिक तौर पर रोक दिया गया था, जब यह तय कर लिया गया कि संबंधित घटना वैक्सीन की वज़ह से नहीं हुई, तभी दोबारा ट्रॉयल शुरू की गईं। ब्राजील में चीन की साइनोवेक वैक्सीन से की गई ट्रॉयल में एक व्यक्ति के मृत हो जाने से उसे दो दिन के लिए रोकना पड़ा था। यह ट्रॉयल तभी शुरू की गई, जब जांच में पाया गया कि संबंधित शख्स की मौत ओवरडोज़ से हुई थी, जो वैक्सीन ट्रॉयल से किसी भी तरह संबंधित नहीं थी।

इस तरह की "प्रतिकूल घटनाएं" किसी भी वैक्सीन के बनने के दौरान आम होती हैं, अगर सामान्य समय में, इतनी बड़ी वैक्सीन ट्रॉयल में कोई भी वॉलेंटियर बीमार नहीं पड़ता, तो हमें बहुत आश्चर्य होता। इन घटनाओं में यह अहम है कि मीडिया में मुद्दे पर घमासान मचने के पहले DGCI जल्दी सक्रियता दिखाए।

आज जब विज्ञान-विरोधी माहौल बना हुआ है, जिसमें बेहद अजीबों-गरीब दावे माने जाते हैं, जैसे गोमू्त्र की स्वास्थ्य कार्यकुशलता से लेकर 5G टेक्नोलॉजी से कोविड-19 फैलने जैसे दावे, तब यह अहम हो जाता है कि हम इन मुद्दों का तेजी से समाधान करें। दुनिया में अमेरिका एकमात्र कुख्यात देश है, जहां वैक्सीन विरोधी मजबूत कैंपेन जारी है, जो वैक्सीन से जुड़ी शंकाओं की वज़ह से पैदा हुआ है। ऐसे लोग जो कहते हैं कि भले ही वैक्सीन उपलब्ध हो, लेकिन वह उसका इस्तेमाल नहीं करेंगे, ऐसे लोगों की संख्या अमेरिका में सबसे ज़्यादा है। यह चिंता की बात है कि इस तरीके के वैक्सीन विरोधी लोगों के छोटे-छोटे समूह पूरी दुनिया में फैले हुए हैं, जो अमेरिकी राजनीति के छोटे-मोटे समूह के बावले लोगों से प्रेरणा लेते हैं। यह लोग अपने तर्कों को राज्य विरोधी, बड़े व्यवसाय विरोधी भाषणबाजी में लपेटते हैं, जिन पर वैज्ञानिक सिद्धांतों जैसी लगने वाली बातों का तड़का मारा जाता है। ऊपर से देखने में यह बातें भरोसेमंद लग सकती हैं। अगर इन कैंपेन का नतीज़ा बहुत ख़तरनाक ना हो, तो हम इन पर हंस सकते हैं। अगर सभी लोगों में से कुछ को ही वैक्सीन नहीं लग पाया, तो इसका मतलब होगा कि हर्ड इम्यूनिटी हासिल नहीं होगी और संक्रमण जारी रहेगा। इसका एक उदाहरण अमेरिका में चेचक का दोहराव है।

अगर हम मान लें अगले कुछ महीनों में कई वैक्सीन 50 फ़ीसदी की कार्यकुशलता की अर्हता हासिल कर लेती हैं, तो अलग-अलग देशों को अपने लोगों के लिए वैक्सीन हासिल करने के क्रम में कैसे रखा जाएगा?

यहां वैक्सीन राष्ट्रवाद अपने भद्दे सिरे पर पहुंच गया है। अमीर देश, जिनमें दुनिया की सिर्फ़ 13 फ़ीसदी आबादी ही रहती है, उसने पहले ही मौजूदा वैक्सीन निर्माण क्षमता की 55 फ़ीसदी वैक्सीन खुराकों (9.8 बिलियन खुराक) की बुकिंग कर ली है या उन्हें हासिल कर लिया है। यह उनकी जरूरतों का दो से तीन गुना है, क्योंकि वह नहीं जानते कि कौन सी वैक्सीन सफल होगी। फिलहाल वे बस सट्टा लगाना चाहते हैं। मध्यम और निचली आय वाले देशों में भारत और ब्राजील की स्थिति बेहतर हैं, क्योंकि इनके पास बड़े स्तर पर घरेलू निर्माण क्षमताएं हैं। निचले आय वाले देशों में केवल WHO से समर्थन प्राप्त GAVI-CEIP वैक्सीन गठबंधन और कोवैक्स का ही सहारा है।

चीन कोवैक्स फेसिलिटी में शामिल हो गया है और उसने वायदा किया है कि अगर उसका वैक्सीन सफल हो गया, तो उसे "वैश्विक सार्वजनिक सामग्री" माना जाएगा और सभी देशों को उपलब्ध कराया जाएगा। चीन ने उन देशों को भी बड़ी संख्या में वैक्सीन खुराकें देने का वायदा किया है, जो चीनी कंपनियों और संस्थानों के साथ, इन देशों में हो रही क्लिकल ट्रॉयल में हिस्सा ले रहे हैं।

WHO समर्थित कोवैक्स फेसिलिटी में दो बिलियन डॉलर की जरूरत है, जिससे 20 फ़ीसदी लोग, जो कम आय वाले देशों में रहते हैं, उनके टीकाकरण में मदद मिलेगी। कहा गया है कि 2021 में इस कार्यक्रम के लिए पांच बिलियन डॉलर की जरूरत होगी। अमीर देश अग्रिम तौर पर वैक्सीन की बुकिंग कर रहे हैं, इसके चलते गरीब़ देशों को अपनी आबादी के लिए 2023-24 तक वैक्सीन हासिल नहीं होगी।  

बड़ी संख्या में हमारी आबादी के टीकाकरण का काम वैज्ञानिक नहीं, बल्कि सामाजिक और सार्वजनिक स्वास्थ्य चुनौती है। एक समाज के तौर पर हमने इन दोनों ही मोर्चों पर अच्छा काम नहीं किया है। इस चेतावनी के बावजूद, ज़्यादातर देश महामारी की चुनौती के लिए रत्ती भर भी तैयार नहीं थे। अमेरिका "वुहान वायरस (जैसा ट्रंप ने कहा)" के चलते चीन और WHO पर हमला करने में मशगूल था, जबकि वास्तविकता यह थी कि दुनिया के कुछ अव्वल स्वास्थ्य संस्थानों के अपनी ज़मीन पर मौजूदगी के बावजूद भी अमेरिका का सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचा महामारी के दौरान बिखर गया। भारत, ब्राजील, ब्रिटेन जैसे देश भी कुछ अच्छा करने में नाकामयाब रहे। तो सवाल उठता है कि क्या वैक्सीन के साथ हम कोरोना महामारी द्वारा पेश की गई सार्वजनिक स्वास्थ्य चुनौती का सामना बेहतर ढंग से कर पाएंगे? और जब तक दुनिया में कोविड-19 मौजूद है, कोई भी देश सुरक्षित नहीं है। याद रखिए माइक्रोब्स सीमाओं का पालन नहीं करते।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिेए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

COVID-19: Good News on the Vaccine Front but Challenges Remain

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