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भारत
राजनीति
मैरिटल रेप को आपराधिक बनाना : एक अपवाद कब अपवाद नहीं रह जाता?
न्यायिक राज-काज के एक अधिनियम में, कर्नाटक उच्च न्यायालय की व्याख्या है कि सेक्स में क्रूरता की स्थिति में छूट नहीं लागू होती है।
इंदिरा जयसिंह
29 Mar 2022
marital rape
चित्र सौजन्य: एफआईआई

कानून दोनों ही काम करता है-एक मानक स्थापित करने का और उसका दूसरा काम वर्णनात्मक होता है।

अपराध मामलों का कानून उन अपराधों का एक संघटन है, जिनमें किसी गुनाह में कारावास और/या जुर्माने के दंडनीय प्रावधान होते हैं।

भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा ​375​​ में बलात्कार के विरुद्ध कानून को सामान्य तौर पर परिभाषित किया गया है क्योंकि यह एक महिला से उसकी इच्छा के खिलाफ या उसकी सहमति के बिना किया गया यौन दुराचार है। इसलिए, यौन अधिनियम के लिए अपराध का एक मानक तत्व महिला की 'सहमति' का न होना है, जिसे "स्पष्ट स्वैच्छिक समझौते" के रूप में परिभाषित किया जाता है, जब महिला शब्दों से, इशारों में या मौखिक या गैर-मौखिक संवाद के किसी भी रूप से, विशिष्ट यौनक्रिया में भाग लेने की अपनी इच्छा जाहिर करती है।” इस नियम में एक अपवाद है, जिसे आमतौर पर "वैवाहिक बलात्कार अपवाद" के रूप में जाना जाता है: 

“अपवाद-2. ​​पति द्वारा अपनी पत्नी, अगर वह 15 वर्ष से कम उम्र की नहीं है, तो उसके साथ किया गया संभोग या यौन कृत्य बलात्कार की कोटि में नहीं आता है।” 

विवाह की अवधारणा 

तब दो व्यक्तियों के बीच प्रत्येक यौन आचरण के लिए सहमति के मानदंड के अपवाद का मकसद क्या है? 

परंपरागत रूप से, विवाह का मकसद यह बताया गया है कि इसमें एक महिला का अपने पति के साथ समागम करने की सहमति निहित है। फिलहाल हम मान कर लेते हैं कि विवाह में ही यौन संबंधों की सहमति निहित है। सवाल यह है कि एक पत्नी की अपने पति से शादी की वास्तविक सहमति क्या है। 

क्या यह एक पत्नी का अपने साथ क्रूरता से सेक्स करने के लिए निहित सहमति है? इसका जवाब, उच्च न्यायालय का फैसला है, जो जोरदार तरीके से कहता है-नो। एक बार जब यह स्पष्ट हो जाता है, तो धारा 375 में दूसरा अपवाद समाप्त हो जाता है और बलात्कार चाहे जिस किसी भी नाम से किया जाए वह बलात्कार ही होगा।  उसे बलात्कार ही कहा जाएगा। 

यह उल्लेखनीय है कि हमारे लगभग सभी कानूनों में विवाह की अवधारणा की कोई परिभाषा नहीं है। हमारे कानून हमें यह तो बताते हैं कि विवाह कैसे करें या फिर विवाह से बाहर कैसे निकलें, लेकिन विवाह के निर्वाह के लिए क्या करें या इस दौरान क्या होता है,इन पर वह पूरी तरह चुप है। 

एक समतावादी समाज को यह समझना चाहिए कि विवाह प्यार, विश्वास, भरोसा, दोस्ती, देखभाल और साझाकरण पर आधारित एक अनुबंध है। इसमें कोई संदेह नहीं कि विवाह में पति-पत्नी के बीच यौन संबंध होना शामिल है। यहां हमें स्वीकार करना चाहिए, यौन संबंध विवाह में शामिल दोनों पक्षों के लिए आनंद का एक स्रोत है। यदि हम इस तरह से विवाह अनुबंध को देखते हैं, जिसमें एक महिला ने संभोग के लिए निहित सहमति दिया हुआ है तो सवाल यह हो जाता है कि हम धारा ​375​​ के अपवाद को कैसे समझते हैं? 

अपवाद के लिए अपवाद

निहित सहमति यौन शोषण के लिए सहमति की अनुपस्थिति के साथ युक्तिसंगत नहीं है। और न ही कोई कानून है जो एक महिला को किसी दी गई परिस्थिति में विवाह में निहित सहमति को वापस लेने से रोकता है। इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो कर्नाटक उच्च न्यायालय के हालिया निर्णय को अपवाद की एक क्रांतिकारी व्याख्या कहा जा सकता है और अपवाद के लिए एक अपवाद पैदा करता है, जिससे अपमानजनक विवाह में फंसी महिलाओं को राहत मिलती है जब दुर्व्यवहार का मुख्य रूप यौन शोषण होता है। ऐसे हालात में एक पत्नी, आखिरकार, एक कैद की स्थिति में अपने दुर्व्यवहारकर्ता (पति) के साथ एक छत के नीचे रह रही है। 

इस मामले में न्यायमूर्ति एम. नागप्रसन्ना की एकल पीठ ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए पूछा कि क्या एक पत्नी क्रूरता के साथ यौन संबंध के लिए निहित सहमति देती है? और इसके जवाब में जोर देकर कहते हैं-नो। एक बार जब यह स्पष्ट हो जाता है तो अपवाद समाप्त हो जाता है और बलात्कार किसी भी नाम से हो, वह बलात्कार ही होगा।

इस व्याख्या के कुछ संकेत आईपीसी की धारा ​376​ ​बी में पाए जा सकते हैं:

376​ ​बी. अलग रहने के दौरान पति द्वारा अपनी पत्नी से संभोग। ऐसा व्यक्ति जो पत्नी से अलग-अलग रह रहा है, यह अलगाव के किसी फैसले के तहत हुआ हो या किस अन्य तरीके से, ऐसी स्थिति में कोई पति अपनी पत्नी के साथ,उसकी सहमति के बिना ही संभोग किया तो इसके लिए उसे जेल हो सकती है, जिसकी अवधि दो साल से लेकर सात साल तक हो सकती है। इसके अलावा, उस पर जुर्माना भी लगाया जा सकता है। 

स्पष्टीकरण-इस धारा (376 बी) में, ''सहवास'' से मतलब धारा ​375​​ के खंड (क) से लेकर खंड (घ) में वर्णित किसी भी यौन आचरण से होगा।

निश्चित रूप से, एक महिला अपने पति द्वारा क्रूरता किए जाने का आरोप लगाती है, तो उसे अपने विवाह में यौन संबंधों के लिए निहित सहमति को वापस लेना समझा जाना चाहिए। 

यह धारा स्वयं में धारा ​375​ ​के अपवाद II के लिए एक स्पष्ट अपवाद है, जो स्पष्ट रूप से इंगित करता है कि एक पत्नी अपने पति पर बलात्कार के लिए मुकदमा चला सकती है। हालांकि परिभाषित किया गया है कि, जब वह पति द्वारा एक फैसले के तहत या अन्य कारणों से उससे अलग रहती है, तब उसके साथ उसकी सहमति के बिना यौन संबंध बनाया जाता है। 

हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि शादी के भीतर सेक्स की बात में सहमति की एक भूमिका है, और इस अर्थ में कर्नाटक उच्च न्यायालय का आदेश एक नया इतिहास बनाता है। 

मान ली गई सहमति की वापसी

इस केस से जुड़े सभी तथ्य पूरी तरह से मौजू हैं। एक पत्नी ने शिकायत दर्ज कराई थी कि वह शादी की तारीख से ही अपने पति के लिए एक सेक्स स्लेव बन गई थीं, और उनके पति ने अश्लील फिल्मों की नकल करते हुए उन्हें अप्राकृतिक एवं गुदा सेक्स के लिए मजबूर किया था। उन्होंने अपनी बेटी का भी यौन उत्पीड़न करने का आरोप अपने पति पर लगाया। इस शिकायत को आईपीसी की धारा ​506(​​आपराधिक धमकी देने), ​​498ए (महिला के पति या उनके रिश्तेदार द्वारा की गई क्रूरता), ​​323​ ​(स्वेच्छा से चोट पहुंचाने) और ​377​ ​(अप्राकृतिक अपराध करने) और यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण अधिनियम (पोस्को) की धारा10​ ​(जिसके तहत गंभीर यौन उत्पीड़न के लिए सजा का प्रावधान है) के तहत एफआईआर में दर्ज किया गया था। 

निचली अदालत ने आरोपित पति पर भारतीय दंड संहिता की धारा ​​376​​ और अन्य अपराधों के तहत आरोप तय किए। जिन धाराओं के तहत शिकायत दर्ज की गई थी, उनमें से एक धारा ​​498​​ए भी थी, जो एक पति द्वारा अपनी पत्नी के खिलाफ क्रूरता करने के विरुद्ध लगाया जाता है। निश्चित रूप से, एक महिला जो उसके खिलाफ एक पति द्वारा क्रूरता का आरोप लगाती है, उसे विवाह में दाखिल होते वक्त यौन संबंध बनाने के बारे में निहित अपनी सहमति वापस लेने के अर्थ में समझा जाना चाहिए।

बलात्कार साबित होने के सभी तर्कों से संतुष्ट होने के बाद, न्यायाधीश ने अपना निष्कर्ष इस प्रकार दिया:

“29. विद्वान वरिष्ठ अधिवक्ता का यह कथन कि पति को विवाह संस्था द्वारा उसके किसी कार्य के लिए संरक्षण प्राप्त है, जैसा कि एक सामान्य व्यक्ति द्वारा आचरण किया जाता है, पुन: इसकी यह वजह यह है कि विवाह संस्था इसकी अनुमति प्रदान नहीं करती, प्रदान नहीं कर सकती और मेरे अच्छी तरह से किए गए विचार से किसी विशेष पुरुष विशेषाधिकार या क्रूर जानवर को मुक्त करने के लिए लाइसेंस देने वाला नहीं माना जाना चाहिए। यदि इस तरह का व्यवहार एक आदमी के लिए दंडनीय है, तो वह उस पुरुष के लिए भी दंडनीय होना चाहिए, चाहे वह पुरुष किसी का पति ही क्यों न हो(जोर देते हुए)। 

शिकायत की विषय-वस्तु याचिकाकर्ता के क्रूर कृत्यों के प्रति उसकी पत्नी की सहनशीलता का विस्फोट है। यह एक सोई हुई ज्वालामुखी के फट पड़ने के समान है। तथ्यों के आधार पर, जैसा कि शिकायत में बताया गया है, मेरे विचार में, सत्र न्यायाधीश ने आईपीसी की धारा 376 के तहत दंडनीय अपराधों पर संज्ञान लेकर और इस धारा के तहत आरोप तय करके कुछ गलत नहीं किया है।''

इसलिए यहां घोषित कानून का मतलब यह होना चाहिए कि एक पत्नी पति द्वारा क्रूर यौन संबंध को "निहित सहमति" नहीं देती है।

तो इस मोड़ पर क्या हम अब इस सवाल का जवाब दे सकते हैं, जब एक प्रदत्त छूट कोई छूट नहीं है? हां। इसके लिए, हमें अदालत की टिप्पणियों को यहां फिर से पेश करना होगाः 

“31.(पत्नी पर) इस तरह के हमले करने/उनका बलात्कार करने के इस केस के अजीबोगरीब तथ्यों एवं परिस्थितियों के मद्देनजर पर पति की छूट पूरी तरह निरपेक्ष नहीं हो सकती है, क्योंकि कानून में कोई छूट इतनी निरपेक्ष नहीं हो सकती है कि यह समाज के खिलाफ अपराध करने के लिए एक लाइसेंस बन जाए. …”

न्यायाधीश ने इस मामले में अपने आप को न्यायिक दायित्व के दायरे में बेहतर तरीके से रखते हुए बेहद सावधानी से रेखांकित किया विवाह में पति को मिली इस छूट को न्यायपालिका रद्द नहीं कर सकती। यह काम विधायिका को करना है:

“​यद्यपि विवाह के चार कोनों का मतलब समाज नहीं होगा, लेकिन इस बारे में विचार करने और (पति को मिली) छूट में फेरबदल पर विचार करने का काम विधायिका है। यह न्यायालय यह निर्णय नहीं दे रहा है कि वैवाहिक बलात्कार को एक अपराध के रूप में माना जाना चाहिए या अपवाद को विधायिका द्वारा हटा लिया जाए। यह विधायिका पर है कि वह उपरोक्त मुद्दे की तमाम परिस्थितियों और उसके प्रभावों का विश्लेषण करे।”

फैसले का अर्थ यह निकाला जा सकता है कि विवाह में सेक्स के लिए तथाकथित निहित सहमति, जो पति के इस बारे में किए गए खराब आचरण या क्रूरता की स्थिति में जवाबदेही से छूट का आधार बनता है, वह सहमति वापस ले ली जाती है, जब पत्नी के साथ क्रूर सेक्स किया जाता है। 

न्यायालय का यह निष्कर्ष मुकदमें में दिए गए तथ्यों के आधार पर है:

“​​यह न्यायालय केवल पति के खिलाफ तय किए गए बलात्कार के आरोप पर विचार कर रही है,जो उसकी पत्नी ने उसके खिलाफ लगाए हैं।''

न्यायिक राज-काज के एक अधिनियम में, कर्नाटक उच्च न्यायालय की व्याख्या है कि सेक्स में क्रूरता की स्थिति में पति को मिली वह अबाध छूट लागू नहीं होती। 

न्यायालय के फैसले का यह मायने निकाला जा सकता है कि विवाह में सेक्स के लिए तथाकथित सहमति जो छूट का आधार है, तब वापस ले ली जाती है, जब सेक्स में क्रूरता का दखल होता है। 

संभोग के लिए सहमति एक बात है; क्रूर संभोग के लिए सहमति देना एक दूसरी बात है, और कोई पत्नी कभी क्रूर सेक्स के लिए (पति को) सहमति नहीं देती है। 

निश्चित रूप से अब समय आ गया है कि विधायिका वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करे, अन्यथा अदालतों को ऐसा करना पड़ेगा। 

सौजन्य: द लीफ़लेट

अंग्रेज़ी में मूल रूप से लिखे गए लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

 Criminalising Marital Rape: When is an Exception not an Exception?

Martial Rape
Karnataka High Court
rule of law

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