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आंदोलन
भारत
राजनीति
भारतीय विदेशी नीति की घरेलू जड़ें
ऐसे टकराव जिनकी पहुंच सीमापार तक होती है, उनको पैदा कर के भारत दुनिया का ग़ुस्सा मोल ले रहा है।
गौतम नवलखा
16 Dec 2019
CAB protest
Image Courtesy: Telangana Today

अपने नागरिकों के साथ सरकार जैसा व्यवहार करती है, उसे भारत अपना आंतरिक मामला क़रार दे सकता है। चाहे वह एक विवादित क्षेत्र के लोगों को घरों में धकेल कर, उसे आभासी उपनिवेश बना देना हो या फिर नागरिकता को दोबारा परिभाषित कर देना। ऐसी परिभाषा जिसमें मुस्लिमों को शामिल नहीं किया गया। लेकिन एक स्वतंत्र विश्व में कोई भी विकास के ऊपर, दूसरे मुद्दों को वरीयता देने से उभरने वाली चिंताओं से बच नहीं सकता। ख़ासतौर पर तब, जब पड़ोसी देश उन मुद्दों से प्रभावित हो रहे हैं।

भारत सरकार ने एक विधेयक को सही ठहराने के लिए अपने राज्य और समाज को धता बताया है, वह भी तब, जब विधेयक मुस्लिमों के साथ भेदभाव कर रहा है। ऐसे में पड़ोसी देशों का चिंतित होना स्वाभाविक है। नतीजतन बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान जैसे मित्रवत् पड़ोसी नाराज़ हैं। बांग्लादेश के विदेश और गृह मंत्री ने अपना भारत दौरा रद्द कर दिया है। वहीं गुवाहाटी में जापान के साथ होने वाला सम्मेलन, नए अधिनियम पर होने वाले विरोध प्रदर्शनों के चलते रद्द करना पड़ा। लेकिन इसमें कई गहरे मुद्दे भी छुपे हैं।

कश्मीर पर भारत से पहली बार दुनिया के तमाम मंचों पर इतने सारे सवाल पूछे जा रहे हैं। ऐसा ही नए नागरिकता संशोधन अधिनियम के साथ है। एनआरसी के साथ इसे मिलाकर भारतीय मुस्लिमों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की कोशिश की जा रही है। भयावह तथ्य ये है कि भारतीय मुस्लिमों को निशाना बनाने वाले इन तीनों क़दमों से हमारे बारे में दुनिया की चिंताएं बढ़ गई हैं। एक संदेश गया है कि हम पीछे जा रहे हैं।

यह हमें याद दिलाता है कि लोकप्रिय सत्तावादी सरकारों के साथ खड़ा न होकर, वाम-प्रगतिशील आवाज़ें दुनिया भर में अड़ कर खड़ी हैं। अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रही हैं। दुनिया के सामने साफ़ हो चुका है कि भारत बंटा हुआ है और बीजेपी के ख़िलाफ़ देश में बड़ा असंतोष है।

इससे देशी और विदेशी निवेशकों में संदेश जा रहा है कि भारत अब नए विवादों में उलझ गया है। अर्थव्यवस्था पर ध्यान लगाए जाने के बजाए यह ऐसे विवाद हैं, जिन्हें सरकार ने ख़ुद पैदा किया है।

कश्मीर में अभी स्थितियां ठीक होने से काफ़ी दूर हैं। जम्मू-कश्मीर को दबाने में उपनिवेशवाद की झलक मिलती है। इस क़दम से भारत के कई दोस्त कम हुए हैं। क्योंकि एक विवादित क्षेत्र में बिना समझौते के पूरी तरह अधिकार कर लेना भारत की बहुलतवादी लोकतांत्रिक छवि के उलट है। जबकि संबंधित क्षेत्र में आज़ादी की मांग आम है। यह भारत के लोगों को मानना मुश्किल हो सकता है, पर सच्चाई यह है कि जम्मू-कश्मीर के विवादित मुद्दे पर सरकारी क़दम से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। वजह सीधी है कि सरकार क़ैद लोगों पर अपनी मनमर्ज़ी थोप रही है।

अमित शाह ने बढ़-चढ़कर बताया कि कश्मीर में पूरी तरह जीवन सामान्य हो चुका है। इससे संदेश गया कि सरकार अपने कश्मीरी लोगों को यहूदियों की तरह क़ैद रखने में विश्वास रखती है। जैसे नाज़ी, यहूदी-जिप्सीज़ और वाम-प्रगतिशील लोगों के साथ किया करते थे।

संयोग से जब शाह ने कश्मीर में जनजीवन सामान्य होने की घोषणा की, तो सीआरपीएफ़ की एक आंतरिक खोजबीन में खुलासा हुआ कि लंबे बंद से ''उपद्रव को फैलाने वाले लोगों'' को ''विरोध प्रदर्शन और हिंसक लड़ाई'' के लिए नया मौक़ा मिलेगा। इस खोजबीन में घाटी में बड़ी तादाद में सैनिकों की तैनाती पर चिंता जताई गई। साथ ही कहा गया कि उग्रवादी कश्मीर-बंद को बढ़ा रहे हैं, ताकि घाटी को आर्थिक गतिविधियों से दूर किया जा सके और गहरा असंतोष फैलाया जाए। ताकि अंतरराष्ट्रीय समुदाय भारत पर दबाव डाल सके।

इस रिपोर्ट की पंक्तियों के बीच में पढ़िए: साफ़ है कि सुरक्षाबल कश्मीर में ज़मीनी हक़ीक़त पर चिंता जता रहे हैं। उनके विचार अपने बॉस, मतलब गृह मंत्री से अलग हैं। रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि आप लोगों को बंधक बनाकर, उनसे शांति की उम्मीद नहीं कर सकते। ऊपर से इस लंबी तैनाती के चलते सुरक्षाबल भी प्रभावित हो रहे हैं। उन्हें ठिठुरती ठंड में अस्थायी कैंपों में रहने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है।

इसके बारे में सोचिए। प्रतिबंध झेलते नागरिकों को जान लेने के अधिकार रखने वाले लाखों सैनिकों के साए में रहने को मजबूर होना पड़ रहा है। वह अपना ग़ुस्सा और दर्द बयां भी नहीं कर सकते। अगर आप इसे ''सामान्य'' कहते हैं, तो यह एक घटिया मज़ाक़ है।

ऐसा नहीं है कि दुनिया को इसका अंदाज़ा नहीं है। आश्चर्य नहीं है कि बीस साल में पहली बार अमेरिकी कांग्रेस एक राजनीतिक प्रस्ताव लाने जा रही है, जिसमें कश्मीर में नागरिक अधिकारों को लागू करने की बात है। इन अधिकारों में शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन और राजनीतिक नेताओं-एक्टिविस्ट की रिहाई की बात भी शामिल है।

भारत ने पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए SAARC(सार्क) को बायपास करने का एक सोचा-समझा जुआं लगाया था। उस क़दम ने इस समूह को निरर्थक बना दिया। अब भारत अपने पड़ोस में दोबारा प्रभाव बनाने की कोशिश कर रहा है, जबकि चीन का ''बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव'' इलाक़े में पहुंच बना चुका है। पाकिस्तान के साथ-साथ अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश जैसे दोस्ताना पड़ोसियों के ख़िलाफ़ ऊल-जुलूल बयानबाज़ी और नए नागरिकता संशोधन अधिनियम ने मामले को और बदतर कर दिया है।

अगर कभी एशिया-प्रशांत क्षेत्र में भारत अकेला पड़ा है, तो वह आज का वक़्त है। बिज़नेस स्टेंडर्ड न्यूज़पेपर के एक लेख में सही चीज़ पर ग़ौर फ़रमाया गया है। उसमें लिखा गया कि लुक-वेस्ट की नीति एक्ट-ईस्ट की जगह नहीं ले सकती। भारत आरसीईपी का हिस्सेदार नहीं है। न ही वह एपीईसी का सदस्य है। इंडो-आसियान मुक्त व्यापार समझौता भी पूरी तरह लागू नहीं है। यहां तक कि जापान, साउथ कोरिया और सिंगापुर के साथ भी द्विपक्षीय व्यापार समझौते कार्यान्वयन की स्थिति में नहीं हैं। परिणामस्वरूप आज भारत एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अकेला पड़ गया है।

विदेशी वित्त संस्थानों से लेकर भारतीय औद्योगिक क्षेत्र में, जो भी रेटिंग एजेंसियां कहती हैं, वह मायने रखता है। नवंबर में मूडी इंवेस्टर सर्विस ने भारत की स्थिति को ''स्थायी'' से ''नकारात्मक'' कर दिया। 12 दिसंबर को 'एस एंड पी ग्लोबल रेटिंग' ने विकास दर न सुधरने की स्थिति में भारत की रेटिंग बीबीबी के नीचे,''स्थायी'' से ''नकारात्मक'' करने की चेतावनी दी। ध्यान से देखिए सैन्य और आर्थिक तौर पर बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया भारत का प्रभाव कम हो रहा है।  

अमेरिकी नेतृत्व वाले नैटो के समर्थन के दम पर भारत ने अपने क़दम अफ़ग़ानिस्तान में बढ़ाए थे। भारत का विश्वास था कि वे वहां दशकों तक रहेंगे। लेकिन अमेरिका ने अपने हाथ खींच लिए। अब भारत अधर में है। विडंबना है कि भारत ने तालिबान से बात करने से इनकार कर दिया है और अफ़ग़ान सत्ता के साथ ही चिपका हुआ है। भारत का कहना है कि तालिबान के उलट अफ़ग़ान सरकार पंथनिरपेक्ष लोकतांत्रिक है। लेकिन पिछले 6 साल में बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार ने पंथनिरपेक्षता और लोकतंत्र को बहुत नुक़सान पहुंचाया है। 

ऐसे मौक़े पर जब अफ़ग़ानिस्तान में शांति प्रक्रिया बेहद नाज़ुक मोड़ पर है, तब वहां की सत्ता और लोगों को नाराज़ कर, उनकी चिंताओं से मुंह मोड़ना हमारे लिए नुक़सानदेह होगा। ऐसा सिर्फ़ इसलिए है क्योंकि सरकार हिंदुओं के ध्रुवीकरण में यक़ीन रखती है। याद रहे कोई भी स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता। दुश्मनों को दोस्त और दोस्त को साथियों में बदलना ही विदेश नीति को सफल बनाता है। जानबूझकर या ग़लती से, एक मित्रवत देश के लोगों या वहां की सत्ता को दुश्मन बनाना छोटी नज़र वाली विदेश नीति दिखाती है।

यह सही है कि विदेश नीति की जड़े घरेलू मुद्दों से जुड़ी होती हैं। अब हम अंतरराष्ट्रीय दबाव और ज़्यादा महसूस करेंगे। क्योंकि हमारी अंतरराष्ट्रीय निर्भरता ज़्यादा है। इसकी वजह बीजेपी की देश में जारी बंटवारे की राजनीति भी है, जिससे ऐसे टकराव पैदा होते हैं, जो सीमापार पहुंचते हैं। इनसे हमारे देश में जिंदगी बेहतर करने और आज़ादी जैसे असली मुद्दों से भी ध्यान भटकता है। 

(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Domestic Roots of Indian Foreign Policy

Kashmir Valley
Foreign Policy
South Asia
TALIBAN
Modi government
Moody’s
S&P
India rating downgrade

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