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भारत
राजनीति
डॉ अंबेडकर का संविधान और नागरिक संशोधन विधेयक
उनकी पुण्यतिथि पर, आइए याद करें कि डॉ अंबेडकर और संविधान के संस्थापकों का धर्मनिरपेक्षता, नागरिकता और समानता के अधिकार के बारे में क्या कहना था।
सुबोध वर्मा
07 Dec 2019
Translated by महेश कुमार
ambedkar

यह विडंबना का एक अजीब मोड़ है कि डॉ अंबेडकर की 63वीं पुण्यतिथि पर, देश में संविधान के मूल सिद्धांत को बदलने की सबसे ज़्यादा कोशिश की गई है। भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने लोकसभा में एक नागरिकता संशोधन विधेयक पेश किया है जिसके तहत देश में अवैध प्रवासियों को नागरिकता देने के लिए बने क़ानून के कुछ प्रावधानों को बदल दिया जाएगा। इस विधेयक को नागरिकता (संशोधन) विधेयक, 2019 (सीएबी) कहा जाता है और यह नागरिकता अधिनियम, 1955 के कुछ प्रावधानों को संशोधित करने का प्रस्ताव रखता है।

सीएबी का सावधानीपूर्वक विश्लेषण करने से यह पता चलता है कि डॉ अंबेडकर जिन प्रमुख मूल्यों के पक्ष में खड़े थे और जिनके लिए वे हमेशा लड़े थे, यह विधेयक उन मूल्यों के ख़िलाफ़ है।

सीएबी का कहना है कि भारत के तीन पड़ोसी देशों (अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश) के मुसलमानों को छोड़कर सभी अवैध अप्रवासियों को अवैध नहीं माना जाएगा और दूसरों की तुलना में बहुत कम समय सीमा में उनका देशीकरण कर दिया जाएगा। आईए देखें यह कैसे संविधान की भावना और डॉ अंबेडकर के मूल्यों के ख़िलाफ़ जाता है?

धर्मनिरपेक्षता पर हमला

भारतीय संविधान यह घोषित करता है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है। इसका अर्थ आमतौर पर यह लगाया जाता है कि सरकार किसी भी धर्म के साथ भेदभाव नहीं करेगी और न ही वह किसी धर्म विशेष का पक्ष लेगी। ज़ाहिर है कि सीएबी इस मूल या बुनियादी सिद्धांत का उल्लंघन करता है। यह उल्लेखित तीन देशों (जो मुस्लिम बहुल देश हैं) से आने वाले मुसलमानों के ख़िलाफ़ सक्रिय रूप से भेदभाव करेगा।

उन्हें क़ैद किया जाएगा, निर्वासित किया जाएगा या देशीकरण के लिए अपनी हैसियत साबित करने के लिए कहा जाएगा, जिसमें उन्हें यह प्रमाण पत्र भी उपलब्ध कराना होगा जिसमें वे साबित कर सकें कि वे 14 वर्षों में से पिछले 11 वर्षों से भारत में रह रहे हैं।

इसके अलावा, भेदभाव का एक दूसरा पहलू भी है। इसके पक्ष में एक तर्क यह भी दिया जाता है कि इन तीन देशों में ग़ैर-मुस्लिम लोगों को सताया जाता है और इसलिए उन्हें भारत में आश्रय दिया जाएगा। लेकिन अन्य मुस्लिम संप्रदायों के बारे में क्या कहना है जैसे कि अहमदिया जो इनमें से कुछ देशों में उत्पीड़न का सामना करते है? नए क़ानून के हिसाब से तो उनसे भी सभी मुसलमानों की तरह से निपटा जाएगा। दूसरे शब्दों में कहें तो यह उत्पीड़न का मामला नहीं है, बल्कि धार्मिक विश्वास का फ़लसफ़ा है।

दरअसल, 15 नवंबर, 1948 को प्रोफ़ेसर केटी शाह ने संविधान सभा में एक प्रस्ताव पेश करते हुए कहा था कि संविधान के अनुच्छेद 1 में "धर्मनिरपेक्ष, संघीय, समाजवादी" शब्द को डाला जाए। डॉ अंबेडकर ने उस प्रस्तावित संशोधन (जैसा कि संविधान सभा ने किया था) को ख़ारिज कर दिया। अपने तर्क में उन्होंने केवल इतना कहा था कि "समाजवादी" को जोड़ना अतिसुधार या फालतू होगा और इस सिद्धांत को माना जाना चाहिए कि आर्थिक प्रणाली के विकास के मामले को संसद के लिए छोड़ना बेहतर होगा। उन्होंने धर्मनिरपेक्षता पर कोई टिप्पणी नहीं की। इसका अर्थ यह लगाया गया है कि वे धर्मनिरपेक्षता के ख़िलाफ़ थे।

इसके अलावा, संविधान पर चली बहस में अन्य हस्तक्षेप से यह स्पष्ट हो जाता है कि डॉ अंबेडकर इस सिद्धांत के साथ दृढ़ता से खड़े थे कि धर्म एक निजी मामला है और इसे सार्वजनिक नीति के मामले में लागू नहीं किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, धार्मिक शिक्षा प्रदान करने वाले ऐसे शिक्षण संस्थानों को सरकार के वित्तीय समर्थन के सवाल पर, उन्होंने ज़ोर देकर दृढ़ता से विरोध करते हुए कहा कि, "हमने उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया है जो अनुच्छेद 21 में सन्निहित है, कि करों के ज़रीये अर्जित सार्वजनिक धन का उपयोग किसी विशेष संप्रदाय के लाभ/कल्याण के लिए नहीं किया जाएगा।

उन्होंने कहा, "दुर्भाग्य से देश में जो धर्म हैं वे केवल ग़ैर-सामाजिक नहीं हैं; जहाँ तक उनके आपसी संबंधों का सवाल है, बल्कि वे असामाजिक भी हैं, क्योंकि एक धर्म यह दावा करना कि उसकी शिक्षाएँ मानव उद्धार के लिए एकमात्र सही रास्ता हैं, अन्य सभी धर्म ग़लत हैं। इसको देखते हुए, मुझे ऐसा लगता है कि हम किसी संस्था के शांतिपूर्ण माहौल को ही बिगाड़ रहे होंगे, अगर हम इस विवाद को किसी धर्म विशेष के सत्य चरित्र और दूसरों के ग़लत चरित्र के संबंध में स्कूल में उसकी तुलना के लिए लाते है।”

डॉ अंबेडकर द्वारा धर्मनिरपेक्षता का विरोध किए जाने के बारे में संघ परिवार द्वारा बेबुनियाद ख़बर को प्रचारित किया जाना कई लोगों को गुमराह करने के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है, लेकिन यह सिर्फ़ उन झूठों में से एक है जो झूठ आज इतने आम हो गए हैं।

समानता पर हमला

सीएबी (सीएबी) भी मौलिक अधिकारों में से एक पर हमला है, जैसा कि अनुच्छेद 14 में निहित है। यह अनुछेद इस प्रकार है :

14. क़ानून के समक्ष समानता। - राज्य क़ानून के समक्ष किसी भी व्यक्ति को समानता या भारत के क्षेत्र के भीतर क़ानूनों के समान संरक्षण से इनकार नहीं करेगा।

यह संविधान के भाग III में शामिल है, जिसे "मौलिक अधिकार" कहा गया है।

इसका मतलब यह है कि राज्य/देश न केवल भारत के क्षेत्र के भीतर "किसी भी व्यक्ति" को अपने कार्यों के ज़रीये समानता सुनिश्चित करेगा, बल्कि यह भी सुनिश्चित करेगा कि ऐसे सभी लोगों को क़ानून का समान संरक्षण प्राप्त हो। ध्यान दें कि अनुच्छेद "किसी भी व्यक्ति" के बारे में स्पष्ट रूप से कह रहा है और वह यहाँ नागरिक होने का जिक्र नहीं कर रहा है। इसका मतलब यह है कि देश में विदेशियों या अवैध प्रवासियों को भी संरक्षण की गारंटी दी जाएगी, जो संविधान की एक गहन और मौलिक दृष्टि है।

लेकिन सीएबी ठीक इसके उलट है - यह एक ख़ास धार्मिक समुदाय के अवैध आप्रवासियों के ख़िलाफ़ भेदभाव करता है। इस अर्थ में देखे तो यह मौलिक अधिकार का उल्लंघन है।

क्या सरकार के पास ऐसे मौलिक अधिकारों में संशोधन करने का अधिकार है? कुछ लोगों को यह सोचकर गुमराह किया जा सकता है कि सरकार संविधान में संशोधन नहीं कर सकती है?

सुप्रीम कोर्ट ने अपने विभिन्न निर्णयों में इस संदेह का उत्तर दिया गया है कि संविधान में क्या संशोधित किया जा सकता है और क्या नहीं बदला जा सकता है। इनमें से, केशवानंद भारती एक ऐसा लाभदायक विषय है, जिसने यह निर्धारित किया है कि संविधान के मूल ढांचे को नहीं बदला जा सकता है और यह भी कि मौलिक अधिकार मूल संरचना का हिस्सा हैं। इसके बाद के अन्य निर्णयों में भी दोहराया गया है कि मौलिक अधिकार संविधान का हिस्सा हैं। संक्षेप में, यह बहुत दृढ़ता से तर्क दिया जा सकता है कि सीएबी संविधान के मूल ढांचे को बदलने का प्रयास है और इसलिए इसे सर्वोच्च न्यायालय द्वारा खारिज किया जा सकता है।

अंत में, यह याद रखना चाहिए कि मौजूदा सरकार संविधान की विभिन्न विशेषताओं को व्यवस्थित रूप से नष्ट कर रही है - संघवाद, लोकतंत्र, क़ानून का शासन, व्यक्तियों के अधिकार, विशेष रूप से दलितों और आदिवासियों के अधिकारों, आदि पर सीएबी (सीएबी) अभी तक का एक बड़ा हमला है। डॉ अंबेडकर की पुण्यतिथि के अवसर पर यह याद रखना और उनकी विरासत के इस विनाश के ख़िलाफ़ लड़ना आवश्यक है।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Dr Ambedkar’s Constitution and CAB

Citizenship Amendment Bill 2019
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Attack on Fundamental Rights
Modi government
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Dr B R Ambedkar
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Secularism
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