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गतिरोध से जूझ रही अर्थव्यवस्था: आपूर्ति में सुधार और मांग को बनाये रखने की ज़रूरत
इस समय अर्थव्यवस्था गतिरोध का सामना कर रही है। सरकार की ओर से उठाये जाने वाले जिन क़दमों का ऐलान किया गया है, वह बस एक शुरुआत है।
अरुण कुमार
30 May 2022
Economy

इस समय अर्थव्यवस्था गतिरोध का सामना कर रही है। सरकार की ओर से उठाये जाने वाले जिन क़दमों का ऐलान किया गया है, वह एक शुरुआत है। मांग में कमी किये बिना आपूर्ति की बाधाओं को दूर करने और बहुत कुछ किये जाने की ज़रूरत है।

महीने-दर-महीने तेज़ी से बढ़ रही महंगाई से चिंतित सरकार आख़िरकार सक्रिय हो गयी है। इससे पार पाने के लिए जो योजना बनायी गयी है,उसमें डीज़ल, स्टील, सीमेंट और प्लास्टिक जैसी बुनियादी चीज़ों की क़ीमतों को कम करने के क़दम उठाने की बात कही गयी है। थोक मूल्य सूचकांक ('WPI') एक वर्ष से ज़्यादा समय के लिए दस प्रतिशत से अधिक बढ़ गया है, और अप्रैल 2022 में यह 15.08 प्रतिशत पर था,जो कि एक दशक से ज़्यादा समय में नहीं देखा गया स्तर है। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI) लगातार चौथे महीने भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) के चार फ़ीसदी प्लस मानइन दो फ़ीसदी के लक्ष्य से काफी ऊपर,यानी 7.8 प्रतिशत बढ़ गया है।

महंगाई में तेज़ी

हम चाहे जो भी पैमाना इस्तेमाल कर लें, मुद्रास्फीति ऊंची है।उपभोक्ता मूल्य सूचकांक नागरिक के बजट पर मुद्रास्फीति के प्रभाव को ही दर्शाता है। अगर यह लोगों की आय, मज़दूरी और वेतन में वृद्धि से ज़्यादा है, तो उनके जीवन स्तर में गिरावट आती है। थोक मूल्य सूचकांक वह है, जिसे उत्पादक अपनी उत्पादन लागत में ध्यान में रखते हैं। बदले में यह उनके उत्पाद की क़ीमत और उनके अर्जित मुनाफ़े को तय करता है। देर-सवेर थोक मूल्य सूचकांक में होने वाले इज़ाफ़े से उपभोक्ता क़ीमतों में बढ़ोत्तरी होती है, जो कि हाल ही में पारिश्रमिक राशि और ब्याज़ लागत में गिरावट के कारण कम हुई हैं। यही वजह है कि उपभोक्ता मूल्य संचकांक कुछ समय के लिए थोक मूल्य सूचकांक से काफ़ी पीछे है।

अप्रैल 2022 के आंकड़ों से पता चलता है कि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में हो रही बढ़ोत्तरी तेज़ हो रही है। यह अप्रैल 2021 (4.2 फ़ीसदी) के अपने स्तर से काफ़ी ज़्यादा (7.8 फ़ीसदी) है। साथ ही यह मार्च 2022 से काफ़ी अधिक, यानी कि वार्षिक दर पर तक़रीबन 20 फ़ीसदीहै। इससे उपभोक्ता मूल्य सूचकांक से मापी गयी मुद्रास्फीति की बढ़ती दर को रफ़्तार मिली है, और आने वाले महीनों में इसके बढ़ने की संभावना है। सरकार इसे रोकने की कोशिश कर रही है।

यूक्रेन में चल रहे युद्ध और चीन में लगाये गये लॉकडाउन के चलते विश्व अर्थव्यवस्था की सुस्ती से यह स्थिति और भी विकट हो गयी है। वे ऊर्जा, उर्वरक, धातु, कंप्यूटर चिप्स, निर्मित उत्पाद, गेहूं और सोयाबीन जैसे विभिन्न अहम सामग्रियों की आपूर्ति में रुकावट और कमी की वजह बन रहे हैं। नतीजतन, क़ीमतें न सिर्फ़ बढ़ रही हैं,बल्कि भारत का चालू खाता घाटा तेज़ी से बढ़ा है, जिससे डॉलर के मुक़ाबले रुपया कमज़ोर हुआ है, हालांकि अन्य प्रमुख मुद्राओं के मुक़ाबले उतनी कमज़ोर नहीं हुई हैं। चूंकि व्यापार डॉलर में होता है, इसका मतलब यही है कि ऊर्जा सहित सभी आयातित वस्तुयें भारत में ज़्यादा महंगी हो गयी हैं और मुद्रास्फीति बढ़ गयी है।

लड़खड़ाती वृद्धि

सबसे ताज़ा आंकड़े 2021-22 की तीसरी तिमाही, यानी कि दिसंबर 2021 को ख़त्म होने वाली तिमाही और साल 2021-22 के दूसरे अग्रिम अनुमान के लिए उपलब्ध हैं। ये दोनों अल्पकालीन हैं। साथ ही यह अवधि जनवरी-फ़रवरी, 2022 में तीसरी कोविड लहर से पहले की है।

सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के आंकड़े 2020-21 के मुक़ाबले 8.95 फ़ीसदी की तेज़ इज़ाफ़े को दर्शाते हैं। 2020-21 (महामारी के कारण) में न्यून आधार के चलते यह अपेक्षित ही था। लेकिन, महामारी से पहले वाले वर्ष 2019-20 के मुक़ाबले जीडीपी महज़ 1.7 प्रतिशत ज़्यादा है। इसलिए, महामारी से पहले के स्तर पर विकास नगण्य है, जिसका मतलब है- एक ठहरी हुई अर्थव्यवस्था।

वास्तविक वृद्धि तो और भी कम है। जीडीपी के त्रैमासिक अनुमान और दूसरे अग्रिम अनुमान के लिए इस्तेमाल किया गया आंकड़ा कृषि क्षेत्र को छोड़कर, असंगठित क्षेत्रों के विकास को स्वतंत्र रूप से नहीं मापता है। ज़्यादातर यही माना जाता है कि असंगठित क्षेत्र को संगठित क्षेत्र से मापा जा सकता है। हालांकि,यह स्वीकार्य धारणा नहीं है। सचाई यही है कि असंगठित क्षेत्र लॉकडाउन लगने और अर्थव्यवस्था के धीमी गति से खुलने के चलते आने वाली मुश्किलों की वजह से ध्वस्त हो गया है। इसलिए, असंगठित क्षेत्र में बढ़ोत्तरी होने के बजाय गिरावट आ रही है। 2016 में नोटबंदी के बाद से ही ऐसा हो रहा है।

इसके अलावा, अर्थव्यवस्था के कई घटकों के लिए मांग असंगठित से संगठित क्षेत्रों में स्थानांतरित हो गयी है। हिंदुस्तान यूनिलीवर ने हाल ही में बताया कि छोटे-छोटे क्षेत्रों के अपने प्रतिस्पर्धियों में कमी आने के चलते इसकी बाज़ार हिस्सेदारी बढ़ी है। यही उस व्यापार के बारे में भी सच है, जहां मांग पड़ोस के छोटे-छोटे स्टोर से ई-कॉमर्स और बड़ी श्रृंखलाओं में स्थानांतरित हो गयी है। असंगठित क्षेत्र पूंजी की एक छोटी राशि से काम करता है,ऐसे में  बाज़ार के थोड़े समय के लिए होने वाला बंद भी इसे ख़त्म कर देता है और फिर यह ख़ुद को पुनर्जीवित करने में असमर्थ हो जाता है। यहां तक कि अगर यह अनौपचारिक मुद्रा बाज़ारों से उधार लेने के बाद फिर से शुरू हो भी जाता है, तो इसकी लागत बढ़ जायेगी और इसे बाज़ार में बने रहने के लिए संघर्ष करना होगा।

इस तरह, अगर असंगठित क्षेत्रों की गिरावट का हिसाब लगाया जाये, तो सकल घरेलू उत्पाद 2019-20 के स्तर से नीचे होगा। उपभोक्ताओं के भरोसे को लेकर आरबीआई के जो आंकड़े हैं,उससे भी इसकी पुष्टि होती है। यह इस समय 72 फ़ीसदी है, जबकि महामारी से ठीक पहले जनवरी 2020 में यह 104 फ़ीसदी था। ये आंकड़े भी ज़्यादातर संगठित क्षेत्रों के हैं और अगर असंगठित क्षेत्र को ध्यान में रखा जाये, तो स्थिति और भी ख़राब होगी। निहितार्थ यही है कि महामारी के पहले के स्तर से खपत काफ़ी नीचे है। ऐसे में महामारी के पहले वाले स्तर को भला जीडीपी किस तरह पार कर सकती है ?

एफ़एमसीजी (फ़ास्ट-मूविंग कंज़्यूमर गुड्स), फ़ार्मास्यूटिकल्स, प्रौद्योगिकी और दूरसंचार जैसे कुछ क्षेत्र निश्चित रूप से अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं। यूक्रेन युद्ध से पहले ही वैश्विक क़ीमतों में होने वाली बढ़ोत्तरी से धातु और पेट्रोलियम जैसे क्षेत्रों को फ़ायदा हुआ था। युद्ध शुरू होने के बाद आपूर्ति के बाधित होने से ये सभी सेक्टर और भी बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं। लेकिन, अनुबंध सेवायें और बड़े पैमाने पर उपभोग की वस्तु जैसे संगठित क्षेत्रों के कई घटक अब भी महामारी के पहले वाले स्तर पर वापस नहीं आ पाये हैं। इस तरह, कुल मिलाकर संगठित क्षेत्र भी पूरी तरह से उबर नहीं पाया है।

ठहराव में अर्थव्यवस्था

अगर थोड़े में कहा जाये,तो असंगठित क्षेत्रों सहित उत्पादन, रोज़गार और निवेश महामारी के पहले वाले स्तर तक नहीं पहुंच पाये हैं। अर्थव्यवस्था ने 2020-21 में महामारी से प्रभावित उत्पादन के महज़ एक हिस्से की भरपाई की है।

न सिर्फ़ अर्थव्यवस्था महामारी के पहले वाले स्तर से नीचे है,बल्कि अर्थव्यवस्था अगर महामारी से अप्रभावित भी रहता, तो भी यह तक़रीबन चार फ़ीसदी की दर से ही बढ़ना जारी रखता। इस तरह, 2021-22 में यह 2019-20 के अपने स्तर से आठ फ़ीसदी से ज़्यादा (आधिकारिक 1.7 प्रतिशत नहीं) होता। ऐसे में अगर सबकुछ ठीक रहता है,तो कहा जा सकता है कि अर्थव्यवस्था स्थिर है। तेज़ी से बढ़ती मुद्रास्फीति के साथ निहितार्थ यही है कि अर्थव्यवस्था ठहराव में है। इसका अर्थव्यवस्था और ख़ासकर हाशिए के तबक़ों पर गंभीर प्रभाव पड़ रहा है। उनकी स्थिर या घटती आय को देखते हुए उनके लिए मुद्रास्फीति की दर में कमी नाकाफ़ी है।

यह स्थिति नीति निर्माताओं को मुश्किल में डाल देती है। अगर मुद्रास्फीति को क़ाबू करने के लिए वे मांग को कम करने की कोशिश करते हैं, तो अर्थव्यवस्था धीमी हो जाती है। अगर वे विकास को बढ़ावा देने की कोशिश करते हैं, तो मुद्रास्फीति बढ़ सकती है। यह नाज़ुक हल मांग को कम किये बिना आपूर्ति की बाधाओं को दूर करने में निहित है।

आरबीआई ने तरलता को कम करने के लिए नक़द आरक्षित अनुपात को बढ़ा दिया था, और मांग को कम करने के लिए ब्याज़ दरों में बढ़ोत्तरी कर दी थी। हालांकि, जिन कारणों से इस बढ़ती मुद्रास्फीति का हल नहीं हो पा रहा है,वे हैं: भारत और विदेशों में आपूर्ति की बाधायें, यूक्रेन में चल रहे युद्ध और उसकी वजह से होने वाली कमी, चीन में लॉकडाउन, कॉरपोरेट्स की बढ़ी हुई मूल्य निर्धारण शक्ति, भारत में छोटे और सूक्ष्म क्षेत्रों की इकाइयों का बंद होना, और वैश्विक माल ढुलाई शुल्क में वृद्धि। इस समय जब खपत अभी तक बहाल नहीं हो पायी है और मांग कम है, ऐसे में ब्याज़ दरों में होने वाली बढ़ोत्तरी से सिर्फ़ निवेश, रोज़गार और आय में कमी आयेगी,यानी कि मुद्रास्फीति की स्थिति बिगड़ती जा रही है।

क्या किया जाने की ज़रूरत है ?

यह सरकार का काम है कि वह आपूर्ति की बाधाओं को दूर करे, अटकलों पर लगाम लगाये और मुद्रास्फीति को कम करने के लिए अप्रत्यक्ष करों को कम करे। बंद हो चुकी इकाइयों को पुनर्जीवित करने में मदद किये जाने की ज़रूरत है। इसके लिए प्रत्यक्ष कर संग्रह को बढ़ाना होगा, ताकि बजट में राजकोषीय घाटे को बढ़ाये बिना अप्रत्यक्ष करों में कटौती की जा सके। ऐसा करने के लिए ख़ास क़दम हाल ही में कई बार सुझाये गये हैं। बजट को फिर से तैयार करने की इसलिए ज़रूरत है, क्योंकि व्यय मुद्रास्फीति के साथ बढ़ेगा (मसलन, सब्सिडी के भुगतान के ज़रिये), जबकि अर्थव्यवस्था में सुस्ती के चलते राजस्व की उछाल में गिरावट आयेगी।

अगर संक्षेप में कहा जाये, तो अर्थव्यवस्था को इस समय गतिरोध का सामना करना पड़ रहा है, जिससे निपटने के लिए आरबीआई के बजाय सरकार की तरफ़ से क़दम उठाये जाने की ज़रूरत है; जिन क़दमों का ऐलान किया गया है,वह एक शुरुआत हैं। मांग में कमी किए बिना आपूर्ति की बाधाओं को दूर करने के लिए और बहुत कुछ किये जाने की ज़रूरत है।

डॉ. अरुण कुमार इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस में मैल्कम आदिसेषैया चेयर प्रोफ़ेसर हैं।

साभार: द लीफ़लेट

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Economy Facing Stagflation: Need to Improve Supplies and Keep up Demand

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