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एक संस्मरण : इंदिरा की इमरजेंसी और आरएसएस के माफीनामे
माफीखोरों की ये जमात आरएसएस इतनी ढीठ कैसे हो सकती है कि जिस इमरजेंसी में इसने खुल कर माफियां माँगी हो उसी के खिलाफ लड़ाई के श्रेय लेने की हिम्मत जुटा ले ।
बादल सरोज
29 Jun 2018
indra gandhi
Image Courtesy:webduniya

इस बार 26 जून के दिन सन् 1975 में इसी दिन इंदिरा गांधी द्वारा लगाई गयी इमरजेंसी (आंतरिक आपातकाल) को लेकर अचानक प्रधानमन्त्री मोदी सहित पूरी भाजपा सहित आरएसएस के लगभग बाबले हो जाने की हास्यास्पद विद्रूपता को देखकर इमरजेंसी की जेल की याद आ गयी जब स्टूडेंट्स फेडेरेशन के एक कार्यकर्ता के रूप में 20 से भी कम उम्र में मीसा में गिरफ्तार होकर 20 महीने इन संघियों के साथ सेन्ट्रल जेल ग्वालियर की बैरक नंबर 10/4 में रहना हुआ था ।

अचरज हुआ कि माफीखोरों की ये जमात आरएसएस इतनी ढीठ कैसे हो सकती है कि जिस इमरजेंसी में इसने खुल कर माफियां माँगी हो उसी के खिलाफ लड़ाई के श्रेय लेने की हिम्मत जुटा ले ।

हमारी जेल में डाक भेजने के लिए कनस्तर - टिन के कटे हुये डब्बे - पोस्टबॉक्स की तरह इस्तेमाल हुआ करते थे । एक दिन अचानक दिखा कि वे एक की जगह दो कर दिए गए। जब पूछा-ताछी की तो पता चला कि ओवरफ्लो होने लगा था।

अचानक इत्ती चिट्ठियां क्यों लिखी जाने लगीं ? डाक मुंशी बोले - रोज इंदिरा गांधी और संजय गांधी के लिए चिट्ठियां भेज रहे हैं तुमाए जे नेता। दिन में दो दो बार भेज रहे हैं माफीनामा। हमारे मुंह से निकला; ओ तेरी !!

हमारी बैरक नम्बर 10/4 ऊपर की बैरक थी। ठीक हमारी खिड़की के सामने से नीचे दिखाई देते थे कनस्तर-पोस्टबॉक्स !! अब हम लोगों ने देखरेख शुरू की - पाया कि रात 11 बजे फलाने जी चले आरहे है तो साढ़े ग्यारह बजे ढिकाने जी। लाइन लगाकर इत्ते माफी नामे अर्पित हो रहे हैं कि लाज से झुके जा रहे हैं कनस्तर जी।

कुलमिलाकर ये कि हम वामियों, कुछ समाजवादियों और एक दो सर्वोदयीयों को छोड़ कर ऐसा एक भी नहीं बचा था जिसने इस माफीनामे के राजदार और मेघदूत कनस्तर की गटर में बारम्बार डुबकी न लगाई हो ।

पूरी जनसंघ-आरएसएस बरास्ते कनस्तर इंदिरा गांधी और संजय गांधी की शरणागत हुयी पडी थी। हम युवाओं को चुहल का नया मसला मिल गया था । एक दिन बातों बातों में हवा फैला दी कि इंदिरा-संजय को चिट्ठी भेजने से क्या होगा ? न उन तक पहुंचेगी, न वे पढ़ेंगे । भेजना है तो डॉ धर्मवीर (तबके जिला कांग्रेस के नेता और उन दिनों की गुंडा-वाहिनी सेठी ब्रिगेड के संरक्षक, बाद में भाजपा के विधायक भी हुये) परिहार (बृजमोहन सिंह परिहार-युवा कांग्रेसी, जिनकी हैसियत उस जमाने में ग्वालियर के संजय गांधी जैसी थी) या विजय चोपड़ा (युवा कांग्रेसी) को भेजो। उनकी सिफारिश ही चलेगी। 
ये गप्प ऐसी हिट हुयी कि पता लगा कि उनके नाम से भी पत्र जाना शुरू हो गए !!

यह सिर्फ हमारी जेल की कहानी नहीं थी - पूरे देश में यह माफी पर्व मना था । आरएसएस की खासियत यह है कि वह कायरता को सांस्थानिक रूप देकर उसे इतना आम बना देता है कि जो कायर नहीं होते हैं वे अकेला महसूस करने लगते हैं।

अंग्रेजों के जमाने में इसने यही किया। यही इमरजेंसी में हुआ। इमरजेंसी में आरएसएस के तत्कालीन सरसंघचालक बाला साहब देवरस ने इंदिरा गांधी और संजय गांधी और वीसी शुक्ला और पीसी सेठी तक न सिर्फ दूत दौड़ाये थे, बल्कि बाकायदा चिट्ठियां भी लिखी थीं।

इन चिट्ठियों-संदेशों मे इंदिरा गांधी के बदनाम 20 सूत्रीय कार्यक्रम और संजय गांधी के कुख्यात 5 सूत्री कार्यक्रम (जिसका एक परिणाम थी जबरिया नसबन्दी) को राष्ट्र-हित में किये जा रहे कार्य निरूपित करते हुए कातर गुहार की गयी थी कि हम सब को रिहा किया जाए ताकि इन दोनों महान कार्यक्रमों को पूरा करने के राष्ट्रीय कर्तव्य में आरएसएस भी प्राणपण से जुट सके। (आरएसएस की ये चिट्ठियां राष्ट्रीय रिकॉर्ड का हिस्सा हैं - उपलब्ध हैं। )

चिट्ठी-सरेण्डर सावरकर साब के जमाने से चल रहा है । उन्होंने रानी विक्टोरिया के हुजूर में 5 लिखी थीं और उनमे किये गए स्वतन्त्रता संग्राम में फिर कभी हिस्सा न लेने के वचन को निबाहा । 1948 के प्रतिबन्ध में भी चिट्ठी- सरेंडर आजमाया गया । इमरजेंसी कैसे छूट जाती । आगे भी जरूरत पडी तो अमल में लाया जायेगा ।

इसीलिए जब मध्यप्रदेश में मीसाबंदियों को पेंशन देने की शुरुआत की गयी, जो अब 25 हजार रूपये महीना हो चुकी है, तब उस पेंशन को ठुकराते हुए हमारी पार्टी - सीपीआई(एम) ने इन सारे माफीनामों को सार्वजनिक करने की मांग की थी। आज भी यही मांग है - जिसने आपातकाल का समर्थन किया हो, माफियों की गुहार लिखापढ़ी में की हो , वह लोकतंत्र स्वतन्त्रता सैनानी कैसे हो सकता है।

इनकी कायरता के ऐसे अनेक किस्से हैं । जो कायर थे वे कायर ही रहेंगे ।
किंतु ये "माफीखोर" अगर इमरजेंसी का विरोध कर रहे हैं इसका मतलब यह नही कि आपातकाल अच्छा था ।
1975 की जून 26 भारतीय लोकतंत्र का काला दिन था । इसने न सिर्फ लोकतन्त्र के प्रति भारतीय जनता के विश्वास को खण्डित किया बल्कि इसी कालिख ने वह परिस्थितियां उत्पन्न की जिनका नतीजा आज क्रूरसिंहों के राज्याभिषेक, बर्बरता के महिमामण्डन और हत्यारों की प्राणप्रतिष्ठा के रूप में सामने है ।

यह वह हादसा था जिसने भारतीय समाज के रूपांतरण को रोक दिया - नतीजे में काले अन्धकार युग की ओर वापसी के लिए सन्नद्द् अमानुषो के हाथ में अगुआई आ गयी ।
26 जून 1975 नहीं होता तो बहुत मुमकिन है कि 26 मई 2014 भी नहीं होता ।

यह सबक याद रखना इसलिये और जरूरी हो जाता है क्योंकि इन दिनों बिना घोषित किये हुये इमरजेंसी लाने के धतकरम किये जा रहे हैं ।

 

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