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चुनाव 2022
भारत
राजनीति
यूपी चुनाव: आजीविका के संकट के बीच, निषाद इस बार किस पार्टी पर भरोसा जताएंगे?
निषाद समुदाय का कहना है कि उनके लोगों को अब मछली पकड़ने और रेत खनन के ठेके नहीं दिए जा रहे हैं, जिसके चलते उनकी पारंपरिक आजीविका के लिए एक बड़ा खतरा उत्पन्न हो गया है।
अब्दुल अलीम जाफ़री
07 Mar 2022
Nishads

सोनभद्र: कोरोनावायरस के प्रसार को रोकने के लिए जब राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन लगाया गया था, उस दौरान 3 अप्रैल, 2020 को 26 वर्षीय अनिल कुमार सहनी, सब्जी बेचने के लिए अपनी साईकल गाड़ी से बाहर निकले थे। जैसे ही वे अपनी बस्ती से होते हुए सड़क पर पहुंचे, पुलिसकर्मियों के द्वारा उन्हें धर-दबोचा गया और बेरहमी से पीटा गया।

इस घटना के बाद तो वे सब्जी बेचने के लिए दोबारा बाहर निकलने की हिम्मत ही नहीं जुटा सके, भले ही इसे आवश्यक वस्तुओं की सूची में शामिल कर प्रतिबंधों में छूट दे दी गई थी। घर पर रखा हुआ सब्जी का स्टॉक भी इस बीच सड़ गया था।

उन्होंने सब्जियों को चुनने के लिए सोन नदी के किनारे जाना भी बंद कर दिया, यह सोचकर कि यदि नहीं बिकी तो अगली खेप का भी यही हश्र होना है। नतीजा यह हुआ कि समूची फसल ही बर्बाद हो गई क्योंकि इसे कभी तोड़ा ही नहीं गया। इसके चलते उन्हें करीब 3 लाख रूपये का घाटा सहना पड़ा था।

सोनभद्र जिले के चोपन नगर पंचायत (अधिसूचित क्षेत्र परिषद) के मल्लाही टोला में निषाद समुदाय से जुड़े लगभग सभी सब्जी उत्पादक लॉकडाउन के दौरान हुए नुकसान की ऐसी ही आपबीती सुनाते हैं।  

उनके गुस्से का अंदाजा इस बार के चुनावों में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को सबक “सिखाने” के उनके संकल्प से लगाया जा सकता है। उत्तर प्रदेश में जारी विधानसभा चुनावों के आखिरी चरण में सोनभद्र में सात मार्च को मतदान होना है।  

सोन नदी के तट पर स्थित, मल्लाही टोला इस समुदाय के 200 से अधिक घरों के साथ उनका केंद्र है। उनका पारंपरिक व्यवसाय अभी भी जल-केंद्रित ही बना हुआ है, जिसमें मछली पकड़ने, नाव खेने और रेत निकर्षण जैसे काम शामिल हैं। लेकिन हाल के दिनों में, व्यापक पैमाने पर रेत-खनन के कारण नदी में मछलियों की संख्या में कमी के साथ, वे अब नदी की रेतीली तलहटी पर उगने वाली सब्जियों के काम में स्थानांतरित हो गए हैं।   

न्यूज़क्लिक से अपनी बातचीत में उन्होंने बताया, “मैं लौकी, तोरई या नेनुआ, कोहड़ा (लाल कद्दू), करेला, बैंगन इत्यादि उगाता हूँ। लॉकडाउन के दौरान हमने जिस नुकसान को झेला है उसे भूले नहीं हैं। लॉकडाउन को सख्ती से लागू करने के नाम पर जिस प्रकार का राजकीय आतंक कायम किया गया था, उसका जवाब देने का समय अब आ गया है।”

निषादों का दावा है कि राज्य में उनके पास दो करोड़ का मजबूत जनाधार है और उन्हें गंभीर आजीविका संकट के बीच से गुजरना पड़ रहा है क्योंकि नदियों के उपर उनके अधिकार को वस्तुतः छीन लिया गया है।

इस बीच राम सुमेर हस्तक्षेप करते हैं और कहते हैं कि हमारे समुदाय के लोगों को अब मछली पकड़ने और रेत खनन संबंधी ठेके मिलने बंद हो गए हैं।

सुमेर कहते हैं, “हमें अपने सदियों पुराने व्यवसाय से वंचित होना पड़ रहा है। हमें अपनी नावों को फेरी लगाने की अनुमति नहीं दी जा रही है क्योंकि नदी में बड़े पैमाने पर रेत खनन गतिविधियों को अंजाम दिया जा रहा है। किसी भी अन्य की तुलना में नदी के पारिस्थितिकी तन्त्र की बेहतर समझ होने के बावजूद, अब हमारे पारंपरिक व्यवसायों पर हमारी पकड़ नहीं रह गई है।” वे आगे कहते हैं, “हमें मुफ्त राशन (सार्वजनिक वितरण या पीडीएस के तहत) की जरूरत नहीं है। हमें हमारा रोजगार वापस चाहिए ताकि हम सम्मान के साथ कमा-खा सकें।”

वे अपने विधायक, भाजपा के संजीव कुमार गौड़ से स्पष्ट रूप से नाखुश हैं, जिनके बारे में उनका कहना था कि पिछले पांच वर्षों में वे उनका हालचाल जानने के लिए एक बार भी नहीं आये थे।

उन्होंने शिकायती लहजे में कहा, “कोविड-19 की दूसरी लहर के दौरान इलाके के कई लोगों की ऑक्सीजन के अभाव में मौत हो गई, लेकिन उन्होंने एक बार भी अपने मतदाताओं का पुरसा-हाल जानने की जहमत तक नहीं उठाई। जब कभी भी हम मदद मांगने के लिए उनके पास गए, उन्होंने मदद के लिए हाथ आगे बढ़ाने के बजाय हमारे साथ दुर्व्यवहार ही किया।”

यहाँ के रंगीता निषाद हलवाई (मिठाई बनाने वाले) थे जो शादी-विवाह के मौकों पर विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाने का काम करते थे। पिछले साल करीब तीन महीनों तक सांस लेने में तकलीफ की शिकायत के बाद सितंबर में उनका निधन हो गया था। हालाँकि उनमें कोविड-19 के सभी लक्षण थे, लेकिन चूँकि मरीज ने आरटी-पीसीआर या रैपिड एंटीजन टेस्ट नहीं कराया था, इस वजह से मृतक के परिवार वाले यह दावा नहीं कर सकते थे कि वायरस की वजह से ही मृत्यु हुई थी। 

लेकिन जोखन देवी के पास यह साबित करने के लिए कोविड-19 पॉजिटिव रिपोर्ट है कि उनके पति 50 वर्षीय हीरामणि की 24 अप्रैल 2021 को वायरस की चपेट में आने के बाद मौत हो गई थी।

तीन बच्चों के पिता, हीरामणि एक रिक्शा-गाड़ी चलाने वाले थे। अचानक से उन्हें तेज बुखार, खांसी और सांस लेने में तकलीफ की शिकायत हुई। उन्हें इलाज के लिए जिला अस्पताल ले जाया गया, लेकिन वहां के डाक्टरों ने कथित तौर पर उन्हें भर्ती करने से इंकार कर दिया था। इसके बाद उन्हें एक प्राइवेट नर्सिंग होम में भर्ती कराया गया जहाँ आठ दिनों बाद उन्होंने अंतिम साँस ली।

सरकार की ओर से मिली बेरुखी और लापरवाही में इजाफा करते हुए उनके परिवार को अभी तक कोई मुआवजा नहीं मिल पाया है। राज्य सरकार ने कोविड-19 से मरने वालों के परिजनों के लिए 50,000 रूपये की अनुग्रह राशि देने की घोषणा की थी।

जोखन ने कहा, “सरकार के स्वास्थ्य ढाँचे पर अब मेरा कोई भरोसा नहीं रहा।”

22 साल के दीपू निषाद को 10वीं कक्षा के बाद अपनी पढ़ाई-लिखाई छोड़नी पड़ी क्योंकि उनके पिता को लकवा मार गया था और सात लोगों के परिवार का गुजारा चलाना मुश्किल हो गया था।

अपनी रोजी-रोटी के लिए निर्माण एवं रेत खनन स्थलों पर एक मजदूर के तौर पर काम करने वाले उस युवा का आरोप था, “सरकार ने हमें हमारे आजीविका के पारंपरिक स्रोत से वंचित कर हमें एक दिहाड़ी मजदूर बना दिया है।”

इसी प्रकार मोहल्ले में चिकन बेचने वाले विशाल कुमार सहनी ने दीपू की शिकायतों में जोड़ते हुए कहा, “जब हमें बेरोजगार कर दिया गया, तो हम दिहाड़ी मजदूरी करने के लिए मजबूर हो गये। यह हमारे पसंद का काम नहीं है, बल्कि हमारी मजबूरी है। क्या करें, परिवार भी तो चलाना है।”

सरकार अभी भी रेत की निकासी के लिए पट्टे देती है, लेकिन गरीब अब बोली लगाने का जोखिम उठा पाने की स्थिति में नहीं हैं। उनका कहना था, “हम गरीब निषादों को अब शारीरिक परिश्रम कर रेत निकालने की अनुमति नहीं है, लेकिन जिनके पास मोटा माल है वे मशीनों से इस काम को धड़ल्ले से कर रहे हैं। आज भी हमारे नामों से रेत उत्खनन के टेंडर निकलते हैं, लेकिन इसे ताकतवर लोगों के द्वारा किया जा रहा है क्योंकि हमारे पास इस प्रकार के ठेकों को वहन करने लायक ढेर सारा पैसा नहीं है।”

24 जून, 2018 को राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) के द्वारा सभी प्रकार के रेत खनन पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। बाद में, छोटी मशीनों का इस्तेमाल करने की अनुमति प्रदान कर दी गई थी, बशर्ते नदी के मुख्य बहाव को किसी भी प्रकार से प्रभावित नहीं होने दिया जायेगा। आदेश में इस संशोधन के बाद, सरकार ने रेत हटाने के लिए नदी के विभिन्न हिस्सों के पट्टे देने फिर से शुरू कर दिए हैं।

लेकिन जिन लोगों को ठेके दिए जाते हैं वे इन नियम और शर्तों का उल्लंघन करते हैं। उनके द्वारा नदी के भीतर गहराई से रेता निकालने के लिए अर्थ मूवर जैसे आधुनिक उपकरणों का खुल्लम-खुल्ला इस्तेमाल किया जाता है। नदी किनारे बने अपने घर के सामने मछली पकड़ने वाले जाल को बुनते हुए राम सुमेर ने कहा, “इसकी वजह से एक असुंतलन उत्पन्न हो रहा है जो पर्यवारण को प्रभावित कर रहा है। भू-जल के स्तर में गिरावट के पीछे की एक मुख्य वजह यह भी है।”

निषादों ने अब नदियों और सरकारी स्वामित्व वाले तालाबों में मछली के भंडारण पर भी अपने पारंपरिक अधिकार को खो दिया है।

60 वर्षीय, प्रभु नारायण ने कहा, “मछली का ठेका बड़े व्यापारियों द्वारा हासिल कर लिया जाता है जो हमें मछली के अंडे रोपने के लिए काम पर रखते हैं। एक बार जब ये आकार में बड़े हो जाते हैं, तो हम मछलियों को पकड़ लेते हैं और हमें भुगतान कर दिया जाता है। इसके अलावा, नदियों और तालाबों पर हमारा कोई अधिकार नहीं रह गया है।”

उन्होंने यह भी बताया कि पूर्व में सभी नदियों में मछली हुआ करती थीं। लेकिन अब, छोटी नदियाँ तक सूनी पड़ी हैं। छोटी नदियों में पानी की कमी और बड़ी नदियों में बाँध बन जाने के कारण होने वाले प्रदूषण की वजह से मछलियों के स्टॉक में कमी आ गई है। 

मोटर से चलने वाले स्टीमर और क्रूज के द्वारा जलमार्ग यातायात पर कब्जा जमा लेने के बाद से तो समुदाय के पास से आजीविका का यह साधन भी चला गया है।

इस समुदाय की आजीविका के सभी पारंपरिक स्रोतों के खात्मे के बाद से उन्होंने नदी किनारे सब्जियां उगाने का काम शुरू कर दिया है।

उनका कहना था, “लॉकडाउन के दौरान मैंने हर तीसरे दिन कम से कम दो कुंतल सब्जियां निकाली थीं, लेकिन बाजार बंद होने के कारण उन्हें बेच पाने में विफल रहा। पुलिस के डर से हम सड़कों पर नहीं जा पाए। जिसके परिणामस्वरूप, करीब 3 लाख रूपये के कीमत की सब्जियां सड़ गईं।”

लॉकडाउन से मंगरू सहनी को भी भारी नुकसान हुआ है। उन्होंने बताया, “मुझे 50 कुंतल सब्जियों का नुकसान हुआ था। इसके चलते मुझे करीब 2.8 लाख रूपये का नुकसान झेलना पड़ा। यहां तक कि उस दौरान जानवर तक इसे नहीं खा रहे थे।”

उन्होंने बताया कि मोहल्ले के सिर्फ 10-15 लोग ही अब मछली पकड़ने के काम में लगे हुए हैं; बाकी या तो सब्जियां उगा रहे हैं या आजीविका की तलाश में बड़े शहरों का रुख कर चुके हैं।”

अपने मूल नाम से ही जाने जाने वाले गुलाब विकलांग हैं। उनकी विवाहिता पुत्री गुंजा देवी ही समूचे परिवार का भरण-पोषण करती हैं। बेहद पीड़ाजनक शब्दों के साथ उन्होंने बताया, “मैं नदी के तट पर रेतीले हिस्से पर सब्जियां उगाती हूँ। यह सरकारी जमीन है। कभी-कभार सरकारी महकमा समस्याएं खड़ी कर देता है। इस उत्पीड़न से बचने के लिए हमें उन्हें रिश्वत देनी पड़ती है। हममें से कई लोगों को स्थानीय ऊँची जाति के लोगों को लगान (भूमि कर) देना पड़ता है, जो दावा करते हैं कि ये जमीन उनकी है।”

उनका कहना था कि उनके अपने नेताओं के द्वारा भी उनके कल्याण के लिए कुछ नहीं किया गया। उन्होंने आरोप लगाया कि राज्य में भाजपा की सहयोगी निषाद पार्टी के संस्थापक, संजय निषाद ने भी उनके साथ “विश्वासघात” किया है।

समुदाय के लोगों का कहना था, “वे हमारे नाम पर राजनीति कर रहे हैं। उन्होंने अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए अपनी पार्टी बनाई। इस पार्टी से हमें जो एकमात्र लाभ मिला वह यह है कि इसके गठन से हमारी उपस्थिति को स्वीकार को किया गया है।”

राज्य के कुल मतदाताओं में निषाद समुदाय की हिस्सेदारी 8% है। इसलिए, लगभग हर राजनीतिक दल उन्हें लुभाने के लिए बड़े बड़े वादे करने में जुटा हुआ है।

मौजूदा भाजपा सरकार निषादों के लिए आरक्षण देने का वादा कर रही है। विपक्षी समाजपार्टी पार्टी समुदाय के लोगों को मुफ्त नाव देने के बारे में बात कर रही है, जबकि कांग्रेस उन्हें नदी पर उनके अधिकार के प्रति आश्वस्त कर रही है।

यद्यपि इस बात की भविष्यवाणी कर पाना कठिन है कि समुदाय किस पार्टी पर भरोसा कर रहा है, लेकिन एक बात पूरी तरह से स्पष्ट है कि भाजपा ने समाज के एक वर्ग का भरोसा खो दिया है। ऐसे में, पार्टी के वोट बैंक में विभाजन का होना तो तय है।

लेखक रमाशंकर सिंह, जो समुदाय पर एक किताब लिख रहे हैं, का कहना था कि मौजूदा दौर में निषाद मुश्किल का सामना कर रहे हैं।

उनके मुताबिक, “कम लाभ और कड़ी मेहनत के बावजूद, यह समुदाय अभी भी बड़े पैमाने पर मछली पकड़ने, नाव खेने, और नदियों से रेत की खुदाई जैसे अपने पारंपरिक व्यसाय से जुड़ा हुआ है। वे बदलावों के प्रति खुद को अनुकूलित करने के प्रति बेहद धीमी गति से काम कर रहे हैं। वे शैक्षिक तौर पर पिछड़े हैं और इनके बीच में शिक्षा के महत्व को लेकर जागरूकता का अभाव बना हुआ है। यही वे कारण हैं जिनकी वजह से वे आज भी मुख्यधारा के समाज का हिस्सा नहीं बन पाए हैं।”

उनका कहना था कि समुदाय के सदस्यों का नदी के पारिस्थितिकी तंत्र में कोई दखल नहीं है, जो काफी हद तक उनकी आजीविका का मुख्य स्रोत है।

निष्कर्ष के तौर पर वे कहते हैं, “यदि नदियों को नहीं बचाया गया तो वे बर्बाद हो जायेंगे।”

समुदाय की मांग है कि उन्हें अनुसूचित जाति (एससी) के तौर पर मान्यता दी जाए। पिछली राज्य सरकार पहले ही निषादों की एक उप-जाति, मांझी को एससी की श्रेणी में शामिल कर चुकी है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

UP Elections: Amid Livelihood Crisis, Which Party Will Nishads Trust This Time ?

NISHAD
Uttar pradesh
Uttar Pradesh Assembly election
Bharatiya Janata Party
Fisher Community
farmers
sand mining

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