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कृषि
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कृषि-क़ानून लोकतंत्र और संघीयता का उल्लंघन हैं
किसानों का कृषि क़ानूनों के आर्थिक औचित्य पर चिंता करना महत्वपूर्ण बात है, लेकिन वे संघवाद और लोकतंत्र का सवाल भी उठा रहे हैं।
सुधीर कुमार सुथर
05 Feb 2021
Translated by महेश कुमार
कृषि

इस साल, वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण जब केंद्रीय बजट पेश कर रही थी तो उस वक़्त हजारों किसान दिल्ली की चारो ओर की सीमाओं पर आंदोलन चलाते महीनों बीत गए हैं। यह एक बड़ा तथ्य है कि वार्षिक बजट को एक आर्थिक दस्तावेज के रूप में माना जाता है। इसी तरह, कृषि क़ानूनों के आर्थिक औचित्य पर भी चर्चा की जा रही है।

हालांकि, लोकतंत्र और न्याय का मुद्दा किसी भी कानून में अंतर्निहित है ये अपने में एक सवाल है? केंद्रीय बजट और तीन नए कृषि-कानूनों को भारत के लोकतंत्र और इसकी संघीय संरचना के संदर्भ में राजनीतिक दस्तावेजों के रूप में पढ़ा जाना चाहिए।

लोकतंत्र और न्याय की धारणा को लेकर कोई बात है जो अनोखी है। वे केवल संस्थागत नियमों और विनियमों या नौकरशाही की प्रक्रियाओं के बारे में नहीं हैं। बजाय इसके, लोगों और उनके साथ इसमें हिस्सा लेने वाली हर इकाई को यह लगना चाहिए कि उनके साथ न्याय किया जा रहा है। तब हम कह सकते हैं कि लोकतंत्र ज़िंदा है।

इसलिए, लोकतंत्र लोगों को सशक्त बनाने का जरिया है, ताकि लोगों को ये संदेश मिल सके कि वे उसकी व्यवस्था के महत्वपूर्ण अंग है। किसी भी संघीय राजनीति में, यह नियम सभी संघीय इकाइयों पर भी लागू होता है। इस तरह के विश्वास के अभाव में, लोकतंत्र और संघवाद लोगों के लिए मात्र एक मतिहीनता बनकर रह जाता है।

कृषि-कानून, जो आज भारतीय राजनीति के ज्वलंत केंद्र हैं, वे लोकतंत्र और न्याय के इन बुनियादी सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं।

अब सवाल ये उठाया जा रहा है कि क्या भारत की संसद द्वारा पारित इन कानूनों को रद्द करने की मांग उचित है? संसद को भारत के लोगों के प्रति कानून बनाने का अधिकार है। हालांकि, सवाल ये भी उठता है कि क्या संसद ने कानून पारित करते या बनाते समय विधायी प्रक्रिया की पवित्रता या संविधान के निर्माताओं द्वारा स्थापित संघीय सिद्धांतों का पालन किया है?

विभिन्न घटनाओं पर भारतीय संस्थानों की उत्पत्ति और नीतिगत विचार (विशेष रूप से कृषि) पर नज़र डालने से पता चलता है कि मौजूदा दौर में भारतीय राजनीति ने संविधान की मूल दृष्टि को खो दिया है।

8 और 31 अगस्त 1949 को, संविधान सभा ने कृषि (कृषि से मिलने वाली आय सहित) और भोजन की गुणवत्ता के मानकीकरण और अन्य मुद्दों से संबंधित कानूनों में विनियमन और रखरखाव में पर चर्चा की थी। कृषि को राज्य के विषय के रूप में मान्यता दी गई थी और राज्यों को कृषि और संबंधित विषयों पर कानून बनाने के अधिकार दिए गए थे।

दूसरी ओर, केंद्र सरकार को एकाधिकार पर लगाम लगाने के लिए और खाद्य और अन्य उपभोग की वस्तुओं के मानकों और गुणवत्ता में एकरूपता सुनिश्चित करने के लिए शक्तियां दी गईं थी। नतीजतन, कृषि व्यापार, वाणिज्य, उत्पादन, आपूर्ति और खाद्य वितरण संविधान की प्रविष्टि 33 (बी) के जरिए समवर्ती सूची में शामिल कर दिया गया था। 

केंद्र सरकार को केवल कुछ शक्तियां देने का जो सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण उद्देश्य था वह यह कि राज्य सरकारों के अधिकारों का उल्लंघन न हो, और केंद्र खाद्य के समान वितरण और कृषि में अनुसंधान और शिक्षा को बढ़ावा देने को सुनिश्चित कर सके। 

शक्तियों के इस बेहतरीन वितरण के बावजूद, कृषि क्षेत्र के विकास को बढ़ावा देने के नाम पर  केंद्र सरकार की भूमिका पर चारो ओर से चिंता व्यक्त की गई थी। 1950 के दशक के अंत और 1960 की शुरुआत में भारत को गंभीर खाद्य संकट का सामना करना पड़ा था। केंद्र सरकार की जिम्मेदारियों और राज्य विधायी शक्तियों को संतुलित करने के लिए, स्वतंत्रता के बाद पहले दो दशकों तक शक्तियों पर संस्थागत जाँच और उन्हे संतुलित बनाए रखा गया था। 

तत्कालीन योजना आयोग और राष्ट्रीय विकास परिषद (NDC)  को क्रमश इस उद्देश्य को हासिल करने के लिए 1950 और 1952 में स्थापित किए गया था। जब भारत ने अपनी विकास यात्रा शुरू की, तब इन दोनों संस्थानों ने केंद्र सरकार और राज्यों के बीच सेतु का काम किया था।

इसके अलावा, संसदीय प्रक्रिया को मजबूत और सलाहकारी बनाना, और इस तरह के क़ानूनों (विशेष रूप से राज्यों के लिए बनाए जाने वाले क़ानूनों को) पर चर्चा करने के लिए स्थायी समितियों का गठन का विचार मज़बूत हुआ। स्थायी समिति द्वारा विभिन्न हितधारकों खासकर राज्य सरकारों से परामर्श करने के बाद ही संसद में विभिन्न कानून लाने की उम्मीद की गई थी।

अनाज की कमी पर नज़र रखने और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के तरीके खोजने के लिए 1957 में एक खाद्य-अन्न जाँच आयोग की स्थापना भी की गई थी। कृषि उत्पादों, विशेषकर खाद्यान्नों के उचित मूल्य सुनिश्चित करने के लिए 1964 में कृषि मूल्य आयोग की स्थापना की गई थी।

इन सभी संस्थाओं और उनकी प्रक्रिया की दक्षता और वे अपने उद्देश्यों को कितने बेहतर ढंग से हासिल कर पाए पर सवाल उठाना संभव है। फिर भी, इन संस्थानों ने संघीय इकाइयों और अन्य हितधारकों की सभी किस्म की शिकायतों को दर्ज़ करने का एक मंच प्रदान किया है। इस प्रक्रिया ने राज्य सरकारों और केंद्र सरकार के बीच संघर्ष की संभावना को कम कर दिया था। इसने हर किस्म के झटके/सदमे को सहने का काम किया जिसने भारतीय लोकतंत्र को बनाए रखने में मदद की।

केंद्र सरकार ने इस पूरी प्रक्रिया में अपनी भूमिका और सीमाओं को पहचाना और इसलिए एक नियामक संस्था के रूप में काम किया या किसानों के साथ-साथ राज्यों के हितों की रक्षा करने का काम किया था। 

हालाँकि, इन नए कानूनों को पारित करके संसद ने इस पूरी प्रक्रिया को उल्टा कर दिया है। सबसे पहली बात तो इन कानूनों को पारित करते वक़्त संसद की इस तरह की भूमिका को पहले कभी नहीं देखा गया था जहां चर्चा और विचार-विमर्श की कोई इजाजत ही नहीं दी जाएगी। सत्तारूढ़ दल ने अपने चुनावी बहुमत को लोगों की स्वीकृति मान लिया, और विचार-विमर्श, भागीदारी और "सहयोगी" संघीय बुनियादी सिद्धांतों की अनदेखी कर दी गई।

दूसरा, अधिकांश संस्थान जिन्हे संघवाद की रक्षा के लिए बनाया गया था उन्हे नई किस्म के संस्थानों से बदल दिया गया है जो उन्हें केवल ‘थिंक टैंक’ के रूप में काम करने की इजाजत देते हैं और उनकी संघीय सलाह या विमर्श में कोई भूमिका नहीं है। पूर्ववर्ती योजना आयोग को नीतीयोग में बदलना ऐसा पहला कदम था। इसी तरह, एनडीसी को विकास पर चर्चा करने के काम की तरफ धकेल दिया गया है।

सबसे बुरी बात यह है कि संसद ने एक ऐसी भूमिका निभाई जिसके बारे में संविधान के निर्माताओं ने कभी कल्पना भी नहीं की थी: राज्य सरकारों की ओर से कृषि क्षेत्र में कानून बनाने की शक्ति हासिल करना। नए कृषि कानूनों का उद्देश्य कृषि व्यापार और वाणिज्य से राज्य की भूमिका को दरकिनार कर नए खिलाड़ियों के पक्ष में एक नियामक के रूप में काम करना है।

सवाल यह है: क्यों? इसका जवाब नीती अयोग के एक सदस्य बिबेक देबरॉय के सुझाव में है। आयोग को उनका सुझाव जिसका समर्थन भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन ने भी किया था कि कृषि को आयकर के योग्य बनाना चाहिए। तब वित्तमंत्री अरुण जेटली ने ऐसा करने से सरकार को मना कर दिया था, लेकिन नए कृषि-कानून केंद्र सरकार का कृषि क्षेत्र में घुसने का जरिया है ताकि वह नया टैक्स तंत्र लागू कर सके। एक बार जब विनियमित कंपनियां मंडियों में काम करने वाले छोटे व्यापारियों की जगह ले लेंगी, तो यह भी संभव हो जाएगा। 

संविधान सभा के एक सदस्य नजीरुद्दीन अहमद ने संविधान सभा में 8 अगस्त 1949 को  बहस करते हुए कहा था कि कृषि संबंधी कानून पारित करने की शक्ति संसद के पास नहीं होनी चाहिए। उन्होंने कहा था कि, "भारत सरकार अधिनियम ने वास्तव में भारतीय आयकर अधिनियम में परिभाषा को इस तरह से अपनाया है और इसे हमेशा के लिए क्रिस्टलाइज़ या स्पष्ट कर दिया है... अगर हम अब कृषि से मिली आय के अर्थ को अलग करने की कोशिश करते हैं, तो इसका परिणाम यह होगा कि कृषि आय, जो आय प्रांतीय विषय है आगे चलकर उसका गंभीर अतिक्रमण होगा। संसद आसानी से इस परिभाषा का अतिक्रमण कर सकती है और  कह सकती है, 'कृषि आय एक आय है जो कृषि से उत्पन्न नहीं होती है।"

डॉ॰ राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता वाली विशेषज्ञ समिति, जो वित्तीय प्रावधानों की जांच कर रही थी, ने भी भारत सरकार अधिनियम, 1935 में उस प्रावधान को जारी रखने का फैसला किया, जो  कृषि आय को राज्य का विषय मानता था।

संघीयता और लोकतंत्र के ये सवाल किसानों के आंदोलन की जड़ में हैं। कानून के आर्थिक उद्देश्यों पर सवाल उठाने के अलावा, आंदोलन के माध्यम से किसानों ने खुद को देश के  विकास में हितधारक के रूप में अपनी भूमिका को मुखर करने का प्रयास किया है। संविधान के निर्माताओं ने भारतीय नागरिकों की इस इच्छा को बेहतर ढंग से समझा था। वर्तमान सत्तारूढ़ दल ने नागरिकों के विकास के अपने संस्करण को लागू करने के फेर में लोकतंत्र, उसमें सबकी भागीदारी और न्याय के बुनियादी सिद्धांतों को दांव पर लगा दिया है। 

लेखक सेंटर फ़ॉर पॉलिटिकल स्टडीज़, जेएनयू में सहायक प्रोफ़ेसर हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें।

Farm Laws Violate Democracy and Federalism

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