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आंदोलन
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भारत
राजनीति
क्या किसानों ने हिंदुत्व के रथ को रोक दिया है?
भाजपा किसानों को बदनाम करने के लिए अपने पहले से ही भली-भांति आजमाए हुए हथकंडों को इस्तेमाल करने पर लगी हुई है, लेकिन किसानों का यह आन्दोलन पार्टी के लिए एक विशाल आर्थिक एवं वैचारिक चुनौती साबित होता जा रहा है।
पार्थ एस घोष
16 Dec 2020
bihar
 

यह समय अब हिंदुत्व को देखने का है। नरेंद्र मोदी सरकार इस समय एक ऐसे राजनीतिक चुनौतियों से घिरी हुई है, जिसका साबका उसे आजतक नहीं झेलना पड़ा था। यह मुकाबला बेहद चुनौतीपूर्ण है क्योंकि यह किसी भी राजनीतिक दल से उभर कर नहीं आ रही है बल्कि ढीले-ढाले ढांचे में संगठित किसानों के बीच से आ रही है। पंजाब के किसानों के नेतृत्व तले हर गुजरते दिन के साथ यह आन्दोलन मजबूत होता जा रहा है, जिसमें सारे देश भर से अधिकाधिक किसान शामिल होते जा रहे हैं। 

दिल्ली में 1988 के भारतीय किसान यूनियन के नेतृत्व वाली किसानों की रैली की यादों को ताजा करते हुए वर्तमान के विरोध प्रदर्शनों ने भी उसी प्रकार की अराजनीतिक प्रकृति की महत्ता का स्वरुप अख्तियार कर लिया है। इस वजह से भारतीय जनता पार्टी का काम काफी मुश्किल बन चुका है। अभी तक बीजेपी ने किसी भी राजनीतिक नैरेटिव पर अपने हिंदुत्व कार्ड को सफलतापूर्वक इस्तेमाल कर हावी होने और अपने राजनीतिक विरोधियों को पटखनी देने के लिए इस्तेमाल किया है। इसलिए सवाल यह बना हुआ है कि क्या किसानों का यह आन्दोलन हिंदुत्व के रथ को रोकने और भारतीय राजनीति में समान स्तर लड़ाई के मैदान में वापसी की अनुमति प्रदान करेगा, या नहीं। 

पिछले कुछ वर्षों से बीजेपी को मिल रहा चुनावी लाभ बेहद आश्चर्यचकित कर देने वाला रहा है, जिसमें हाल ही में वृहत्तर हैदराबाद नगरपालिका के लिए हुए चुनाव भी शामिल हैं। 2016 में मामूली चार की संख्या पर टिके होने के बावजूद, इस माह की शुरुआत में हुए चुनावों में इसे 48 नगरपालिका प्रभागों में (कुल 150 में से) जीत दर्ज करने में सफलता प्राप्त हुई थी। इसके मत प्रतिशत में भी 34.56 अंकों के साथ अभूतपूर्व वृद्धि देखने को मिली है, जो कि क्षेत्रीय स्तर पर अपराजेय माने जाने वाले तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) को हासिल हुए मतों की संख्या के करीब बैठता है। 

हैदराबाद में दिखा यह प्रदर्शन इसके अक्टूबर-नवंबर में संपन्न हुए बिहार चुनावों में हासिल विजय के ठीक बाद देखने को मिला था। वहाँ पर बीजेपी, सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के एक प्रमुख भागीदार के रूप में उभरी है, जिसने अपने से अधिक शक्तिशाली क्षेत्रीय सहयोगी दल, मुख्यमंत्री नितीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) को नेपथ्य में फेंक दिया है। यदि बीजेपी चाहती तो वह मुख्यमंत्री पद पर अपनी दावेदारी को पेश कर सकती थी। लेकिन बड़े रणनीतिक हितों को ध्यान में रखते हुए इसने नितीश कुमार को पद पर बने रहने दिया है। नितीश कुमार को भी इस बारे में कोई संदेह नहीं है कि उनके द्वारा एक छोटी सी गलती पर बीजेपी उन्हें बिना किसी खास मशक्कत के बेदखल कर देने की स्थिति में है। 

वो चाहे बिहार रहा हो या हैदराबाद, बीजेपी ने जिस राजनीतिक कार्ड को सबसे मुखर रूप से प्रदर्शित किया, वह कार्ड हिंदुत्व का था। यहाँ पर ऐसे जुमलों का जमकर ईस्तेमाल किया गया था: “विभाजनकारी शक्तियों से सावधान”; “पाकिस्तानी पिट्ठुओं पर निगाह बनाए रखें”; “छद्म धर्मनिरपेक्षवादी ताकतों की निंदा”; “रोहिंग्या घुसपैठियों को बाहर करो”; “याद रखें पुलवामा में आतंकी हमलों के पीछे कौन सी ताकतें थीं”; “हैदराबाद का नाम बदलकर भाग्यनगर रख देंगे (इलाहाबाद और मुगलसराय जंक्शन का नाम बदलकर क्रमशः प्रयागराज और दीन दयाल उपाध्याय जंक्शन नामकरण करने जैसे मुद्दों) और अंत में शायद इनमें से जो सबसे अधिक प्रभावकारी सिद्ध हुआ, वह था “सभी बांग्लादेशियों को निकाल बाहर करने के लिए एक ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ की जरूरत है” जैसे नारों को इस्तेमाल में लाया गया था।

इन गाल में जीभ घुमाने और स्पष्टतया झूठे दावों के प्रदर्शन की स्थानीय राजनीति में शायद ही कोई प्रासंगिकता रहा करती है, लेकिन चूँकि इन्हें सीधे नरेंद्र मोदी, अमित शाह, जेपी नड्डा एवं बीजेपी के अन्य शीर्षस्थ नेताओं की ओर से उछाला गया था, इसलिए मतदाताओं को प्रभावित करने में ये कारगर सिद्ध हुए। ज्यादातर अन्य पार्टियों ने वीरता के बढ़चढ़कर प्रदर्शन करने की तुलना में विवेक को वरीयता देते हुए सांप्रदायिक प्रश्नों को उठाने के बजाय खुद को सांसारिक मामलों पर कहीं ज्यादा जोर देने पर लगा रखा था। उदहारण के तौर पर बिहार में तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) ने जिस एक धुन पर खुद को केन्द्रित रखा था, वह थी बेरोजगारी की समस्या। इसके नतीजे में यह सबसे बड़े दल के तौर पर उभरी है, और इसने महत्वपूर्ण अंतर से लोकप्रिय मतों को हासिल करने में भी सफलता प्राप्त की है, जो कि बीजेपी द्वारा हिंदुत्व के प्रचार को ही हर वक्त एकमात्र हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने को लेकर एक चेतावनी है। इस सबके बावजूद हिंदुत्व ने अपनी चमक को बरक़रार रखा है।

इन परिस्थितियों में बिहार के मुस्लिम-बहुल इलाकों में से कई मुस्लिमों ने अधिकाधिक तौर पर हैदराबाद आधारित असदुद्दीन ओवैसी के नेतृत्व वाले एआईएमआईएम (आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुस्लिमीन- आल इंडिया काउंसिल ऑफ़ यूनिटी ऑफ़ मुस्लिम) की ओर अपना रुख कर लिया। हालाँकि ओवैसी कोई इक्कीसवी सदी के मोहम्मद अली जिन्ना साबित नहीं होने जा रहे, जो देश का एक बार फिर से बँटवारा करा कर ही मानेंगे। लेकिन उनको मिलने वाली हर सफलता निश्चित तौर पर भाजपा के लिए ख़ुशी का कारण साबित होती है। ओवैसी द्वारा संचालित ध्रुवीकरण की मुहिम को वह सफल होते देखना पसंद करेगी, जो कि अंततः उसके हिन्दू आधार क्षेत्र को ही मजबूत करने में मददगार साबित होती है। आखिरकार हिन्दू-मुस्लिम सांप्रदायिक ध्रुवीकरण जितना अधिक होगा, उतना ही हिंदुत्व की अपील को बनाए रखने की सम्भावनाएं बेहतर होती जायेंगी।

आम तौर पर ऐसी सफल पृष्ठभूमि के होते हुए भाजपा ने शायद ही कभी इस बात की कल्पना की हो कि उनका यह हिंदुत्व का विजय रथ पंजाब के अहानिकर सिख किसानों द्वारा चलाए जा रहे सड़क-जाम से पूरी तरह से चक्का जाम की स्थिति में आ जाने वाला है। 2014 में मोदी के सत्ता में आसीन होने के बाद से यह पहली बार है जब उनकी सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर प्रदर्शनकारियों पर नकेल कस पाने में असमर्थ साबित हो रही है। जहाँ (अब तक) सिख किसानों का आंदोलन सफल रहा है, वहीँ विश्वविद्यालय के छात्रों (जेएनयू के सहित) और सीएए विरोधी प्रदर्शनकारी (दिल्ली के आम मुस्लिमों के नेतृत्व में) चलाए गए राष्ट्र-व्यापी सर्व-समुदाय के विरोध प्रदर्शन विफल साबित हो गए थे।

ऐसा नहीं है कि बीजेपी ने अपने बखूबी तौर पर आजमाए हुए हथकंडों का इस्तेमाल किसानों को बदनाम करने में न किया हो। उसने पूरी बेशर्मी के साथ प्रदर्शनकारी सिख किसानों को अलगाववादी खालिस्तानियों के बतौर चित्रित किया, जिन्हें सीमा पार की ताकतों अर्थात पाकिस्तान और चीन द्वारा प्रायोजित किया जा रहा है। हाल के दिनों में जबसे भारत-चीन के बीच सीमा विवाद शुरू हुआ है, तबसे इसके द्वारा बिना किसी संकोच के न केवल पाकिस्तानियों बल्कि चीनियों को भी “विदेशी हाथ” के तौर पर नहीं चिन्हित किया जा रहा है। (इंदिरा गाँधी के वक्त में इस “विदेशी हाथो” का आशय अमेरिकी हस्तक्षेप की तरफ इशारा हुआ करता था।)

भाजपा के कुछ दिग्गजों ने तो किसानों की विश्वसनीयता तक पर सवाल खड़े करने शुरू कर दिए हैं। सड़क परिवहन एवं राजमार्ग राज्य मंत्री वीके सिंह ने यह घोषणा कर अपनी खुद की थुक्क्म-फजीहत करा ली है, जिसमें उनका दावा था कि वे उन्हें उनकी पोशाक से ही बता सकते हैं, कि वे किसान नहीं थे। एक किसान जिसके बारे में यह उम्मीद की जाती है कि वह गरीब होने के साथ-साथ फटे-पुराने कपड़ों में नजर आना चाहिए, भला वह कैसे इतने खाते-पीते घर का और बन-सँवर कर रह सकता है? स्पष्ट तौर पर मंत्री सिंह के कहने का यही आशय था। यदि आप याद करें तो पिछले साल झारखण्ड विधानसभा चुनावों के दौरान नरेंद्र मोदी ने भी कुछ इस प्रकार की टिप्पणी मुसलमानों को लेकर की थी, जो कि उस दौरान दिल्ली के शाहीन बाग़ इलाके में सीएए-विरोधी प्रदर्शनकारियों के बड़े हिस्से का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। मानो शाहीन बाग़ के प्रदर्शनकारी खुद की पहचान छिपाने या जो वे कर रहे थे उसको लेकर शर्मिंदा थे।

भला हो कोविड-19 के चलते लागू प्रतिबंधों और हालिया सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों का, जिसके कारण सड़कों पर विरोध प्रदर्शन और खुले में सभाओं जैसी गतिविधियाँ पूर्ण तौर पर अवैधानिक हैं, जिसने बीजेपी को अपनी मुस्लिम विरोधी बयानबाजी को अबाध गति से जारी रखने की छूट दे रखी है। बीजेपी ने इस मौके का इस्तेमाल एक के बाद एक कानूनों को विधाई प्रक्रियाओं को धता बताते हुए पारित करने में इस्तेमाल में लाया है। उसने अपनी सोशल मीडिया ट्रोल आर्मी को सभी उदारवादियों, यहाँ तक कि जो बीजेपी विरोधी भावनाएं तक नहीं रखते थे, उनके खिलाफ भी हल्ला बोलने के लिए खुली छूट दे रखी है। और इस प्रकार अ सूटेबल ब्वाय में एक हिन्दू लड़की और एक मुस्लिम लड़के का एक हिन्दू मंदिर के परिसर में चुंबन के दृश्य का निरूपण ही इस बात के लिए पर्याप्त था कि इसने नेटफ्लिक्स को अपने इस शो को रद्द करने के लिए मजबूर कर दिया था। इस दृश्य की एक और सूक्ष्म व्याख्या रह हो सकती है - इस देश के हर नुक्कड़ और कोने पर एक हिन्दू मंदिर मिल जाएगा- शायद खरगोश से इतनी उम्मीद करना बेमानी होगा।

वैसे भी नेहरूवादी राजनीति के अवसान के बाद से ही भारतीय मुसलमानों को सुनियोजित ढंग से हाशिये पर डालने का क्रम जारी है, ऐसे में वे किसी भी स्तर पर हिंदुत्व के सबसे बड़े दुश्मन नहीं रह गए हैं। इसका असली दुश्मन यदि कोई है तो वे लोकतंत्र और उदारवादी राजनीति की ताकतें हैं, लेकिन ये दोनों ही 2014 के बाद से ही कमजोर पड़ती जा रही हैं। लेकिन हिंदुत्व के प्रोजेक्ट के लिए मुसलमान बेहद अहम बने हुए हैं, क्योंकि उन्हें कलंकित करते रहने से हिन्दू बहुसंख्यक तबके को लगातार भ्रम की स्थिति में रखा जा सकता है, जिससे कि उनकी आंतरिक सामाजिक और सांस्कृतिक विरोधाभासों को दमित रखना आसान हो जाता है।

शुरू से ही हिंदुत्व के ठेकेदारों को यह बात अच्छे से पता थी कि जब तक हिन्दू समाज के भीतर रह रहे हाशिये पर पड़े सामाजिक वर्गों के मन में उच्च जातियों के साथ राजनीतिक और क़ानूनी एकता की भावना बनी हुई है, तब तक वे संतुष्ट रहने वाले हैं और उनका वास्तविक सामाजिक दमन कोई मायने नहीं रखता। उत्तर प्रदेश सरकार अपने हालिया लव-जिहाद विरोधी कानून की तुरही बजाने के लिए स्वतंत्र है, जबकि अंतर-धार्मिक विवाह सारे देश भर में कुल मिलाकर तीन से चार प्रतिशत ही होती हैं (उत्तर प्रदेश में तो और भी कम)। लेकिन क्या उन्होंने कभी हिन्दुओं के बीच में ही अंतर्जातीय विवाहों के मामले में एक भी कदम आगे बढ़ाने की जहमत उठाई है? यदि हिंदुत्व की ताकतें जब कभी इसे अपने धर्मयुद्ध के आदर्श वाक्य के तौर पर लेंगी, तो उसके पास इस मुद्दे पर ‘लिबटार्ड’ और ‘सिखुलर्स’ की जमात को भी जुटाने की संभावना है।

उपर की गई चर्चा के मद्देनजर किसानों का आंदोलन बेहद अहम हो जाता है क्योंकि यह दर्शाता है कि भारतीय राजनीति में सिर्फ और सिर्फ हिन्दू-मुस्लिम सवाल से इतर भी अन्य दुश्चिंताएं मौजूद हैं, जबकि बीजेपी ने अपने फायदे के लिए इसे केन्द्रीय मुद्दा बना रखा है। किसी को नहीं पता कि किसानों और सरकार के बीच में चल रही इस रस्साकशी का क्या परिणाम होने जा रहा है। लेकिन राज्य का इस मामले में नीचे खिसकना भारतीय लोकतंत्र के लिए एक शुभ संकेत है, क्योंकि इस प्रक्रिया में कई अन्य मुद्दों के भी सतह पर आ सकने की संभावना है। इनमें राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर कार्यकर्ताओं एवं पत्रकारों की अंधाधुंध गिरफ्तारियाँ और विधायी एवं न्यायिक प्रकिया में पूरी तरह से गिरावट शामिल हैं।

मैं इस लेख का समापन करते हुए भाजपा से एक बेहद साधारण प्रश्न करना चाहता हूँ। यदि सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा है जैसे – भारत के विकास की कहानी बदस्तूर जारी है, इसका स्वदेशी एंटी-कोविड वैक्सीन बस एक परीक्षण की दूरी पर है, खाड़ी देशों के सभी मुस्लिम राष्ट्रों के साथ भारत के संबंध अपने सबसे अच्छे दौर में हैं, अमेरिकी अपनी आधुनिकतम रक्षा तकनीक को भारत के साथ साझा करने के प्रति प्रतिबद्ध हैं, चीन के साथ सभी विवादों को शांतिपूर्ण ढंग से निपटा लिया गया है, किसानों को अगले दो वर्षों में अपनी आय दोगुना हो जाने की उम्मीद है, और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आजादी हासिल करने के बाद से भारत पहली बार अब एक भ्रष्टाचार-मुक्त राष्ट्र बन चुका है - फिर भारत के हिन्दुओं को क्यों (जो देश के 80% का प्रतिनिधित्व करते हैं) इस बात का अहसास कराया जाता है कि वे देश के राजनीतिक और आर्थिक तौर पर हाशिये पर रह रहे मुसलमानों से इतने असुरक्षित हैं? क्यों हर चुनावों में, वो चाहे राष्ट्रीय हों अथवा विधानसभा या नगरपालिका के ही चुनाव क्यों न हों, इस समुदाय को कलंकित करना निहायत जरुरी है?

आगामी पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में हम एक ऐसे नग्न सांप्रदायिक नाच को देखने वाले हैं, जैसा इससे पहले कभी नहीं हुआ होगा। सीएए-समर्थक और मुस्लिम-विरोधी बिगुल के उद्घोष को अभी से सुना जा सकता है। कुछ ही दिनों के भीतर ये आवाज बहरा कर देने के लिए पर्याप्त होने जा रही है। इस बात की किसे परवाह है कि पड़ोसी देश बांग्लादेश में इसका क्या दुष्प्रभाव पड़ने जा रहा है, जहाँ करीब दो करोड़ हिन्दू आबादी निवास करती है? ऐसा प्रतीत होता है कि भाजपा सरकार के लिए सत्रहवीं सदी की वेस्टफालिया की संधि उसके लिए बाइबिल के समान है। इसने उसे स्पष्ट तौर पर सिखा दिया है कि मानचित्र में बने नक़्शे के अनुसार बांग्लादेश एक अन्य देश है, और इस प्रकार भारत की घरेलू राजनीति भारत की बांग्लादेश सीमा पर ही समाप्त हो जाती है। मेरी इच्छा है कि प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद ने भी इसी संधि के पाठ को पढ़ा होगा और उन्होंने भी इसी तरह इसके निहित लोकाचार को अपने अंतःकरण में समाहित कर लिया होगा।

पश्चलेख: भारत के संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएसी) द्वारा आयोजित 2019 की केन्द्रीय सेवा मुख्य परीक्षा में, सामान्य अध्ययन के प्रश्नपत्र 1 की प्रश्न संख्या 10 कुछ इस प्रकार से थी: “धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हमारी सांस्कृतिक प्रथाओं के समक्ष क्या चुनौतियाँ मौजूद हैं?” पुराने दिनों में जब “सेक्युलर” शब्द को “सिकुलर” कहकर उपहास नहीं उड़ाया जाता था तो यह सवाल शायद कुछ अन्य तरीके से पूछा जाता रहा होगा: “हमारी सांस्कृतिक प्रथाओं के नाम पर धर्मनिरपेक्षता के समक्ष क्या चुनौतियाँ मौजूद हैं?” इनसे जितने जवाब उत्पन्न हो रहे हैं उससे कहीं अधिक प्रश्नों के बीच में ही जो खाई मौजूद है, वह कहीं ज्यादा गौरतलब है। यह इस सत्य को उद्घाटित करने के लिए पर्याप्त है कि भारत की धर्मनिरपेक्ष छवि में किस कदर बदलाव आ चुका है।

लेखक सामाजिक विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली में सीनियर फेलो के तौर पर कार्यरत हैं। आप जेएनयू के दक्षिण भारतीय अध्ययन में प्रोफेसर और आईसीएसएसआर में पूर्व नेशनल फेलो रहे हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं। 

 
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