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बाज़ार की ‘आज़ादी’ के ख़िलाफ़ खड़े होते आज़ाद किसान
देश के किसान और मज़दूर एकजुट हो रहे हैं और ज़बरदस्ती ‘आज़ादी’ बांटने वाली नीतियों और नेताओं के लिए चुनौती खड़ी कर रहे हैं।
अरुण कुमार त्रिपाठी
21 Oct 2020
किसान
Image courtesy: India Today

लगता है हमारे प्रधानमंत्री और उनकी एनडीए सरकार ने किसानों को जो `आजादी’ देनी चाही थी वह उन्हें रास नहीं आई। सरकार ने इस बीच मजदूरों को भी आजादी देनी चाही थी वह उन्हें भी जंची नहीं। यही कारण है कि देश के किसान और मजदूर एकजुट हो रहे हैं और जबरदस्ती ‘आजादी’ बांटने वाली नीतियों और नेताओं के लिए चुनौती खड़ी कर रहे हैं।

भारतीय जनता पार्टी और उसके पितृसंगठन बहुत चतुर और छद्म लड़ाई लड़ते हैं और वे अपने खेल के नियम चिह्न बदलते रहते हैं। पहले प्रधानमंत्री महोदय किसानों को स्वामीनाथन समिति की सिफारिशों का तोहफा देने वाले थे, फिर 2022 तक उनकी आय दोगुनी करने वाले थे। अचानक उन्होंने किसानों को मंडियों और आढ़तियों की गुलामी से आजाद करने का नारा दे डाला। हालांकि मंडियां ठीक से काम नहीं कर रही थीं, खेती के सभी उत्पादों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिल रहा था, लेकिन किसानों ने उसमें सुधार की मांग की थी न कि उनसे आजादी की। इसलिए इस बार देश भर के 250 किसान संगठन एकजुट होकर उन्हें समझने, बेनकाब करने और अपने हितों की व्याख्या करने की तैयारी में हैं।

किसान संघर्ष समिति के कार्यकारी अध्यक्ष और अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति और जनांदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय से संबद्ध व मध्य प्रदेश के पूर्व विधायक डॉ. सुनीलम ने एक बयान में जानकारी दी ही है कि 26 नवंबर को देश भर के 250 किसान संगठनों ने दिल्ली पहुंचने का एलान किया है। उसी दिन देश भर के श्रमिक संगठनों ने आम हड़ताल की घोषणा की है। 26 नवंबर संविधान दिवस है और उस दिन देश के किसान और मजदूर संविधान में दिए गए अपने हक के लिए मौजूदा सरकार पर दबाव डालेंगे और आजादी का असली अर्थ स्पष्ट करेंगे। दरअसल किसानों की इस अखिल भारतीय एकता के साथ साथ उनकी क्षेत्रीय एकता भी चल रही है।

उदाहरण के लिए पंजाब के 31 किसान संगठन एक साथ हैं तो हरियाणा के 17 किसान संगठन, तमिलनाडु के 60 किसान संगठन केंद्र सरकार के तीन कानूनों के विरुद्ध क्षेत्रीय स्तर पर एकजुटता बनाए हुए हैं। कुरुक्षेत्र में 45 किसान संगठनों की हालिया बैठक ने यह साबित किया है कि किसान अपने क्षेत्रीय हितों के टकराव को हल करने की दिशा में बढ़ रहे हैं। उन्हें उम्मीद है कि वे केंद्र सरकार और संघ परिवार की उन रणनीतियों को कामयाब नहीं होने देंगे जो वे इन तीन कानूनों को सफल करने के लिए आजमा रहे हैं। बिहार में चल रहे विधानसभा चुनावों में महागठबंधन ने अपने घोषणा पत्र में दावा किया है कि वे स्वामीनाथन समिति की सिफारिश के अनुरूप किसानों को लागत का डेढ़ गुना मूल्य दिलवाएंगे और संपूर्ण कर्जा मुक्ति कानून लाएंगे। मध्य प्रदेश के उपचुनावों में कांग्रेस की ओर से जारी 28 बचन पत्रों में दावा किया गया है कि वे अगर सत्ता में आए तो किसानों को स्वामीनाथन समिति के अनुसार मूल्य दिलवाएंगे।

केंद्र सरकार की ओर से जो कानून पास किए गए हैं वे हैं कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य कानून 2020, मूल्य आश्वासन एवं कृषि सेवा कृषक सशक्तीकरण अनुबंध कानून , आवश्यक वस्तु अधिनियम संशोधन कानून। वास्तव में इन कानूनों को कृषि कानून कहना गलत है। वे वास्तव में कृषि संबंधी कानून न होकर व्यापार संबधी कानून हैं और उनका उद्देश्य एक अनियंत्रित या सरकारी संचालन से मुक्त बाजार बनाना है जिसमें बड़ी कंपनियां अपने ढंग से खेल सकें।

लेकिन उनका यह दावा गलत है कि इससे बिचौलिए खत्म हो जाएंगे। दरअसल इससे नए बिचौलिए पैदा होंगे क्योंकि बाजार बिचौलियों के बिना चलता नहीं। यह कानून वास्तव में कृषि विपणन का उदारीकरण करना चाहते हैं, ठेके की खेती को बढ़ावा देना चाहते हैं और आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत लागू पाबंदियों को ढीला करना चाहते हैं।

तथाकथित कृषि सुधारों का सबसे तीखा विरोध पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हो रहा है और उसमें विपक्ष और सत्तापक्ष में भी एकता कायम होती जा रही है। पंजाब में कांग्रेस, अकाली दल और आम आदमी पार्टी किसानों के हितों के लिए एक साथ खड़े हैं। हालांकि इस बीच वे अपनी राजनीति भी कर रहे हैं। जैसे कि पंजाब विधानसभा के विशेष सत्र के दौरान विपक्षी दलों ने सदन के बाहर धरना दिया और काले लबादे पहन कर विरोध जताया। दरअसल वे चाहते हैं कि पंजाब की कांग्रेस सरकार इन केंद्रीय कानूनों के विरोध में राज्य के स्तर पर जो कानून पास करने जा रही है उसमें उनकी बात रखी जाए। वे चाहते हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर खरीद करने वाले दंडित किए जाएं।

एपीएमसी यानी कृषि उपज मंडी समितियों का कानून राज्य स्तरीय है। हर राज्य अपनी मंडियों को अपने ढंग से संचालित करता है और वहां दूसरे राज्य के आने वाले उत्पादों की बिक्री को बिना अनुमति के नहीं आने देता। एक देश एक बाजार का नारा देने वाली केंद्र सरकार और उसमें शामिल राजनीतिक दल इसी व्यवस्था को निशाना बनाकर विभिन्न राज्यों के किसानों और आढ़तियों को आपस में लड़ा रहे हैं। यही कारण है कि पंजाब की मंडियों में उत्तर प्रदेश और बिहार से धान बेचने ला रहे 20 से ज्यादा लोग गिरफ्तार किए गए हैं। उनकी तीन दर्जन गाड़ियां जब्त की गई हैं और दर्जनों एफआईआर किए गए हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार और पंजाब की मंडियों में धान की कीमत में तकरीबन 800 रुपये प्रति कुंतल का फर्क है। अगर पंजाब में यह 1800 रुपये प्रति कुंतल है तो यूपी बिहार में 900 से 1000 रुपये। यहां बिहार की मंडी मुक्त व्यवस्था की सच्चाई भी सामने आ रही है। इसलिए यूपी बिहार और राजस्थान के लोग पंजाब की मंडियों की ओर दौड़ते हैं। पंजाब सरकार ने राजस्थान से धान लाने वाले आढ़तियों को भी नोटिस जारी की है।

किसान आंदोलन के रास्ते में राज्यवार यह विभाजन दिक्कत पैदा कर सकता है। यह किसान संगठनों के सामने एक चुनौती है। उन्हें विभिन्न राज्यों के किसानों और आढ़तियों को समझाना होगा कि संघीय व्यवस्था कितनी फायदेमंद है और दूसरे राज्य से अनाज लाकर बेचने की यह लालच कितना महंगा है। क्योंकि इसके साथ परिवहन की महंगी व्यवस्था करनी होगी। उधर पंजाब में रेल की पटरियों पर बैठे किसानों के आंदोलन से पंजाब की अर्थव्यवस्था पर गंभीर असर पड़ रहा है। हालांकि कोराना काल के कारण अभी सवारी गाड़ियां नहीं चल रही हैं लेकिन मालगाड़ियों की आवाजाही में रुकावट से औद्योगिक उत्पादन प्रभावित हुआ है। रेल रोके जाने से पंजाब में औद्योगिक उत्पादन 30 प्रतिशत गिरा है। कच्चा माल नहीं आ रहा है। आटो पार्ट्स, हैंड टूल्स, मशीन टूल्स साइकिलों के पुर्जे नहीं पहुंच रहे हैं। न ही खेती में काम आने वाले उपकरण आ पा रहे हैं। आंदोलन से पैदा होने वाली यह एक बड़ी दिक्कत है जिसे मुद्दा बनाकर केंद्र सरकार और उसके समर्थक दल किसान आंदोलन को विभाजित और कमजोर करने की कोशिश कर सकते हैं।

इन स्थितियों के बावजूद पंजाब के कई गांवों में भाजपा नेताओं का प्रवेश प्रतिबंधित हो गया है। कई जिलों में प्रधानमंत्री और उनके कैबिनेट मंत्रियों के पुतले फूंके जा रहे हैं। इसी विरोध को देखते हुए पंजाब भाजपा के महासचिव मालविंदर कांग ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया है। प्रदेश भाजपा के कई नेता असंतुष्ट बताए जा रहे हैं। इस चुनौती से निपटने के लिए भाजपा ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को मदद के लिए पुकारा है। संघ के पदाधिकारी मनमोहन वैद्य चंडीगढ़ का दौरा कर आए हैं और उन्होंने भाजपा नेताओं के साथ बैठक की है। भाजपा पंजाब में अब तक अकाली दल पर निर्भर थी। शहरी मध्यवर्ग की पार्टी भाजपा को गांवों के किसानों और वहां के धार्मिक विभाजन से जो चुनौती मिलती थी उसे अकाली निपटा लेते थे। अकाली दल के एनडीए छोड़ने के बाद स्थिति बदल गई है। इसलिए अपने को सांस्कृतिक संगठन बताने वाला आरएसएस किसानों की राजनीति में उतर आया है।

हालांकि एनडीए सरकार की कारपोरेट समर्थक नीति ने संघ को भी पलटी मारने पर मजबूर कर दिया है। कभी विदेशी कंपनियों के विरुद्ध स्वदेशी की बात करने वाला और स्वदेशी जागरण मंच के माध्यम से उदारीकरण और वैश्वीकरण विरोधी आंदोलन में हस्तक्षेप करने वाला संघ अजीब दुविधा में है। देखना है वह किसान आंदोलन में किस तरह से घुसपैठ करके उसके वेग को कमजोर करता है।

किसान आंदोलन के सामने राज्यवार किसान समुदाय की स्थिति और क्षेत्रीय कानूनों की चुनौती तो है ही साथ ही छोटे किसानों को भी इस आंदोलन का हिस्सा बनाने के लिए प्रयास करना है। इस देश में 78 प्रतिशत से ज्यादा छोटी जोत के किसान हैं और उनके लिए कृषि उपज के लाभकारी मूल्य मिलने से ज्यादा जरूरी है उनकी आजाविका चले। वे न तो मंडी की व्यवस्था में आजाद थे और न ही इस व्यवस्था में आजाद होंगे। ऐसे किसानों के बारे में आदिवासी मामलों के विशेषज्ञ और किसान की गरीबी का राज बताने वाले डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा बहुत चिंतित रहते थे। उनका कहना था कि किसान की मेहनत का मूल्य कुशल कारीगर से कम नहीं होना चाहिए। उसके पास सालों से संचित कृषि का अनुभव है और उसे किसी पढ़े लिखे कर्मचारी जैसा ही वेतन मिलना चाहिए। यह विचार न्यूनतम आय की मांग की ओर जाता है।

केंद्र सरकार जानती है कि इस देश में किसानों की कई श्रेणियां हैं। वे जाति और धर्म में तो बंटे ही हैं उनकी जोत भी अलग अलग तरह ही है। उनके सामने बाढ़ और सूखे की पर्यावरणीय चुनौतियां हैं। इसलिए किसानों की विभाजित स्थिति का फायदा उठाकर उसने कारपोरेट के पक्ष में कथित कृषि सुधार लागू किया है। इसका उद्देश्य किसानों से धीरे धीरे ही खेती की जमीन खाली करवाना है और उसे कंपनियों को सौंपना है।

एनडीए सरकार ने इस दिशा में पहला प्रयास अपने पहले कार्यकाल में तब किया था जब उसने यूपीए सरकार की ओर से पारित भूमि अधिग्रहण कानून को पलटने की कोशिश की थी। उसके लिए सरकार ने अध्यादेश का रास्ता पकड़ा था। किसानों और विपक्षी दलों की एकजुटता के कारण वह काम केंद्रीय स्तर पर तो नहीं हो सका लेकिन राज्य के स्तरों पर भाजपा सरकारों ने उसे काफी कमजोर कर दिया है।

आज ठीक उसके विपरीत स्थिति बन रही है। राज्य के स्तर पर बनी गैर भाजपाई सरकारें कृषि सुधार वाले कानूनों को संघीय ढांचे और संविधान के अनुच्छेद 254(2) के बहाने कमजोर कर सकती हैं। पंजाब में अमरिंदर सिंह कुछ वैसा ही करने का प्रयास कर रहे हैं। वे इन कानूनों के विरोध के लिए सुप्रीम कोर्ट तक जाने की बात कर रहे हैं। किसान संगठनों को पहली बार विपक्षी राजनीतिक दलों का समर्थन मिलता दिख रहा है। हालांकि अभी भी तमाम किसान संगठन आंदोलन को राजनीतिक दलों से दूर रखने की कोशिश कर रहे हैं।

इतिहास गवाह है कि किसान आंदोलन अक्सर राजनीतिक और गैर राजनीतिक दुविधा में फंस कर टूट जाते हैं। चाहे वह टिकैत का आंदोलन रहा हो, शरद जोशी का हो या कर्नाटक के नंजुंदास्वामी का। इसलिए 250 संगठनों को साथ लेकर चल रही अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के सामने सबसे बड़ी चुनौती विभिन्न संगठनों के बीच समन्वय करने की है। साथ ही उन्हें पिछले अनुभवों से सबक लेते हुए यह समझदारी भी दिखानी है कि वे किस तरह से राजनीतिक दलों के साथ तालमेल बिठा सकते हैं और विभिन्न राज्यों के आगामी चुनावों में अपने मुद्दों को चुनावी मुद्दा बनवा सकते हैं। उनके इसी कौशल से उनकी आजादी परिभाषित होगी और उसे प्राप्त करने का रास्ता खुलेगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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