वायरोलॉजी की दुनिया में अपनी पूरी जिंदगी खपा देने वाले वैज्ञानिक कोरोना की पहली लहर के दौरान ही कह रहे थे कि वायरस की जिंदगी इंसान के शरीर पर निर्भर करती है। यानी जब तक इंसान का शरीर है तब तक वायरस भी है। एक शरीर से दूसरे शरीर में जाते वक्त यह वायरस म्यूटेशन करेगा। सरल शब्दों में कहे तो अपना रूप बदलेगा ताकि शरीर में वह जिंदा रह पाए। इस वायरस के सभी रूपों के प्रति जब हमारे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता हावी हो जाएगी तब यह वायरस हमारे लिए असरहीन हो जाएगा।
इन वैज्ञानिकों की बात ही सच हो रही है। पिछले साल हमारी जिंदगी में शामिल हुआ वायरस अभी गया नहीं है। इस साल मार्च की शुरुआत में देशभर में सक्रिय मामलों की संख्या तकरीबन डेढ़ लाख थी। लेकिन मार्च में वायरस इतनी तेजी से फैला कि 1 अप्रैल को सक्रिय मामलों की संख्या बढ़कर तकरीबन 6 लाख दस हजार हो गई।
कोविड की वजह से मार्च में तकरीबन 100 मौतें हो रही थी। अप्रैल में मरने वाले लोगों की संख्या बढ़कर 400 हो गई। विशेषज्ञों की राय है कि यह तो स्वभाविक है। जब सक्रिय मामलों की संख्या और संक्रमण का फैलाव बढ़ेगा तब मरने वालों की संख्या भी बढ़ेगी। लेकिन अच्छी बात यह है कि अभी भी इस वायरस की मृत्यु दर पहले के बराबर ही है।
कहने का मतलब यह है कि हमारी और हमारी सरकार की लापरवाहियों की वजह से वायरस का बहुत बड़ा स्तर पर फैलाव हुआ है। यह फैलाव इतना भारी है कि हमारे अस्पतालों को इसे सहन करने में बहुत अधिक मुश्किल आ सकती है। लेकिन फिर भी अगर हम बड़े स्तर पर वैक्सीन लगाने में कामयाब रहे तो हम इस महामारी को नियंत्रित कर सकते हैं।
देश में अब तक वायरस के 7000 नए रूप दर्ज किए जा चुके हैं। यानी वायरस बदले हुए शरीर में अपनी जिंदगी बचाने के लिए म्यूटेट कर रहा है। इसीलिए हैदराबाद में मौजूद सेल्यूलर एंड मॉलेक्युलर बायोलॉजी के अधिकारियों का कहना है कि वह वायरस के बदलते हुए रूपों पर नजर रखे हुए हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन और सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल अमेरिका जैसी विश्वस्तरीय संस्थाओं ने अभी से खतरे की घंटी नहीं बताया है। फिर भी पिछले साल दिसंबर में महाराष्ट्र में वायरस का एक नया स्ट्रेन दिखा। जिसकी संख्या तो बहुत कम थी, लेकिन वह तेजी से फैला। यह बदला हुआ रूप वैक्सीन की वजह से वायरस के चीनी रूप के खिलाफ शरीर में पैदा हुए एंटीबॉडी को पछाड़ सकता है। अभी इस संबंध को सही तरीके से बताने के लिए डेटा नहीं है। फिर भी यह चिंता की बात है।
सरकार ने कॉविड की दूसरी लहर से लड़ने के लिए पांच स्तरीय योजना बनाई है। जिसमें तीन तो पहले ही वाले हैं - जांच करना, पता लगाना और इलाज करना और दो नए जोड़े गए हैं- टीका लगाना और उन सभी कायदे कानूनों का हर जगह पालन करना जो कोरोना के संक्रमण को रोकने के लिए जरूरी है।
जानकारों का कहना है कि बिना बड़े स्तर पर वैक्सीन लगाए दूसरी लहर पर काबू नहीं पाया जा सकता है। जब बड़े स्तर पर वैक्सीन लगेगा तभी हर्ड इम्यूनिटी की स्थिति पैदा होगी। तभी जाकर स्थिति बेकाबू से काबू होगी।
अब समझने वाली बात यह है कि भारत में वैक्सीन लगने का हाल क्या है? और किस तरह की खामियां दिख रही है?
देश में कोविड वैक्सीन की पहली डोज तकरीबन 7 करोड़ आबादी ने ले ली है। लेकिन यह बहुत कम है। यह 6 फ़ीसदी के आसपास बैठता है। जिन पांच राज्यों में संक्रमण के सबसे अधिक मामले हैं वहां पर तो अभी तक 15 फ़ीसदी लोगों ने भी टीके नहीं लगवाए हैं। अगर सबसे अधिक संक्रमण वाले देश अमेरिका की आबादी से तुलना किया जाए तो वहां की आबादी के 32 फ़ीसदी लोग वैक्सीन का पहला डोज ले चुके हैं।
इसका साफ मतलब है कि वैक्सीन के मामले में भारत की पहली खामी यह है कि जितना वैक्सीन होनी चाहिए उतनी वैक्सीन उसके पास नहीं है। इसीलिए वैक्सीनेशन की शुरुआत होने के 2 महीने बाद छत्तीसगढ़ से वैक्सीन खत्म होने खबर आने लगी। तेलंगना उड़ीसा हरियाणा राजस्थान जैसे राज्यों से यह खबर आने लगी कि टीके के की कमी से जूझ रहे हैं।
भारत ने भी दूसरे देशों की तरह सबसे पहले प्राथमिकता वाले समूह को वैक्सीन देने की योजना बनाई। यानी सबसे पहले डॉक्टर, फ्रंट लाइन वर्कर्स, 60 साल की उम्र को पार कर चुके बुजुर्ग और गहरी बीमारी से पीड़ित लोगों के लिए टीका उपलब्ध करवाया जाने की योजना बनी।
दूसरे कई देशों ने अब यह नियम बना दिया है कि 16 साल से ऊपर का हर एक व्यक्ति टीका लगवा सकता है। इसलिए वह देश ज्यादा लोग तक पहुंच पाए। इस समय यह दूसरी खामी दिख रही है।
माइक्रोबायोलॉजी की प्रोफेसर डॉक्टर गगनदीप कंग का मीडिया में इंटरव्यू छपा है। गगनदीप सिंह कहती हैं कि सरकार को अपनी योजना पर फिर से सोचना चाहिए। अभी वैक्सीन लगवाने की योजना ऐसी है कि एक ही जगह पर वैक्सीन लगाने के लिए पांच बार जाना पड़ता है। पहले स्वास्थ्य कर्मियों के लिए उसके बाद फ्रंटलाइन वर्करों के लिए उसके बाद 60 साल से अधिक उम्र के लोगों के लिए उसके बाद 45 साल से अधिक उम्र के लोगों के लिए। इसमें समय लगता है। अब नियम ऐसा बनना चाहिए कि सब को एक साथ टीका लगे। अमेरिका में पहली प्राथमिकता वाला नियम शुरू किया गया। लेकिन वह हमारे देश की आबादी का एक चौथाई हिस्सा है। हमारा देश बहुत बड़ा है। आबादी बहुत अधिक है। हमारा देश हर दिन तकरीबन 30 हजार जगहों पर टीका लगाने की क्षमता रखता है। अब सबको टीका लगवाने दिया जाना चाहिए। तभी हम बड़ी आबादी तक पहुंच पाएंगे।
भारत दूसरे देशों को भी टीके का निर्यात कर रहा है। जबकि खुद भारत में टीके की कमी है। यह तीसरी खामी दिख रही है। यहां पर दो तरह की राय है। कुछ जानकारों का कहना है कि भारत के लोग पहले टीके का इस्तेमाल कर ले उसके बाद दूसरे देश को भेजा जाए। कुछ जानकारों का कहना है कि उन देशों में जहां पर टीका उपलब्ध नहीं है, वहां पर वैक्सीन दिया जाना चाहिए। जैसे दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील जैसे देश में अगर हम टीका देते हैं तो समझदारी बनती है। अगर इन्हें टीका नहीं मिला तो इन देशों में कोरोना के नए-नए स्ट्रेन पनपते रहेंगे। जिसका असर सभी देशों को झेलना पड़ेगा।
जहां पर वैक्सीन बहुत बड़ी आबादी को लग चुका है वहां पर स्वास्थ्य सुविधाएं मजबूत अवस्था में हैं। सरकारी अस्पतालों का जाल बुना हुआ है। साथ में अमेरिका जैसे देश निजी अस्पतालों को भागीदार बनाकर भी वैक्सीन देने का काम कर रहे हैं। भारत में अभी केवल सरकार और आंशिक तौर पर निजी क्षेत्र के स्वास्थ्य संगठन इस काम को संभाल रहे हैं। यह चौथी खामी है।
सरकार को डर है कि अगर पूरी तरह से निजी क्षेत्र को भी इसमें शामिल कर लिया जाएगा तब नकली वैक्सीन का प्रचलन बढ़ जाएगा। तरह तरह की धांधली होने लगेंगी। जिसे सरकार संभाल नहीं पाएगी। यह आशंका एक हद तक ठीक है। फिर भी सरकार को अब तो सोचना ही चाहिए कि भारत में मजबूत स्वास्थ्य सुविधाओं की बहुत जरूरत है। नहीं तो जिस तरह से कोरोना फैल रहा है वह इसकी भी पोल खोल देगा कि भारत के पास तो अपनी आबादी के लिए डॉक्टर ही नहीं है।
इस पर सरकार को गंभीरता से सोचने की जरूरत है कि वह क्या चाहती है? क्या जनकल्याण सरकार का मकसद नहीं है? अगर मकसद है तो अस्पताल और डॉक्टर का फैलाव पूरे भारत में क्यों नहीं हो रहा? इस पर खर्चा क्यों नहीं किया जा रहा?
सरकार की इन खामियों के अलावा लोगों की भी खामी है। बहुत बड़े स्तर पर लोग टीका लगवाने जाने से झिझक रहे हैं। उनके मन में कई तरह के संदेह हैं। इसके अलावा भारत की बहुत बड़ी आबादी ऐसी है जो अब भी यह नहीं मानती कि कोरोना जैसी बीमारी उनके आसपास टहल रही है। इनमें भी इनका कोई दोष नहीं। यह आबादी दो जून की रोटी के सिवाय और किसी चीज की चिंता नहीं करती। इनका जीवन स्तर बहुत कमजोर है। इनके लिए सच वही है जो उनके आसपास दिख रहा है। यानी यहां भी सरकार की कमी है। अगर सरकार ने इनका जीवन स्तर सुधारा होता तो यह कोरोना जैसी बीमारी की गंभीरता समझ पाते। खुद भी बचते और दूसरों को भी बचाते।