NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
अपराध
आंदोलन
घटना-दुर्घटना
नज़रिया
संस्कृति
समाज
भारत
राजनीति
घृणा और हिंसा को हराना है...
यदि सरकार मॉब लिंचिंग के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का पालन करने में असमर्थ रही है तो उस पर जन दबाव बनाया जाना चाहिए। हिंसा के विरोध और हिंसा के पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए कानूनविदों और समाजसेवी संगठनों का एक राष्ट्रव्यापी नेटवर्क बनाया जाना चाहिए जो ऐसे हर मामले में निःशुल्क सहायता प्रदान करे।
डॉ. राजू पाण्डेय
02 Jul 2019
Mob Lynching

प्रधानमंत्री ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पारित करने से पूर्व हुई बहस का उत्तर देते हुए राज्यसभा में कहा कि झारखंड में हुई मॉब लिंचिंग की घटना दुःखद है किंतु उन्होंने यह जोड़ा कि इस एक घटना के लिए पूरे प्रदेश को बदनाम करना उचित नहीं है। अपराधियों की पहचान कर उनके विरुद्ध कार्रवाई की जाएगी। कानून और न्यायपालिका इसके लिए पूर्णतः सक्षम हैं। उन्होंने कहा कि हिंसा के प्रति हमारी प्रतिक्रिया एक जैसी होनी चाहिए चाहे वह झारखंड की हिंसा हो या केरल और पश्चिम बंगाल की हिंसा हो। प्रधानमंत्री जी का यह भाषण इस बात का प्रमाण है कि मोदी 2.0  उनके पहले कार्यकाल से किसी प्रकार भिन्न नहीं है। प्रधानमंत्री विपरीत परिस्थितियों का अपने राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल करने में दक्ष हैं। चाहे वे तब के गुजरात के दंगे हों या अब झारखंड की मॉब लिंचिंग की घटनाएं हों - इन्हें प्रदेश की जनता को बदनाम करने की साजिश बताना और प्रदेश के गौरव से जोड़ना- प्रधानमंत्री जी के लिए राजनीतिक रूप से सुविधाजनक भी रहा है और लाभदायक भी।

प्रधानमंत्री जी ने राजनीतिक विमर्श में अपनी गलती की चर्चा से बचने के लिए अपने पूर्ववर्तियों की गलतियों को जोर शोर से उजागर करने की रणनीति का जमकर उपयोग किया है और मॉब लिंचिंग के संबंध में भी उन्होंने यही किया। भाजपा शासित राज्यों की हिंसा इसलिए जायज है क्योंकि गैर भाजपा शासित राज्यों में इससे भी ज्यादा हिंसा हो रही है अथवा गुजरात के दंगे तो1984 के सिख विरोधी दंगों की तुलना में बहुत कम भयानक और कम संगठित थे- जैसे तर्क शायद नैतिकता की कसौटी पर खरे न उतरें किंतु सवाल पूछती जनता को संशय में डालने के लिए अब तक तो बड़े कारगर सिद्ध होते रहे हैं।

मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में अनेक मंत्रियों की मॉब लिंचिंग के आरोपियों से निकटता चर्चा में रही। अब भी गोडसे की हिंसा को खुला समर्थन देने वाली साध्वी प्रज्ञा भाजपा और संसद का अविभाज्य अंग हैं। मध्यप्रदेश के विधायक आकाश विजयवर्गीय हिंसा की खुली वकालत कर रहे हैं और भाजपा का आम कार्यकर्ता उन्हें अपने नए नायक के रूप में देख रहा है। विपक्ष की अकर्मण्यता और वैचारिक शून्यता का आलम यह है कि  उग्र दक्षिणपंथ जिसे न हिंसा से परहेज है न कट्टरता से अब महात्मा गांधी पर अपना कॉपीराइट ठोकने की निर्लज्ज कोशिश कर रहा है किंतु प्रतिरोध का कोई क्षीण स्वर भी सुनाई नहीं देता।

जब प्रधानमंत्री जी अपने वक्तव्य में 1942 से 1947 के मध्य गांधी जी द्वारा समाज सुधार के प्रयासों का हवाला देकर जनता से छोटे छोटे त्यागों की अपेक्षा करते हैं तो विपक्ष यह कहने का नैतिक साहस भी नहीं कर पाता कि जिस हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए बापू ने प्राणोत्सर्ग किया था उसकी प्राप्ति भी प्रधानमंत्री जी के छोटे छोटे कदमों द्वारा हो सकती है। वे मॉब लिंचिंग पर सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देश का ईमानदारी से पालन सुनिश्चित कर सकते हैं। वे अपनी पार्टी में हिंसा की वकालत करने वाले बेलगाम और बदजुबान नेताओं को बाहर का रास्ता भी दिखा सकते हैं।

विभिन्न समाचार पत्रों में प्रधानमंत्री जी के दूसरे कार्यकाल में हुई मॉब लिंचिंग की घटनाओं, गोरक्षकों की हिंसा और अल्पसंख्यक तथा दलित समुदाय पर हो रहे अत्याचार की घटनाओं का तिथिवार विवरण प्रकाशित किया गया है। मानवाधिकार और अल्पसंख्यक अधिकारों के लिए कार्य करने वाली कुछ देशी विदेशी संस्थाएं इस तरह की घटनाओं पर बारीक नजर रखती हैं। इनके द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों का भी उल्लेख अनेक बुद्धिजीवियों द्वारा किया जा रहा है। यह आंकड़े हमारे समाज में इन घातक प्रवृत्तियों के बढ़ने का स्पष्ट संकेत दे रहे हैं।

हाल ही में अमेरिकी सरकार की एक रिपोर्ट और अमेरिकी विदेश मंत्री के बयान भी चर्चा में रहे हैं जिनमें धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों के हनन की ओर संकेत किया गया है। इन चर्चाओं को धीरे धीरे धार्मिक अल्पसंख्यकों की समस्याओं से हटाकर देश को बदनाम करने की विदेशी साजिशों पर केंद्रित किया जा रहा है और इन्हें खारिज करना प्रत्येक राष्ट्रवादी का आवश्यक कर्तव्यबताया जा रहा है। भीड़ की हिंसा के शिकार लोगों के आपराधिक बैकग्राउंड पर सोशल मीडिया में होने वाले खुलासे और यह दर्शाने की कोशिश कि - इनके साथ जो हुआ ठीक ही हुआ- भी निरंतर जारी है।

सोशल मीडिया पर एक अभियान यह भी चलाया जा रहा है कि अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा बहुसंख्यक समुदाय पर की गई हिंसा पर बुद्धिजीवी समुदाय का कथित मौन उसके देशद्रोही होने का परिचायक है। हमारे देश की न्याय प्रक्रिया वैसे ही लंबी और समय साध्य है। दोषियों को दंड मिलते मिलते वर्षों लग जाते हैं। यदि पुलिस और प्रशासन की सहानुभूति हिंसा के पीड़ित के स्थान पर हिंसा के आरोपियों के साथ हो तब तो इंसाफ मिलना और कठिन हो जाता है। इस बात की भी आशंका बनी रहती है कि पीड़ित को ही दोषी बना दिया जाए।

गोरक्षकों की हिंसा के शिकार मरहूम पहलू खान और उसके बेटों पर हुई राजस्थान पुलिस की चार्जशीट से पता चलता है कि हिंसा के शिकार लोगों के लिए इंसाफ की लड़ाई भी एक दुस्स्वप्न में बदल सकती है। 

यह परिस्थितियां बुद्धिजीवियों के सम्मुख एक कठिन चुनौती प्रस्तुत करती हैं। भीड़ की हिंसा तथा धार्मिक अल्पसंख्यकों और दलितों के साथ हो रहे अत्याचारों के प्रतिरोध के स्वरूप को जब तक जनांदोलन में परिणत नहीं किया जाएगा तब तक कोई कारगर नतीजा मिलना नामुमकिन है। कैंडल मार्च निकालना और सरकार को कठघरे में खड़ा करना काफी नहीं। यह कार्य समाजोन्मुख हुए बिना संभव नहीं है।

आज बुद्धिजीवी वर्ग की समस्या यह है कि वह सामाजिक परिवर्तन के लिए राजनीतिक दलों का मोहताज बन कर रह गया है। आज सत्ता पक्ष जिस दक्षिणपंथी विचारधारा से प्रेरणा प्राप्त करता है उसके इतिहास को जानने वाले तो इस बात से आश्चर्यचकित हैं कि सत्ता ने अब तक लोकतंत्र का आवरण त्यागा नहीं है।

सत्ता पक्ष द्वारा बहुसंख्यक समुदाय का वर्चस्व स्थापित करने के लिए सर्वसहमति बनाने की लोकतांत्रिक कोशिशें हमारे लोकतंत्र की मजबूती और अंतरराष्ट्रीय समुदाय में लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति आदर का प्रमाण तो हैं ही, यह दक्षिणपंथी अतिवाद के नए चेहरे की नई रणनीति को भी दर्शाती हैं।

विपक्ष हतप्रभ है और नई विचारधारात्मक जमीन तलाशते तलाशते वह कोई ऐसा नैरेटिव गढ़ने के बहुत नजदीक पहुंच रहा है जो बहुसंख्यकवाद का पोषक भी हो किंतु इतना सॉफिस्टिकेटेड हो कि धर्मनिरपेक्षता से विचलन की शर्मिंदगी से भी बचा जा सके। यदि प्रगतिशील बुद्धिजीवियों का विरोध ऐसे विपक्ष को येन केन प्रकारेण सत्ता दिलाने का पॉलिटिकल टूल बन जाएगा तो शायद सत्ता परिवर्तन तो हो जाए लेकिन सामाजिक परिवर्तन का स्वप्न अधूरा ही रहेगा।

यह स्वयं से और समाज से भी अत्यंत कठिन और असुविधाजनक प्रश्नों को पूछने का समय है। क्या हम भीड़ की हिंसा का समर्थन करते हैं? क्या भीड़ को यह अधिकार मिलना चाहिए कि वह किसी व्यक्ति को दोषी घोषित कर उसे मृत्यु दंड देने का कार्य करे? यदि भीड़ हमें या हमारे किसी परिजन को हिंसा का शिकार बना रही है तो क्या हमें मूक दर्शक बना रहना चाहिए?

क्या हम अपने लिए कानून और न्यायपालिका द्वारा गवाहों और सबूतों के आधार पर किए गए न्याय की मांग नहीं करेंगे? क्या हम इस बात के प्रति आश्वस्त हैं कि हम और हमारे परिजन कभी अराजक और हिंसक भीड़ के उन्माद का शिकार नहीं बनेंगे?क्या हम धार्मिक अल्पसंख्यकों को आपराधिक प्रकृति का और अविश्वसनीय मानते हैं जिन्हें अनुशासित करने का कार्य भीड़ कर रही है?

अल्पसंख्यकों की इस नकारात्मक छवि का निर्माण हमारे मन में क्योंकर हुआ है? क्या हमने हमारी इस धारणा को यथार्थ और तर्क की कसौटी पर कसा है? अल्पसंख्यकों के प्रति हमारे व्यक्तिगत अनुभव क्या इस धारणा की पुष्टि करते हैं? क्या हमारी धारणा का आधार सोशल मीडिया पर विगत 7-8 वर्षों में उपलब्ध कराई गई सामग्री है? क्या हमने अल्पसंख्यकों के विषय में सोशल मीडिया में जो कुछ पढ़ा और जाना है उसकी सत्यता की पुष्टि के लिए कभी कोई प्रयास किया है? हम अपने धर्म को कितना जानते हैं? क्या हम सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, अस्तेय जैसे हिन्दू-जैन-बौद्ध आदि धर्मों के मूलभूत धार्मिक मूल्यों का ईमानदारी से पालन करते हैं? क्या हमने अल्पसंख्यक जनों के धर्मों का थोड़ा बहुत भी अध्ययन किया है? क्या हमारे धर्म को मानने वाले लोगों में भ्रष्ट, क्रूर और अपराधी लोग नहीं हैं? क्या हमारा धार्मिक समुदाय अपराध मुक्त है?

यदि हमारे धार्मिक समुदाय में झूठे, भ्रष्ट, क्रूर और अपराधी लोग हो सकते हैं तो ऐसा अल्पसंख्यक धार्मिक समुदाय के साथ भी संभव है फिर उस पूरे समुदाय को अपराधी करार देना कितना उचित है?

क्या आधुनिक विश्व को धार्मिक कर्मकांडों के आधार पर चलाया जा सकता है? हम अपने निजी जीवन में कितने धार्मिक कर्मकांडों का पालन करते हैं? क्या गोवंश जैसे धार्मिक प्रतीकों की रक्षा के लिए किसी मनुष्य की हत्या करने का अधिकार हमें हमारा धर्म या हमारे देश का कानून प्रदान करता है? बूढ़े,बीमार, लाचार तथा आर्थिक रूप से अलाभकर गोवंश को सुविधा और सुरक्षा देने के लिए अब तक हमने स्वयं क्या कार्य किया है? हमारे निर्धन और अभावग्रस्त देश के अकालग्रस्त और पिछड़े क्षेत्रों में जहां मनुष्य भोजन के अभाव में दम तोड़ रहे हैं क्या गोवंश को सहायता देना प्रायोगिक रूप से संभव है?

वर्षों से हमारा समाज उपयोगिता और उपलब्ध आर्थिक संसाधनों के आधार पर गोवंश के लिए एक अलिखित व्यावहारिक व्यवस्था का अनुसरण करता रहा है, पिछले 4-5 वर्षों में इस सदियों पुरानी सहज सामाजिक-आर्थिक परिपाटी पर सवाल क्यों उठाए जा रहे हैं? कहीं हमें आपस में हिंसक संघर्ष में उलझाकर कोई अपने राजनीतिक और आर्थिक हित तो नहीं साध रहा है? क्या बहुसंख्यक समाज में व्याप्त जातिभेद और जाति आधारित शोषण का तंत्र हमें खोखला नहीं कर रहा है? क्या अल्पसंख्यकों पर अत्याचार और उनका दमन बहुसंख्यक समुदाय में व्याप्त गहन और घातक अंतर्विरोधों का समाधान कर देगा? यह प्रश्न बार बार और लगातार पूछे जाने चाहिए।

साम्प्रदायिक वैमनस्य की समस्या नई नहीं है। महात्मा गांधी ने अपना पूरा जीवन साम्प्रदायिक सद्भाव की स्थापना के लिए समर्पित कर दिया था। स्वाधीनता की प्राप्ति के लिए संघर्ष का नेतृत्व करते हुए बापू ने सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन,साम्प्रदायिक भाईचारे की स्थापना और हर प्रकार की हिंसा के विरोध को केंद्र में रखा था।

इन लक्ष्यों की प्राप्ति के प्रति उनकी प्रतिबद्धता इतनी प्रबल थी कि कई बार उन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति के लक्ष्य को भी गौण करते हुए इन्हें वरीयता दी थी।

महात्मा गांधी ने 15 सितंबर 1940 के हरिजन में साम्प्रदायिक उन्माद के संदर्भ में लिखा था-   घृणा आधारित साम्प्रदायिकता का विस्तार एक हालिया परिस्थिति है। अराजकता एक ऐसा दानव है जिसके अनेक चेहरे हैं। यह अंत में सभी को क्षति पहुंचाती है – उनको भी जो प्राथमिक रूप से इसके लिए जिम्मेदार होते हैं (पृष्ठ 284)।

आज की परिस्थितियां कुछ भिन्न नहीं हैं। नफरत की भाषा एक जैसी ही होती है। इस भाषा के सम्प्रेषण के तरीके जरूर बदल गए हैं। अब अफवाह और गलतफहमियों को तेजी से फैलाने के लिए सोशल मीडिया है। साम्प्रदायिकता से मुकाबले के लिए जनता के बीच सीधे पहुंच कर उनसे प्रत्यक्ष संवाद करने के बापू के तरीके से बेहतर कोई और उपाय आज भी नहीं है।

हमें यह विश्वास रखना होगा कि धर्म निरपेक्षता हमारे देश का मूल स्वभाव है और धार्मिक कट्टरता एक तात्कालिक विक्षोभ है। हम वर्षों से इस देश में साहचर्य और सहयोग के साथ आनंदपूर्वक रहते आए हैं। हमें साम्प्रदायिक शक्तियों के नकारात्मक प्रचार के प्रतिकार में निरर्थक वाद विवाद में उलझने से बचना होगा और हमारी समावेशी धर्म परंपरा और साझा सांस्कृतिक विरासत की विशेषताओं को निरंतर उजागर करना होगा।

देश की स्वाधीनता में और स्वाधीनता के बाद देश को गढ़ने में अल्पसंख्यकों के योगदान से हमें नई पीढ़ी को परिचित कराना होगा। हमें स्थापत्य, कला, संस्कृति, क्रीड़ा,भाषा और लोक जीवन के उदाहरणों द्वारा यह स्पष्ट करना होगा कि चाह कर भी साम्प्रदायिक आधार पर विभाजन संभव नहीं है। यह एक शरीर के दो टुकड़े करने जैसी आत्मघाती प्रक्रिया है।

हमें देश के उस आर्थिक ताने बाने की अनूठी संरचना को उजागर करना होगा जिसमें बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक समुदाय अविभाज्य रूप से आबद्ध हैं। एक दूसरे के धर्म और संस्कृति का ज्ञान पाने के लिए सजग प्रयास भी होने चाहिए। एक दूसरे के धार्मिक सामाजिक कार्यक्रमों में बढ़ चढ़ कर हिस्सेदारी को बढ़ावा दिया जाना भी आवश्यक होगा। एक दूसरे की धार्मिक आस्था के प्रतीकों की जानकारी उनके प्रति सम्मान में बढ़ावा देगी। प्रत्येक मोहल्ले में सजग युवाओं की टोलियां बनाई जा सकती हैं जो सोशल मीडिया पर वायरल होने वाली खबरों की सच्चाई की पड़ताल के तरीकों से लोगों को अवगत कराएं।

इस तरह की खबरों पर नियमित चर्चाओं का आयोजन भी किया जा सकता है जिसमें हर विचारधारा के लोगों को उदारतापूर्वक बुला कर उनका पक्ष सुना जा सकता है। युवाओं को यह भी बताना होगा कि धार्मिक उन्माद पैदा कर उन्हें हिंसा के रास्ते पर धकेलने वाले लोग तो सत्ता का उपभोग करने लगते हैं और उनके बहकावे में आने वाले युवा अपना कैरियर और पारिवारिक-सामाजिक जीवन तबाह कर बर्बादी के रास्ते पर चल निकलते हैं।

युवाओं को गांधी जी के जीवन के उस मूल मंत्र से अवगत कराना होगा कि हिंसा साहस का पर्याय नहीं है बल्कि चरम कायरता की निशानी है। हमारे सामने आने वाला व्यक्ति कितना ही उग्र, अतार्किक, हिंसक और कट्टर क्यों न हो हमें न संयम खोना है न संवाद बन्द करना है।

हमें अपने अहिंसक और धर्मनिरपेक्ष होने पर गर्व होना चाहिए। मॉब लिंचिंग से पीड़ित जनों को यह विश्वास दिलाने की कोशिश होनी चाहिए कि वे कतिपय मानसिक रूप से बीमार लोगों के पागलपन का शिकार बने हैं किंतु पूरा देश उनके साथ है। इनके साथ नियमित संपर्क कर इन्हें सहायता और न्याय प्राप्ति में सहयोग दिया जाना चाहिए। इस कार्य में हर समुदाय के लोगों की भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए।

यदि सरकार मॉब लिंचिंग के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का पालन करने में असमर्थ रही है तो उस पर जन दबाव बनाया जाना चाहिए। हिंसा के विरोध और हिंसा के पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए कानूनविदों और समाजसेवी संगठनों का एक राष्ट्रव्यापी नेटवर्क बनाया जाना चाहिए जो ऐसे हर मामले में निःशुल्क सहायता प्रदान करे।

महात्मा गांधी के अनुसार- जब कोई हिन्दू या मुसलमान कोई बुरा कार्य करता है तो यह एक भारतीय द्वारा किया गया बुरा कृत्य ही होता है और हममें से प्रत्येक को इसके लिए जिम्मेदारी लेनी चाहिए और इसे दूर करने का प्रयास करना चाहिए। एकता का इसके अतिरिक्त और कोई अन्य अर्थ नहीं है। और इस अर्थ में हम भारतीय पहले हैं और हिन्दू, मुसलमान, पारसी या ईसाई बाद में(यंग इंडिया, 26 जनवरी 1922, पृष्ठ 22)।

साम्प्रदायिक हिंसा के प्रति हमारी प्रतिक्रिया के संदर्भ में उनकी यह कसौटी आज भी प्रासंगिक है। गांधी जी ने हिन्दू- मुसलमान एकता को परिभाषित करते हुए बताया कि इन दो समुदायों के मध्य एकता का अर्थ यह है कि हमारी पीड़ा साझा हो, हमारे उद्देश्य और लक्ष्य साझा हों और इनकी प्राप्ति के लिए हम सहयोग और सहिष्णुता के मार्ग पर साथ साथ चलें (यंग इंडिया 25 फरवरी1920)।  बापू ने कहा था कि वे दोनों समुदायों को परस्पर जोड़ने का इतना उत्कट आग्रह रखते हैं कि इसके लिए अपना रक्त भी सहर्ष दे सकते हैं।

गांधी दर्शन पर आधारित साम्प्रदायिक सौहार्द स्थापित करने के यह सुझाव बहुत साधारण लग सकते हैं। किंतु जटिल रोगों की चिकित्सा भी स्वास्थ्य रक्षा के अति सामान्य उपायों द्वारा ही होती है। शायद हम बापू जितने साहसी न हों लेकिन उनके विचारों और रणनीति के अनुसरण द्वारा हम राष्ट्र रक्षा के कार्य को अवश्य संपन्न कर सकते हैं। हिंसा का नकार वह बिंदु हो सकता है जो हर विचारधारा को मानने वाले लोगों को एकजुट कर सकता है। किंतु एकजुटता के प्रयासों के दौरान अपनी विचारधारा के प्रति अनुराग को आसक्ति की सीमा तक खींचने से बचना होगा।

राजनीतिक दलों के अपने स्वार्थ हो सकते हैं, सत्ता पाने और खोने का खेल उनके लिए महत्वपूर्ण हो सकता है किंतु बापू के देश के एक सौ तीस करोड़ शांतिप्रिय लोग यदि हिंसा को नकार दें तो हिंसा की राजनीति का अंत होकर रहेगा।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

untouchability
Communalism
mob lynching
AGAINST HATRED AND MOB LYNCHING
Lynching
modi sarkar 2.O
modi sarkar

Related Stories

मध्यप्रदेश: गौकशी के नाम पर आदिवासियों की हत्या का विरोध, पूरी तरह बंद रहा सिवनी

2023 विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र तेज़ हुए सांप्रदायिक हमले, लाउडस्पीकर विवाद पर दिल्ली सरकार ने किए हाथ खड़े

रुड़की से ग्राउंड रिपोर्ट : डाडा जलालपुर में अभी भी तनाव, कई मुस्लिम परिवारों ने किया पलायन

झारखंड: भाजपा कार्यकर्ताओं ने मुस्लिम युवक से की मारपीट, थूक चटवाकर जय श्रीराम के नारे लगवाए

भारत में हर दिन क्यों बढ़ रही हैं ‘मॉब लिंचिंग’ की घटनाएं, इसके पीछे क्या है कारण?

पलवल : मुस्लिम लड़के की पीट-पीट कर हत्या, परिवार ने लगाया हेट क्राइम का आरोप

लखीमपुर खीरी कांड: गृह राज्य मंत्री टेनी दिल्ली तलब

सांप्रदायिक घटनाओं में हालिया उछाल के पीछे कौन?

मध्य प्रदेश: एक हफ़्ते में अल्पसंख्यकों के खिलाफ़ घृणा आधारित अत्याचार की 6 घटनाएं

शामली: मॉब लिंचिंग का शिकार बना 17 साल का समीर!, 8 युवकों पर मुकदमा, एक गिरफ़्तार


बाकी खबरें

  • blast
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    हापुड़ अग्निकांड: कम से कम 13 लोगों की मौत, किसान-मजदूर संघ ने किया प्रदर्शन
    05 Jun 2022
    हापुड़ में एक ब्लायलर फैक्ट्री में ब्लास्ट के कारण करीब 13 मज़दूरों की मौत हो गई, जिसके बाद से लगातार किसान और मज़दूर संघ ग़ैर कानूनी फैक्ट्रियों को बंद कराने के लिए सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रही…
  • Adhar
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: आधार पर अब खुली सरकार की नींद
    05 Jun 2022
    हर हफ़्ते की तरह इस सप्ताह की जरूरी ख़बरों को लेकर फिर हाज़िर हैं लेखक अनिल जैन
  • डॉ. द्रोण कुमार शर्मा
    तिरछी नज़र: सरकार जी के आठ वर्ष
    05 Jun 2022
    हमारे वर्तमान सरकार जी पिछले आठ वर्षों से हमारे सरकार जी हैं। ऐसा नहीं है कि सरकार जी भविष्य में सिर्फ अपने पहनावे और खान-पान को लेकर ही जाने जाएंगे। वे तो अपने कथनों (quotes) के लिए भी याद किए…
  • न्यूज़क्लिक डेस्क
    इतवार की कविता : एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' का तर्जुमा
    05 Jun 2022
    इतवार की कविता में आज पढ़िये ऑस्ट्रेलियाई कवयित्री एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' जिसका हिंदी तर्जुमा किया है योगेंद्र दत्त त्यागी ने।
  • राजेंद्र शर्मा
    कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित
    04 Jun 2022
    देशभक्तों ने कहां सोचा था कि कश्मीरी पंडित इतने स्वार्थी हो जाएंगे। मोदी जी के डाइरेक्ट राज में भी कश्मीर में असुरक्षा का शोर मचाएंगे।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License