NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
आंदोलन
मज़दूर-किसान
भारत
राजनीति
अर्थव्यवस्था
"हम मेहनतकश जब अपना हिस्सा मांगेंगे"
बैठना, पानी पीना, शौचालय जाना यह न केवल इंसानी ज़रूरत है बल्कि हम सब का बुनियादी अधिकार भी है पर एक बहुत बड़े श्रमिक वर्ग को चन्द पूजीपतियों द्वारा खुलेआम इन जरूरतों और अधिकारों से भी वंचित रखा जा रहा है।
सरोजिनी बिष्ट
01 May 2019
सांकेतिक तस्वीर
Image Courtesy: nayaindia.com

"हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे
एक खेत नहीं एक देश नहीं हम सारी दुनिया मांगेंगे" 

फ़ैज़ साहब का यह गीत अपने रचनाकाल से ही मजदूर दिवस में गाया जाने वाला अहम गीत रहा है।  इस गीत की प्रसांगिकता हर दौर में कायम रही किन्तु आज जब हम पुनः एक ऐसे दौर में पहुँच रहे हैं जहाँ जनसंघर्षों को कुचला जा रहा हो, मजदूर किसान नौजवान छात्र लगातार अपने हक़ के लिए आंदोलनरत हों, शासकवर्ग की तानाशाही चरम पर हो तब ऐसे गीत और प्रासंगिक हो उठते हैं।  चूँकि मौका मई दिवस का है तो मजदूरों श्रमिकों व कामगारों के हक़ वजूद की बात होनी चाहिए यानी समाज के अंतिम पंक्ति में खड़े उस व्यक्ति की जिसका श्रम सबसे अधिक है फिर भी उसके हाथ खाली हैं।  
इस चर्चा में सबसे पहले जिक्र करना होगा पश्चिम बंगाल के चाय बागान श्रमिकों का जो अपनी दैनिक न्यूनतम मजदूरी की लड़ाई लड़ते लड़ते इतने हताश हो चले हैं कि उन्होंने चुनाव में अपना वोट बहिष्कार तक की बात कह डाली। राज्य सरकार से तो नाउम्मीदी जता चुके इन आंदोलनरत श्रमिकों में उम्मीद की आस तब जगी जब इनके क्षेत्र में रैली करने स्वयं प्रधानमंत्री आये।  चुनाव से पहले प्रधानमंत्री उत्तर बंगाल के दौरे पर आते हैं, यहाँ के चाय बागान श्रमिकों से यह कहकर अपना नाता जोड़ते हैं कि आप और मैं कोई अलग नहीं आप चाय उगाते हैं और मैं कभी चाय बेचा करता था इसलिए हमारा रिश्ता पुराना है,  प्रधानमन्त्री जी के इस ‘स्नेह’ भरे शब्दों ने सालों से बदहाली की मार झेल रहे चाय श्रमिकों को एक उम्मीद की किरण दिखाई कि जब  प्रधानमंत्री तक उनसे अपना नाता जोड़ रहे हैं तो उनकी आवाज़ भला कैसे नहीं सुनी जाएगी।

पर हुआ क्या?

वह आये उनसे अपना वर्षों पुराना नाता जोड़ा, भावुक हुए और भाषण देकर चले गए। 

चुनाव नजदीक आते रहे लेकिन न तो इन चाय बागान मजदूरों की माँगो पर बात हुई और न ही इनकी बदहाली के लिए चिंता दिखी।  

आखिर इन मजदूरों की माँग इतनी भर तो है न कि इन्हें सम्मानजनक दैनिक मजदूरी दी जाए जो अभी  तक 159 रुपये प्रतिदिन मात्र है वह भी लंबे संघर्ष के बाद हासिल हुई। इसके अलावा बन्द पड़े चाय बागानों को खोला जाए और जीवनयापन के संकट से जूझते श्रमिकों और उनके परिवारों को बेहतर जिंदगी मिल सके। ऐसे हालात बने कि चाय बागान बंद होने की नौबत ही न आये ताकि यहाँ के चाय श्रमिकों के  दूसरे राज्य में हो रहे पलायन को रोका जा सके। चूँकि चाय बागान भारी घाटे में चल रहे हैं इसलिए राज्य सरकार भी बहुत कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं,  ऐसा कहकर भले ही राज्य सरकार अपना पल्ला झाड़ ले पर लाखों कामगारों के सुरक्षित भविष्य की जवाबदेही किसी के हिस्से तो तय करनी होगी। ममता बनर्जी सरकार ने 2015 में चाय बागान श्रमिकों के लिए न्यूनतम मजदूरी सलाहकार कमेटी गठित की थी तब से केवल और केवल बैठकों का दौर ही चल रहा है कभी बैठकों में छिटपुट निर्णय हो जाता है तो अधिकांश बैठकें निराधार ही साबित हुए। 
अब बात उस क्षेत्र के कामगारों की जो न तो किसी के चुनावी मुद्दे में शामिल हैं और न ही किसी के घोषणा पत्र में।  राजनीति स्तर पर तो छोड़िये सामाजिक स्तर पर भी शायद ही कभी इन कामगारों की सुध ली गई हो।

जब आप बड़े बड़े शोरूम दुकानें या मॉल में जाते हैं तो वहाँ बीस, पच्चीस, तीस या उससे कुछ ही अधिक साल की महिलाओं और कुछ हद तक पुरुषों को सेलर के तौर पर खड़ा देखा होगा। ये देश के उन कामगारों का वर्ग है जिन्हें अपनी ड्यूटी के दौरान बैठने तक की इजाज़त नहीं। इनके प्रति हालात इतने बदतर हैं कि शारीरिक अस्वस्थता में यदि चन्द मिनटों का इन्हें आराम चाहिए तो बाथरूम में जाकर बैठना पड़ता है। पर हक़ अधिकार तो इनके भी है जिन्हें पूँजी के बल पर छीना जा है और जब अन्याय बढ़ेगा तो स्वाभाविक है शोषित वर्ग लड़ना सीख ही जाएगा।  पिछले साल ही केरल में रिटेल सेक्टर में काम करने वाली महिलाओं ने अपने हक़ में एक लंबी जंग जीती।  वर्किंग ऑवर में उन्हें बैठने की इज़ाजत नहीं थी यहाँ तक की उन्हें  शौचालय जाने तक का पर्याप्त समय नहीं दिया जाता था।  लेकिन अपने लगातार प्रयास और संघर्ष से इस क्षेत्र की कामकाजी महिलाओं ने श्रम विभाग की नींद तोड़कर अपने पक्ष में नियम बदलने को मजबूर कर दिया।  नए नियम के तहत इन महिलाओं को न केवल रेस्ट रूम की सुविधा मिली बल्कि कार्य के वक्त कुछ देर का ब्रेक भी दिया जाएगा और जहाँ देर तक महिलाओं को काम करना होता है वहाँ हॉस्टल की सुविधा देनी होगी और जो मालिक इन नियमों का पालन नहीं करेगा उस पर दो हजार से लेकर एक लाख तक का जुर्माना लगाया जा सकेगा। 
बैठना,  पानी पीना,  शौचालय जाना यह न केवल इंसानी जरूरत है बल्कि हम सब का बुनियादी अधिकार भी है पर एक बहुत बड़े श्रमिक वर्ग को चन्द पूजीपतियों द्वारा खुलेआम इन जरूरतों और अधिकारों से भी वंचित रखा जा रहा है। भारत श्रमिकों मजदूरों कामगारों का देश है इनकी सुध तो लेनी होगी। जब तक समाज के अंतिम पायदान में खड़ा हर व्यक्ति सशक्त संपन्न नहीं होगा तब तक महाशक्ति बनने की व्याख्या हमारी अधूरी ही होगी। 

May Day
1st may
Labor unity
labor laws
anti-worker policies
workers protest
Tea Plantation
Anti Labour Policies
General elections2019
2019 Lok Sabha elections

Related Stories

आशा कार्यकर्ताओं को मिला 'ग्लोबल हेल्थ लीडर्स अवार्ड’  लेकिन उचित वेतन कब मिलेगा?

मुद्दा: आख़िर कब तक मरते रहेंगे सीवरों में हम सफ़ाई कर्मचारी?

#Stop Killing Us : सफ़ाई कर्मचारी आंदोलन का मैला प्रथा के ख़िलाफ़ अभियान

मई दिवस ज़िंदाबाद : कविताएं मेहनतकशों के नाम

मध्य प्रदेश : आशा ऊषा कार्यकर्ताओं के प्रदर्शन से पहले पुलिस ने किया यूनियन नेताओं को गिरफ़्तार

झारखंड: हेमंत सरकार की वादाख़िलाफ़ी के विरोध में, भूख हड़ताल पर पोषण सखी

अधिकारों की लड़ाई लड़ रही स्कीम वर्कर्स

उत्तराखंड चुनाव: राज्य में बढ़ते दमन-शोषण के बीच मज़दूरों ने भाजपा को हराने के लिए संघर्ष तेज़ किया

अर्बन कंपनी से जुड़ी महिला कर्मचारियों ने किया अपना धरना ख़त्म, कर्मचारियों ने कहा- संघर्ष रहेगा जारी!

एक बड़े आंदोलन की तैयारी में उत्तर प्रदेश की आशा बहनें, लखनऊ में हुआ हजारों का जुटान


बाकी खबरें

  • विकास भदौरिया
    एक्सप्लेनर: क्या है संविधान का अनुच्छेद 142, उसके दायरे और सीमाएं, जिसके तहत पेरारिवलन रिहा हुआ
    20 May 2022
    “प्राकृतिक न्याय सभी कानून से ऊपर है, और सर्वोच्च न्यायालय भी कानून से ऊपर रहना चाहिये ताकि उसे कोई भी आदेश पारित करने का पूरा अधिकार हो जिसे वह न्यायसंगत मानता है।”
  • रवि शंकर दुबे
    27 महीने बाद जेल से बाहर आए आज़म खान अब किसके साथ?
    20 May 2022
    सपा के वरिष्ठ नेता आज़म खान अंतरिम ज़मानत मिलने पर जेल से रिहा हो गए हैं। अब देखना होगा कि उनकी राजनीतिक पारी किस ओर बढ़ती है।
  • डी डब्ल्यू स्टाफ़
    क्या श्रीलंका जैसे आर्थिक संकट की तरफ़ बढ़ रहा है बांग्लादेश?
    20 May 2022
    श्रीलंका की तरह बांग्लादेश ने भी बेहद ख़र्चीली योजनाओं को पूरा करने के लिए बड़े स्तर पर विदेशी क़र्ज़ लिए हैं, जिनसे मुनाफ़ा ना के बराबर है। विशेषज्ञों का कहना है कि श्रीलंका में जारी आर्थिक उथल-पुथल…
  • आज का कार्टून
    कार्टून क्लिक: पर उपदेस कुसल बहुतेरे...
    20 May 2022
    आज देश के सामने सबसे बड़ी समस्याएं महंगाई और बेरोज़गारी है। और सत्तारूढ़ दल भाजपा और उसके पितृ संगठन आरएसएस पर सबसे ज़्यादा गैर ज़रूरी और सांप्रदायिक मुद्दों को हवा देने का आरोप है, लेकिन…
  • राज वाल्मीकि
    मुद्दा: आख़िर कब तक मरते रहेंगे सीवरों में हम सफ़ाई कर्मचारी?
    20 May 2022
    अभी 11 से 17 मई 2022 तक का सफ़ाई कर्मचारी आंदोलन का “हमें मारना बंद करो” #StopKillingUs का दिल्ली कैंपेन संपन्न हुआ। अब ये कैंपेन 18 मई से उत्तराखंड में शुरू हो गया है।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License