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भारत
राजनीति
हमारी राजनीति में गांधी का नाम एक विज्ञापन के सिवा कुछ भी नहीं!
हमारे आज की सत्ता से लेकर आम जीवन के विमर्श में गांधी केवल समाजसेवी होने का दिखावा बनकर रह गये हैं। गांधी के नाम से राजनीति की चमकदार चालें चली जाती हैं, जिसमें अंतिम व्यक्ति के लिए सिवाय विज्ञापन के और कुछ नहीं होता।
अजय कुमार
01 Oct 2018
सांकेतिक तस्वीर
Image Courtesy: India Today

तमाम असहमति और विरोधाभासों के बावजूद कहा जा सकता है कि गांधी की जीवनशैली दुनिया की तमाम समस्याओं के हल की कोशिश थी। इस कोशिश में गाँधी ने वह सब करना चाहा जिसमें जीवन के तमाम रंगों पर केवल कुछ लोगों का हक न हो बल्कि हाशिये पर खड़ा रहना वाला अंतिम व्यक्ति भी यह समझ पाए कि जीवन क्या होता है। लेकिन हमारी आज की सत्ता से लेकर आम जीवन के विमर्श में गांधी केवल समाजसेवी होने का दिखावा बनकर रह गये हैं। गांधी के नाम से राजनीति की चमकदार चालें चली जाती हैं, जिसमें अंतिम व्यक्ति के लिए सिवाय विज्ञापन के और कुछ नहीं होता। उदाहरण के तौर पर इसे ऐसे समझिए कि एक ऐसे आर्थिक मॉडल में जिसका अंतिम परिणाम घनघोर आर्थिक विषमता पैदा करना हो,  वहां गांधी जयंती के दिन स्वच्छ भारत अभियान जैसी घोषणायें विज्ञापन से ज्यादा और क्या बनने की हैसियत रखती होंगी।

साल 2014 के 2 अक्टूबर के दिन स्वच्छ भारत अभियान की घोषणा की गयी थी। तस्वीरों से ऐसा लगा रहा था जैसा पूरा देश भारत की सफाई करने निकल पड़ा हो। लेकिन यह केवल ऐसा विज्ञापन था जिसके सहारे दिमाग़ लूटने की कोशिश की जाती है। इस साल जुलाई के महीनें में संसद में पेश की गयी ग्रामीण विकास पर संसदीय समिति की रिपोर्ट कहती है कि ‘जल और सफाई मंत्रलाय द्वारा यह कहना कि भारत के 84 फीसदी गाँव स्वच्छ भारत अभियान के तहत कवर हो चुके हैं’, बिल्कुल अजीब बात है। स्वच्छ भारत अभियान कि जो तेजी पन्नों पर दिखती है जमीन पर वह बिलकुल सुस्त है। गावों के शौचालयों में इस्तेमाल होने वाला कच्चा माल इतना कमजोर है कि शौचालयों के टिकाऊपन के बारें में कोई बात नहीं की जा सकती है। सरकार ने स्वच्छ भारत के तहत निर्धारित राशि में से नवम्बर 2017 तक केवल 1.3 फीसदी राशि खर्च की थी और यह राशि भी स्वच्छ भारत अभियान के सूचना, प्रसारण और विज्ञापन पर अधिक खर्च हुई है।’ स्वच्छ भारत अभियान के तहत शौचालयों की हालत समझनी हो तो बिहार, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा में से किसी भी राज्य के किसी भी अंचल का मुआयना कर लीजिये, टिन के छज्जे के नीचे कतारों में खड़े खस्ताहाल शौचालय तो दिखेंगे लेकिन आस-पास पानी का स्रोत नहीं दिखेगा। हवा में लहराता पाइप दिखेगा लेकिन उसका जमीन से कोई जुड़ाव नहीं दिखेगा। शौचालयों के लिए गड्ढे दिखेंगे लेकिन 5 फिट से भी कम की खुदाई भी दिखेगी, जो अब भरे या तब किसी को कुछ नहीं पता। कई जगहों पर शौचालय केवल नाम के लिए दिखेंगे जिनसे काम का कोई आसार नहीं दिखेगा।

इकोनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली में मंजूर अली का एक लंबा लेख छपा था। इसके अनुसार इस अभियान की कामयाबी के लिए कुल केंद्रीय बजट का छठा हिस्सा पैसा चाहिए। पांच साल में इसके लिए 1 लाख 96 हज़ार करोड़ रुपये और हर साल 39,000 करोड़ की ज़रूरत होगी। 2014-15 में निर्मल भारत अभियान, राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम के लिए 15,260 करोड़ दिया गया। 2015-16 में पेयजल एवं सफाई मंत्रालय को 6244 करोड़ मिला है और स्वच्छ भारत मिशन को 3625 करोड़ मिला है। यानी एक साल में जितना पैसा चाहिए उसका आधा भी केंद्र सरकार ने नहीं दिया है।

सफाई के इस अभियान में मैला साफ़ करने वालों के तरफ भी ध्यान देने की कोशिश करनी चाहिए। इन मैला सफाई करने वाले श्रमिकों के प्रति प्रशासन तंत्र की उदासीनता चिंतित करने वाली है। सरकार ने मैला सफाई करने वाले श्रमिकों की संख्या और उनकी सामाजिक आर्थिक स्थिति के संबंध में कोई भी सर्वेक्षण नहीं कराया है। लोकसभा में 4 अगस्त 2015 को एक अतरांकित प्रश्न के उत्तर में सरकार द्वारा यह जानकारी दी गई कि 2011 की जनगणना के आंकड़े यह बताते हैं कि देश के ग्रामीण इलाकों में 1,80,657 परिवार मैला सफाई का कार्य कर रहे थे। इनमें से सर्वाधिक 63,713 परिवार महाराष्ट्र में थे। इसके बाद मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश,त्रिपुरा तथा कर्नाटक का नंबर आता है। यह संख्या इन परिवारों द्वारा दी गई जानकारी पर आधारित है।

2011 की जनगणना के अनुसार देश में हाथ से मैला सफाई के 7,94,000 मामले सामने आए हैं। सीवर लाइन सफाई के दौरान होने वाली मौतों के विषय में राज्य सरकारें केंद्र को कोई सूचना नहीं देतीं।

2017 में 6 राज्यों ने केवल 268 मौतों की जानकारी केंद्र के साथ साझा की। एक सरकारी सर्वे के अनुसार तो 13 राज्यों में केवल 13657 सफाई कर्मी हैं। सफाई कर्मचारी आंदोलन ने इस चौंकाने वाले तथ्य की ओर ध्यानाकर्षण किया है कि मैनुअल सफाई व्यवस्था को समाप्त करने के लिए वर्ष 2014-15 में 570 करोड़ का बजट था जो 2017-18 में सिर्फ 5 करोड़ रह गया।

हाल ही में आवास एवं शहरी कार्य मंत्रालय ने स्वच्छ सर्वेक्षण-

2018 जारी किया। इस रिपोर्ट में 4203 शहरों को सफाई और नगरीय ठोस अपशिष्ट प्रबंधन के आधार पर रैंकिंग दी गयी है। इस रिपोर्ट का हाल यह था की बिना टिकाऊ अपशिष्ट प्रबंधन और नगरपालिका की स्थिति के तरफ ध्यान दिए हुए शहरों को साफ़ सफाई के आधार पर इनाम दिया गया।

इस तरह से स्वच्छ भारत अभियान असफल नहीं है बल्कि अपने मकसद में सफल है। ऐसा इसलिए क्योंकि यह गांधी जयंती के दिन किया हुआ ऐसा विज्ञापन था, जिसका मकसद ही यह था कि यह बताया जाए कि सरकार अंतिम व्यक्ति के बारें में भी सोचती है, जबकि असलियत यह कि ऐसी योजनाओं के असफलता हमारे आर्थिक मॉडल में तय है। जिस आर्थिक मॉडल में पर्यटन की वजह से साफ़-सफाई पर ध्यान दिया जाए, गरीबों के फायदे से जुड़ी बातें की जाएं उसकी बदहवासी को समझा जा सकता है। जब तक गरीबी को खत्म करने की बात न की जाए तब तक साफ़ सफाई की बात करना अपनी राजनीति को चमकने का धंधा करने के सिवाय और कुछ नहीं है। शहरों में मौजूद झुग्गी झोपड़ियों का इलाका इसका जीता जागता उदाहरण है।

गांधी का ग्राम स्वराज अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद दुनिया में अभी मौजूद तमाम समस्याओं के समाधान के लिए एक बेहतर आर्थिक मॉडल कहा जाता है। लेकिन फिर भी भारतीय नीति निर्माता इसकी तरफ नहीं बढ़ेंगे। ये लोग मानने के लिए तैयार नहीं होंगे की गांधी के ट्रस्टीशिप से भी कुछ उधार लिया जा सकता है। गांधी एक ऐसे समाज का आदर्श रचते हैं, जिसमें व्यापार पर जोर नहीं होगा, सबकी कमाई अधिशेष के रूप में जमा होगी और सबमें बाँट दी जायेगी,  जानकार यह मानते हैं की यह एक आदर्श मॉडल है, जिसे जमीन पर लागू करना बहुत मुश्किल है लेकिन यह भी मानते हैं कि भारत की प्रगतिशील कर संरचना, जिसमें अमीरों से अधिक कर वसूलने और गरीबों को कर ढाँचे से अलग रखने की प्रथा है, उसमें भी गांधी के ट्रस्टीशिप के अंश दिखाई देते हैं। परन्तु परेशानी यह है की असलियत की जमीन पूरी तरह से दरकी हुई है। यह जमीन समाज के रवैये का प्रक्षेपण करती है।

इस साल के आर्थिक सर्वे के एक अध्याय का लब्बोलुआब यह है की जिस देश की सरकारें कामचोर होती हैं, उस देश के नागरिक कर आदयगी के प्रति मनचोरी दिखाते हैं। इस अध्याय की कुछ पंक्तियाँ इस तरह हैं “भारत में कुल करों में प्रत्यक्ष करों का हिस्सा न्यूनतम है। आर्थिक और राजनैतिक विकास प्रत्यक्ष करों के सहयोगी होते हैं, यह कोई बढ़ा-चढ़ाकर दिया गया तथ्य नहीं है। अन्य देशों के विपरीत भारत में प्रत्यक्ष करों पर विश्वास की प्रवृत्ति गिरती हुई प्रतीत होती है.” इस पंक्ति की स्पष्टता इस आंकड़े से भी हो सकती है कि व्यक्तिगत आयकर में भारत की मात्र एक फीसदी के करीब की आबादी शामिल है।

गांधी भारत को गाँवों के देश के रूप में रचना चाहते थे। उन गाँवों के रूप में जिनमें स्थानीयता को अहमियत मिल सके। कोई केंद्र की सत्ता बहुत दूर बैठकर लोगों पर राज़ न करें। आज़ाद भारत के तत्कालीन माहौल की वजह से प्रशासन इस ओर बढ़ने पर डरता दिखा। 73वें और 74वें संविधान संशोधन के बाद गांधी की सोच को अमल में लाने की कोशिश की गयी, लेकिन यह भी अब कागज़ी बनकर रह गया है। राष्ट्र का भूत और देश की दिखावटी शान इतनी मजबूत है कि लोग न तो स्थानीय शासन के बारे में सोचते हैं और न ही यह समझने की कोशिश करतें हैं कि स्थानीय शासन से ही उनकी समस्याएं हल हो सकती हैं।

इस साल के आर्थिक सर्वे के आंकड़ें कहते हैं कि ग्राम पंचायतें एक व्यक्ति पर मात्र 999 रुपये खर्च करती हैं जबकि राज्य सरकारें इसकी अपेक्षा प्रति व्यक्ति लगभग 15-20 गुना अधिक खर्च करती हैं। शासन के लिए ‘थिंक ग्लोबली और एक्ट लोकली’ का मंत्र देने वाले गांधी के गाँवों की यह हालत है कि बजट में इस कमी को पाटने के लिए कल्याणकारी उपमा लगाते हुए निश्चित तौर पर किसी तरह की योजना बना दी जाती है, लेकिन वह जमीन पर नहीं उतरती।  

कुल मिलाकर हमारे हुक्मरां गांधी से कुछ भी नहीं सीखना चाहते हैं। गांधी की सामजिक-आर्थिक सोच से हमारा रत्ती भर भी लगाव नहीं है, सिवाय इसके कि वे नारों और भाषणों में बचे रहें और विज्ञापन में उनकी नज़र और नज़रिया के बिना उनका चश्मा चिपका रहे। 

Gandhi
2Oct
Swachchh Bharat Abhiyan

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