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भारत
राजनीति
विधानसभा चुनाव :  लाखों निर्माण मज़दूरों का शोषण जारी लेकिन राजनीतिक दल ख़ामोश!
ग्राउंड रिपोर्ट : राज्य के विकास में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले निर्माण मज़दूरों को सभी दलों ने अनदेखा किया है। मज़दूरों के साथ हो रहे अन्याय पर सभी मुख्य धारा के दल चुप हैं। दूसरी ओर वाम पंथी दलों ने इस मुद्दे को पूरे ज़ोर शोर से चुनाव में उठाया है।
मुकुंद झा
17 Oct 2019
haryana elections

हरियाणा राज्य में चुनाव होने में कुछ ही दिन बचे हैं, ऐसे में ज़मीनी स्तर पर चुनाव प्रचार अपने चरम पर है। राजनीतिक दलों का कारवां ज़ोर-शोर से चल रहा है। चुनाव के अंतिम दिनों में राज्य का हर राजनीतिक दल मतदाताओं को लुभाने की पूरी कोशिश कर रहा है।

हालांकि, चुनावी लोकतंत्र के इस कोलाहल के बीच, जो मौन है वह नागरिकों के वास्तविक मुद्दे हैं। इस बीच उन मुद्दों और  ज़मीनी ख़बरों को न्यूज़क्लिक आपके सामने ला रहा है, जिन्हें चुनाव में ज़्यादा तरजीह नहीं दी जा रही है। लेकिन यह मुद्दे वास्तव में बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। इसी क्रम में, हमारी टीम ने हरियाणा के जींद ज़िले की जुलाना विधानसभा सीट का दौरा किया। ज़िले में बड़ी संख्या में निर्माण मज़दूर रहते हैं। हरियाणा के भवन और अन्य निर्माण मज़दूर कल्याण बोर्ड के अनुसार, वर्तमान में राज्य में लगभग 7.76 लाख श्रमिक पंजीकृत हैं। जबकि एक अनुमान के मुताबिक़ पूरे राज्य में 20 से 22 लाख मज़दूर हैं। अगर सिर्फ़ इस ज़िले की बात करें तो लगभग 60 हज़ार मज़दूर पंजीकृत हैं।

जैसा कि पूरे देश में होता है, मज़दूर और उसके मुद्दे को बिलकुल अलग-थलग कर दिया जाता है। हरियाणा में ढांचागत विकास के लिए मज़दूरों ने अपना ख़ून-पसीना बहाया है। हालांकि, राजनीतिक दलों के चुनाव घोषणापत्र के भीतर कोई स्थान नहीं मिला।

निर्माण मजदूर कौन हैं?

निर्माण मज़दूरों को दो हिस्सों में देखना होगा- एक वे हैं जो दिहाड़ी पर रोज़ाना काम करते हैं। देश के छोटे बड़े सभी शहरों-गाँवो में सुबह से ही लेबर चौक पर सस्ते श्रम और श्रमिकों का बाज़ार लगता है। और मज़दूरों का दूसरा हिस्सा वो है जो बड़ी-बड़ी कंस्ट्रक्शन कंपनियों में काम करता है, जैसे मेट्रो, बड़े शॉपिंग मॉल, बड़ी रिहायशी और सरकारी इमारतों का निर्माण।

इसके अलावा, ये श्रमिक बिना किसी सुरक्षा उपकरण के ऊंची इमारतों पर काम करते हैं, जिससे उनकी जान जोखिम में पड़ जाती है, जिसके परिणामस्वरूप ख़रनाक स्थिति पैदा हो जाती है। दुर्घटनाओं के समय, कुछ अपवादों को छोड़कर, उन्हें कोई वित्तीय सहायता प्रदान नहीं की जाती है।

यद्यपि शहर आसानी से उन श्रमिकों को भूल जाता है जिन्होंने इसे बनाया है। जबकि जींद, हिसार जैसे इलाक़ों में यह वर्ग एक निर्णायक मतदाता भी है लेकिन फिर भी इनके मुद्दे पूरी तरह से चुनाव से ग़ायब रहते हैं।

उनके मुद्दों की बात करें, तो उनके लिए मौजूदा परिदृश्य में सबसे बड़ा मुद्दा कल्याण बोर्ड के तहत पंजीकृत होना और इससे आने वाले सामाजिक और आर्थिक लाभ प्राप्त करना है। राज्य सरकार ने 1996 में एक क़ानून बनाया, जबकि कल्याण बोर्ड का गठन 2007 में किया गया था, जिसके तहत श्रमिकों को वित्तीय सहायता प्रदान की जाती थी, जैसे कि विवाह के समय सहायता और बच्चों के लिए छात्रवृत्ति, मज़दूरों को औज़ार के लिए आर्थिक मदद आदि।

हालाँकि, राज्य में मज़दूर इन लाभों से लगातार वंचित रहे हैं और पिछले पांच वर्षों में भाजपा राज्य की हालत और ख़राब हुई है।

जुलाना के फ़तेहगढ़ गाँव के 58 वर्षीय राजेश को अब भी उस आर्थिक सहायता का इंतज़ार है जो उन्हें अपनी बेटी की शादी के लिए मिलने वाली थी। उनकी बेटी की शादी तीन साल पहले हुई थी। पिछले पांच वर्षों में भाजपा सरकार के असहयोगपूर्ण रवैये से नाराज़, उन्होंने कहा, “हमारी रोटी के लाले हैं और खट्टर सरकार हमें कश्मीर में घर ख़रीदने के सपने दिखा रही है।"

इस तरह के एक अन्य मज़दूर 60 वर्षीय प्यारे लाल, जो जींद ज़िले के देवरार गाँव से हैं उन्हें भी अपने बच्चों की पढ़ाई के लिए कोई वित्तीय सहायता नहीं मिली है। उन्होंने अपनी बेटी की शादी के लिए कोई कल्याणकारी नहीं मिलने का मामला भी बताया, जिसकी शादी दो साल पहले हुई थी।

न्यूज़क्लिक कई ऐसे निर्माण श्रमिकों के पास गया जो अब अपने कल्याणकारी धन के लिए सालों से लड़ रहे हैं और श्रम बोर्ड के पास रोज़ धक्के खा रहे हैं।

सोचिए एक मज़दूर जो रोज़ 200 से 300 रुपये तक मज़दूरी करता है, उसके लिए एक लाख रुपये का ना मिलना कितना बड़ी बात है। प्यारे लाल ने अपनी बेटी की शादी में इस उम्मीद में कहीं से पैसों का इंतज़ाम कर पैसे ख़र्च किए कि उन्हें बाद में रुपये मिल जाएंगे, जिससे वो उधार चुका देंगे, लेकिन शादी के इतने समय बाद भी उन्हें अब तक कुछ नहीं मिला है, उनका क़र्ज़ बना हुआ है और और उस पर महाजन का सूद लगातार बढ़ रहा है।

उन्होंने अपनी आपबीती बताते हुए कहा,  "महाजन हमे रोज़ गाली देता है, कभी मारपीट की भी नौबत आ जाती है लेकिन हम क्या करें। सरकार के पास हमारे हक़ के पैसे हैं, वह दे नहीं रही है।"

ये सिर्फ़ एक राजेश या प्यारे लाल की कहानी नहीं है। हमें कई ऐसे कई मज़दूर मिले, जिन्हें ऐसे लाभ मिलने हैं, चाहे वो मज़दूर के बच्चों को स्कूल में मिलने वाली छात्रवृति हो या दुर्घटना के बाद मिलने वाली सहायता राशि या फिर छोटे-मोटे काम मिलने वाला लोन हो। वे सरकार और प्रशासन तंत्र के ग़ैर-जज़िम्मेदाराना रवैये के कारण नहीं मिल पा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि कल्याण बोर्ड के पास धन की कमी है। उसके पास आज भी सैकड़ों करोड़ का बजट है।

हमें कई ऐसे मामले भी दिखे जहाँ यह लाभ न मिलने के कारण मज़दरों के बच्चों ने स्कूल जाना छोड़ दिया है। ऐसे ही एक मज़दूर देवड़ा गाव में मिले, जिनके बच्चे की पढ़ाई ख़राब आर्थिक स्थिति के कारण बंद हो गई है। बच्चे को जो वज़ीफ़ा मिलता था, वह अब नहीं मिल रहा है। जिस कारण परिवार ने उसे स्कूल भेजना बंद कर दिया है।

भवन निर्माण कामगार यूनियन के जिला सचिव कपूर जो मज़दूरों अधिकारों के लिए लगातार यूनियन के माध्यम से संघर्ष कर रहे हैं। उन्होंने बताया, "आज एक निर्माण मज़दूर का जीवन गंभीर संकट में है। मज़दूर को एक रोटी और चटनी भी नहीं मिल पा रही है।"

उन्होंने खट्टर और राज्य की भाजपा सरकार को निर्माण मज़दूर की बदतर स्थिति के लिए ज़िम्मेदार ठहराया है। उनके अनुसार,  "भाजपा सरकार ने 24 दिसम्बर 2018 को 427 सुविधाएं ऑनलाइन करने का निर्णय लिया था। जिसके कारण निर्माण मज़दूरों के बोर्ड ने भी 26 दिसंबर से पंजीकरण, नवीनीकरण, सुविधा फ़ार्मों के कार्यों को बिना तैयारी के ऑनलाईन करने का निर्णय ले लिया जिसके बाद से पिछले लगभग 9-10 माह से निर्माण मज़दूर- कारीगर मारे-मारे फिर रहे हैं। सभी तरह के कार्य बन्द हो चुके हैं। यह फ़ैसला जल्दबाज़ी में लिया गया, डिजिटल पंजीकरण कराने के लिए ज़मीन पर कोई तैयारी नहीं की गई और निर्माण श्रमिकों ने इसकी वजह से भारी क़ीमत चुकाई।"

उन्होंने कहा कि पुराने रिकॉर्ड अपडेट नहीं किए गए हैं और इसके परिणामस्वरूप एक पंजीकृत निर्माण को अपने लाभ प्राप्त करने के लिए विभिन्न सरकारी अधिकारियों का दौरा करना पड़ता है।

इस साल जून में, जींद ज़िले में हज़ारों निर्माण श्रमिकों ने अपनी मांगों को सुनाने के लिए मिनी सचिवालय के सामने प्रदर्शन किया।

जहां तक विधानसभा चुनावों का सवाल है, सभी मुख्य राजनीतिक दलों द्वारा निर्माण मज़दूरों के मुद्दों की पूरी तरह अनदेखी की गई है। सिर्फ़ जींद ज़िला ही नहीं बल्कि पूरे हरियाणा में स्थिति एक समान है।

मज़दूरों के साथ हो रहे इस अन्याय पर मुख्य धारा के दलों ने चुप्पी साधी हुई है। दूसरी ओर, वामपंथी दलों ने आगामी चुनावों में इस मुद्दे को उठाया है। उन्होंने रोहतक की कलानौर विधानसभा सीट से ख़ुद एक निर्माण मज़दूर कमलेश लाहली को मैदान में उतारा है।

लेकिन यह भी सच है कि इस विधानसभा चुनाव में वाम दलों की शक्ति सीमित है। वे केवल ग्यारह सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं, जिसमें सीपीआईएम सात सीटों पर चुनाव लड़ रही है, और सीपीआई चार सीटों पर लड़ रही है।

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