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कृषि
नज़रिया
मज़दूर-किसान
भारत
अगर फ़्लाइट, कैब और ट्रेन का किराया डायनामिक हो सकता है, तो फिर खेती की एमएसपी डायनामिक क्यों नहीं हो सकती?
कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा का कहना है कि आज पहले की तरह ही कमोडिटी ट्रेडिंग, बड़े पैमाने पर सट्टेबाज़ी और व्यापार की अनुचित शर्तें ही खाद्य पदार्थों की बढ़ती क़ीमतों के पीछे की वजह हैं।
रश्मि सहगल
18 May 2022
food

इस समय भारत खाद्य मूल्य में आयी उछाल से जूझ रहा है, ऐसे में जाने-माने व्यापार और कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा बताते हैं कि वह निजी कंपनियों के पक्ष में खाद्य नीति में बदलाव के समर्थन में क्यों नहीं हैं। उनका कहना है कि निजी व्यापारियों को किसानों से सीधे गेहूं खरीदने की इजाज़त देने से भारत की खाद्य सुरक्षा को नुक़सान पहुंचा सकता है। बहुत ज़्यादा समय नहीं हुआ है,जब इस तरह की नीति के नतीजा सार्वजनिक वितरण प्रणाली में कमी के रूप में देखी गयी है। उनका यह भी कहना है कि भारतीय नीति निर्माताओं को अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए कृषि आय को बढ़ावा देना चाहिए। वह कहते हैं, "अगर देश की 50% आबादी वाले किसानों को एक गारंटीशुदा एमएसपी के ज़रिये ऊंची आय हासिल होती है, तो इससे बड़े पैमाने पर ग्रामीण मांग पैदा होगी, जो कि अर्थव्यवस्था के लिए किसी 'बुस्टर ख़ुराक' से कम नहीं होगी।" प्रस्तुत है उनके साथ रश्मि सहगल की बातचीत एक अंश:

ऐसी आशंकायें जतायी जा रही हैं कि भारत की खाद्य सुरक्षा ख़तरे में है। गेहूं की ख़रीद पिछले साल के मुक़ाबले आधी है। क्या इसीलिए सरकार ने गेहूं के निर्यात पर रोक लगा दी है ?

ये इम्तिहान की घड़ी हैं। भारत को उस रूस-यूक्रेन संघर्ष से कहीं ज़्यादा सतर्क रहना होगा, जिसके जल्द ही ख़त्म होने का कोई संकेत नज़र नहीं आ रहा है। इसके अलावा, आपूर्ति की कमी को देखते हुए वैश्विक स्तर पर गेहूं ख़रीदने और स्टॉक करने को लेकर मारामारी चल रही है। शायद इसी वजह से सरकार ने गेहूं के निर्यात पर रोक लगा दी है। और यह ठीक भी है। कल्पना कीजिए कि अगर भविष्य में घरेलू स्टॉक खाद्य सुरक्षा से पैदा होने वाली चिंताओं को दूर करने के लिए पर्याप्त नहीं होते, तो हमें गेहूं की आपूर्ति कहां से होगी।

आइये, सबसे पहले यह समझने की कोशिश करते हैं कि इस स्थिति की वजह क्या है। देश के भीतर भीषण गर्मी के कारण गेहूं का उत्पादन कम हो गया है और ख़रीद के 44.4 मिलियन टन के लक्ष्य के मुक़ाबले 20 मिलियन टन तक भी पहुंच पाने की संभावना नहीं है। बिना किसी बाधा के निर्यात की अनुमति देने में बहुत सारे व्यापारिक हित भी हैं, कुछ निजी कंपनियों का दावा है कि 21 मिलियन टन भी निर्यात किया जा सकता है, लेकिन दिखाये जा रहे इस उत्साह के बावजूद मेरी समझ तो यही कहती है कि गेहूं के बेलगाम निर्यात पर प्रतिबंध होना ही चाहिए।

हमें इस बात को अच्छी तरह जानते हुए कहीं ज़्यादा सतर्क रहना होगा कि मार्च की शुरुआत में अचानक गर्मी की लहर जैसे किसी भी तरह के जलवायु परिवर्तन से उत्पादन अनुमान कभी भी डगमगा सकता है। गर्मी की इस लहर ने पंजाब और हरियाणा में गेहूं की उत्पादकता को पांच क्विंटल प्रति एकड़ तक कम कर दिया है। इससे उत्पादन आकलन छह मिलियन टन तक कम हो गया है, जो कि आख़िरी उत्पादन के आंकड़े आने पर और भी कम हो सकता है। यह देखते हुए कि गेहूं की अगली फ़सल का अभी एक साल का इंतज़ार है, जो कि अप्रैल 2023 है,ऐसे में हम कोई ख़तरा मोल नहीं ले सकते। खाद्य सुरक्षा को ख़तरे में नहीं डाला जा सकता।

इसका कारण यह है कि भारत 2005-06 में गेहूं के साथ हुई उस बड़ी भूल को दोहराने का जोखिम नहीं ले सकता, जब उसे 2005-06 में 7.1 मिलियन टन गेहूं का आयात करने के लिए मजबूर होना पड़ा था, और हमने 2006-07 में अपने किसानों को दोगुनी क़ीमत चुकायी थी। निजी कंपनियों के पक्ष में एक नीतिगत बदलाव से उन्हें सीधे किसानों से गेहूं खरीदने की अनुमति मिल गयी थी और इसका नतीजा यह हुआ था सार्वजनिक वितरण के लिए जो जरूरी गेहूं की मात्रा थी,उसकी आपूर्ति कम हो गयी थी। हालांकि,उस समय उत्पादन में कोई कमी नहीं थी, लेकिन फिर भी भारत को बड़े पैमाने पर गेहूं के आयात का सहारा लेना पड़ा था। सौभाग्य से इस आयात की नौबत 2007-08 में आये उस वैश्विक खाद्य संकट से पहले आयी थी, जिसके परिणामस्वरूप 37 देशों में खाद्य दंगे हुये थे। लेकिन इस बार, अगर भारत को आयात करने की ज़रूरत पड़ती भी है, तो कोई आपूर्ति उपलब्ध ही नहीं होगी।

दूसरी ओर खाद्य तेल की क़ीमतों में भी उछाल आयी है। क्या आप खाद्य तेल में "आत्मनिर्भरता" को लेकर बात कर सकते हैं? इस स्थिति से कैसे निज़ात पायी जा सकती है?

रूस-यूक्रेन का इलाक़ा भारत के सूरजमुखी आयात का 70% (भारत के खाद्य तेल आयात का 14%) मुहैया कराता है। भारत पहले से ही अपनी खाद्य तेल ज़रूरतों का तक़रीबन 55% आयात करता है,इस आयात का मूल्य 2020-21 में बढ़कर 1.17 लाख करोड़ रुपये हो गया। घरेलू ज़रूरतों को पूरा करने के लिए आयात पर निर्भरता बढ़ रही है। इसके अलावा, इंडोनेशिया की ओर से कच्चे पाम तेल के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने से खाद्य तेल की उपलब्धता पर दबाव बढ़ रहा है। ऐसे में खाद्य तेलों के बाज़ार भाव आसमान छू रहे हैं।

भारत ऐसी विकट स्थिति में पहुंचता ही नहीं,अगर इसने पीली क्रांति से तौबा नहीं किया होता, क्योंकि इससे भारत खाद्य तेल उत्पादन में तक़रीबन आत्मनिर्भर हो जाता। 1993-94 के आस-पास लगभग 97% घरेलू खाद्य तेल ज़रूरतों को देश के भीतर ही पूरा किया जा रहा था। ऐसा तब था,जब विश्व व्यापार संगठन (WTO) की बाध्यता के तहत खाद्य तेलों पर लगाये जाने वाले आयात शुल्क 300 प्रतिशत की सीमा तक था। तिलहन उत्पादन और प्रसंस्करण क्षमता को बढ़ाने को लेकर एक सक्षम माहौल मुहैया कराने के लिहाज़ से हमारे पास पर्याप्त नीतिगत गुंज़ाइश थी। लेकिन, किसी नामालूम वजह से सरकार ने धीरे-धीरे आयात शुल्क (तक़रीबन शून्य प्रतिशत तक) कम कर दिया, जिसका नतीजा यह हुआ कि आयात में इज़ाफ़ा होने लगा।

चल रहे रूसी-यूक्रेन युद्ध ने फिर से खाद्य पदार्थों के अलावा खाद्य तेलों में भी आत्मानिर्भर होने की ज़रूरत पर ध्यान केंद्रित करवा दिया है। मुझे कोई कारण नज़र नहीं आता कि भारत दूसरे देशों के किसानों को भुगतान करने के बजाय तिलहन के घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए अपने ही यहां के किसानों को ज़्यादा क़ीमत क्यों नहीं दे सकता। किसानों को अगर सुनिश्चित विपणन और गारंटीशुदा मूल्य दिया जाये, तो सूरजमुखी का उत्पादन आसानी से बढ़ाया जा सकता है। अब सरसों को ही लीजिए, हर साल बाजार मूल्य के बढ़ते जाने से किसानों ने पहले ही 2024 को ध्यान में रखते हुए ज़्यादा से ज़्यादा क्षेत्र में अपनी फ़सल बोयी है।इस समय सरसों की क़ीमत 7,000 रुपये प्रति क्विंटल को छूने जा रही है। आप किसानों को ज़्यादा से ज़्यादा क़ीमत दीजिए, और फिर देखिये कि वे किस तरह देश को आत्मनिर्भर बना देते हैं।

क्या खाद्य पदार्थों की क़ीमतों में आयी यह उछाल रूस-यूक्रेन संकट से पहले की नहीं है? किन अन्य कारकों ने थोक और खुदरा महंगाई को क्रमशः 15% और 7% पर ला दिया है?

इससे पहले भी वैश्विक स्तर पर खाद्य क़ीमतें उच्च स्तर पर थीं। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) के मुताबिक़, फ़रवरी में खाद्य क़ीमतें 2007-08 में आये एक गंभीर विश्वव्यापी खाद्य संकट के दौरान प्रचलित क़ीमतों से ज़्यादा हो गयी थी। यही वह समय था, जब 37 देशों को इस वजह से खाद्य दंगों का सामना करना पड़ा था। दूसरे शब्दों में इस युद्ध से पहले भी दुनिया खाद्य संकट की ओर तेज़ी से बढ़ रही थी। इस युद्ध ने इसे और भी बदतर बना दिया है और क़ीमतों में 22% की और ज़्यादा उछाल आ गयी है। इसका नतीजा यह हुआ है कि अतिरिक्त 193 मिलियन लोग भूख की रेखा से नीचे खिसक आये हैं।

इस युद्ध के शुरू होने से पहले ही विश्व स्तर पर क़ीमतें बढ़ रही थीं। हालांकि,इसके लिए महामारी के दौरान आपूर्ति श्रृंखला में आयी व्यवधान की दलील दी जा रही, लेकिन इन बढ़ती क़ीमतों के पीछे के कारण कमोडिटी ट्रेडिंग और सट्टेबाज़ी को माना जा रहा है। अध्ययनों से पता चला है कि कई निवेश फ़ंड और फ़र्मों ने कमोडिटी ट्रेडिंग में अपनी हिस्सेदारी बढ़ा दी है, और सट्टेबाज़ी प्रचंड थीं।  2007-08 में खाद्य पदार्थों की क़ीमतों में कम से कम 75% की बढ़ोतरी के चलते दुनिया के सामने आये खाद्य संकट के लिए इस सट्टेबाज़ी को ही ज़िम्मेदार माना जाता है। कृषि व्यवसाय कंपनियों ने कमोडिटी ट्रेडिंग में सचमुच जिस तरह की अपनी कमाई की है, उससे हाल के रुझान से भी मौजूदा हालात उसी दिशा की ओर जाते हुए दिख  रहे हैं। सबसे बड़ी खाद्य कंपनियों में गिने जाने वाली कारगिल को इस साल पहले ही रिकॉर्ड मुनाफ़ा कमाने के लिए जाना जाता है, जो कि 2021 में उसकी पहले की सबसे ज़्यादा कमाई से कहीं  ज़्यादा है। इसके अलावा, दूसरे प्रमुख अनाज (और तिलहन) संचालक,यानी बंज और एडीएम (आर्चर-डेनियल-मिडलैंड कंपनी) ने भी रिकॉर्ड मुनाफ़ा दर्ज किया है। किसी भी स्थिति में अब यह व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है कि बड़े व्यवसाय का मुनाफ़ा कई गुना बढ़ गया है, यही वजह है कि उपभोक्ताओं के पास जो खाद्य पदार्थ पहुंच रहे हैं,उनकी क़ीमत बहुत ही ज़्यादा है।

क्या रूस-यूक्रेन संकट ने भी ईंधन और उर्वरक की क़ीमतों पर उलटा असर डाला है? किसान और दूसरे तबक़े इस स्थिति का किस तरह से सामना कर रहे हैं?

अनुमान है कि चालू वित्त वर्ष में उर्वरक सब्सिडी बिल बढ़कर इसलिए दो लाख करोड़ रुपये हो जायेंगे, क्योंकि सरकार की ओर से कृषक समुदाय के लिए जो उर्वरक मुहैया कराये जा रहे है,उनकी क़ीमतें सस्ती रखे जाने की संभावना है। इससे खरीफ़ फ़सल सीजन के लिए आपूर्ति में किसी भी तरह की कमी की आशंका पहले ही दूर हो गयी है।

जहां तक ईंधन की क़ीमतों का मामला है, तो समय-समय पर क़ीमतों में होने वाली बढ़ोत्तरी से किसानों की उत्पादन लागत बढ़ जाती है। राज्यों के विधानसभा चुनाव ख़त्म होने के तुरंत बाद हमने देखा है कि ईंधन की क़ीमतें किस क़दर बढ़ रही हैं। इस साल हमने कई मोर्चों पर लागत में हुई बढ़ोत्तरी को देखा है। इन बढ़ोत्तरी में ट्रैक्टर और कंबाइन हार्वेस्टर के संचालन की बढ़ती लागत, कृषि मज़दूरी में इज़ाफ़ा आदि शामिल हैं, जो कि किसानों को अंततः मिलने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) में परिलक्षित नहीं हुआ है।

चूंकि किसानों के फ़सल बोने से बहुत पहले ही एमएसपी को 8 सितंबर को घोषित कर दिया गया था, मुझे लगता है कि अब समय आ गया है कि सरकार को अंतिम एमएसपी मूल्य (कटाई शुरू होने से ठीक पहले) को संशोधित कर देना चाहिए, क्योंकि क़ीमतों में आयी उछाल खेती-बाड़ी को प्रभावित करती हैं। अगर एयरलाइन, ट्रेन और कैब की सेवा मुहैया कराने वाली कंपनियों के लिए भी डायनामिक मूल्य का निर्धारण हो सकता है, तो मुझे कोई कारण नहीं नज़र आता कि हमारे कृषिगत वस्तुओं के लिए डायनाइमिक मूल्य क्यों नहीं हो सकते, जिसके ज़रिये किसानों को संशोधित एमएसपी का भुगतान किया जा सके। इस डिजिटल ज़माने में यह काम मुश्किल भी नहीं है।

क्या केंद्र सरकार की नीतियों और ख़ासकर एमएसपी को कमज़ोर किये जाने के उनके निरंतर प्रयासों से किसान बहुत निराश हैं?

नई दिल्ली की सीमाओं पर ऐतिहासिक कृषि विरोध ने इस ओर हमारा ध्यान खींचा था। न सिर्फ़ भारत, बल्कि दुनिया भर के किसान अपनी फ़सलों के लिए गारंटीशुदा मूल्य की मांग करते रहे हैं। भारत में किसान उन 23 फ़सलों के लिए गारंटीशुदा एमएसपी की मांग कर रहे हैं, जिनके लिए इन क़ीमतों का ऐलान किया गया है। संयुक्त राज्य अमेरिका में किसान मूल्यों की समानता की मांग कर रहे हैं। असल में दोनों का मतलब एक ही है। दरअस्ल यह हमें यही बताता है कि पिछले कई सालों से दुनिया भर के किसानों को गुज़र-बसर करने लायक़ आय से ही वंचित कर दिया गया है। इसलिए कृषि संकट हर जगह विकराल होता जा रहा है।

ऐसा दरअस्ल इसलिए है,क्योंकि नव-उदारवादी अर्थशास्त्रियों की नज़र में कृषि महज़ दो ही उद्देश्यों की पूर्ति करती है – एक तो यह सस्ता कच्चा माल मुहैया कराती है और दूसरा कि शहरों में सस्ता श्रम प्रदान करती है। जब तक खाद्य क़ीमतों को जानबूझकर कम नहीं रखा जाता, तबतक सस्ता कार्यबल उपलब्ध कराने की संभावना दूर की कौड़ी ही रहती है। यही वजह है कि कृषि को जानबूझकर निम्नतर स्थिति में रखा गया है। "प्रतिस्पर्धी" क़ीमतों के नाम पर कृषि क़ीमतों को उत्पादन लागत से कम रखा गया है। जैसा कि मैंने अक्सर कहा है कि जब कोई किसान अपने खेतों में फ़सल उगा रहा होता है, तो उसे इस बात का अहसास तक नहीं होता कि वह वास्तव में घाटे की खेती कर रहा है। कृषि की कम क़ीमतों और इसके अलावा, पिछले कुछ सालों से कृषि में निजी क्षेत्र के निवेश के कम होते जाने से आप किसी चमत्कार की उम्मीद तो नहीं कर सकते। फिर भी, इतनी कम क़ीमतों के बावजूद किसान साल-दर-साल रिकॉर्ड फ़सल का उत्पादन जारी रखे हुए हैं। इसका मतलब यही है कि वे देश के लिए आर्थिक संपत्ति का सृजन जारी रखे हुए हैं। हमें यह महसूस करना चाहिए कि मौजूदा क़ीमतों पर कृषि उत्पादन के सकल मूल्य के मामले में भारत चीन के बाद खड़ा है। एफ़एओ के मुताबिक़, कृषि उत्पादन का सकल मूल्य 418,541,343 मिलियन डॉलर है। दूसरे शब्दों में, हमारे किसानों के इस उत्पादित विशाल आर्थिक संपदा पर नज़र डालिए। क्या आपको नहीं लगता कि हमारे किसानों को उस उत्पादन के बदले भुगतान करने का समय आ गया है ? आखिरकार वे भी तो संपदा के सर्जक ही हैं ?

इसके अलावा, रूस-यूक्रेन युद्ध ने दिखा दिया है कि खाद्य आयात पर निर्भरता को कम करते हुए अब पूरा ध्यान आत्मानिभर्ता पर स्थानांतरित करने की ज़रूरत है। इसका मतलब यह है कि "प्रतिस्पर्धी" वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं पर निर्भर रहने के बजाय खाद्य आत्मनिर्भरता पर ध्यान केंद्रित करने की ज़रूरत है। इससे आम लोगों के  लिए लाभकारी रोज़गार सृजित होगा,जिससे उन्हें अतिरिक्त फ़ायदा पहुंचेगा।

सरकारों को यह महसूस करना चाहिए कि अगर किसानों के हाथ में ज़्यादा से ज़्यादा आमदनी आयेगी, तो वे इसे बाज़ारों में ही तो ख़र्च करेंगे। याद रखें कि जब 7वें वेतन आयोग का ऐलान किया गया था, तो इससे कुल आबादी के तक़रीबन 4-5% को ही फ़ायादा पहुंचा था, लेकिन अर्थशास्त्रियों ने तब भी इसे अर्थव्यवस्था के लिए एक बूस्टर ख़ुराक़ क़रार दिया था। अगर देश की 50% आबादी वाले किसानों को एक गारंटीशुदा एमएसपी के ज़रिये ऊंची आय हासिल होती है, तो इससे बड़े पैमाने पर ग्रामीण मांग पैदा होगी, जो कि अर्थव्यवस्था के लिए किसी 'बुस्टर ख़ुराक' से कम नहीं होगी।

(Rashme Sehgal is a freelance journalist.)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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