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अमेरिका और तालिबान के बीच खुले और गुप्त समझौते, क्या है भारत की चिंता?
अमेरिका द्वारा उग्र लड़ाकों की रिहाई, इनके संगठनों के साथ अमेरिकी सेना के कुछ खुले या गुप्त समझौतों के तौर पर की गई हैं।
अमिताभ रॉय चौधरी
28 Aug 2021
Translated by महेश कुमार
अमेरिका और तालिबान के बीच खुले और गुप्त समझौते, क्या है भारत की चिंता?
'प्रतीकात्मक फ़ोटो'

गुलाम रूहानी वह तालिबान नेता है जिसने 15 अगस्त को काबुल पर कब्ज़ा करने के लिए तालिबान ब्रिगेड का नेतृत्व किया था। उन्हें ग्वांतानामो बे की जेल (डिटेन्शन सेंटर) में आठ साल तक रखा गया था, दिसंबर 2007 में रिहा किए गए 13 अफगान कैदियों में से वे एक थे, उन्हे तब रिहा किया गया जब सैन्य समीक्षा में पाया गया कि वह अमेरिका और उसके सहयोगियों के लिए "मध्यम” दर्जे का जोख़िम बन सकता है।

रूहानी को तभी रिहा किया गया था जब उसने कथित तौर पर अमेरिकी सैन्य जांचकर्ताओं को बताया कि वह तालिबान का सदस्य है और उसका बहनोई संगठन का खुफिया प्रमुख है। 

2015 में, अमेरिकी सेना के सिपाही की रिहाई के बदले तालिबान के पांच शीर्ष सदस्यों को गिटमो से रिहा किया गया था। रिहा किए गए लोगों में तालिबान के पूर्व चीफ ऑफ स्टाफ मुल्ला मोहम्मद फजल थे, तालिबान के मृत सह-संस्थापक और उसके पहले सर्वोच्च कमांडर मुल्ला मुहम्मद उमर के करीबी सहयोगी मुल्ला नोरुल्लाह नूरी थे, तालिबान के पूर्व उप-खुफिया प्रमुख अब्दुल हक वासिक थे और तालिबान के शीर्ष सदस्य खिरुल्लाह सईद वली खैरख्वा और मुहम्मद नबी थे।

अबू बक्र अल-बगदादी, एक इराकी आतंकवादी है, जो 2014 में इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड द लेवेंट (ISIL) का पहला प्रमुख (अमीर) था, जिसे अब इस्लामिक स्टेट के रूप में जाना जाता है, उसे 2004 में यूएस कैंप बुक्का जेल से रिहा किया गया था। उसे दस महीने के लिए हिरासत में रखा गया था, लेकिन बाद में "निम्न-स्तर" का कैदी बताकर रिहा कर दिया गया था। कुछ साल बाद, अमेरिका ने उसे वापस हिरासत में लेने के लिए जानकारी देने वाले को 25 मिलियन डॉलर के इनाम की घोषणा की थी। हालाँकि, अल-बगदादी ने, अक्टूबर 2019 में सीरिया में इदलिब के पास, बरिशा में, यूएस डेल्टा फोर्स और आर्मी रेंजर्स के छापे के दौरान आत्महत्या कर ली थी।

इस तरह हज़ारों आतंकी अमेरिका की क़ैद से रिहा हुए। कई नेता और कैडर अब तालिबान की लड़ाकू मशीन और अल कायदा और इस्लामिक स्टेट जैसे सहयोगी संगठनों, विशेष रूप से इसकी खुरासान इकाई की रीढ़ बने हुए हैं। ये लड़ाके उन सैकड़ों लड़ाकों के अलावा हैं, जिन्हें तालिबान ने हाल ही में अफ़गानिस्तान पर कब्जे के बाद अफ़गान जेलों से रिहा किया है।

अमेरिका के आतंकवादी संगठनों के साथ खुले या गुप्त समझौते

अमेरिका और नाटो बलों द्वारा ऐसे कैदियों की रिहाई, जिनका कि काफी महत्व हैं, इनके संगठनों के साथ अमेरिकी सेना या खुफिया अधिकारियों के कुछ खुले या गुप्त समझौतों/व्यवस्थाओं के हिस्से के तौर पर की गई हैं।

सबसे महत्वपूर्ण समझौतों में से एक 29 फरवरी, 2020 का समझौता है जिसे पूर्व डोनाल्ड ट्रम्प प्रशासन और तालिबान के बीच किया गया था, जिसका शीर्षक था 'अफगानिस्तान के इस्लामिक अमीरात के बीच अफगानिस्तान में शांति लाने के लिए समझौता किया जा रहा है,  संयुक्त राज्य अमेरिका एक राष्ट्र के रूप में जिसे तालिबान माना जाता है मान्यता नहीं देता है।‘

देश के बड़े हिस्से पर कब्जा करने के बाद तालिबान 'अफगानिस्तान के इस्लामी अमीरात' की स्थापना करना चाहता था। समझौता, अन्य बातों के अलावा, अमेरिकी सेना की वापसी, दोनों पक्षों द्वारा कैदियों की रिहाई, तालिबान द्वारा विदेशी आतंकवादी समूहों को अफ़गानिस्तान से खदेड़ना, अमेरिका और उसके सहयोगियों के खिलाफ कोई हिंसा नहीं करना और एक अंतर-अफगान वार्ता निर्धारित करना था। 

भारत ने इन वार्ताओं के लिए कतर में अपने प्रतिनिधि, तत्कालीन राजदूत पी कुमारन को भेजा था। दोहा में तालिबानी संगठन और अफ़गान सरकार के बीच नवीनतम अंतर-अफगान वार्ता से पहले 2020 का समझौता हुआ था। 2020 के समझौते में अनिवार्य रूप यह वादा लिया गया था कि अफ़गानिस्तान से अमेरिका और गठबंधन सेना को हटाया जाएगा और बदले में तालिबान आतंकवादी समूहों को अफ़गान धरती पर काम करने से रोकेगा।

समझौते में महसूस किया गया था कि काबुल में बातचीत के लिए एक कार्यशील अफ़गान सरकार होगी। इस समझौते ने पांच सैन्य ठिकानों को साफ करने और हजारों तालिबान कैदियों को रिहा करने के साथ शुरू होने वाली अमेरिकी वापसी की एक समय सीमा भी निर्धारित की थी। तालिबान को लोकतांत्रिक और मानवाधिकारों की गारंटी देने और उनके कैदियों को रिहा करने के लिए कहने के अलावा, यह भी कहा गया था कि तालिबान के सदस्यों को 'प्रतिबंध सूची' से हटाने के लिए वाशिंगटन संयुक्त राष्ट्र के साथ राजनायिक चर्चा शुरू करेगा।

हाल ही में अफ़गानिस्तान पर तालिबान का कब्ज़ा, वह भी प्रांत दर प्रांत और बिना किसी प्रतिरोध के, लगता है इस साल अंतर-अफगान शांति वार्ता के तुरंत बाद इस तरह की योजना बनाई गई थी। अधिकांश जगहों पर पूरी की पूरी अफ़ग़ान सेना किसी कमजोर ढांचे की तरह ढह गई, व्यावहारिक रूप से देखा जाए तो कोई लड़ाई नहीं हुई।

यह चौंकाने वाली शर्मनाक हार मुख्य रूप से अमेरिकी सैनिकों की अचानक वापसी और अफ़गान सैना के आत्मसमर्पण के कारण हुई, मुख्य रूप से हथियारों और आपूर्ति की गंभीर कमी थी और अमेरिकी सेना के वापस जाने से इसकी संचार प्रणाली भंग हो गई थी। यह ऐसा था जैसे तालिबान सेनाएं हमले की प्रतीक्षा कर रही थीं, यह तब हुआ जब अमेरिका सेना को वापस कर लिया गया और साथ ही उसने अपने ठिकानों और बुनियादी ढांचे को नष्ट कर दिया था। 

2020 समझौते के संबंध में कुछ प्रश्न

अफ़गान सरकार न तो इन वार्ताओं का हिस्सा थी और न ही समझौते की हस्ताक्षरकर्ता थी। यद्यपि अमेरिकी पक्ष ने तत्कालीन राष्ट्रपति अशरफ गनी को सूचित किया और उन्हे अपने साथ रखने का प्रयास किया था, वैसे भी तालिबान ने जोर देकर कहा था कि अफ़गान सरकार को वार्ता से बाहर रखा जाना चाहिए क्योंकि वह वैध सरकार नहीं है और उनकी यह बात मान ली गई थी।

2020 के समझौते पर करीब से नज़र डालने से पता चलता है कि ये भारत सरकार के लिए चिंता का काफी बड़ा आधार हो सकता है। सुरक्षा विशेषज्ञों ने इस समझौते को "पूरी तरह से एकतरफा" करार देते हुए कहा था कि आतंकवादी संगठन से सौदे पर कायम रहने की उम्मीद नहीं की जा सकती है। “तालिबान अपने वादों को पूरा नहीं कर सकता और फिर भी अमेरिका ने अफ़गानिस्तान को उन्हें सौंप दिया। उनमें से एक ने कहा कि, इसमें संविधान, कानून के शासन, लोकतंत्र और चुनाव का कोई संदर्भ नहीं है।“

चिंता का सबसे प्रमुख बिंदु यह है कि क्या भारत को 'अमेरिका और उसके सहयोगी' के शब्द की परिभाषा में शामिल किया गया था। समझौते के अनुसार, तालिबान ने "इस बात की गारंटी दी थी कि जो संयुक्त राज्य अमेरिका और उसके सहयोगियों की सुरक्षा के खिलाफ कोई भी समूह या व्यक्ति अफ़गानिस्तान की मिट्टी का इस्तेमाल करेगा तालिबान उसे रोकने का काम करेगा"। भारत को धमकी देने वाले पाकिस्तान समर्थित समूह अफ़गानिस्तान में काम करेंगे या नहीं, यह देखना होगा।

हजारों तालिबानी कैदियों की रिहाई का असर भी गंभीर चिंता का विषय है। इसमें "हक्कानी नेटवर्क की मुख्यधारा" भी शामिल है, जिसके साथ लश्कर-ए-तैयबा के आतंकवादी कथित तौर पर जुड़े हुए हैं। यह नेटवर्क 2008 में काबुल में भारतीय दूतावास पर बमबारी के लिए भी कथित रूप से जिम्मेदार था। यह संगठन मुख्य रूप से पाकिस्तान के उत्तरी वजीरिस्तान क्षेत्र में स्थित है, और पूर्वी अफ़गानिस्तान और काबुल की सीमा पार अभियान चलाता है।

समझौते के भीतर अमेरिकी बलों की वापसी की समय सीमा और पांच ठिकानों को साफ करने और सैनिकों के स्तर को काफी नीचे लाने की प्रतिबद्धता का भी उल्लेख है। समझौते ने तालिबान के नेतृत्व वाली सरकार की संभावना के प्रति समर्पण का भी संकेत दिया है, जिससे दोहा में हो रहे अंतर-अफगान संवाद को दरकिनार कर दिया गया है। विशेषज्ञों ने पूछा था कि क्या ट्रम्प ने "अफ़गानिस्तान को तालिबान के हवाले कर दिया है"।

यह समझौता उस नई व्यवस्था पर भी सवाल उठाता है जो अब काबुल में तालिबान के कब्जे में है। विशेषज्ञों ने कहा है कि अफ़गानिस्तान में लोकतंत्र रहेगा या नहीं यह मुद्दा भारत के लिए चिंता का विषय बना रहेगा, जो अमेरिका की नज़रों से अफ़गान के हालत को नहीं देख सकता है।

अगर देखें तो, तालिबान एक संयुक्त या एकजुट संगठन नहीं है, बल्कि युद्ध और समझौते के बारे में परस्पर विरोधी विचारों के साथ पूरे अफगानिस्तान में विभिन्न कमांडरों और मिलिशिया का गठबंधन है। समझौते पर बातचीत करने वाले तालिबान नेता संगठन के नेतृत्व समूह से हैं, जिन्हें क्वेटा शूरा कहा जाता है, जो पाकिस्तान से बाहर काम करता है और काफी हद तक एक राजनीतिक और आर्थिक संगठन है।

शूरा कथित तौर पर अत्यधिक लाभ कमाने वाली अफ़ीम और हेरोइन के व्यापार को नियंत्रित करता है जो तालिबान के सैन्य अभियानों को वित्तपोषित करता है। शूरा का नेतृत्व तालिबान के वर्तमान प्रमुख हैबुतुल्ला अखुंदजादा, मोहम्मद याकूब, मोहम्मद उमर और संगठन के सह-संस्थापक अब्दुल गनी बरादर जैसे वरिष्ठ तालिबान नेता कर रहे हैं।

हालांकि इन नेताओं के पास तालिबान के भीतर जबरदस्त शक्ति है, उनके पास सैन्य अनुभव बहुत कम है या कुछ भी नहीं है और इसलिए क्षेत्र के कमांडर उन पर भरोसा नहीं भी कर सकते हैं। ये कमांडर आमतौर पर शूरा के नेतृत्व के मुक़ाबले छोटे होते हैं। इन क्षेत्रीय कमांडरों की वजह से ही तालिबान अब लगभग पूरे देश को नियंत्रित कर रहा है। क्या वे अपने 'बुजुर्गों' (शूरा) के निर्देशों का पालन करना जारी रखेंगे, यह देखा जाना बाकी है।

विशेषज्ञों के अनुसार, नई दिल्ली पूर्ववर्ती अफ़गान सरकारों की प्रबल समर्थक रही है और उसने 2001 से अफ़गानिस्तान में बुनियादी ढांचे के विकास और व्यवसायों में 3 अरब डॉलर का निवेश किया है। इसका मुख्य लक्ष्य पाकिस्तान के प्रभाव को कम करना है और अफ़गानिस्तान को भारत विरोधी उग्रवादियों का आश्रय स्थल बनने से रोकना है। 

नई दिल्ली यह मानती है कि वह शांति प्रक्रिया को समावेशी बनाना चाहेगी जो अफ़गान के नेतृत्व वाली, अफ़गान-स्वामित्व वाली और अफगान-नियंत्रित सरकार हो। दिल्ली अफ़गानिस्तान में शांति और सुलह प्रक्रिया की एक हितधारक रही है, हालांकि इसने तालिबान के साथ कोई आधिकारिक बातचीत नहीं की है। भारत यह सुनिश्चित करना चाहता है कि इस तरह की प्रक्रिया किसी भी ऐसे "अनियंत्रित स्थान" को न छोड़ दे जहां आतंकवादी और उनके प्रतिनिधि आसरा ले लें। भारत ने अमेरिका को यह भी कहा है कि वह पाकिस्तान पर उनकी धरती से संचालित होने वाले आतंकी नेटवर्क पर नकेल कसने का दबाव बनाए रखना जारी रखे। 

(अमिताभ रॉयचौधरी प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया के उप-कार्यकारी संपादक थे और उन्होंने आंतरिक सुरक्षा, रक्षा और नागरिक उड्डयन को व्यापक रूप से कवर किया है। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।)

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

2020 US-Taliban Accord Overshadows Afghan Peace Process

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