NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
अर्थव्यवस्था
5 सितम्बर मज़दूर-किसान रैली: सबको काम दो!
औद्योगिक श्रमिकों, किसानों और कृषि मजदूरों की एक ऐतिहासिक रैली देश की राजधानी में बेहतर मजदूरी, अधिक नौकरियों, कृषि उपज के लिए बेहतर कीमतों, निजीकरण के अंत और श्रम कानूनों में परिवर्तन, अनुबंध श्रम प्रणाली को समाप्त करने आदि की मांग को लेकर होने जा रही है।
सुबोध वर्मा
21 Aug 2018
Translated by महेश कुमार
mazdoor kisan rally
Image Used For Representation Purpose Only

'मज़दूर किसान संघर्ष रैली' बेहतर जीवन और न्यायपूर्ण भविष्य के लिए भारत के कामकाजी लोगों के संघर्ष में एक नया मंच स्थापित करेगा। इस विशाल रैली के चलते, न्यूज़क्लिक उठाई जा रही मांगों पर ध्यान केंद्रित करने वाली एक श्रृंखला प्रकाशित करेगा। इस श्रृंखला के पहले भाग में, नौकरियों के संकट के बारे में पढ़ें।

आज भारतीय लोगों के सामने सबसे बड़ा संकट बेहतर नौकरियों की कमी का है। हर साल 1 करोड़ नौकरियों को सुनिश्चित करने का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चुनावी वादा एक धोखाधड़ी साबित हुआ है। पिछली यूपीए सरकार के तहत देखी गई 'बेरोजगार वृद्धि' के दशक की तुलना में नौकरियों की स्थिति में सुधार तो दूर, बल्कि चीजें ओर ज्याद बदतर हो गई हैं।

हर साल नौकरी तलाशने वालों की सेना में 1 करोड़ 24 लाख लोग शामिल होते हैं। चूंकि पर्याप्त नौकरियां उपलब्ध नहीं हैं, हर साल, इन लोगों का एक बड़ा हिस्सा या तो पूरी तरह से बेरोजगार रहता है या बहुत कम मजदूरी पर काम करना शुरू कर देता है। मोदी की नीतियां - स्व-रोज़गार या विदेशी निवेश पर जोर देना - उन नौकरियों को बनाने में नाकाम हैं जिन्हें वे बनाना चाहते थे, जो आश्चर्यजनक नहीं है क्योंकि ये नीतियां कम-दृष्टि वाली थीं और किसी भी उचित आधार पर आधारित नहीं थीं।

सब इन दुखद परिणामों को देख सकते हैं। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के एक अध्ययन के मुताबिक मोदी के पहले दो वर्षों में 10 लाख से अधिक नौकरियां नष्ट हो गईं। 2014-15 में देश में काम करने वाले लोगों की कुल संख्या मैं 7.7 लाख और 2015-16 में 3.8 लाख की गिरावट आई है। तब हालत ओर खराब से बदतर हो गए। देश के सभी 15 वर्ष और उससे ऊपर की उम्र के लोगों में से 43 प्रतिशत 2016 में काम कर रहे थे। 2018 तक, यह हिस्सा सीएमआईई के अनुसार 40 प्रतिशत तक गिर गया था। इसका मतलब है कि 1 करोड़ 43 लाख काम  करने वाले लोगों ने अपनी नौकरियां खो दी हैं। नवीनतम सीएमआईई आंकड़ों से पता चलता है कि जनवरी 2017 में कामकाजी लोगों की संख्या 40 करोड़ 84 लाख से घटकर जुलाई 2018 में 39 करोड़ 75 लाख हो गई, जो पिछले डेढ़ सालों में 1 करोड़ 9 लाख (एक करोड़  से कुछ उपर) की हानि है। इस बीच, 2016 के श्रम ब्यूरो की रिपोर्ट के साथ महिलाओं का रोजगार कम होना जारी रहा है और 15+ आयु वर्ग में सिर्फ 22 प्रतिशत महिलाएं काम कर रही थीं।

सीएमआईई के अनुमानों के मुताबिक बेरोजगारी 5 प्रतिशत से अधिक बढ़ गई है। ये करीब 2 करोड़ व्यक्ति है। इसके अलावा, 2016 में सरकार के श्रम ब्यूरो द्वारा अनुमान लगाया गया है कि लगभग 35 प्रतिशत कार्यबल साल भर का काम नहीं ढूंढ पा रहे हैं या बहुत कम मज़दूरी मैं काम करने के लिए मजबूर हैं। ऐसे लगभग 13 करोड़ लोग हैं।

सरकार ही जो रोजगार का कत्ल कर रही है 

सरकार और सार्वजनिक क्षेत्र भारत के कुल रोजगार का केवल एक छोटा सा हिस्सा पैदा करते हैं। यहां तक कि मोदी सरकार भी विफल रही है क्योंकि सरकारी नौकरियां कम हो रही हैं। केंद्रीय बजट दस्तावेजों के मुताबिक 2014 में केंद्र सरकार प्रतिष्ठानों (मंत्रालयों, रेलवे, डाक विभाग, पुलिस इत्यादि) में कर्मचारी शक्ति 33.28 लाख थी जो 2017 में 32.53 लाख रह गई थी। इसलिए, 2017 तक, लगभग 75,000 सरकारी नौकरियां गायब हो गईं और यह प्रवृत्ति अभी भी जारी है।

इसके अलावा, 330 से अधिक केंद्रीय सार्वजनिक-क्षेत्र उद्यम (पीएसई) भी हैं जो 2014 में 16.91 लाख लोगों को रोजगार देते थे - मुख्य रूप से खनन, इस्पात, तेल, भारी और मध्यम इंजीनियरिंग और उर्वरक क्षेत्रों में। यह संख्या 2017 में 15.24 लाख तक घट गयी है – यानि 1 लाख 67 हजार नौकरियों का नुकसान। गैर-कार्यकारी श्रेणी में सबसे बड़ी गिरावट आई है जहां कुशल श्रमिक के रोजगार 1.11 लाख ओर अकुशल के 77,000 तक नीचे आ गये। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इन्हें आकस्मिक रूप से आकस्मिक और अनुबंध श्रमिकों द्वारा प्रतिस्थापित किया गया था, जिनकी संख्या 2014 में 3.4 लाख से बढ़कर 3.79 लाख हो गई थी। इस प्रकार, पीएसई में कम और अधिक अनियमित रोजगार मोदी सरकार का देश को उपहारों में से एक रहा है!

उद्योग और निर्माण का संकट

नौकरी के नुकसान से औद्योगिक और निर्माण क्षेत्र सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं। 21 वीं सदी के पहले दशक में, निर्माण क्षेत्र हर साल 10 प्रतिशत कि रफ्तार से बढ़ रहा था। बीजेपी सरकार के चार वर्षों में, इसका औसत प्रतिवर्ष 4 प्रतिशत कम है। नतीजतन, इस क्षेत्र में नौकरियां, जो कृषि संकट के चलते मज़दूर रोजगार ले पाते थे, वह नाटकीय रूप से घट गई हैं।

इस दशक में औद्योगिक विकास बड़ा खराब रहा है और बीजेपी सरकार इसे बदलने के लिए कुछ भी करने में सक्षम नहीं है। इंडेक्स ऑफ इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन (आईआईपी) जो औद्योगिक उत्पादन वृद्धि को मापता है, 2014-15 में 3.8 प्रतिशत से घटकर 2015-16 में 2.8 प्रतिशत हो गया, और औसत पर 2017-18 में 4.5 प्रतिशत तक पहुंच गया। नोटबन्दी और जीएसटी ने अगले दो वर्षों में अर्थव्यवस्था को और बाधित करने के साथ, समस्याओं को ओर बढ़ाया है। इन्होंने असंगठित विनिर्माण सेक्टर को सबसे गंभीर रूप से बर्बाद किया है।

मोदी की रोजगार योजनाएं विफल रही हैं

कौशल भारत (प्रधान मंत्री कौशल विकास योजना) जैसी सरकारी योजनाएं, मेक इन इंडिया या मुद्रा योजना नए नौकरी के अवसर पैदा करने में बुरी तरह विफल रही है। कौशल भारत के तहत तीन वर्षों में प्रशिक्षित 41.3 लाख लोगों में से केवल 6.15 लाख या 15 प्रतिशत को कोई स्थान प्राप्त हुए हैं क्योंकि नौकरियां उपलब्ध नहीं हैं। सरकार का दावा है कि लोग मुद्रा ऋण के स्व-नियोजित आंकड़े के मुताबिक 10.38 करोड़ लोगों को 4.6 लाख करोड़ रुपए दिये गये हैं उससे रोजगार पैदा हुए। यह प्रति व्यक्ति मात्र 44,000 रूपए बैठता है। प्रधानमंत्री और उनके मंत्री दावा कर रहे हैं कि इन सभी ऋण लेने वालों ने न केवल काम शुरु किया है बल्कि दूसरों को भी नौकरियां दे रहे हैं। यह बहुत असंभव लगता है क्योंकि यह साबित करने के लिए कोई डेटा नहीं है कि ये ऋण लेने वाले पहले बेरोजगार थे। और, एक उद्यम को क्या 44,000 रुपये के निवेश के आधार पर चलाया सकता है। हाँ शायद एक छोटी दुकान या पकोडा स्टॉल निश्चित रूप से इसमें खोला जा सकता है।

सरकार द्वारा दिया गया डेटा 70 लाख औपचारिक क्षेत्र की नौकरियों में वृद्धि पर भी अत्यधिक संदिग्ध है। यह अनुमान ईपीएफओ, ईएसआई इत्यादि में नामांकन पर आधारित है जो सामाजिक सुरक्षा योजनाएं ज्यादातर औपचारिक क्षेत्र में लागू होती हैं। नए नामांकन की किसी भी तरह से पहली बार रोजगार की तरफ इंगित नहीं करते हैं। वास्तव में, कई नियोक्ताओं ने सरकार के बाद मौजूदा कर्मचारियों को कवरेज की पेशकश करना शुरू कर दिया है और घोषणा की कि वह यानि सरकार नियोक्ता के योगदान की लागत सहन करेगा।

कृषि में नौकरी

भारत में, परंपरागत रूप से कृषि रोजगार का एक प्रमुख स्रोत रहा है - स्व-नियोजित और मजदूरी-कार्य दोनों ही। हालांकि, अधिक से अधिक किसान अपनी भूमि को खो रहे हैं और कृषि की बढ़ती अस्थिरता के कारण, अधिक से अधिक लोग कृषि से बाहर होते जा रहे है और उन्हें कहीं और काम तलाशने के लिए मजबूर किया जा रहा है। बीजेपी ने कृषि आय को दोगुना करने और कृषि क्षेत्र की रोजगार की क्षमता बढ़ाने का वादा किया था। हकीकत में, किसानों की आय में कमी आई है, ग्रामीण मजदूरी स्थिर हो रही है और नौकरियों की कमी की स्थिति में अधिक लोगों को बेरोजगार की सेना में शामिल होने के लिए मजबूर होना पड़ा है।

गहन कृषि संकट से न केवल कृषि रोजगार में बल्कि कृषि के बाहर भी प्रभाव पड़ा है। चूंकि नौकरी तलाशने वालों की संख्या बढ़ गई है, नियोक्ता मजदूरी कम रखने में सक्षम हैं। कम मजदूरी और कृषि संकट का मतलब है कि काम करने वाले लोग बहुत ज्यादा खरीद नहीं सकते हैं - इस प्रकार अर्थव्यवस्था में निराशाजनक मांग जो बदले में नौकरी की वृद्धि को प्रतिकूल रूप से हिट कर रही है। बेरोजगारी मजदूरी कम करती है और खरीदने की शक्ति को कम करती है। इससे उत्पादन में गिरावट आती है। और अधिक नौकरियां नष्ट हो जाती हैं। यह एक दुष्चक्र है जिसमें बीजेपी सरकार ने अर्थव्यवस्था को तबाह कर दिया है!

सरकार ने सोचा कि मेक इन इंडिया की निति से निर्यात के जरीए देश में उत्पादन और रोजगार को बढ़ाएगी। हालांकि, गैर-तेल उत्पादों का निर्यात इस सरकार के 4 वर्षों में पूरी तरह से स्थिर रहा हैं - उत्पादन और रोजगार वृद्धि को बढ़ावा नहीं मिला हैं। दूसरी तरफ, घरेलू उत्पादन के साथ प्रतिस्पर्धा में आयात, कुछ हद तक बढ़ गया है, जो स्थानीय उद्योग को नष्ट कर रहा है और अधिक लोगों को बेरोजगार बना रहा है।

यह नौकरियों का विनाशकारी संकट है जो आने वाली 5 सितंबर की रैली में महत्वपूर्ण मुद्दों में से एक है। काम करने वाले लोग इन विनाशकारी नीतियों के उलटने की मांग कर रहे हैं जो कि मजदूरों के विशाल बहुमत की लागत पर केवल बड़े निगमों, घरेलू और विदेशीं पूंजिपतियो को लाभान्वित करते हैं। यह उन नीतियों की मांग करना है जो काम करने के लिए तैयार सभी के लिए सभ्य रोजगार पैदा करते हैं, खासकर हमारे युवाओ के लिए।

[सीआईटीयू द्वारा तैयार अभियान सामग्री के आधार पर]

मज़दूर-किसान रैली
5 सितम्बर
बेरोज़गारी
रोज़गार
घटता रोज़गार
मोदी सरकार

Related Stories

किसान आंदोलन के नौ महीने: भाजपा के दुष्प्रचार पर भारी पड़े नौजवान लड़के-लड़कियां

सत्ता का मन्त्र: बाँटो और नफ़रत फैलाओ!

जी.डी.पी. बढ़ोतरी दर: एक काँटों का ताज

5 सितंबर मज़दूर-किसान रैली: कृषि मज़दूरों की भूमि सुधार और बेहतर मज़दूरी की माँग

रोज़गार में तेज़ गिरावट जारी है

लातेहार लिंचिंगः राजनीतिक संबंध, पुलिसिया लापरवाही और तथ्य छिपाने की एक दुखद दास्तां

माब लिंचिंगः पूरे समाज को अमानवीय और बर्बर बनाती है

अविश्वास प्रस्ताव: दो बड़े सवालों पर फँसी सरकार!

क्यों बिफरी मोदी सरकार राफेल सौदे के नाम पर?

अविश्वास प्रस्ताव: विपक्षी दलों ने उजागर कीं बीजेपी की असफलताएँ


बाकी खबरें

  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    मुंडका अग्निकांड: सरकारी लापरवाही का आरोप लगाते हुए ट्रेड यूनियनों ने डिप्टी सीएम सिसोदिया के इस्तीफे की मांग उठाई
    17 May 2022
    मुण्डका की फैक्ट्री में आगजनी में असमय मौत का शिकार बने अनेकों श्रमिकों के जिम्मेदार दिल्ली के श्रम मंत्री मनीष सिसोदिया के आवास पर उनके इस्तीफ़े की माँग के साथ आज सुबह दिल्ली के ट्रैड यूनियन संगठनों…
  • रवि शंकर दुबे
    बढ़ती नफ़रत के बीच भाईचारे का स्तंभ 'लखनऊ का बड़ा मंगल'
    17 May 2022
    आज की तारीख़ में जब पूरा देश सांप्रादायिक हिंसा की आग में जल रहा है तो हर साल मनाया जाने वाला बड़ा मंगल लखनऊ की एक अलग ही छवि पेश करता है, जिसका अंदाज़ा आप इस पर्व के इतिहास को जानकर लगा सकते हैं।
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    यूपी : 10 लाख मनरेगा श्रमिकों को तीन-चार महीने से नहीं मिली मज़दूरी!
    17 May 2022
    यूपी में मनरेगा में सौ दिन काम करने के बाद भी श्रमिकों को तीन-चार महीने से मज़दूरी नहीं मिली है जिससे उन्हें परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है।
  • सोन्या एंजेलिका डेन
    माहवारी अवकाश : वरदान या अभिशाप?
    17 May 2022
    स्पेन पहला यूरोपीय देश बन सकता है जो गंभीर माहवारी से निपटने के लिए विशेष अवकाश की घोषणा कर सकता है। जिन जगहों पर पहले ही इस तरह की छुट्टियां दी जा रही हैं, वहां महिलाओं का कहना है कि इनसे मदद मिलती…
  • अनिल अंशुमन
    झारखंड: बोर्ड एग्जाम की 70 कॉपी प्रतिदिन चेक करने का आदेश, अध्यापकों ने किया विरोध
    17 May 2022
    कॉपी जांच कर रहे शिक्षकों व उनके संगठनों ने, जैक के इस नए फ़रमान को तुगलकी फ़ैसला करार देकर इसके खिलाफ़ पूरे राज्य में विरोध का मोर्चा खोल रखा है। 
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License