NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
कानून
भारत
राजनीति
गर्भपात पर एक प्रगतिशील फ़ैसला, लेकिन 'सामाजिक लांछन' का डर बरक़रार
MTPA में लगाई गई तथाकथित युक्तियुक्त बाधाएं महिलाओं के पक्ष में नहीं हैं।
ऐश्वर्या रामकुमार
21 Jan 2021
गर्भपात पर एक प्रगतिशील फ़ैसला, लेकिन 'सामाजिक लांछन' का डर बरक़रार

हर व्यक्ति को अपने शरीर पर "स्वायत्ता का अधिकार" होता है। भारत में इस अधिकार की पहचान बढ़ रही है। लेकिन अब भी इसकी गति में तेजी आना बाकी है। ऐश्वर्या रामकुमार यहां राजस्थान हाईकोर्ट के एक फ़ैसले का विश्लेषण कर रही हैं, जो एक किशोरी के चिकित्सकीय तरीके से "गर्भपात करने के अधिकार" से संबंधित था।

2009 में सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 21 में किसी महिला के अपने "शरीर पर अखंडित अधिकार" के अंतर्निहित होने की पुष्टि की थी। इसका मतलब कि महिलाओं को अपने शरीर से संबंधित फ़ैसले लेने का अधिकार है। इन फ़ैसलों में गर्भ धारण, गर्भपात और गर्भ से संबंधित दूसरे फ़ैसले लेने में विकल्प चुनना शामिल है। एक तरफ यह बात महिलाओं के पक्ष में जाती दिखती है, लेकिन यहीं सुप्रीम कोर्ट ने एक परेशान करने वाला प्रतिवाद (कैवीट) भी लगा दिया। कोर्ट के मुताबिक़, महिलाओं के इन अधिकारों का आने वाले बच्चे (गर्भ में मौजूद भ्रूण) के अधिकारों के साथ संतुलन होना चाहिए। इसे कोर्ट ने "बाध्यकारी राज्य हित" बताया। दूसरे शब्दों में कहें तो "प्रेगनेंसी एक्ट (MTPA), 1971" में जो शर्तें हैं, उन्हें महिला के गर्भपात करने के अधिकार पर युक्तियुक्त प्रतिबंधों की तरह देखा जाना चाहिए।

MPTA में जो शर्तें हैं, वे मनमाफ़िक हैं। यह शर्तें डॉक्टर की सुरक्षा को गर्भवती महिला के ऊपर रखती हैं। इसकी कई वज़ह हैं, जैसे महिला की सामाजिक, आर्थिक और व्यक्तिगत स्थिति से अनजान एक चिकित्सक को ही यह तय करना होता है कि महिला अपने गर्भवती होने के कार्यकाल को पूरा कर पाएगी या नहीं; इसलिए चिकित्सकीय सलाह (डॉक्टर या पंजीकृत मेडिकल प्रैक्टिसनर की) को महिला द्वारा अपने विवेक से "गर्भपात करने के अधिकार" पर वरीयता दी गई है। कानून के मनमाफ़िक होने का एक उदाहरण यह भी है कि गर्भपात करने का अधिकार उन्हीं महिलाओं को है, जिनका गर्भधारण उनकी शादी के बाहर हुआ है। हालांकि "MTPA(संशोधन) विधेयक, 2020" में इसमें बदलाव प्रस्तावित है, जिसमें अब विवाहित महिलाओं और अविवाहित महिलाओं के अधिकार समान होंगे।

पिछले साल राजस्थान हाईकोर्ट ने रेप के चलते गर्भवती हुई एक महिला को MTPA, 1971 में उल्लेखित "20 हफ़्तों" की अवधि के बाद भी गर्भपात करने का अधिकार दिया था। (2020 के संशोधित विधेयक में कुछ विशेष स्थितियों में दो डॉक्टरों की अनुमति से 24 हफ़्ते तक और मेडिकल बोर्ड की अनुमति से 24 हफ़्ते से भी ज़्यादा के भ्रूण का गर्भपात करने की अनुमति देने का प्रस्ताव है।)

"राजस्थान बनाम् S" के मामले में राजस्थान हाईकोर्ट ने रेप पीड़िता को 20 हफ़्ते गुजर जाने के बाद भी गर्भपात करने के अधिकार को मान्यता दी। इस फ़ैसले को सही तरीके से प्रगतिशील माना गया था। 

कोर्ट ने कहा था, ".... (रेप) पीड़िता के "जीवन के अधिकार" का उल्लंघन गर्भ में मौजूद बच्चे के जीवन के अधिकार से कहीं ज़्यादा भारी है।"

इस मामले में अवयस्क लड़की S का रेप हुआ था, जिसके चलते वह गर्भवती हो गई थी। जिला अस्पताल और जिला न्यायालय ने उसे गर्भपात कराने की अनुमति देने से इंकार कर दिया था। जिला न्यायालय का कहना था कि लड़की MTPA, 1971 में दी गई 20 हफ़्तों की अवधि पार कर चुकी है, जिसके बाद भ्रूण को नहीं गिराया जा सकता। इसके बाद पीड़िता ने राजस्थान हाईकोर्ट में अपील दायर की थी और अनुच्छेद 21 में प्रदत्त "शरीर की स्वायत्ता और व्यक्तिगत आज़ादी" के अधिकार के पालन की अनुमति मांगी थी। एक जज वाली बेंच ने लड़की की अपील को ख़ारिज कर दिया था। इसके लिए बेंच ने "भ्रूण के जीवन को सुरक्षित रखने" की जरूरत को आधार बताया था। लेकिन हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच ने इस फ़ैसले को पलट दिया और लड़की के स्वायत्ता अधिकार को मान्यता दी।

कोर्ट ने कहा था, ".... (रेप) पीड़िता के जीवन के मौलिक अधिकार का उल्लंघन गर्भ में मौजूद बच्चे के जीवन के अधिकार से कहीं ज़्यादा भारी है।" कोर्ट ने यह भी दोहराया कि "किसी अवयस्क रेप पीड़िता का भ्रूण गिराने का फ़ैसला, गर्भ में मौजूद बच्चे के 'जन्म लेने के अधिकार' से बहुत भारी तब भी रहेगा, जब गर्भ उन्नत चरण में पहुंच चुका हो।"

दुर्भाग्य से जब यह फ़ैसला आया, तब तक S बच्चे को जन्म दे चुकी थी। कोर्ट ने निर्देश दिया कि बच्चे को "किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2015" के तहत सुरक्षा दी जाए। इस तरह राजस्थान हाईकोर्ट ने वह स्थिति पलट दी, जिसमें गर्भवती महिलाओं के अधिकार को भ्रूण के अधिकार के साथ संतुलित किया गया था और फैसले से महिलाओं के अधिकार को प्राथमिकता मिली। भ्रूण के अधिकारों पर केंद्रित पुराने फ़ैसलों की तुलना में महिलाओं के अधिकार को वरीयता देने वाले इस फ़ैसले की प्रशंसा करनी चाहिए। लेकिन इसमें भी कुछ दिक्कतें हैं।

यह सच है कि कोर्ट सिर्फ़ अपने सामने पेश मामले पर ही फ़ैसला ले सकता है। लेकिन फिर भी अगर इस फ़ैसले का गलत तरीके से, गर्भपात अवधि (MTPA कानून के हिसाब से) को पार कर चुकी महिलाओं को गर्भपात करने की अनुमति ना देने के लिए होने लगा, तो इससे एक ख़तरनाक परंपरा की शुरुआत हो जाएगी।

पहली बात, कोर्ट ने अपने फ़ैसले के लिए एक आधार "सामाजिक लांछन" को बताया। कोर्ट ने कहा कि अगर S "बिन ब्याही मां" बन जाती है, तो उस पर सामाजिक लांछन लगेगा। यहां सुनवाई गलत दिशा में केंद्रित थी। यहां पितृसत्तात्मक समाज और उसकी महिलाओं के बारे में धारणा को नज़रिया बनाया जा रहा है। यहां पुरुष समाज के नज़रिए को भ्रूण धारण करने वाली महिला के "चुनाव के अधिकार" पर वरीयता दी जा रही है। राजस्थान हाईकोर्ट के फ़ैसले से महिलाओं को जो नतीज़े मिले, वो उनके पक्ष में हैं। लेकिन यह भी जरूरी है कि जो कारण दिए जाएं, उनसे फर्जी सामाजिक नियमों को बल ना मिले, ऐसे नियम जो महिलाओं की स्वायत्ता को रोकने का काम करते हैं।

दूसरी बात, कोर्ट ने माना है कि रेप की स्थिति में अगर भ्रूण उन्नत चरण में भी हो तब भी गर्भपात की अनुमति दी जा सकती है। इससे एक रेप पीड़िता को अपने अधिकार के क्रियान्वयन का रास्ता मिलता है। लेकिन इससे एक सवाल भी खड़ा होता है। जिन महिलाओं का रेप नहीं हुआ, अगर वो गर्भपात करवाना चाहती हैं, तब क्या? अगर दो लोगों के बीच सहमति से बनाए संबंधों से अनैच्छिक गर्भधारण हो जाता है, तब क्या? आखिर क्यों ऐसे लोग गर्भधारण के उन्नत चरण में गर्भपात नहीं करवा सकते? यह सच है कि कोर्ट सिर्फ़ अपने सामने पेश मामले पर ही फ़ैसला ले सकता है। लेकिन फिर भी अगर इस फ़ैसले का अगर गलत तरीके से, कानूनी गर्भपात अवधि को पार कर चुकी महिलाओं को गर्भपात की अनुमति ना देने के लिए होने लगा, तो इससे एक ख़तरनाक परंपरा की शुरुआत हो जाएगी।

यह सच है कि रेप के चलते गर्भवती हुई महिलाओं के अनुभव की तुलना सहमति से बने यौन संबंधों से गर्भवती हुई महिलाओं से नहीं की जा सकती। इसके बावजूद दोनों वर्गों की महिलाओं को उपलब्ध विकल्प एक जैसे होने चाहिए। इसमें कोई शक नहीं है कि रेप से गर्भधारण वाली स्थिति व्यक्तियों का एक अलग वैधानिक वर्ग बनाती है। लेकिन यह भी सच है कि सभी व्यक्तियों के पास अपने शरीर की स्वायत्ता का अधिकार होता है।

MTPA में लगाई गई तथाकथित युक्तियुक्त बाधाएं महिलाओं के पक्ष में नहीं हैं।

अंत में इतना ही कि इस फ़ैसले से तय हुआ है कि रेप का शिकार हुई महिलाओं को अनचाहे गर्भ के साथ नहीं रहना पड़ेगा। MTPA में लगाई गई तथाकथित युक्तियुक्त बाधाएं महिलाओं के पक्ष में नहीं हैं। यह फ़ैसला कुछ सांस्थानिक और ढांचागत उत्पीड़नों को ख़त्म करता है। लेकिन यह समग्र तौर पर इनका नाश नहीं करता। इस फ़ैसले को महिलाओं के अधिकारों को मान्यता देने वाले भविष्य के कानूनी फ़ैसलों की राह तैयार करने वाले फ़ैसला के तौर पर देखना सही रहेगा।

यह लेख मूलत: द लीफ़लेट में प्रकाशित हुआ था।

ऐश्वर्या रामकुमार जिंदल लॉ स्कूल में क़ानून की छात्रा हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

A Progressive Ruling on Right to Abort, Yet Fear of Stigma Lurks

Medical Termination of Pregnancy Act
Medical Termination of Pregnancy Act 1971
Supreme Court
Indian judiciary
gender justice

Related Stories

ज्ञानवापी मस्जिद के ख़िलाफ़ दाख़िल सभी याचिकाएं एक दूसरे की कॉपी-पेस्ट!

सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक आदेश : सेक्स वर्कर्स भी सम्मान की हकदार, सेक्स वर्क भी एक पेशा

एक्सप्लेनर: क्या है संविधान का अनुच्छेद 142, उसके दायरे और सीमाएं, जिसके तहत पेरारिवलन रिहा हुआ

राज्यपाल प्रतीकात्मक है, राज्य सरकार वास्तविकता है: उच्चतम न्यायालय

राजीव गांधी हत्याकांड: सुप्रीम कोर्ट ने दोषी पेरारिवलन की रिहाई का आदेश दिया

मैरिटल रेप : दिल्ली हाई कोर्ट के बंटे हुए फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती, क्या अब ख़त्म होगा न्याय का इंतज़ार!

राजद्रोह पर सुप्रीम कोर्ट: घोर अंधकार में रौशनी की किरण

सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह मामलों की कार्यवाही पर लगाई रोक, नई FIR दर्ज नहीं करने का आदेश

क्या लिव-इन संबंधों पर न्यायिक स्पष्टता की कमी है?

अदालत ने वरवर राव की स्थायी जमानत दिए जाने संबंधी याचिका ख़ारिज की


बाकी खबरें

  • समीना खान
    ज़ैन अब्बास की मौत के साथ थम गया सवालों का एक सिलसिला भी
    16 May 2022
    14 मई 2022 डाक्टर ऑफ़ क्लीनिकल न्यूट्रीशन की पढ़ाई कर रहे डॉक्टर ज़ैन अब्बास ने ख़ुदकुशी कर ली। अपनी मौत से पहले ज़ैन कमरे की दीवार पर बस इतना लिख जाते हैं- ''आज की रात राक़िम की आख़िरी रात है। " (राक़िम-…
  • लाल बहादुर सिंह
    शिक्षा को बचाने की लड़ाई हमारी युवापीढ़ी और लोकतंत्र को बचाने की लड़ाई का ज़रूरी मोर्चा
    16 May 2022
    इस दिशा में 27 मई को सभी वाम-लोकतांत्रिक छात्र-युवा-शिक्षक संगठनों के संयुक्त मंच AIFRTE की ओर से दिल्ली में राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर आयोजित कन्वेंशन स्वागत योग्य पहल है।
  • आज का कार्टून
    कार्टून क्लिक: किसानों की दुर्दशा बताने को क्या अब भी फ़िल्म की ज़रूरत है!
    16 May 2022
    फ़िल्म सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष प्रसून जोशी का कहना है कि ऐसा माहौल बनाना चाहिए कि किसान का बेटा भी एक फिल्म बना सके।
  • वर्षा सिंह
    उत्तराखंड: क्षमता से अधिक पर्यटक, हिमालयी पारिस्थितकीय के लिए ख़तरा!
    16 May 2022
    “किसी स्थान की वहनीय क्षमता (carrying capacity) को समझना अनिवार्य है। चाहे चार धाम हो या मसूरी-नैनीताल जैसे पर्यटन स्थल। हमें इन जगहों की वहनीय क्षमता के लिहाज से ही पर्यटन करना चाहिए”।
  • बादल सरोज
    कॉर्पोरेटी मुनाफ़े के यज्ञ कुंड में आहुति देते 'मनु' के हाथों स्वाहा होते आदिवासी
    16 May 2022
    2 और 3 मई की दरमियानी रात मध्य प्रदेश के सिवनी ज़िले के गाँव सिमरिया में जो हुआ वह भयानक था। बाहर से गाड़ियों में लदकर पहुंचे बजरंग दल और राम सेना के गुंडा गिरोह ने पहले घर में सोते हुए आदिवासी धनसा…
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License