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भारतीय अर्थव्यवस्था की मंदी दूर कर सकती है कृषि
देश की अर्थव्यवस्था में यदि कृषि उत्पाद आधारित उद्योगों के योगदान को सही तरीके से प्रदर्शित किया जाए तो साफ हो जाएगा कि खेती में किस तरह की संभावनाएं विद्यमान हैं।
राकेश सिंह
05 Jan 2020
kisan khet
प्रतीकात्मक तस्वीर, साभार : आउटलुक 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आर्थिक सलाहकार रह चुके अरविंद सुब्रमण्यन का मानना है कि भारतीय अर्थव्यवस्था बहुत गहरी आर्थिक मंदी की चपेट में पहुंच गई है। सुब्रमण्यम के अलावा कई अन्य आर्थिक विशेषज्ञों ने भी इस बात की चेतावनी दी है। यह स्थिति ऐसे समय में आई है जब केंद्र सरकार देश को 5 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने को लेकर बहुत उत्साहित है। भारत की अर्थव्यवस्था का आकार इस समय 2.7 ट्रिलियन (खरब) डॉलर के आसपास है और इसे 2025 तक कैसे दुगना किया जाएगा, यह देखने वाली बात होगी।

हाल ही में उद्योग जगत को 1.47 लाख करोड़ रुपये की कर राहत दी गई है। लेकिन इस रकम से भी निवेश और रोजगार बढ़ने की कोई उम्मीद नहीं है। उद्योग जगत यह सारा पैसा पचा जाएगा और अपनी बैलेंस शीट में मुनाफा दिखाने और अपने शेयरों के दाम बढ़ाने के काम में लग जाएगा। 

आम जनता और बेरोजगारों तक इस कर छूट की राहत का एक पैसा भी पहुंचने वाला नहीं है। 2008 में वैश्विक आर्थिक मंदी शुरू होने के बाद से ही उद्योग जगत सालाना औसत रूप से 1.8 लाख करोड़ रुपये का बेल आउट पैकेज हासिल करता रहता है। इस तरह पिछले 10 सालों में ही उद्योग जगत18 लाख करोड़ रुपये का बेलआउट पैकेज ले चुका है।

इसके विपरीत भारतीय रिज़र्व बैंक की एक रिपोर्ट का कहना है कि 2011-12 और 2016-17 के बीच कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक क्षेत्र का निवेश जीडीपी का 0.3 से 0.4 प्रतिशत रह गया है। खेती में निवेश का यही अभाव उसकी खराब हालत का कारण है। इससे साफ है कि इन वर्षों में देश के सबसे बड़े रोजगार देने वाले क्षेत्र की किस तरह से उपेक्षा की गई है। कृषि के योगदान में अक्सर कृषि उत्पादों पर आधारित उद्योगों की अनदेखी कर दी जाती है।

चीनी उद्योग, सूती वस्त्र उद्योग, चमड़ा उद्योग, खाद्य प्रसंस्करण उद्योग, जूट उद्योग, चाय, कॉफी, रबड़, पोल्ट्री और डेयरी जैसे उद्योगों में काफी अधिक लोगों को रोजगार मिलता है। देश की अर्थव्यवस्था में यदि कृषि उत्पाद आधारित उद्योगों के योगदान को सही तरीके से प्रदर्शित किया जाए तो साफ हो जाएगा कि खेती में किस तरह की संभावनाएं विद्यमान हैं।

सरकारी योजनाएं किस तरह से काम करती हैं, इसका सबसे बड़ा उदाहरण प्याज की बढ़ती कीमतें हैं। इस साल मानसून ज्यादा देर तक ठहरा और ज्यादा बारिश भी हुई। इसके कारण देश के जिन इलाकों में खरीफ के मौसम में प्याज की खेती की जाती है, वह फसल खराब हो गई।

सरकार ने टॉप (टोमेटो, ओनियन, पोटैटो) योजना की घोषणा धूमधाम से की थी। इसके तहत आलू, टमाटर और प्याज के भंडारण और व्यापार के लिए पूरे देश में 24 क्लस्टर बनाने की योजना थी। लेकिन अब साफ है कि टॉप योजना बॉटम तक नहीं पहुंच सकी है। कोल्ड स्टोरों और भंडारण सुविधाओं के अभाव में देश के उपभोक्ताओं को प्याज की महंगी कीमत चुकानी पड़ रही है। जबकि कोल्ड स्टोरों और भंडारण सुविधाओं के अभाव में किसानों की फल और सब्जियों की 20 फीसद उपज बर्बाद हो जाती है।

खेती के अलाभदायक होने के लिए भारत में जोतों की छोटे आकार को अक्सर जिम्मेदार ठहराया जाता है। सिंचाई और कम उत्पादन का भी अक्सर हवाला दिया जाता है। अगर इन बातों पर थोड़ा गंभीर रूप से विचार किया जाए तो ये दावे खोखले नजर आते हैं। कृषि जनगणना 2015-16 के हिसाब से भारत में औसत जोत का आकार 1.08 हेक्टेयर है। एक हेक्टेयर से लेकर 2 हेक्टेयर तक के स्वामित्व वाले किसानों का प्रतिशत 86.21 है।

जबकि अमेरिका में औसत जोत का आकार 444 एकड़ और ऑस्ट्रेलिया में औसत जोत का आकार 4,331 हेक्टेयर है। इसके बावजूद वहां के किसान आर्थिक दबाव का सामना कर रहे हैं। अनुमान है कि अमेरिका में कृषि क़र्ज़ 2019 में करीब 416 अरब डॉलर हो चुका है जो कि 1980 के बाद सबसे ज्यादा है। यह उदाहरण एक ऐसे देश का है जो खेती में सबसे ज्यादा उन्नत तकनीकों का प्रयोग करता है और वहां कृषि में उत्पादन भी ज्यादा है। अमेरिका में दुनिया का सबसे बड़ा कमोडिटी ट्रेडिंग सेंटर शिकागो मर्केंटाइल एक्सचेंज है और वहां के किसानों को इससे शायद ही कोई फायदा होता है।

हमारे देश में पंजाब का सिंचित क्षेत्रफल करीब शत-प्रतिशत है और पंजाब की फसल उपज भी विश्व में धान और गेहूं की सर्वाधिक उपज के करीब-करीब बराबर ही है। इसके बावजूद पंजाब के किसान भारी क़र्ज़ से दबे हुए हैं और वहां की खेती के हालत निरंतर बद से बदतर होती जा रही है। कभी भारत के खाद्यान्न की सुरक्षा सुनिश्चित करने वाले पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों का खेती से मोहभंग होता जा रहा है। इससे साफ है कि समस्या कहीं और है।

उदारीकरण के दौर में अर्थव्यवस्था के मॉडल को इस तरह से डिजाइन किया गया है कि शहर आधारित उद्योगों और सेवाओं के विकास को ज्यादा प्राथमिकता और सुविधाएं दी जा सकें। एक तरफ तो जीडीपी की 8% वृद्धि को भी दहाई अंकों में पहुंचाने की बात की जाती है तो दूसरी तरफ कृषि के बारे में कहा जाता है कि खेती में तो केवल 2.6 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर ही देश के लोगों को खाद्यान्न सुरक्षा देने के लिए पर्याप्त है। खेती में बहुत ज्यादा निवेश करने की जरूरत नहीं है।

खेती में पहले से ही लोगों की अधिकता है। कृषि कार्यों में लगे आधे लोगों को शहरों में पहुंचाने की स्थिति बनाने के उपाय किये जा रहे हैं। जिससे वे उद्योगों के लिए सस्ते श्रमिक बन सकें। खाद्यान्न सुरक्षा के लिहाज से तो देश के केवल 2 या 3 राज्य ही पूरे देश की गेहूं की और चावल की मांग को पूरा कर देते हैं। इन राज्यों के किसानों को ही न्यूनतम समर्थन मूल्य का ज्यादा लाभ भी मिलता है। जिस न्यूनतम समर्थन मूल्य का बहुत प्रचार किया जाता है, देश के 94% किसान तो उससे भी वंचित हैं।

खेती के उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की गणना में कई गंभीर खामियां हैं। पूरे देश की सस्ते मूल्य पर खाद्य सुरक्षा उपलब्ध कराने का भार किसानों के ऊपर डाल दिया गया है। डॉ. स्वामीनाथन आयोग ने C2 लागत के आधार पर एमएसपी तय करने की सिफारिश की थी। केंद्र सरकारऔर उसके नीति नियंताओं का मानना है कि इससे खाद्यान्नों की कीमतें गरीबों की पहुंच से बाहर हो जाएंगी।

गरीबों की आड़ में किसानों को लाभप्रद मूल्य देने से इंकार करना एक छलावा है, क्योंकि गरीबों को तो 2 रुपये किलो गेहूं और 3 रुपये किलो चावल सरकार दे ही रही है। दरअसल खाद्यान्नों की ज्यादा कीमतों का असर निम्न मध्यम वर्ग की छोटी बचतों पर पड़ेगा। ये बचतें भारतीय बैंकिंग व्यवस्था की रीढ़ हैं। बैंकों में यही जमा धन उद्योगों और व्यापारिक क्षेत्र में ऋण की उपलब्धता को आसान बनाता है। केवल 2007 के बाद से ही बैंकों ने निजी क्षेत्र के उद्यमों को 12 लाख करोड़ रुपये के ऐसे कर्ज दिए हैं, जिनकी वापसी की अब शायद ही कोई संभावना है।

भारत की आर्थिक मंदी वैश्विक अर्थव्यवस्था में आई मंदी का विस्तार नहीं है, जैसा कि तमाम पश्चिमी आर्थिक मॉडलों के जानकार अर्थशास्त्रियों द्वारा सामूहिक रूप से बताई जा रहा है। भारतीय मंदी का सबसे बड़ा और मुख्य कारण घरेलू मांग में आई गिरावट है। भारत की अर्थव्यवस्था 135 करोड़ लोगों की मांग पर चलती रही है और वृद्धि भी करती रही है। केंद्र सरकार ने रिजर्व बैंक से 1.76 लाख करोड़ रुपये का रिजर्व फंड हासिल किया है। अब उद्योग जगत की नजर उस धन पर भी है। यदि सरकार भारत को आर्थिक मंदी से बाहर निकालना चाहती है तो इस पैसे को ग्रामीण गरीबों तक पहुंचाना ही एकमात्र सबसे बड़ा उपाय है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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