NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
विज्ञापन में फ़ायदा पहुंचाने का एल्गोरिदम : फ़ेसबुक ने विपक्षियों की तुलना में "बीजेपी से लिए कम पैसे"  
रिपोर्ट्स में पता चला है कि 2019-2020 में हुए दस चुनावों में से नौ में बीजेपी को कांग्रेस की तुलना में विज्ञापनों के लिए फ़ेसबुक पर 29 फ़ीसदी कम कीमत चुकानी पड़ी थी।
न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
18 Mar 2022
fb

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी को बेहद बड़ा और गलत फायदा देते हए मार्क जुकरबर्ग की फ़ेसबुक ने फरवरी 2019 से नवंबर 2020 के बीच बीजेपी के विज्ञापन, कांग्रेस की तुलना में 29 फ़ीसदी कम कीमत पर चलाए। इससे बीजेपी को दूसरी पार्टियों की तुलना में ज़्यादा व्यापक श्रोताओं तक पहुंचने का मौका मिला। 

द रिपोर्टर्स कलेक्टिव (टीआरसी) के कुमार संभव और एड.वॉच की नयनतारा रंगनाथन द्वारा साल भर तक की गई जांच के तीसरे हिस्से से पता चलता है कि फ़ेसबुक ने बीजेपी के एक विज्ञापन को औसत तौर पर दस लाख बार चलाया, लेकिन पार्टी, प्रत्याशी या बीजेपी से जुड़े संगठनों से सिर्फ़ एक विज्ञापन के औसत तौर पर 41,844 रुपये लिए। 

दूसरी तरफ रिपोर्ट से पता चला है कि फ़ेसबुक ने कांग्रेस, इसके प्रत्याशियों और इससे जुड़े संगठनों से एक विज्ञापन को बीजेपी के बराबर की संख्या में दिखाने के लिए 53,776 रुपये लिए।

बीजेपी को फ़ायदा

2019 के लोकसभा चुनावों से पहले ओडिशा, अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम और आंध्रप्रदेश में तीन महीने चले चुनावी अभियान में दस लाख बार दिखाए जाने वाले एक विज्ञापन के लिए बीजेपी और इसके प्रत्याशियों से 61,584 रुपये लिए गए, जबकि कांग्रेस ने इसके 66,250 रुपये चुकाए। फ़ेसबुक ने बीजेपी को हरियाणा और झारखंड चुनाव में भी उस साल ऐसा ही फायदा पहुंचाया था। 

2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने एक विज्ञापन के लिए सबसे ज़्यादा 64,174 रुपये चुकाए, जबकि कांग्रेस ने 39,909 रुपये और बीजेपी ने सबसे कम 35,595 रुपये चुकाए। 

जांच के मुताबिक़, इसी तरह 2020 के बिहार चुनाव में बीजेपी की क्षेत्रीय साथी जनता दल (यूनाइटेड) ने एक विज्ञापन के लिए सबसे ज़्यादा 66,704 रुपये प्रति दस लाख व्यूज़ के हिसाब से रकम अदा की। जबकि कांग्रेस ने इसके लिए 45,207 रुपये और बीजेपी ने सबसे कम 37,285 रुपये चुकाए। 

जांच में शामिल दस चुनावों में से सिर्फ़ एक बार कांग्रेस को बीजेपी से बेहतर समझौता मिला। महाराष्ट्र चुनाव में कांग्रेस ने प्रति दस लाख रुपये के लिए 38,124 रुपये और बीजेपी ने 43,482 रुपये चुकाए। 

जांच के पहले हिस्से में गया कि फ़ेसबुक ने रिलायंस जियो से वित्त पोषित NEWJ (न्यू इमर्जिंग वर्ल्ड ऑफ़ जर्नलिज़्म) से बीजेपी का प्रचार और विपक्षियों का दुष्प्रचार करने के लिए अप्रत्यक्ष ढंग से 718 सरोगेट विज्ञापन लिए, जिनकी कीमत 52 लाख रुपये थी, जिन्हें 22 महीनों में 29 करोड़ से ज़्यादा बार देखा गया था। 

जांच के दूसरे हिस्से में पाया गया कि बीजेपी का प्रचार और विपक्ष के बारे में दुष्प्रचार करने के लिए कम से कम 23 बेनामी और सरोगेट विज्ञापनदाताओं ने 34,884 विज्ञापनों पर 5 करोड़ 80 लाख रुपये खर्च किए। 22 महीनों में दिल्ली, ओडिशा, महाराष्ट्र, बिहार और हरियाणा समेत 10 चुनावों के दौरान चलाए गए इन विज्ञापनों पर एक अरब 31 करोड़ व्यूज़ आए। 

दोनों ही रिपोर्ट फ़ेसबुक पर प्रकाशित 5,36,070 राजनीतिक विज्ञापनों के विश्लेषण के बाद लिखी गईं। इनके लिए फ़ेसबुक के "ऐड लाइब्रेरी एप्लीकेशन प्रोग्रामिंग इंटरफ़ेस" का इस्तेमाल कर आंकड़े जुटाए गए थे। टीआरसी और एड.वॉच द्वारा लिखी गई यह रिपोर्ट अल जजीरा पर प्रकाशित हुई हैं। 

बीजेपी और उससे संबंधित संगठनोनं ने 22 महीने की इस अवधि में 10 करोड़ रुपये की बड़ी रकम फ़ेसबुक पर विज्ञापन देने में खर्च की। जबकि कांग्रेस और इससे संबंधित संगठनों ने इस अवधि में 6 करोड़ रुपये फ़ेसबुक को चुकाए। जांच के तीसरे हिस्से से पता चला है कि बीजेपी ने कांग्रेस की कीमतों के हिसाब से, विज्ञापनों की एक निश्चित संख्या के लिए फ़ेसबुक को एक करोड़ रुपये कम चुकाए हैं। 

बेनाम और सरोगेट विज्ञापनदाताओं द्वारा बीजेपी का प्रचार करने और विपक्ष का दुष्प्रचार करने के चलते बीजेपी को फ़ेसबुक द्वारा दिया गया लाभ, विपक्षियों की तुलना में और भी ज़्यादा बड़ा हो जाता है। औसत तौर पर फ़ेसबुक ने एक बीजेपी प्रायोजक से दस लाख व्यूज़ के लिए 39,552 रुपये लिए। जबकि कांग्रेस से इसके लिए 52,150 रुपये लिए गए, जो 32 फ़ीसदी ज़्यादा है। 

फ़ेसबुक द्वारा कीमत की गणना करने का एल्गोरिदम

फ़ेसबुक के स्वामित्व वाली कंपनी मेटा प्लेटफॉर्म विज्ञापनों के लिए अलग-अलग कीमतें लेती है। यह कीमतें एक निश्चित वक़्त पर फ़ेसबुक पर इससे जुड़े दूसरे प्लेटफ़ॉर्म की न्यूज़फीड की नीलामी से तय होता है। फ़ेसबुक का अपारदर्शी एल्गोरिदम किसी विज्ञापन की कीमत और यह विज्ञापन कितनी बार दिखाया जाएगा, यह तय करता है। यह कीमत लक्षित दर्शक वर्ग और उनके लिए इस विज्ञापन की अहमियत से तय होती है। 

टीआरसी और एड.वॉच द्वारा विज्ञापनों पर पैसे खर्च करने और इन विज्ञापनों को कितनी बार देखा गया, इसका विश्लेषण करने पर पता चलता है कि बीजेपी को अपने विरोधियों की तुलना में दस में से नौ बार ज़्यादा बेहतर करार फ़ेसबुक की तरफ़ से दिया गया। 

फ़ेसबुक ने 2020 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में जो बाइडेन की तुलना में डोनाल्ड ट्रंप को इसी तरीके का फायदा दिया था। न्यूयॉर्क टाइम्स ऐड ऑब्ज़र्वेटरी द्वारा एपीआई आंकड़ों के ऐसे ही विश्लेषण से पचा चला था कि ट्रंप के चुनावी अभियान को कम दरों पर विज्ञापन का भुगतान करना पड़ा था। 

ऐड ऑब्ज़र्वेटरी की मुख्य शोधार्थी लाउरा ऐडलसन कहती हैं, "यह खुलासे राजनीतिक विज्ञापन कीमत निर्धारण में बड़ी असमानताओं को दिखाते हैं, जिसका अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों और प्रत्याशियों के जनता तक संदेश पहुंचाने की क्षमता पर गंभीर असर पड़ता है।" इन खुलासों पर चिंता जताते हुए लाउरा ने कहा कि फ़ेसबुक को राजनीतिक भाषणबाजी के लिए समान ज़मीन सबको उपलब्ध करवानी चाहिए।

अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों से विज्ञापन की दर में बड़ा अंतर होने (जिसमें बीजेपी को फायदा दिया गया) से जुड़े सवालों का जवाब देने से मेटा ने इंकार कर दिया। मेल पर भेज गए विस्तृत सवालों के जवाब में कंपनी ने सिर्फ़ इतना कहा कि "कंपनी की नीतियां किसी की राजनीतिक स्थिति या राजनीतिक दल से संबंधों से परे होकर लागू की जाती हैं। सामग्री के प्रचार को बढ़ाने का फ़ैसला सिर्फ़ एक व्यक्ति द्वारा नहीं लिया जाता है।"

चुनाव आयोग से नहीं आया कोई जवाब

प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में चुनाव आयोग किसी एक प्रत्याशी के पक्ष में बेनामी विज्ञापनों पर प्रतिबंध लगाता है। यहां तक कि किसी तीसरे पक्ष द्वारा किसी प्रत्याशी के पक्ष में किए गए प्रचार का पैसा भी संबंधित प्रत्याशी के खर्च में जोड़ा जाता है, भले ही उस तीसरे पक्ष का संबंधित प्रत्याशी से दूर-दूर तक कोई लेना ना हो। इसमें खबरों की आड़ में पैसा देकर किया गया प्रचार भी शामिल है।

लेकिन यह हैरान करने वाला है कि चुनाव आयोग डिजिटल प्लेटफॉर्म को ऐसे प्रतिबंधों से मुक्त करता है, जिनकी पहुंच इलेक्ट्रॉनिक या प्रिंट से कहीं ज़्यादा है। लगातार याद दिलाने के बावजूद चुनाव आयोग ने टीआरसी के सवालों का जवाब नहीं दिया। तकनीकी वकील और न्यूयॉर्क में फ्रीडम लॉ सेंटर में सॉफ्टवेयर की कानूनी निदेशक मिशी चौधरी कहती हैं, "चुनावी खर्च में शामिल कीमतों में बड़े स्तर के अंतर होने संबंधी आरोपों और उसके पक्ष में में दिए गए सबूत, ऐसा विषय हैं जिनकी चुनाव आयोग द्वारा जांच की जानी चाहिए और इस संबंध में मेटा के मिस्टर निक क्लेग और अन्य तकनीकी कंपनियों से गंभीर बातचीत होनी चाहिए (क्लेग ब्रिटेन के पूर्व उप प्रधानमंत्री हैं, जो अब मेटा में वैश्विक मामलों और संचार के उपाध्यक्ष हैं)। कोई भी आचार संहिता तभी काम की है, जब इसे सत्ता में रहने वाली पार्टी से निरपेक्ष होकर लागू किया जाए।"

सुप्रीम कोर्ट की चिंताएं

जुलाई 2021 में फ़ेसबुक इंडिया के प्रमुख अजीत मोहन ने दिल्ली विधानसभा की शांति और सौहार्द्र समिति द्वारा जारी किए गए समन को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। विधानसभा की यह समिति फरवरी, 2020 में हुए दंगों की जांच कर रही थी। तब सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा था, "सोशल मीडिया के ज़रिए होने वाली वाली छेड़खानी से चुनाव और मतदान प्रक्रिया, जो किसी भी लोकतांत्रिक सरकार का बुनियादी आधार हैं, वे खतरे में आ रहे हैं।"

समिति इस संबंध में जांच कर रही थी कि दंगों के पहले फ़ेसबुक का इस्तेमाल नफ़रत फैलान के लिए किया गया था। 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव को प्रभावित करने में फ़ेसबुक के इस्तेमाल को देखते हुए, कोर्ट ने समिति के सामने पेश ना होने की फ़ेसबुक की अपील खारिज़ कर दी थी। कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा था, "सोशल मीडिया के ज़रिए होने वाली छेड़खानी ने फ़ेसबुक जैसे मंचों के हाथों में संक्रेदित होती शक्ति पर अहम विमर्श को ज़न्म दिया है। ऊपर से इनका व्यापार ढांचा ऐसा है, जो निजता का हनन करता है, इस पर ध्यान देने की जरूरत है।" 

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Algorithm of Ad Advantage: Facebook ‘Charged BJP Less’ Than Rivals

Narendra modi
BJP
Facebook
Lok Sabha Elections
General elections
Parliamentary elections
Assembly elections
Political advertisements
Meta
Mark Zuckerberg
instagram
Congress
Rahul Gandhi
Supreme Court
Delhi
Odisha
Maharashtra Politics
Bihar and Haryana
API
algorithm
ECI
election commission

Related Stories

भाजपा के इस्लामोफ़ोबिया ने भारत को कहां पहुंचा दिया?

कश्मीर में हिंसा का दौर: कुछ ज़रूरी सवाल

ज्ञानवापी मस्जिद के ख़िलाफ़ दाख़िल सभी याचिकाएं एक दूसरे की कॉपी-पेस्ट!

सम्राट पृथ्वीराज: संघ द्वारा इतिहास के साथ खिलवाड़ की एक और कोशिश

तिरछी नज़र: सरकार जी के आठ वर्ष

कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित

हैदराबाद : मर्सिडीज़ गैंगरेप को क्या राजनीतिक कारणों से दबाया जा रहा है?

ग्राउंड रिपोर्टः पीएम मोदी का ‘क्योटो’, जहां कब्रिस्तान में सिसक रहीं कई फटेहाल ज़िंदगियां

धारा 370 को हटाना : केंद्र की रणनीति हर बार उल्टी पड़ती रहती है

मोहन भागवत का बयान, कश्मीर में जारी हमले और आर्यन खान को क्लीनचिट


बाकी खबरें

  • भाषा
    श्रीलंका में हिंसा में अब तक आठ लोगों की मौत, महिंदा राजपक्षे की गिरफ़्तारी की मांग तेज़
    10 May 2022
    विपक्ष ने महिंदा राजपक्षे पर शांतिपूर्ण ढंग से प्रदर्शन कर रहे लोगों पर हमला करने के लिए सत्तारूढ़ दल के कार्यकर्ताओं और समर्थकों को उकसाने का आरोप लगाया है।
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    दिवंगत फोटो पत्रकार दानिश सिद्दीकी को दूसरी बार मिला ''द पुलित्ज़र प्राइज़''
    10 May 2022
    अपनी बेहतरीन फोटो पत्रकारिता के लिए पहचान रखने वाले दिवंगत पत्रकार दानिश सिद्दीकी और उनके सहयोगियों को ''द पुल्तिज़र प्राइज़'' से सम्मानित किया गया है।
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    लखीमपुर खीरी हत्याकांड: आशीष मिश्रा के साथियों की ज़मानत ख़ारिज, मंत्री टेनी के आचरण पर कोर्ट की तीखी टिप्पणी
    10 May 2022
    केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्र टेनी के आचरण पर तीखी टिप्पणी करते हुए कहा है कि यदि वे इस घटना से पहले भड़काऊ भाषण न देते तो यह घटना नहीं होती और यह जघन्य हत्याकांड टल सकता था।
  • विजय विनीत
    पानी को तरसता बुंदेलखंडः कपसा गांव में प्यास की गवाही दे रहे ढाई हजार चेहरे, सूख रहे इकलौते कुएं से कैसे बुझेगी प्यास?
    10 May 2022
    ग्राउंड रिपोर्टः ''पानी की सही कीमत जानना हो तो हमीरपुर के कपसा गांव के लोगों से कोई भी मिल सकता है। हर सरकार ने यहां पानी की तरह पैसा बहाया, फिर भी लोगों की प्यास नहीं बुझ पाई।''
  • लाल बहादुर सिंह
    साझी विरासत-साझी लड़ाई: 1857 को आज सही सन्दर्भ में याद रखना बेहद ज़रूरी
    10 May 2022
    आज़ादी की यह पहली लड़ाई जिन मूल्यों और आदर्शों की बुनियाद पर लड़ी गयी थी, वे अभूतपूर्व संकट की मौजूदा घड़ी में हमारे लिए प्रकाश-स्तम्भ की तरह हैं। आज जो कारपोरेट-साम्प्रदायिक फासीवादी निज़ाम हमारे देश में…
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License