NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
घटना-दुर्घटना
भारत
राजनीति
कितनी नीलम...कितनी सुधा...? : यूपी के बाद उत्तराखंड में इलाज न मिलने पर मारी गई एक मां
लापरवाही से व्यवस्थागत कमियों तक उत्तराखंड की महिलाएं जो बच्चे को जन्म देना चाहती हैं और सरकारी व्यवस्था के भरोसे हैं तो उनका हश्र सुधा और उन तमाम महिलाओं की तरह हो सकता है जो जन्म देने की दुश्वारियों के चलते नहीं मरीं, बल्कि अस्पताल और चिकित्सीय सहायता उपलब्ध न होने की वजह से मारी गईं।
वर्षा सिंह
15 Jun 2020
उत्तराखंड में इलाज न मिलने पर मारी गई एक मां

तीन साल की बच्ची और दो साल के बच्चे की ज़िंदगी अब बेहद कठोर परिस्थितियों में गुजरेगी। उनकी मां बच सकती थी यदि समय पर अस्पताल पहुंच जाती। यूपी के ग़ाज़ियाबाद-नोएडा जैसी घटना उत्तराखंड में भी दोहराई गई है। उत्तराखंड की राजधानी कहलाने वाले देहरादून के पांच बड़े अस्पतालों ने उसे दाखिला नहीं दिया। सुबह आठ से एंबुलेंस में भटकते-भटकते शाम चार बजे अस्पताल के बिस्तर पर पहुंची। तब तक उसकी हिम्मत जवाब दे चुकी थी। डॉक्टरों के पास सिर्फ उसकी मौत का पर्चा बनाने का काम बचा था।

दो नन्हे बच्चों के साथ कमलेश सैनी.jpeg

ये सिर्फ एक घटना नहीं है। ऐसा बार-बार होता है। मई महीने में चमोली से श्रीनगर अस्पताल की दूरी तय करते हुए, सही समय पर अस्पताल और डॉक्टर तक न पहुंच पाने, कोरोना के डर से अस्पताल के तुरंत एडमिट न करने, की वजह से एक स्त्री ने दम तोड़ा।

उत्तराखंड में बच्चे को जन्म देना दोहरा जानलेवा है। बच्चे को जन्म देने के लिए मां प्रसव पीड़ा सहती ही है। यहां ऐसे सैकड़ों गांव हैं जहां अस्पताल तक ले जाने वाली सड़क ही नहीं बनी। पहाड़ों में प्रसव पीड़ा सहती स्त्री डोली,कुर्सी, चारपायी पर टांग कर ले जायी जाती है। सड़क से कोसों दूर अस्पताल पहुंचती है तो डॉक्टर नहीं मिलते। डॉक्टर की तलाश में एक शहर से दूसरे शहर ले जायी जाती है। बच गई तो ठीक। सबकुछ किस्मत पर निर्भर करता है। व्यवस्था पर नहीं। लेकिन राज्य की राजधानी कहलाने वाले देहरादून में एक महिला और उसके दो जुड़वा बच्चे इसलिए मर गए क्योंकि अस्पताल उसे एडमिट करने को तैयार नहीं हुए। राज्य का स्वास्थ्य महकमा संभालने वाले मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत इस मामले की जांच कमेटी बिठाकर खानापूर्ति कर देते हैं। इसका जवाब तो मुख्यमंत्री को ही देना होगा। जिम्मेदारी उन्हें ही लेनी होगी।

इसी तरह की एक घटना बिल्कुल अभी उत्तर प्रदेश में भी घटी, जहां ग़ाज़ियाबाद की तीस वर्षीय गर्भवती महिला नीलम के परिजन करीब 13 घंटे नोएडा और ग़ाज़ियाबाद के कई अस्पतालों में उसे लेकर घूमते रहे, डॉक्टरों से मिन्नतें कीं लेकिन किसी अस्पताल ने महिला को भर्ती नहीं किया। आख़िरकार महिला ने एंबुलेंस में ही दम तोड़ दिया। नीलम की तरह सुधा की भी यही कहानी है।

इसे पढ़ें : यूपी: आख़िर क्यों 13 घंटे अस्पतालों के चक्कर लगाती गर्भवती को किसी ने भर्ती नहीं किया?

पांच अस्पतालों से लौटाई गई सुधा की अंतिम कहानी

अपनी पत्नी और दो नवजात जुड़वा बच्चों का अंतिम संस्कार करने के बाद कमलेश सैनी अपने दो नन्हे बच्चों को संभालने में जुटे हैं। बिहार के रहने वाला कमलेश यहां मज़दूरी कर गुज़ारा करते हैं। वह बताते हैं कि पत्नी सुधा की हालत बहुत खराब थी। आशा कार्यकर्ता ने भी उनकी मदद नहीं की, उलटा उनसे 1200 रुपये ले लिए और कोई दवा नहीं दी। कमलेश कहते हैं कि आशा का जवाब था कि जब तुम्हारे पास पैसे नहीं हैं तो इलाज कैसे कराओगे। मैं पैसे का इंतज़ाम कर लेता।

सुधा सात महीने की गर्भवती थी। 9 जून को उसे दर्द शुरू हुआ और गांधी शताब्दी अस्पताल ले जाया गया तो अस्पताल से ये कहकर लौटा दिया कि जब नौ महीने पूरे हो जाए तब आना। आशा कार्यकर्ता ने जांच के दौरान बताया था कि उसके शरीर में ख़ून की कमी थी। वह कमज़ोर थी। लेकिन उसे कोई दवा नहीं दी गई। 9 जून को सुधा ने जुड़वा बच्चों को जन्म दिया। उसमें से एक बच्चे की थोड़ी ही देर में मौत हो गई। घरवाले बताते हैं कि बच्चों को जन्म देने के बाद भी सुधा स्वस्थ थी। दूसरा बच्चा भी ठीक लग रहा था। लेकिन उन्हें चिकित्सीय सहायता की जरूरत थी। जो नहीं मिल सकी। लेकिन 10 जून की रात में सुधा की तबीयत बिगड़ने लगी। उसे पैर में दर्द की शिकायत थी।

11 जून को सुबह आठ बजे 108 एंबुलेंस की मदद से उसे देहरादून के कोरोनेशन अस्पताल ले गए। लेकिन वहां एडमिट करने से मना कर दिया। फिर वे गांधी शताब्दी अस्पताल पहुंचे। इस दौरान कमलेश के बड़े भाई सुरेंद्र सैनी उनके साथ थे। वह बताते हैं कि गांधी शताब्दी ने भी मना कर दिया। साढ़े 11 बजे के करीब हम दून अस्पताल पहुंचे। इस समय तक भी सुधा दर्द में थी लेकिन ठीक लग रही थी। वो बच सकती थी। लेकिन वहां भी एडमिट करने से इंकार कर दिया। फिर महंत इंद्रेश अस्पताल पहुंचे। सुरेंद्र कहते हैं कि इस दौरान एंबुलेंस ड्राइवर भी नाराज़ हो रहा था। लेकिन ये कहकर कि इसे बचाना जरूरी है इसके दो छोटे बच्चे हैं वह हमारे साथ भटकता रहा। महंत इंद्रेश ने भी ये कहकर कि बेड नहीं है सुधा को एडमिट नहीं किया। वह बताते हैं कि बिना कोई ठोस वजह के जितने अस्पताल वे गए सबने उसे एडमिट करने से इंकार कर दिया। एक अस्पताल ने दूसरे अस्पताल भेजा। दूसरे ने तीसरे। कोरोना के चलते ये हुआ हो ऐसा नहीं था। महंत अस्पताल के इंकार करने पर मातावाली बाग में आशुतोष अस्पताल पहुंचे। वहां भी डॉक्टर ने ये कहकर कि पहले इसका कोरोना टेस्ट होगा, उसके बाद ही कुछ कहा जा सकता है। लेकिन वहां भी उसे भर्ती नहीं किया गया।

इस दौरान ये गरीब परिवार अस्पताल में दाखिले के लिए जुगाड़ भी ढूंढ़ता रहा। मज़दूर लोग भी ये जानते हैं कि बिना जुगाड़ के अस्पताल में दाखिला नहीं मिलेगा। परिवार ने प्रधान की मदद से स्थानीय विधायक हरबंशकपूर तक गुहार लगायी। विधायक ने सीएमओ डॉ बीसी रमोला को सुधा को एडमिट करने के लिए कहा। उधर, घर पर दूसरे नवजात बच्चे ने भी दम तोड़ दिया।

सुधा को लेकर पांच अस्पतालों के चक्कर काटने वाले सुरेंद्र सैनी.jpeg

सुरेंद्र बताते हैं कि सुबह 8 बजे से घर से निकले दोपहर के साढ़े तीन बज गए थे जब हम दोबारा दून अस्पताल पहुंचे। महिला वार्ड में गए। वहां से इमरजेंसी वार्ड में भेजा गया। इस सब में चार बज गए। साढ़े पांच बजे सुधा ने दम तोड़ दिया। सुरेंद्र बेबसी में कहते हैं कि बचने का बिलकुल चांस था। वह बच सकती थी। कहीं से कोई भी अस्पताल में एडमिट कर लेता तो उसकी ज़िंदगी बचायी जा सकती थी।

दून मेडिकल कॉलेज की सफाई

दून मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य डॉ आशुतोष सयाना कहते हैं कि दून अस्पताल डेडिकेटेड कोविड अस्पताल है। यहां अभी कोरोना मरीजों की जांच हो रही है। यदि कोई गैर-कोरोना मरीज आता है तो उसे गांधी शताब्दी और कोरोनेशन भेजा जाता है। हालांकि तबीयत अधिक खराब होने पर इमरजेंसी में भर्ती किया जाता है। तो सुधा को क्यों नहीं भर्ती किया गया? इस पर वह बताते हैं कि ड्यूटी पर मौजूद डॉक्टर ने उसे ठीक पाया इसलिए दूसरे अस्पताल रेफ़र कर दिया। लेकिन शाम को जब वह दोबारा लायी गई तो उसकी हालत खराब हो चुकी थी, इसलिए भर्ती कर लिया गया।

death certificate.jpg

इस मामले पर मीडिया रिपोर्ट्स के बाद मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत, जिलाधिकारी डॉ. आशीष चौहान, सीएमओ डॉ बीसी रमोला सबने जांच के आदेश दे दिए हैं। यानी कार्रवाई कर दी गई। इंसाफ़ हो गया?

प्रतिक्रियाएं

राज्य महिला आयोग की सचिव कामिनी गुप्ता से इस घटना की जानकारी के लिए पूछा तो उन्होंने बताया कि व्हाट्सएप पर खबरों के ज़रिये उन्हें इस घटना का पता चला। क्या आयोग ने इस पर कुछ कदम उठाया है इस पर कामिनी बताती हैं कि वे दफ्तर से पता करेंगी कि कोई लेटर भेजा गया है या नहीं। यदि नहीं भेजा गया तो आयोग एक पत्र मुख्यमंत्री को भेज देगा।

गैर सरकारी संगठन महिला अधिकारी मंच की अध्यक्ष कमला पंत इस घटना पर गुस्सा जाहिर करती हैं। वह बताती हैं कि कोरोना के चलते हम अपनी नियमित बैठकें तक नहीं कर पा रहे। हमने इसी महीने बैठक करने की कोशिश की तो पुलिस वालों ने हमें रोक दिया। हम अपना प्रतिरोध तक दर्ज नहीं करा पा रहे। वह कहती हैं कि राजधानी कहने वाले देहरादून की ये घटना है तो आप पहाड़ों में स्थिति का अंदाज़ा लगाइये।

महिला सामाख्या की निदेशक रह चुकी सामाजिक कार्यकर्ता गीता गैरोला कहती हैं कि हमारा देश कुछ इसी तरह आत्मनिर्भर भारत बन रहा है। सरकार पर भरोसा नहीं करो खुद ही अत्मनिर्भर बनो। वह कहती हैं कि प्रजनन और स्वास्थ्य से जुड़ी सुविधाएं पहले ही बेहद कम थीं। ये सीमित सुविधाएं भी इस समय महामारी में इस्तेमाल हो रही हैं। औरतों के हिस्से का इलाज, उनके हिस्से की स्वास्थ्य सुविधाएं डायवर्ट कर दी गई हैं।

मई में चमोली की 20 साल की लड़की की आपबीती

मई महीने में 20-21 साल की एक लड़की के साथ भी कुछ ऐसा ही गुज़रा था। चमोली के नारायणबगड़ ब्लॉक की लड़की को दो महीने का गर्भपात हुआ। खून ज्यादा बहने से लड़की की तबीयत बिगड़ी। परिजन उसे नज़दीकी स्वास्थ्य केंद्र नहीं ले गए क्योंकि उन्हें वहां की बदहाल स्थिति पता थी। उसे करीब 30 किलोमीटर दूर कर्णप्रयाग ले गए। जहां कुछ चिकित्सीय सुविधाएं मौजूद हैं। वहां लड़की के पेट की सफाई हुई। लेकिन उपकरणों की कमी के चलते उसे श्रीनगर अस्पताल रेफर किया गया।

श्रीनगर-गढ़वाल विश्वविद्यालय के छात्र अंकित उछोली बताते हैं कि उनके पास मदद के लिए फ़ोन आया। श्रीनगर बेस अस्पताल को कोविड सेंटर बनाया गया है। इसलिए डॉक्टरों ने लड़की को एडमिट नहीं किया। वहीं संयुक्त चिकित्सालय में भेजा गया। वहां स्त्री रोग विशेषज्ञ छुट्टी पर थीं। लड़की दिल्ली से लौटी थी। उसकी तबीयत ठीक नहीं थी। कोरोना की आशंका के चलते डॉक्टर उसे हाथ लगाने को तैयार नहीं हुए। लड़की को अस्पताल में दाखिल कराने के लिए अंकित और उनके कुछ साथी लगातार फोन मिलाकर जुगाड़ ढूंढ़ते रहे। काफी देर बाद जिलाधिकारी से बात हो सकी। जिलाधिकारी के हस्तक्षेप के बाद श्रीनगर बेस अस्पताल में लड़की को एडमिट किया गया। अंकित कहते हैं कि संक्रमण की आशंका के चलते डॉक्टर उसके पास जाने से डर रहे थे। उसकी हालत खराब थी और प्राथमिक चिकित्सा भी नहीं मिल सकी। लड़की का कोरोना सैंपल भेजा गया। इस दौरान लड़की ने घर वापस जाने की इच्छा जतायी। वह बताते हैं कि डॉक्टरों को उसे डिस्चार्ज नहीं करना चाहिए था लेकिन उन्होंने डिस्चार्ज कर दिया। लड़की घर वापस आयी और कुछ देर बाद उसकी मौत हो गई। उसकी कोरोना रिपोर्ट नेगेटिव आई।

उत्तराखंड में बच्चे को जन्म देना प्रसव पीड़ा से भी ज्यादा जोखिम भरा

उत्तराखंड में ऐसी कितनी ही कहानियां हैं कि प्रसव पीड़ा सहती लड़की को कुर्सी पर, कंधों पर, चारपाई पर लिटाकर नज़दीकी स्वास्थ्य केंद्र और अस्पताल तक पहुंचाया जाता है। कई कठिनाइयों को पार कर अस्पताल पहुंची लड़की को इलाज नहीं मिल पाता। अस्पताल में डॉक्टर नहीं मिल पाते। जरूरी सुविधाएं नहीं मिल पातीं। ऑल वेदर रोड वाले उत्तराखंड के गांवों में वे सड़कें अब तक नहीं बनी, जहां से एक मां अपने बच्चों को सुरक्षित जन्म देने के लिए अस्पताल जा सके। यहां के लोगों को ऑल वेदर रोड से ज्यादा जरूरत गांवों को मुख्य मार्गों से जोड़ने वाली सड़कों और सुविधा संपन्न प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की है। ताकि बच्चे रास्ते में, खेतों में, एंबुलेंस में और तो और देहरादून के शौचालयों में न पैदा हों।

पिछले वर्ष दिसंबर 2019 में  दून मेडिकल कॉलेज के स्त्री-प्रसूति रोग विभाग में महिलाओं के साथ अमानवीयता की हद तक व्यवहार की जांच रिपोर्ट आयी थी। फर्श पर महिला ने बच्चे को जन्म दिया और मां-बच्चे की मौत हो गई। अस्पताल के शौचालय में महिला ने बच्चे को जन्म दिया। दून अस्पताल इन खबरों की वजह से भी जाना जाता है।

राज्य के सरकारी अस्पतालों 50 लाख से अधिक महिला आबादी पर 44 डॉक्टर

गढ़वाल के चार जिले चमोली, रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी, पौड़ी और टिहरी के लोगों के लिए सबसे बड़ा अस्पताल पौड़ी का श्रीनगर मेडिकल कॉलेज है। चमोली में अचानक किसी की तबीयत बिगड़ती है तो उसे करीब 100 किलोमीटर का फासला तय कर श्रीनगर अस्पताल पहुंचना होगा। जिला अस्पतालों में डॉक्टरों, दवाइयों, उपकरणों सबकी कमी रहती है।

इसी तरह कुमाऊं में पिथौरागढ़, चंपावत, अल्मोड़ा, उधमसिंहनगर, नैनीताल जिलों के बीच सबसे बड़ा और सुविधा संपन्न अस्पताल हल्द्वानी का सुशीला तिवारी अस्पताल है। इतने जिलों का भार सहने की वजह से ये अस्पताल हमेशा मरीजों के अत्यधिक दबाव में रहता है।

चंपावत के जिला अस्पताल में वर्ष 2018 से स्त्री रोग विशेषज्ञ का पद खाली है। वहां के किसी भी अस्पताल में स्त्री रोग विशेषज्ञ नहीं है।

स्वास्थ्य महकमे से मिली जानकारी के मुताबिक राज्य में कुल 54 स्त्री रोग विशेषज्ञ के पद हैं। जिसमें से पांच स्त्री रोग विशेषज्ञ विशेषज्ञता के अनुरूप कार्य नहीं करना दर्शाया गया है। इनके नाम हैं डॉ. मीतू साह (अपर निदेशक, स्वास्थ्य सेवा महानिदेशालय), डॉ. सुमन आर्या (अपर निदेशक, स्वास्थ्य सेवा महानिदेशालय), डॉ. मीनाक्षी जोशी ( 20 मई 2020 को देहरादून की मुख्य चिकित्सा अधिकारी पद से तबादला कर स्वास्थ्य निदेशालय में तबादला किया गया), डॉ. मीनू रावत (प्रभारी मुख्य चिकित्सा अधिकारी टिहरी)।

नैनीताल के बीबी पांडे चिकित्सालय की डॉ गरिमा शर्मा त्यागपत्र दे चुकी हैं।

तीन स्त्री रोग विशेषज्ञ अनुपस्थित चल रही हैं। इसमें संयुक्त चिकित्सालय कोटद्वार, पौड़ी की डॉ मालती यादव, उधमसिंह नगर के जसपुर समादुयाकि स्वास्थ्य केंद्र की डॉ जीतू वर्मा, हरिद्वार जिला महिला चिकित्सालय की डॉ शांति रावत शामिल हैं।

छह महिला डॉक्टर संविदा पर कार्यरत हैं। 38 स्त्री रोग विशेषज्ञ कार्यरत हैं। इनमें से 18 देहरादून में हैं (निदेशालय में तैनात अपर निदेशक और संविदा मिलाकर)।

उत्तरकाशी में एक स्त्री रोग विशेषज्ञ है। टिहरी में दो (एक को विशेषज्ञता के अनुरूप नहीं पाया गया), रुद्रप्रयाग में एक, पौड़ी में एक संविदा पर और एक अनुपस्थित, कोटद्वार में एक, हरिद्वार में एक अनुपस्थित, एक के बारे में कोई ज़िक्र नहीं (डॉ लता शक्करवाल) और तीन कार्यरत हैं। चमोली में एक, अल्मोड़ा में एक, उधमसिंहनगर में पांच कार्यरत, एक अनुपस्थित, एक संविदा पर है। नैनीताल में आठ। पिथौरागढ़ में तीन, बागेश्वर में एक महिला डॉक्टर है।

चंपावत जिले में कोई स्त्री रोग विशेषज्ञ नहीं है।

वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक उत्तराखंड की आबादी एक करोड़ 86 हजार 292 थी। जिसमें से 5,137,773 पुरुष और 4,984,519 महिलाएं थीं। अब हम 2021 में हैं। करीब 50 लाख महिलाओं पर राज्य में 54 पदों में से 38 स्त्री रोग विशेषज्ञ मौजूद हैं। चंपावत में  128,523 महिलाओं पर कोई स्त्री रोग विशेषज्ञ नहीं है। पर्वतीय क्षेत्रों में निजी अस्पताल और नर्सिंग होम भी नहीं हैं।  

स्वास्थ्य विभाग कहता है कि डॉक्टर पर्वतीय क्षेत्रों में जाना ही नहीं चाहते। वहां ड्यूटी नहीं करना चाहते।

वर्ष 2018-19 में राज्य में 70 फीसदी संस्थागत प्रसव हुए। नवजात (Antenatal care) की देखभाल की 50 फीसदी व्यवस्था है। नवजात मृत्युदर प्रति हज़ार बच्चों पर (infant mortality rate) 38 थी।

तो लापरवाही से व्यवस्थागत कमियों तक उत्तराखंड की महिलाएं जो बच्चे को जन्म देना चाहती हैं और सरकारी व्यवस्था के भरोसे हैं तो उनका हश्र सुधा और उन तमाम महिलाओं की तरह हो सकता है जो जन्म देने की दुश्वारियों के चलते नहीं मरीं, बल्कि अस्पताल और चिकित्सीय सहायता उपलब्ध न होने की वजह से मारी गईं।

मैंने सुधा के पति कमलेश और जेठ सुरेंद्र से पूछा कि क्या तुमने कोई पुलिस केस दर्ज कराया। तो वह कहते हैं कि हम गरीब हैं, हम नहीं जानते कि क्या करना है। क्या सुधा के उन दो बच्चों की मदद के लिए सरकार किसी तरह आगे आई तो भी जवाब न था।

कोरोना महामारी ने ये भी बता दिया है कि पूरे देश में स्वास्थ सुविधाओं का क्या हाल है। क्या हमने इन स्वास्थ सुविधाओं को लेकर वोट दिया। चुनाव के समय भारत-पाकिस्तान, हिंदू-मुसलमान हो जाता है। स्कूल, सड़क, स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर वोट नहीं पड़ते। तब धर्म ध्वजाएं लहराती हैं। 

(वर्षा सिंह स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

Uttrakhand
woman died
health care facilities
health system
Doon Medical College
Trivendra Singh Rawat
Pregnant Women Dies

Related Stories

चमोली के सुमना में हिम-स्खलन से 10 की मौत, रेस्क्यू जारी, जलवायु परिवर्तन का असर है असमय बर्फ़बारी

ग्लेशियर टूटने से तो आपदा आई, बांध के चलते मारे गए लोगों की मौत का ज़िम्मेदार कौन!

आपदा के बाद मिले 3800 रुपये,  खेत में बचा दो बोरी धान

 आपदा से कराह रहे पिथौरागढ़ के लोगों की आवाज़ सुन रहे हैं आप

बाघों के साथ तेंदुओं पर भी देना होगा ध्यान, नहीं तो बढ़ेंगे हमले

दिल्ली : एंबुलेंस कर्मचारियों का आंदोलन जारी, सीएम की शवयात्रा निकाली

चुनाव निपट गए अब तो जंगल की आग पर ध्यान दीजिए मुख्यमंत्री जी!


बाकी खबरें

  • विजय विनीत
    ग्राउंड रिपोर्टः पीएम मोदी का ‘क्योटो’, जहां कब्रिस्तान में सिसक रहीं कई फटेहाल ज़िंदगियां
    04 Jun 2022
    बनारस के फुलवरिया स्थित कब्रिस्तान में बिंदर के कुनबे का स्थायी ठिकाना है। यहीं से गुजरता है एक विशाल नाला, जो बारिश के दिनों में फुंफकार मारने लगता है। कब्र और नाले में जहरीले सांप भी पलते हैं और…
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    कोरोना अपडेट: देश में 24 घंटों में 3,962 नए मामले, 26 लोगों की मौत
    04 Jun 2022
    केरल में कोरोना के मामलों में कमी आयी है, जबकि दूसरे राज्यों में कोरोना के मामले में बढ़ोतरी हुई है | केंद्र सरकार ने कोरोना के बढ़ते मामलों को देखते हुए पांच राज्यों को पत्र लिखकर सावधानी बरतने को कहा…
  • kanpur
    रवि शंकर दुबे
    कानपुर हिंसा: दोषियों पर गैंगस्टर के तहत मुकदमे का आदेश... नूपुर शर्मा पर अब तक कोई कार्रवाई नहीं!
    04 Jun 2022
    उत्तर प्रदेश की कानून व्यवस्था का सच तब सामने आ गया जब राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के दौरे के बावजूद पड़ोस में कानपुर शहर में बवाल हो गया।
  • अशोक कुमार पाण्डेय
    धारा 370 को हटाना : केंद्र की रणनीति हर बार उल्टी पड़ती रहती है
    04 Jun 2022
    केंद्र ने कश्मीरी पंडितों की वापसी को अपनी कश्मीर नीति का केंद्र बिंदु बना लिया था और इसलिए धारा 370 को समाप्त कर दिया गया था। अब इसके नतीजे सब भुगत रहे हैं।
  • अनिल अंशुमन
    बिहार : जीएनएम छात्राएं हॉस्टल और पढ़ाई की मांग को लेकर अनिश्चितकालीन धरने पर
    04 Jun 2022
    जीएनएम प्रशिक्षण संस्थान को अनिश्चितकाल के लिए बंद करने की घोषणा करते हुए सभी नर्सिंग छात्राओं को 24 घंटे के अंदर हॉस्टल ख़ाली कर वैशाली ज़िला स्थित राजापकड़ जाने का फ़रमान जारी किया गया, जिसके ख़िलाफ़…
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License