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बिहार चुनाव: आख़िर रोज़गार क्यों बन गया है अहम मुद्दा
महिलाओं के रोज़गार के ध्वस्त होने और रोज़गार में लगे लोगों की संख्या में बेहिसाब गिरावट आने से पैदा हुई दोहरे अंक वाली बेरोज़गारी दर ने लोगों को तबाह कर दिया है और उन्हें ग़ुस्से से भर दिया है।
सुबोध वर्मा
04 Nov 2020
bihar poll

यह अक्सर कहा जाता है कि बेरोज़गारी हज़ार समस्याओं की जड़ होती है। बेरोज़गारी परिवारों को भुखमरी के हवाले कर देती है, बच्चों की शिक्षा छीन लेती है, इलाज नहीं होने देती है और लोगों को क़र्ज़ में डुबो देती है। इसके अलावा, अगर आप पहले से ही ग़रीब और वंचित और हाशिये पर हैं, तो बेरोज़गारी मौत की सज़ा की तरह होती है।

कुछ दिनों पहले सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी यानी सीएमआईई (CMIE) की ओर से नये मासिक बेरोजगारी अनुमान जारी किये गये थे। अक्टूबर 2020 में बिहार की बेरोज़गारी की दर तक़रीबन 10% थी। दोहरे अंकों की बेरोज़गारी दर के जारी रहने का यह 21वां महीना है। (नीचे दिया गया चार्ट देखें) यह एक ऐसा असहनीय बोझ है,जिसे बिहार के लोग अपने कंधे पर ढो रहे हैं और यही वह परेशानी है, जो उन्हें चल रहे चुनाव के ढर्रे को बदलने, चीज़ों को दुरुस्त करने और रसातल के हवाले हो चुकी व्यवस्था को पटरी पर लाने के तौर पर प्रेरित कर रही है।

 

दो महीने यानी अप्रैल और मई के पूर्ण लॉकडाउन के दौरान बिहार उन राज्यों में से था, जहां देश भर में सबसे ज़्यादा बेरोज़गारी दरें दर्ज हुई थीं, बिहार में यह बेरोज़गारी दर तक़रीबन 46% थी। आधा श्रमबल ऐसा था,जिसके पास कोई रोज़गार ही नहीं था। ग़ौरतलब है कि बिहार देश के सबसे ग़रीब राज्यों में से एक है और बेशुमार लोगों के लिए बेरहम तालाबंदी का मतलब था भूखे रहना, कम से कम खाकर ज़िंदा रहना और अपने सम्मान को किनारे रखकर मामूली सरकारी मदद का इंतज़ार करना। अब, फिर से चीज़ें सामान्य होने लगी हैं, जिसका मतलब है कि उन लोगों के बीच फिर से दोहरे अंकों की बेरोज़गारी दर है,वे फिर से बाहर निकल रहे हैं और ज़िंदा रहने के लिए रोज़-ब-रोज़ का संघर्ष कर रहे हैं।

रोज़गार में हो रही निरंतर गिरावट

ऐसा नहीं है कि बेरोज़गारी इसलिए बढ़ रही है,क्योंकि रोज़गार मुहैया कराने वाले बाज़ार में नये नौजवानों की आमद हो गयी है और उन्हें नौकरी नहीं मिल रही है। मुमकिन है कि ऐसा भी हो, लेकिन जैसा कि नीचे दिये गये चार्ट में दिखाया गया है कि जिनके पास रोज़गार हैं, वे रोज़गार भी उनके हाथ से निकल रहे हैं।

 

अक्टूबर 2017 में जिस समय नीतीश कुमार ने लोगों के जनादेश के साथ धोखा किया था और पाला बदलते हुए भारतीय जनता पार्टी से हाथ मिला लिया था और बतौर मुख्यमंत्री बने रहे थे, उस समय बिहार में जिनके पास रोज़गार था, ऐसे लोगों की अनुमानित संख्या 286 लाख यानी 2.86 करोड़ थी। तब से यह संख्या लगातार घटती रही है, हालांकि बिहार उस उतार-चढ़ाव से भी दो चार रहा है,जो कि बड़े पैमाने पर कृषि पर निर्भर अर्थव्यवस्था का हिस्सा होता है। लेकिन, लॉकडाउन के दौरान यह संख्या अचानक घटकर महज़ 160 लाख यानी 1.6 करोड़ रह गयी थी, जो कि रोज़गार पाने वालों लोगों की संख्या में 44% की गिरावट थी। उसके बाद रोज़गार में बढ़ोत्तरी तो हुई है, लेकिन सचाई यही है कि अब लोगों को महज़ ज़िंदा रहने के लिए काम करना पड़ता है। अक्टूबर का नवीनतम आंकड़ा बताता है कि रोज़गार पाये हुए लोगों की संख्या 2.57 करोड़ है।

लेकिन, ये रोज़गार या तो कृषि क्षेत्र में या फिर ग़ैर-कृषि क्षेत्र में आकस्मिक श्रम से सम्बन्धित हैं। ये हाड़तोड़ मेहनत वाले रोज़गार हैं और इस तरह के रोज़गार में बहुत कम पारिश्रमिक मिलता है। ये रोज़गार मौसमी हैं, यही वजह है कि कुछ हफ़्ते काम करने से पहले तक लोग को हफ्तों का इंतज़ार करना होता है। यह आर्थिक गतिविधियों के निचले पायदान वाली गतिविधि है।

 महिलाओं के पास काम नहीं

सीएमआईई के साथ-साथ सरकार के आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) के मुताबिक़, यह धारणा कि आमतौर पर महिलाओं को बड़े पैमाने पर कृषि अर्थव्यवस्थाओं में काम मिल जाता है, हाल के दिनों में बिहार में इस धारणा के ठीक उलट महिलाओं की कार्य भागीदारी की सबसे चौंकाने वाली दरें दर्ज हुई हैं। (सीएमआईई के आंकड़ों पर आधारित चार्ट नीचे देखें)

मई-अगस्त 2016 में तक़रीबन 8% की 'उच्च' दर से घटकर महिलाओं की यह भागीदारी दर 2017 के जनवरी-अप्रैल में महज़ 2.4% रह गयी, और तब से यह दर उसी स्तर के आसपास बनी हुई है। मई-अगस्त 2020 में यह 2.2% दर्ज की गयी थी। यह देश के सभी राज्यों में सबसे कम कार्य सहभागिता दर है।

 

पीएलएफएस की 2018-19 की रिपोर्ट इस बात को भी सामने रखती है कि बिहार में महिलाओं की कार्य सहभागिता दर ग्रामीण क्षेत्रों में सिर्फ़ 4.2% और शहरी क्षेत्रों में 6.2% थी, जिससे कि राज्य की कुल सहभागिता दर मात्र 4.4% बनती है।

इस दुखद स्थिति का एक कारण यह भी है कि नौकरियां नहीं हैं और खेती-बाड़ी ही एकमात्र ऐसा क्षेत्र है, जो नौकरी चाहने वालों को खपा रहा है। ऐसी हालात में पुरुष हर काम में महिलाओं की जगह लेते जा रहे हैं। इसका एक दूसरा कारण यह भी है कि पारंपरिक रूप से निराई और फ़सल की देखभाल जैसी जिन  कृषि गतिविधियों को महिलायें करती थीं, अब उन्हें रासायनिक खरपतवारनाशकों के इस्तेमाल के ज़रिये अंजाम दिया जा रहा हैं, और ये काम पुरुष द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाले स्प्रेयर के माध्यम से किये जा रहे हैं।

सीएमआईई के मुताबिक़, महिलाओं की कार्य सहभागिता में भारी गिरावट आने से सभी स्तर पर कार्य सहभागिता दर घटकर अभूतपूर्व स्तर पर आ गयी है-इस वर्ष अक्टूबर में बिहार में समग्र कार्य सहभागिता दर सिर्फ़ 35% थी। इसका मतलब यह है कि राज्य में तक़रीबन एक तिहाई आबादी ही काम कर रही है। यह लोगों के लिए विनाशकारी है और मानवीय क्षमताओं का एक भयानक अपव्यय है।

 इस सब के लिए नियमन और नीति निर्माण में एक बड़े बदलाव की ज़रूरत होगी। लेकिन,केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार और बिहार में उसके जूनियर पार्टनर-जनता दल (यूनाइटेड) की सरकार नये कृषि क़ानूनों को लाकर कृषि को बड़े व्यापारियों और भू-स्वामियों,और कृषि-व्यवसाय कंपनियों को सौंपने की योजना बनाते हुए उल्टी दिशा में काम कर रही हैं। श्रम मानकों को कमज़ोर करके ये सरकारें श्रमिकों को ग़रीबी के कुचक्र के हवाले कर रही हैं।

 बिहार के लोग इस बात को सहज रूप से समझ गये हैं और यही वजह है कि लोग नीतीश कुमार की सरकार को उखाड़ फेंकने का मूड में है और इसके लिए वे जाति और धार्मिक विभाजन से भी ऊपर उठने को तैयार हैं।

 अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Bihar Elections: Why Jobs Have Become the Key Issue

Bihar Elections
Bihar Unemployment
Bihar Jobs
CMIE Report
Women’s Work Participation
Nitish Kumar
Bihar Out-Migration

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