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मज़दूर-किसान
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भारत
ग्रामीण भारत में कोरोना-19: पंजाब के गांवों पर लॉकडाउन और कर्फ़्यू की दोहरी मार
पंजाब के हाकमवाला और तेहंग गांव में लॉकडाउन के साथ-साथ कर्फ़्यू की मार झेलते भूमिहीन मज़दूर परिवारों के लिए यह भारी संकट की घड़ी है।
गौरव बंसल, सोहम भट्टाचार्य
23 Apr 2020
ग्रामीण भारत
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार: बी.एस.

यह इस श्रृंखला की 19वीं रिपोर्ट है जो ग्रामीण भारत के जीवन पर कोविड-19 से संबंधित नीतियों के पड़ रहे प्रभावों की तस्वीर पेश करती है। सोसाइटी फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक रिसर्च द्वारा जारी की गई इस श्रृंखला में विभिन्न विद्वानों की रिपोर्टों को शामिल किया गया है, जो भारत के विभिन्न गांवों का अध्ययन कर रहे हैं। ये रिपोर्ट उनके अध्ययन में शामिल गांवों में मौजूद लोगों के साथ की गई टेलीफोनिक साक्षात्कार के आधार पर तैयार की गई है। इस रिपोर्ट में पंजाब में लॉकडाउन और कर्फ्यू में जी रहे दो गांवों तेहंग (जालंधर ज़िला )और हकामवाला (मानसा ज़िला)की अर्थव्यवस्था पर पड़ते प्रभावों को उजागर किया गया है।

हाकमवाला गांव पंजाब में मानसा ज़िले की बुढलाडा तहसील में स्थित है। इस गांव की सीमा पंजाब के मानसा ज़िले के बोहा और गामीवाला गांवों से सटी है, वहीँ दूसरी ओर यह हरियाणा के फतेहाबाद के नंगल और सरदारेवाला गांवों से भी जुड़ा है। यहां से निकटतम दूरी पर दो कस्बे हैं, एक पंजाब में बुढलाडा और दूसरा हरियाणा में रतिया है। जब खेतीबाड़ी का सीजन नहीं रहता है तो इन दोनों कस्बों में यहां के मज़दूर को गैर-कृषि कार्य करते हैं।

गांव के कृषकों और खेतिहर मज़दूरों के लिए खेती ही उनकी आय और आजीविका का मुख्य स्रोत है। खेती से जुड़े लोग जाट सिख और कुम्हार (अन्य पिछड़ा वर्ग) परिवारों से हैं। दलित परिवारों में मजहबी सिख, रामदासिया और रविदासिया सिख जातियां भूमिहीन हैं और पूरी तरह से खेत में काम करके मिलने वाली मज़़दूरी पर ही निर्भर हैं।

तेहंग गांव पंजाब के जालंधर ज़िले में है। तहसील मुख्यालय फिल्लौर से इसकी दूरी महज 4 किमी है जबकि लुधियाना शहर यहां से 22 किमी की दूरी पर है। यह दोआबा क्षेत्र में पड़ता है। तेहंग गांव पूरी तरह से सिंचित है और यहां उन्नत पूंजीवादी कृषक अर्थव्यवस्था के ज़रिए कामकाज चल रहा है। इस गांव में ज़मीनों की मिल्कियत कुछ हाथों में ही सिमट कर रह गई है, जिसमें प्रभावी जाट सिख जाति के लोगों के पास ज़मीनों का बड़ा हिस्सा है। गांव में मात्र 20% घर खेती-किसानी से जुड़े हैं, और जो हैं भी उनमें से अधिकतर जाट सिख हैं।

आबादी के लिहाज से देखें तो इस गांव में आधे से अधिक घर अनुसूचित जातियों के हैं और उनमें से अधिकतर भूमिहीन हैं। ज़्यादातर लोग अपनी आजीविका के लिए ग़ैर-कृषक दिहाड़ी मज़दूरी (मुख्य तौर पर निर्माण क्षेत्र और आस पास के औद्योगिक संस्थानों) पर निर्भर हैं। ग़ैर-कृषक दिहाड़ी मज़दूरी जैसे रोज़गार ही तेहंग के 70% से अधिक परिवारों के लिए आय के प्रमुख स्रोत हैं। इनमें से ज़्यादातर मामलों में ये मज़दूर काम के सिलसिले में पास के फिल्लौर या लुधियाना जैसे शहरों में जाते हैं।

हम लोगों ने इस सिलसिले में तेहंग के आठ लोगों से बातचीत की। इनमें से सात जाट सिख किसान थे जिनके पास अलग-अलग आकार की भू-जोतें थीं, जबकि आठवां व्यक्ति राजमिस्त्री था। इसके अलावा हाकमवाला के दो खेतिहर परिवारों और मज़दूरी करने वाले एक परिवार के बीच बातचीत की गई।

दोआबा क्षेत्र के अधिकतर लोग, खासकर जो लोग जाट सिख जाति से हैं वे यूरोप और उत्तरी अमेरिका में बस चुके हैं। तेहंग में भी ऐसे कई परिवार हैं जिनके सदस्य इटली, स्पेन, फ़्रांस, ब्रिटेन और अमेरिका जैसे देशों में या तो बस चुके हैं या कार्यरत हैं। और ये सभी देश आजकल कोरोना वायरस जैसी वैश्विक महामारी से बुरी तरह प्रभावित हैं।

इस गांव में सामान्य ट्रेंड यह देखा गया है कि इनमें से अधिकतर आप्रवासी दिसम्बर और जनवरी के महीनों में गांव आते हैं और फरवरी माह तक वापस लौट जाते हैं। आने जाने के मामले को देखें तो ये दोआबा क्षेत्र बड़े पैमाने पर वायरस के संभावित ख़तरे वाला क्षेत्र साबित हो सकता है। वास्तव में देखें तो जो पहले तीन मामले पंजाब में कोविड-19 के पॉजिटिव पाए गये थे (जिसके चलते बाद में इन पॉजिटिव मामलों की संख्या में इजाफा हुआ था) तो ये उन लोगों में ही देखने को मिले थे जो लोग इटली और जर्मनी से पंजाब आये थे।

खेती

तेहंग में मुख्य फसल के तौर पर चावल (खरीफ) और गेहूं (रबी) है। जबकि हाकमवाला में खरीफ के सीजन में चावल और कपास की खेती की जाती है जबकि रबी की मुख्य फसल गेहूं है। जहां तेहंग में हाकमवाला की तुलना में सिंचाई की सुविधा कहीं बेहतर है, वहीं भूजल में खारापन का पाया जाना एक समस्या है। वैसे दोनों ही गांव नहरों से जुड़े हैं और गांव में अच्छी खासी संख्या में ट्यूबवेल भी लगे हैं।

जिस समय हम इन लोगों से बातचीत कर रहे थे, दोनों ही गांवों में गेहूं की कटाई की शुरुआत हो रही थी। चूंकि गेहूं की कटाई यहां पर मुख्यतया मशीनों द्वारा हो जाती है इसलिये भाड़े पर खेतिहर मज़दूरों की जरुरत इस दौरान कम ही पड़ती है। हालांकि किसानों को शुरू-शुरू में इस बात को लेकर आशंका बनी हुई थी कि लॉकडाउन के कारण कहीं कंबाइन हार्वेस्टर की उपलब्धता उनकी परेशानी का सबब न बन जाए, लेकिन ये डर पंजाब सरकार की ओर से कंबाइन हार्वेस्टर के आवागमन को बदस्तूर जारी रखे जाने के आदेश के बाद समाप्त हो चुका है। इसके बावजूद हाकमवाला में जो अपेक्षाकृत छोटे किसान हैं उन्होंने आशंका जताई है कि लॉकडाउन के कारण इन मशीनों की कमी के चलते कहीं इन कंबाइन हार्वेस्टरों के भाड़े में बढ़ोतरी न हो जाए।

पशुओं के लिए चारे के रूप में इस्तेमाल किया जाने वाला गेहूं का एक महत्वपूर्ण उप-उत्पाद पुआल कटाई वाले मशीन से तैयार किया जाता है। गृह मंत्रालय की एडवाइजरी के आधार पर हाकमवाला में स्थानीय प्रशासन ने खेती से जुड़े कार्यों के लिए सुबह 6.00 से लेकर 9.0 बजे तक और 3.0 से 6.0 बजे शाम तक का समय निर्धारित किया है।

तेहंग में मुख्य तौर पर मज़दूरों की ज़रूरत कटाई के बाद के कार्यों जैसे कि गेहूं या उसके भूसे की लोडिंग/अनलोडिंग के समय पड़ती है, जिसे आम तौर पर बिहार से आये प्रवासी मज़दूरों द्वारा किया जाता है। जबकि हाकमवाला के बड़े किसान अतिरिक्त पुआल को बाजार में बेच देते हैं। पुआल के गट्ठर बांधना और उनकी लोडिंग का काम पड़ोस के गांवों के दिहाड़ी मज़दूरों द्वारा पीस-रेट के ठेके पर किया जाता है। कर्फ्यू की घोषणा के बाद से ही हरियाणा के दूसरे गांवों से इन मज़दूरों के समूह हाकमवाला में प्रवेश नहीं कर सके हैं, जिसके कारण यह काम ख़ासकर प्रभावित हुआ है।

किसानों को रबी की फसल के लिए कृषि इनपुट की कोई ज़रूरत नहीं है, लेकिन उन्हें अपने खेती से संबंधित औज़ारों और उपकरणों की मरम्मत करा पाने में मुश्किल हो रही है। आमतौर पर यह एक ऐसा काम है जिसे वर्ष के इस समय में किया जाता है। कर्फ्यू के कारण आस-पास के कस्बों और शहरों में आवाजाही प्रभावित है, ऐसे में खेती से जुड़े लोगों को पशु आहार की ख़रीदारी में भी मुश्किल आ रही है। हालांकि तेहंग के अधिकांश मध्यम और धनी किसानों से जब बात की गई तो उनका कहना था कि उनके पास पशु आहार के पर्याप्त भण्डार हैं।

पंजाब सरकार ने इस बात को सुनिश्चित किया है कि खाद्यान्नों की ख़रीद के लिए मंडियां खुली रहेंगी। लेकिन लॉकडाउन के दौरान कमीशन एजेंटों की दुकानें बंद होने के कारण, वे छोटे काश्तकार जो आमतौर पर अपनी सब्जियां कमीशन एजेंटों के माध्यम से बेचा करते थे, वे इसे बेचने के लिए पास के कस्बे में जा पाने में असमर्थ हैं। हालांकि हाकमवाला में किसानों को भरोसा है कि वे अपनी गेहूं की उपज मंडी में बेच सकेंगे क्योंकि सरकार ने घोषणा की थी कि मंडी का काम सुचारू रूप से जारी रहेगा।

प्रवासी मज़दूरों की दशा

तेहंग जैसे दोआबा क्षेत्र के गांवों में खेती में मज़दूरों की मांग जब अपने चरम पर होती है तो उस दौरान भारी संख्या में (मुख्य रूप से बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश) प्रवासी मज़दूर यहां आते हैं। इनमें से कुछ बड़े पूंजीवादी किसानों के लिए दीर्घकालिक श्रमिक के तौर पर काम करते हैं, जबकि इनका बड़ा हिस्सा पीस-रेट पर काम करने वाले श्रमिक समूहों का होता है। चूंकि जिन श्रमिकों को लंबी अवधि के लिए किसान ठेके पर रखते हैं, वे लोग तो गांव में ही हैं, साथ ही नियोक्ता द्वारा उनके लिए भोजन और रहने की जगह की व्यवस्था भी की जाती है।

जहां एक ओर जून में धान की रोपनी के समय काफी संख्या में मौसम के अनुसार काम करने वाले प्रवासी श्रमिक इस क्षेत्र में आते हैं, वहीं कुछ श्रमिक रबी फसल के दौरान ही कटाई के बाद के कामों के लिए आ जाते हैं। इस प्रकार के प्रवासी कामगारों और मजदूरों के समूह जो निकटवर्ती कस्बों और शहरों में ग़ैर-कृषि कार्यों में लगे हुए थे, उनके बारे में सूचना मिली है कि लॉकडाउन की घोषणा होते ही ये लोग अपने घरों के लिए पैदल या साइकिलों से निकल पड़े थे।

अब चूंकि ये पूंजीवादी किसान बड़े पैमाने पर कटाई के बाद के काम के लिए (मुख्य रूप से गेहूं और गेहूं के भूसे की लोडिंग/अनलोडिंग) इन प्रवासी श्रमिकों पर निर्भर रहते हैं, इसलिए उनके बीच यह चिंता का विषय बनता जा रहा है कि आने वाले हफ्तों में मज़दूरों की कमी रहने वाली है। एक बड़े किसान ने अपनी चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि ऐसी स्थिति में जो स्थानीय मज़दूर हैं, वे अधिक मज़दूरी की मांग कर सकते हैं। इससे किसान की खेती की लागत बढ़ जाएगी, जो उनके अपेक्षित मुनाफे के एक हिस्से को समाप्त कर सकता है।

इसके साथ ही कमीशन एजेंटों को भी मज़दूरों की अनुपलब्धता की चिंता सता रही है, क्योंकि वे भी मंडी में बिक्री के लिए बोरियों की सफाई और भराई के लिए इन्हीं प्रवासी मज़दूरों पर निर्भर हैं।

गांवों में भूमिहीन परिवारों की स्थिति

देशव्यापी लॉकडाउन के अलावा, पंजाब सरकार ने कोरोना वायरस के प्रसार से निपटने के लिए पूरे राज्य में कर्फ्यू लगा दिया है। कर्फ्यू की घोषणा के बाद से हरियाणा के साथ लगी राज्य की सीमाओं को 14 अप्रैल, 2020 तक के लिए पूरी तरह से सील कर दिया गया। इसलिए पास के कस्बों तक जाने के लिए जैसे हरियाणा में रतिया इत्यादि के लिए, यदि सरकार की ओर से जारी यात्रा पास नहीं है तो वहां जा पाना (केवल आवश्यक सेवाओं में कार्यरत लोगों के लिए उपलब्ध) अब मुमकिन नहीं रहा। इस घोषणा के बाद से ही पुलिस दिन में कम से कम दो या तीन बार गांव में गश्त लगा रही है।

हाकमवाला में गेहूं की कटाई का कुछ काम तो हाथ से ही किया जा रहा था। हालांकि काम करने के लिए जो समय सीमा निर्धारित कर दी गई है, उसे देखते हुए रोज़गार की उपलब्धता काफी हद तक सीमित हो चुकी थी। वहीँ तेहंग में गेहूं की कटाई का काम क़रीब-क़रीब पूरी तरह से मशीनीकृत होने के चलते रोज़गार के अवसर ना के बराबर थे।

हाकमवाला में भूमिहीन परिवारों में से कई मज़दूर सालाना ठेके पर लंबे समय तक कृषि श्रमिक (जिन्हें ‘सीरी’ कहा जाता है) के रूप में कार्यरत हैं। इन श्रमिकों को प्रति वर्ष लगभग 80,000 रुपये और कुछ अनाज मिलता है। इस वार्षिक भुगतान का एक हिस्सा उन्हें नवंबर 2019 के आसपास खरीफ की फसल की कटाई के बाद मिल चुका था। लेकिन इस बीच पांच महीने हो चुके हैं और ज़्यादातर रक़म वे अपने ज़रुरी चीजों पर खर्च कर चुके हैं। ऐसे में उन्हें अगली क़िश्त की सख्त आवश्यकता है, जिसमें संभवतः देरी होने की संभावना है क्योंकि गेहूं की कटाई और बिक्री में देरी हो जाने के कारण भुगतान में भी विलम्ब हो सकता है।

जबकि तेहंग के भूमिहीन परिवार के श्रमिक मुख्य तौर पर निर्माण क्षेत्र में या आस पास के उद्योगों में पीस-रेट पर (तेहंग के पास में एक बिस्कुट फैक्ट्री) काम करते हैं। लॉकडाउन के बाद से निर्माण क्षेत्र का कामकाज और कारखानों में उत्पादन का काम ठप पड़ा है।

लॉकडाउन के कारण हाकमवाला में श्रमिकों के लिए नज़दीक के कस्बों में ग़ैर-कृषि कार्यों के अवसर उपलब्ध नहीं थे। चूंकि हरियाणा के साथ की सीमा को पूरी तरह से सील कर दिया गया था, इसलिए रतिया शहर जाने का भी कोई विकल्प नहीं बचा था, जिससे होकर कई श्रमिक अपने काम के लिए गुज़रते थे।

फिलहाल किसी भी गांव में मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना) से संबंधित कार्य नहीं चल रहा है। वैसे भी आम तौर पर इन दोनों गांवों में मनरेगा के तहत पहले से ही बेहद सीमित काम उपलब्ध था। उदाहरण के लिए पिछले साल इस स्कीम के तहत सिर्फ 40 दिनों का काम उपलब्ध था। और जो भी श्रमिक इस योजना के तहत काम पाने में सफल रहे थे, उन्हें आज तक अपने भुगतान का इंतज़ार है।

नक़दी के संकट को देखते हुए, श्रमिक परिवारों को अपने पास उपलब्ध अनाज के सीमित स्टॉक पर ही निर्भर रहना पड़ा है। कुछ लोगों ने बताया है कि उन्होंने उधार खाते पर स्थानीय दुकानों से खाद्य सामग्री की ख़रीद की है। राज्य सरकार की ओर से जो अनाज “आटा-दाल" योजना के माध्यम से वितरित किया गया था, उसके मार्च के अंत तक इन गरीब परिवारों तक पहुंच जाने की उम्मीद थी, लेकिन हमारे द्वारा लिए गए इंटरव्यू के समय तक यह नहीं पहुंचा था।

बैंकिंग सुविधाओं की स्थिति

तेहंग में पंजाब नेशनल बैंक और एक राज्य सहकारी बैंक की शाखाएं मौजूद हैं। बैंक 29 मार्च 2020 तक बंद थे, लेकिन अब इन्हें सप्ताह में दो दिनों के लिए खोला जा रहा है। इसके बाद से लोग बैंकिंग सुविधाओं का लाभ उठा पाने में सक्षम हैं।

हाकमवाला में क़रीब सभी श्रमिक परिवारों के लिए नक़दी हासिल कर पाना एक बड़ा सवाल बना हुआ था। इन परिवारों का पैसा बचत बैंक में या आरबीएल और EQUITAS जैसे निजी माइक्रो-फाइनेंस बैंकों के पास पड़ा हुआ था, लेकिन आस-पास के बैंक दिन में सिर्फ दो घंटे के लिए ही खुलते थे।

किसानों को एटीएम के लिए जो टाइम स्लॉट आवंटित किया गया था, उस दौरान वे अपना पैसा तो निकाल ले रहे थे, लेकिन इन घंटों के दौरान श्रमिकों को इसके उपयोग की इजाज़त नहीं थी। इसकी वजह से उन भूमिहीन परिवारों को इन स्रोतों से रक़म हासिल कर पाना कठिन हो गया, भले ही उनके खातों में पैसे पड़े हुए हों। इसलिए कुछ मज़दूरों को इमरजेंसी की हालत में स्थानीय दुकानदारों या किसानों से उधार लेने पर मजबूर होना पड़ा है।

आख़िर में कहें तो लॉकडाउन ने दोनों गांवों में भूमिहीन परिवारों के रोज़गार को बुरी तरह प्रभावित किया है। हाकमवाला में जहां भूमिहीन परिवार मुख्य तौर पर मज़दूरी पर निर्भर हैं (हालांकि कुछ श्रमिक गैर-कृषि कार्यों के लिए पड़ोसी कस्बों में भी जाते थे) वहीँ जो तेहंग में हैं, वे मुख्य तौर पर गांव के बाहर के ग़ैर-कृषि कार्यों पर ही निर्भर हैं।

पंजाब सरकार की ओर से लगाया गया कर्फ्यू शेष भारत में लॉकडाउन की तुलना में काफी कठोर उपाय है जिससे कोई भी ग़ैर-कृषि से संबंधित कार्य उपलब्ध नहीं है और खेतिहर श्रमिकों को भी केवल बताए गए समय में ही काम करने की छूट है। इसके चलते इन दोनों गांव के श्रमिक परिवारों के अस्तित्व पर भारी संकट पैदा हो गया है।

गौरव बंसल आईआईटी बॉम्बे और सोहम भट्टाचार्य भारतीय सांख्यिकी संस्थान बैंगलोर में रिसर्च स्कॉलर हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ा जा सकता है।

COVID-19 in Rural India – XIX: Punjab Villages Face Double Brunt of Lockdown and Curfew

COVID-19
Lockdown Impact
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Border Villages
Landless Labour

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