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छत्तीसगढ़: लड़ेंगे, लेकिन पुरखों की ज़मीन कंपनी को नहीं देंगे
ग्रामीणों का कहना है कि एक साल में 3 लाख मीट्रिक टन एलुमिना उत्पादन करने के लिए 7 लाख मीट्रिक टन बॉक्साइट को रिफाइन करना होगा। इसके लिए कम से 80 से 90 लाख मिलियन क्यूबिक मीटर पानी की जरूरत पड़ेगी। अगर इतना पानी डिस्चार्ज होगा तो आसपास के नदी नाले सभी सूख जाएंगे।
रूबी सरकार
18 Apr 2021
छत्तीसगढ़: लड़ेंगे, लेकिन पुरखों की ज़मीन कंपनी को नहीं देंगे

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से लगभग 400 किलोमीटर दूर आदिवासी बाहुल्य गांव चिरंगा में संगठित ग्रामीणों का जनसुनवाई के दौरान विरोध के चलते प्रशासन और कंपनी के अधिकारियों को दबे पांव वहां से भागना पड़ा। उनका कहना है कि इससे उनकी कृषि भूमि के साथ ही चरनाई और निस्तार की भूमि भी चली जाएगी। आदिवासियों ने परियोजना को रद्द करने के लिए कलेक्टर और संभाग आयुक्त को आवेदन सौंपा है। साथ ही ग्रामीण सामाजिक दूरी का ध्यान रखते हुए परियोजना के खिलाफ बैठक कर अगली रणनीति बना रहे हैं।

दरअसल चिरंगा सरगुजा जिले के बतौली विकासखण्ड का एक आदिवासी बाहुल गांव हैं। यह गांव जिले का मुख्यालय अंबिकापुर के नजदीक है। लगभग 10 हजार आबादी वाले इस गांव में पिछले 6 महीने से कुछ बाहरी लोगों के आने और जमीन की नाप-जोख करने की गतिविधियां चल रही थी। परंतु सीधे-साधे आदिवासियों को यह समझ नहीं आया था कि आखिर यह किसलिए हो रहा है। उन्हें भनक भी नहीं लगी थी कि उन्हें विस्थापित करने का षड्यंत्र रचा जा रहा है।

अचानक जब पूरे भारत में कोरोना महामारी के चलते हाहाकार मचा और जिले में  धारा 144 लागू कर दिया गया, तब सरकार की ओर से उद्योगपतियों के पक्ष में फैसले लेने के लिए 11 अप्रैल, 2021 को गांव वालों को सूचना दी कि 12 अप्रैल को गांव में जनसुनवाई होनी है। इसी दिन ग्रामीणों को पता चला कि सरकार एलुमिना प्लांट परियोजना के लिए ग्रामीणों से उनकी कृषि भूमि छीनने का फरमान सुनाने वाली है। बदले में उनके बच्चों को कंपनी में नौकरी देने की लालच भी दी गई।  

जनपद सदस्य लीलावती पैकरा कहती हैं कि जनसुनवाई के दौरान जब उसने ग्रामीणों की ओर से अधिकारियों से पूछा गया कि क्या वह गांव के सभी लोगों को प्लांट में रोजगार दिलाएगी! इस पर अधिकारी चुप रह गये और कहा कि यह निर्णय भारत सरकार करेगी। लीलावती पैकरा ने आगे कहा, “अगर इस तरह किसानों का हक छीना जाएगा तो फिर वे कहां जाऐंगे। इसमें न केवल ग्रामीणों की कृषि भूमि, बल्कि चरनाई और निस्तार की जमीन भी चली जाएगी। सरकार को यह निर्णय लेने से पहले ग्रामीणों को इसके नफा-नुकसान की जानकारी देनी चाहिए थी।"

ग्रामीणों ने लीलावती की बातों पर सहमति दिखाई और जनसुनवाई में बवाल मच गया। भीड़ अनियंत्रित होता देख पुलिस ने मोर्चा संभाला और किसी तरह ग्रामीणों पर काबू पाया। पहली बार ग्रामीणों की अभूतपूर्व एकजुटता देखकर किसी तरह अधिकारी जनसुनवाई समाप्त कर दबे पांव वहां से निकल भागे। जनसुनवाई में सीतापुर एसडीएम दीपिका नेताम, तहसीलदार और कंपनी के अधिकारी कर्मचारी के साथ ही बड़ी संख्या में ग्रामीण मौजूद थे।

ग्रामीण बृजलाल ने बताया कि जनसुनवाई में ग्रामीणों केा सुना ही नहीं जा रहा था। बस फरमान सुनाया जा रहा था कि आपको गांव खाली करना है।  वहीं अनुपा बताती है कि महिलाओं ने पूछा कि ग्राम सभा में इसका कभी जिक्र क्यों नहीं आया। सरकार अपने स्तर पर कैसे फैसले ले सकती है। उसने कहा विकास के नाम पर ग्रामीणों को विस्थापित किया जा रहा है। लेकिन यहां तो खूब विकास हुआ है। स्कूल, सड़क, बिजली, अस्पताल, हमारे पास घर और जंगल सब है। हमें और क्या विकास चाहिए। मनसुख ने बताया, “कोरोना काल में जनसुनवाई उचित नहीं है। अधिकारियों को हमारा पक्ष सुनना चाहिए। यह सिर्फ एक गांव की बात नहीं है, बल्कि 5 गांवों जैसे- चिरंगा, पहाड़ चिरंगा, झरगवां, करदना, मांजा की जमीन इस परियोजना में जाएगी। इन गांवों की आबादी लगभग 50 हजार है और इनमें से  एक भी व्यक्ति इस परियोजना के लिए जमीन देने को तैयार नहीं है।”

वहीं अमरिकन सिंह पैकरा ने बताया, “यह उसके पुरखों की जमीन है। उसके परिवार के 20 सदस्यों के आजीविका के स्रोत मात्र 4 एकड़ कृषि भूमि है। भूमिहीन और आवासहीन होकर वे कहां जाएंगे। कंपनी नौकरी देने की बात कर रहे हैं, परंतु इसकी गारंटी नहीं देंगे। इसलिए गांव वालों ने परियोजना को रद्द करने के लिए कलेक्टर और आयुक्त के यहां आवेदन दिया है।”

श्रवण कुमार पैकरा के पास भी 3 एकड़ कृषि भूमि है जिससे उसके परिवार का गुजारा चलता है। उनका कहना है कि प्लांट के खिलाफ यह आंदोलन और उग्र होगा। हम किसी भी कीमत पर अपनी जमीन नहीं देंगे।

ग्रामीणों का यह भी कहना है कि एलुमिना रिफाइनरी के खुलने के लिए काफी मात्रा में पानी की आवश्यकता होती है और कारखाना जिस जगह पर लगाया जाना प्रस्तावित है, वह घुनघुट्टा नदी के पानी पर आश्रित होगा। इससे अंबिकापुर पेयजल व्यवस्था के लिए लाइफ लाइन कहे जाने वाले घुनघुट्टा डेम पर तो संकट गहराएगा ही इसके साथ ही जिले के खेती भी इससे प्रभावित होगा।

आपत्ति करने वाले ग्रामीणों ने बताया कि कंपनी द्वारा एक साल में 3 लाख मीट्रिक टन एलुमिना उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है। यह तभी होगा जब 7 लाख मीट्रिक टन बॉक्साइट को रिफाइन करेंगे तो एलुमिना बनेगा। इसके लिए कम से 80 से 90 लाख मिलियन क्यूबिक मीटर पानी की जरूरत पड़ेगी अगर इतना पानी डिस्चार्ज होगा तो घुनघुट्टा नदी सहित वहां के आसपास के नदी नाले सभी सूख जाएंगे।

सरगुजा के अधिकांश नदी नाले बरसाती पानी पर निर्भर हैं। कंपनी तो 12 माह एलुमिना का उत्पादन करेगी, अगर इतना पानी का उपयोग कंपनी करेगी तो घुनघुट्टा बांध का क्या होगा! पर्यावरण प्रदूषण के हिसाब से भी यह काफी खतरनाक है। क्योंकि यह पूरी तरह चाइना मॉडल तकनीक पर आधारित है। इससे ज्यादा प्रदूषण होने के कारण जंगल व उसमें रहने वाले वन्यजीव भी प्रभावित होंगे। उदाहरण देते हुए ग्रामीणों ने बताया कि वेदांता द्वारा उड़ीसा के मलकानगिरी के पहाड़ियों में इसी तरह का प्लांट लगाया जा रहा था। जहां सरकार ने प्रदूषण को देखते हुए प्रस्तावित परियोजना को खारिज कर दिया था। जबकि मलकानगिरी से ज्यादा घनी आबादी बतौली क्षेत्र में है, अगर यह प्रस्तावित कारखाना लगा, तो पर्यावरण को भारी नुकसान होगा।

छत्तीसगढ़ किसान सभा के राज्य अध्यक्ष संजय पराते ने ग्रामीणों द्वारा तीखा प्रतिरोध दर्ज किए जाने का स्वागत करते हुए कहा, “पूरे प्रदेश में कोरोना महामारी को नियंत्रित करने के लिए धारा-144 व कर्फ्यू का उपयोग किया जा रहा है। प्रदेश के 20 से अधिक जिलों में लॉकडाउन है। ऐसी स्थिति में सरगुजा जिले में लॉकडाउन होने के एक दिन पहले जनसुनवाई की इजाजत कैसे दी गई थी! जबकि हर जायज आंदोलन को कुचलने के लिए कोविड-19 के प्रोटोकॉल का सहारा ली जा रहा है।”

वहीं कॉरपोरेटों को 211 एकड़ जमीन सौंपने के लिए जनसुनवाई करने और भीड़ इकट्ठी करने से उसे कोई परहेज नहीं है। दरअसल पर्यावरण स्वीकृति के लिए यह हड़बड़ी है। श्री पराते ने कहा कि बॉक्साइट खनन और प्लांट से 20 से अधिक गांव प्रभावित होंगे। साथ ही पर्यावरण संकट और गहरा होगा। उन्होंने प्लांट में एक हजार 276 लोगों को रोजगार मिलने के दावे पर भी संदेह जताया है। अम्बिकापुर के साथ-साथ बस्तर में भी इसी तरह ग्रामीणों ने परियोजना के लिए जमीन देने से इंकार किया है। बस्तर में भी अधिकारियों को उल्टे पांव भागना पड़ा है।

यहां गौर करने वाली बात यह है कि राज्यसभा में वेदना चौव्हान द्वारा पूछे गये एक प्रश्न के जवाब में कहा गया कि पिछले 5 वर्षों में करीब एक हजार, 798 परियोजनाओं ने देश में पर्यावरण मंजूरी संबंधी शर्तों का उल्लंघन किया है। इन परियोजनाओं में सबसे ज्यादा हिस्सा औद्योगिक परियोजनाओं का है जिसमें 679 परियोजनाओं के नियमों का उल्लंघन किया गया है। इसके बाद इन्फ्रास्ट्रक्चर और सीआरजेड की 626 परियोजनाएं, कोयले को छोड़कर खनन से जुड़ी 305 परियोजनाएं, कोयला खनन 92 परियोजनाएं, थर्मल पॉवर से जुड़ी 59 और हाइड्रो इलेक्ट्रिसिटी की 37 परियोजनाएं शामिल हैं। 

(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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