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धरती का बढ़ता ताप और धनी देशों का पाखंड
ऊर्जा के वैकल्पिक रास्तों को अपनाने की क्या क़ीमत होगी और इस क़ीमत का बोझ कौन उठाएगा? ये पहलू कोप-26 से पूरी तरह से ही गायब था। उसमें कम कार्बन उत्सर्जन के रास्ते के अपनाए जाने के लिए वित्त व्यवस्था के पहलू को, कार्बन उत्सर्जनों को कम करने के मुद्दे से काट ही दिया गया और अगले साल पर ही ठेल दिया गया।
प्रबीर पुरकायस्थ
01 Dec 2021
Translated by राजेंद्र शर्मा
Climate change
प्रतीकात्मक तस्वीर

धरती के ताप में बढ़ोतरी का मुकाबला करने का मतलब सभी देशों को कार्बन का अपना उत्सर्जन शुद्ध शून्य पर लाने का रास्ता दिखाना भर नहीं है। इसका संबंध इस लक्ष्य तक पहुंचने के क्रम में लोगों की ऊर्जा की जरूरतें पूरी करने से भी है। इस रास्ते पर बढ़ने के लिए, अगर खनिज ईंधनों से हाथ खींचा जाना है, जो कि खींचा जाना जरूरी है, तो अफ्रीका के तथा एशिया के बड़े हिस्से में आने वाले देशों को, जिनमें भारत भी शामिल है, अपनी जनता की बिजली की जरूरतें पूरी करने के लिए, किसी वैकल्पिक रास्ते की जरूरत होगी।

ऊर्जा ज़रूरतों के लिए वैकल्पिक रास्ता चाहिए

लेकिन, सवाल यह है कि इन गरीब देशों को, ऊर्जा जरूरतें पूरी करने के लिए खनिज ईंधन के उपयोग के उस रास्ते पर नहीं चलना है, जिस पर अमीर देश अब तक चलते आए हैं, तो उनके लिए दूसरा रास्ता क्या है? और यह वैकल्पिक रास्ता अपनाने की क्या कीमत होगी और इस कीमत का बोझ कौन उठाएगा? लेकिन, कोप-26 के एजेंडा से यह पहलू पूरी तरह से ही गायब था। उसमें कम कार्बन उत्सर्जन के रास्ते के अपनाए जाने के लिए वित्त व्यवस्था के पहलू को, कार्बन उत्सर्जनों को कम करने के मुद्दे से काट ही दिया गया और अगले साल पर ही ठेल दिया गया।

इस प्रसंग में कुछ आंकड़े महत्वपूर्ण हैं। यूरोपीय यूनियन तथा यूके (ईयू+) का कार्बन उत्सर्जन, समूचे अफ्रीकी महाद्वीप से दोगुने से भी ज्यादा है, जबकि उनकी आबादी, अफ्रीकी महाद्वीप से आधी से भी कम है। इसी प्रकार अमेरिका, जिसकी आबादी भारत के मुकाबले चौथाई से भी कम है, भारत की तुलना में उल्लेखनीय रूप से ज्यादा कार्बन का उत्सर्जन करता है।

नवीकरणीय ऊर्जा की लागत, खनिज ईंधन से ऊर्जा से कम बैठती है, इसलिए उत्तरोत्तर खनिज ईंधन की जगह पर पूरी तरह से, नवीकरणीय ऊर्जा का ही सहारा लेने में बहुत मुश्किल नहीं होनी चाहिए। और इसकी फंडिंग की भी चिंता करने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। कम से कम दलील तो ऐसी ही नजर आती है।

नवीकरणीय ऊर्जा की चुनौतियां 

बहरहाल, नवीकरणीय ऊर्जा की प्रति इकाई लागत आज खनिज ईंधन के मुकाबले कम भले ही पड़ती हो, पर सच्चाई यह है कि किसी खनिज ईंधन बिजलीघर के बराबर बिजली की आपूर्ति के लिए हमें, नवीकरण ऊर्जा की तीन से चार गुनी तक उत्पादन क्षमता का निर्माण करने की जरूरत होती है। इसका मतलब यह हुआ कि उतनी ही बिजली पैदा करने के लिए, नवीकरणीय स्रोतों से ऊर्जा उत्पादन पर चार गुनी ज्यादा पूंजी लागत आती है। इस तरह, नवीकरणीय बिजली की लागत जब खनिज ईंधन से बिजली की लागत के बराबर हो तब भी, उस पर कहीं ज्यादा पूंजी लगाने की जरूरत होती है, हालांकि नवीकरणीय ऊर्जा के मामले में ईंधन की अलग से लागत नहीं आती है क्योंकि वह तो प्रकृति से मुफ्त मिल रहा होता है।

अब किसी धनी देश के लिए, इसमें शायद कोई समस्या नहीं हो। लेकिन, किसी गरीब देश के लिए जो बिजली, सड़कों, रेलवे तथा अन्य सार्वजनिक सुविधाओं का, जिनमें स्कूल, विश्वविद्यालय व स्वास्थ्य आदि भी शामिल हैं, बुनियादी ढांचा खड़ा कर रहा हो, धनी देशों की वित्तीय मदद के बिना ऊर्जा पथ का यह बदलाव करना आसान नहीं है। इसीलिए, अमीर देशों का खुद आर्थिक सहायता की कोई वचनबद्घता स्वीकार किए बिना ही, गरीब देशों से शून्य उत्सर्जन की वचबद्घताओं की मांग करना, पूरी तरह से पाखंडपूर्ण है। ऐन मुमकिन है कि कल को वहीं धनी देश इन गरीब देशों से यह मांग करने लगें और लगता है कि ऐसा ही होने वाला है कि तुमने शून्य कार्बन उत्सर्जन का वादा किया है, अब हमसे ऊंची ब्याज दर पर कर्ज लेकर अपना वादा पूरा करो। वर्ना पाबंदियों का सामना करने के लिए तैयार रहो। दूसरे शब्दों में गरीब देशों को हरित साम्राज्यवाद के एक नये रूप का सामना करना पड़ रहा होगा।

बिजली के मुख्य स्रोत के रूप में नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का सहारा लेने की दूसरी समस्या यह है कि इसके लिए बिजली ग्रिड को बिजली के अल्पावधि तथा दीर्घावधि भंडारण की व्यवस्थाओं के लिए, अच्छी खासी अतिरिक्त लागत लगानी होगी। ऐसा करना, इन स्रोतों से बिजली के उत्पादन में आने वाले अल्पावधि या मौसमी उतार-चढ़ावों की भरपाई करने के लिए जरूरी होगा। मिसाल के तौर पर इसी साल जर्मनी में, गर्मियों के मौसम में हवाओं की गति में खासी कमी देखने को मिली थी और इसके चलते वहां पवन ऊर्जा उत्पादन में भारी गिरावट दर्ज हुई थी। बिजली उत्पादन में इस गिरावट की भरपाई जर्मनी ने कोयले से चलने वाले बिजलीघरों से बिजली उत्पादन बढ़ाने के जरिए की थी और इसके चलते उसके ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में भारी बढ़ोतरी दर्ज हुई थी। लेकिन, जिन देशों में इस तरह के खनिज ईंधन चालित बिजलीघर हों ही नहीं, ऐसे देश क्या करेंगे?

उतार-चढ़ावों की भरपाई की चुनौती

नवीकरणीय ऊर्जा के मामले में रोजमर्रा के उतार-चढ़ावों की भरपाई फिर भी बड़ी-बड़ी, ग्रिड के आकार अनुपात की बैटरियों से की जा सकती है, लेकिन मौसमी बदलावों की भरपाई ऐसी बैटरियों से करना भी संभव नहीं होगा। उसके लिए या तो जलविद्युत के सहारे पम्प्ड-अप भंडारण की व्यवस्थाओं का सहारा लेना होगा या फिर फ्यूल सैलों में उपयोग के लिए, बड़ी मात्रा में हाइड्रोजन का भंडारण करना होगा। पम्प्ड-अप भंडारण की जल-विद्युत व्यवस्थाओं का मतलब है, जब ग्रिड में अतिरिक्त बिजली हो, उस समय इसके सहारे पानी को धकेलकर जलाशय में चढ़ाना और जब बिजली की कमी हो तो इसकी मदद से बिजली पैदा करना। नवीकरणीय बिजली के ग्रिड के मौसमी उतार-चढ़ावों की भरपाई करने के लिए, पर्याप्त रूप से बड़ी मात्रा में हाइड्रोजन का भंडारण कर के रखना, एक और संभव विकल्प हो सकता है। लेकिन, उसे किसी वास्तविक विकल्प के रूप में स्वीकार करने से पहले, उसकी तकनीकी तथा आर्थिक व्यावहारिकता की जांच-पड़ताल करने की जरूरत होगी।

असली नुक्ता यह है कि पूरी तरह से नवीकरणीय ऊर्जा पर आधारित ग्रिड के रास्ते के अपनाए जाने के लिए, अब भी प्रौद्योगिकी के स्तर पर कुछ दूरी तय किया जाना बाकी है। और इस तरह की ऊर्जा के उत्पादन के रोजमर्रा के या मौसमी उतार-चढ़ावों की जरूरतें पूरी करने के लिए, संकेंद्रित खनिज या नाभिकीय ऊर्जा स्रोतों की जरूरत हो सकती है। इसके लिए नयी प्रौद्योगिकियों का विकास करने की जरूरत होगी।

ऐसे मामले में खनिज ईंधनों के उपयोग का अर्थ है, कार्बन उत्सर्जन के उलट कार्बन सोखने की प्रौद्योगिकियों का उपयोग। संक्षेप में यह कि इस ईंधन को जलाने की प्रक्रिया में निकलने वाली कार्बन डाइ आक्साइड को हवा में जाने देने की जगह, उसका भूमिगत रिजर्वायरों में पम्प कर के भंडारण कर लिया जाए। धनी देशों में कार्बन सोखने की प्रौद्योगिकी की ऐसी सभी परियोजनाओं से इस विचार से हाथ ही खींच लिया गया था कि नवीकरणीय ऊर्जा से ही कार्बन उत्सर्जनों की समस्या को पूरी तरह से हल कर लिया जाएगा। लेकिन, अब यह साफ दिखाई दे रहा है कि ग्रिड में ऊर्जा के एकमात्र स्रोत के रूप में नवीकरणीय ऊर्जा काफी नहीं होगी और इसके साथ ही पूरक के तौर पर कार्बन सोखने की प्रौद्योगिकियों समेत, अन्य समाधानों की भी पड़ताल करने की जरूरत हो सकती है।

अमीर देशों का दोहरापन

अल्पावधि में नाभिकीय बिजली इसके लिए समाधान बनती नजर नहीं आती है। इसका मतलब यह है कि अल्पावधि समाधान के तौर पर हमारे पास गैस, तेल तथा कोयला ही होंगे। यहीं पर धनी देशों का दोगलापन उजागर हो जाता है। यूरोप और अमेरिका के पास पर्याप्त गैस संसाधन जमा हैं। लेकिन, भारत और चीन के पास ऐसे गैस संसाधन नहीं हैं। इसकी जगह पर, उनके पास कोयला है। लेकिन, बजाए इस पर चर्चा को केंद्रित करने के कि हरेक देश को कितनी ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन तक खुद को सीमित करना चाहिए, धनी देशों ने बहस को इस पर केंद्रित करने का फैसला कर लिया कि किस ईंधन के उपयोग को उत्तरोत्तर खत्म किया जाना चाहिए। बेशक, समान मात्रा में ऊर्जा पैदा करने में, कोयले के उपयोग की स्थिति में, गैस के उपयोग के मुकाबले दोगुनी कार्बन डाइआक्साइड का उत्सर्जन होता है।

लेकिन, इसका मतलब यह भी तो है कि अगर कोयले से पैदा की जा रही बिजली के मुकाबले, दोगुनी बिजली गैस से पैदा की जा रही होगी, तो दोनों मामलों में बराबर कार्बन उत्सर्जन हो रहा होगा। अगर अमरीका या ईयू+ (यूरोपीय यूनियन+यूके) भारत या अफ्रीका के मुकाबले ज्यादा कार्बन उत्सर्जन कर रहे हैं, तो सिर्फ कोयले के उपयोग को उत्तरोत्तर खत्म करने की वचनबद्घताएं ही क्यों मांगी जा रही हैं और गैस के उपयोग से होने वाले कार्बन उत्सर्जनों को उत्तरोत्तर खत्म करने की ऐसी ही वचनबद्घताओं का तकाजा अमरीका या ईयू+ से क्यों नहीं किया जा रहा है?

यहीं ऊर्जा न्याय का प्रश्न महत्वपूर्ण हो जाता है। अमेरिका का प्रतिव्यक्ति ऊर्जा उपयोग भारत के मुकाबले नौ गुना ज्यादा है और यूके का ऊर्जा उपयोग, छ: गुना ज्यादा। और अगर हम उप-सहारावी अफ्रीका के उगांडा जैसे देशों या सेंट्रल अफ्रीकी रिपब्लिक को देखें तो, उनका ऊर्जा उपयोग तो और भी निचले स्तर पर बैठता है। अमरीका इन देशों से 90 गुना ज्यादा ऊर्जा का उपयोग कर रहा है और यूके, 60 गुना ज्यादा! तब हम इस पर बहस क्यों कर रहे हैं कि किन ईंधनों को उत्तरोत्तर खत्म करने की जरूरत है और देशों के अपने कार्बन उत्सर्जनों में कितनी कटौतियां करने की जरूरत है और फौरन कटौतियां करने की जरूरत है?

हम यहां कार्बन अवकाश की समतापूर्ण हिस्सेदारी की और इसकी बात नहीं कर रहे हैं कि अगर किसी देश ने इस कार्बन अवकाश में से अपने जायज हिस्से से ज्यादा का इस्तेमाल कर लिया है, तो इसके लिए गरीब देशों की क्षतिपूर्ति कैसे की जानी चाहिए। हम तो यहां सिर्फ इतना ध्यान दिला रहे हैं कि नैट-जीरो तथा कुछ खास ईंधनों का उपयोग उत्तरोत्तर खत्म किए जाने की बात कर के, अमीर देश अनुपात से अधिक कार्बन उत्सर्जन के अपने रास्ते पर चलते रहना चाहते हैं, जबकि दूसरे देशों के लिए लगातार नये-नये लक्ष्य प्रस्तुत करते जा रहे हैं।

पाखंड की पराकाष्ठा
और पाखंड की पराकाष्ठा का ताज तो नार्वे के ही सिर पर सज रहा है। एक ओर तो नार्वे खुद अपने तेल तथा गैस उत्पादन को बढ़ाने में लगा हुआ है और दूसरी ओर वह, सात अन्य नॉर्डिक तथा बाल्टिक देशों के साथ मिलकर, विश्व बैंक से इसके लिए लॉबी कर रहा है कि उसे अफ्रीका में तथा अन्यत्र, सभी प्राकृतिक गैस परियोजनाओं के लिए वित्त मुहैया कराना बंद कर देना चाहिए। (फॉरेन पॉलिसी, ‘रिच कंट्रीज़ क्लाइमेट पॉलिसीज़ ऑर कोलोनिअलिज्म इन ग्रीन’, विजय रामचंद्रन, नवंबर 3, 2021)

बहरहाल, इस मामले में नार्वे नंगई से अपना खेल खेल रहा हो सकता है, बहरहाल कोप-26 में पूरे 20 देशों ने नार्वे के साथ मिलकर इस तरह के प्रस्ताव पेश किए थे। उनके लिए तो जलवायु परिवर्तन संबंधी वार्ताओं का भी मकसद यही है कि किस प्रकार वे ऊर्जा के मामले में अपनी प्रभुता की हैसियत बनाए रख सकते हैं और दूसरी ओर सबसे गरीब देशों को, न सिर्फ पर्यावरण की अब तक अपनी क्षति के लिए, किसी भी प्रकार की क्षतिपूर्ति से ही नहीं, अपनी जनता को गुजारे के लिए आवश्यक बिजली मुहैया कराने के जरिए, वित्तीय संसाधनों से भी वंचित कर सकते हैं।

इतना तो साफ ही है कि अगर हम ग्रीन हाउस गैसों के अब तक चल रहे उत्सर्जन को नहीं रोकेंगे, तो हमारा कोई भविष्य ही नहीं रहेगा। लेकिन, अगर हम गरीब देशों की ऊर्जा की न्यूनतम जरूरतें पूरी करने का रास्ता नहीं निकालते हैं, तो इन देशों के विशाल हिस्से तो तबाह ही हो जाएंगे। क्या हम यह मान सकते हैं कि ऐसी स्थिति बहुत समय तक चल सकती है कि उप-सहारावी अफ्रीका, अमरीका के मुकाबले नव्बेवें हिस्से के बराबर ऊर्जा में ही गुजारा करता रहेगा और बाकी दुनिया के लिए इसके लिए कोई दुष्परिणाम नहीं होंगे? और मोदी तथा उनके भक्तों को जरूर यह लग सकता है कि भारत, एक विकसित देश बल्कि महाशक्ति ही बनने के करीब है। लेकिन, सच्चाई यह है कि ऊर्जा उपयोग के लिहाज से हम अफ्रीका के ही ज्यादा नजदीक पड़ते हैं, न कि चीन के या अमीरों के क्लब यानी अमरीका, योरपीय यूनियन तथा यूके के।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें: Global Warming and the Hypocrisy of Rich Countries

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