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कोविड : लॉकडाउन के बाद की दुनिया!
...लॉकडाउन उनके घुटने ले गया। घर पर बैठे-बैठे और बिना किसी से बतियाये सिर्फ़ टीवी के भरोसे कब तक स्वस्थ रहेंगे?
शंभूनाथ शुक्ल
20 May 2021
कोविड : लॉकडाउन के बाद की दुनिया!
'प्रतीकात्मक फ़ोटो' साभार: India Today

अशोक जी 70 के क़रीब हैं, लेकिन बहुत ही फुर्तीले और उत्साही पत्रकार रहे हैं और आज भी लिखते-पढ़ते रहते हैं। कल फ़ोन आया तो बताने लगे कि घुटने एकदम जवाब दे गए हैं। मैंने कहा, अरे दो-तीन साल पहले तो आप कैलाश-मानसरोवर की यात्रा पर गए थे और बहुत ही दुर्गम चढ़ाई पर आप आसानी से चढ़ गए थे। जवाब में जो उन्होंने बताया उसे कोविड-काल के लॉकडाउन के साइड इफ़ेक्ट के रूप में समझा जाए। उन्होंने कहा कि लॉकडाउन उनके घुटने ले गया। घर पर बैठे-बैठे और बिना किसी से बतियाये सिर्फ़ टीवी के भरोसे कब तक स्वस्थ रहेंगे?

यह अकेले अशोक जी की पीड़ा नहीं है, करोड़ों बच्चों, बूढ़ों और नौजवानों की पीड़ा है। घर से निकल नहीं सकते, कहीं आ-जा नहीं सकते और लैपटॉप, मोबाइल अथवा टीवी के सामने दिन भर उकड़ूँ बैठे रहते हैं। ऐसे में घुटने तो जाएँगे ही। आँखों पर भी असर पड़ेगा। एक वर्ष से ऊपर हो गया, बच्चे ऑन-लाइन पढ़ाई कर रहे हैं। उनका उनके स्कूल से कोई लाइव संवाद नहीं है। वे बच्चे जिन्होंने नर्सरी में दाख़िला लिया था, वे कैसे जानेंगे कि स्कूल क्या होता है?

हर व्यक्ति घर में बैठा घुट रहा है और इस वज़ह से निराशा उसमें घर करती जा रही है। टीवी या अख़बार उसे कोई वैज्ञानिक सोच की दिशा नहीं दे रहे बल्कि वे उसे और भयभीत कर रहे हैं। ऐसे में कोविड काल के बाद की सोच कर ही मन में आशंका भर जाती है, कि उस समय लोग कैसे नॉर्मल होंगे? आज तो परस्पर संवाद के स्तर की हालत यह है, कि अड़ोसी-पड़ोसी भी या तो फ़ोन पर अथवा छज्जे से मुंडियाँ निकाल कर एक-दूसरे से बस पूछ लेते हैं कि ‘ठीक हो?’ अगला कहता है, ‘बस ठीक ही हूँ!’ वह यह कहते हुए फ़ोन रख देता है कि “चलो ठीक है!”

समाज पारस्परिक हेल-मेल और संवाद से बनता है। एक-दूसरे के दुःख-सुख में भागीदारी से विकसित होता है। लेकिन कोरोना ने सारे संबंध ही समाप्त कर दिए। न किसी ने पड़ोसी को सहारा दिया न बाप कोविड से मरे बेटे का मुँह देख पाया। यहाँ तक कि सगे रिश्तेदार भी अंत्येष्टि में शरीक नहीं हो पाए, न बीमार का हाल-चाल लेने अस्पताल जा पाए। तब कैसे कोरोना जाने के बाद लोग सामान्य हो पाएँगे? समाज के सारे आपसी संबंध इस लॉकडाउन की बलि चढ़ गए। यानी तन और मन दोनों से कोरोना का लॉक-डाउन बीमार कर गया। जबकि इससे बचा जा सकता था बशर्ते सरकार कोरोना से निपटने में अपना कौशल दिखाती। उसे संभावित परेशानियों पर पहले से सोच लेना था।

यूरोप और अमेरिका की देखा-देखी लॉकडाउन नहीं करना था। सवाल फ़िज़िकल डिस्टैंसिंग का था सोशल डिस्टैंसिंग का नहीं। इसके लिए सब कुछ ठप नहीं करना था बल्कि सब कुछ चलने देना था बस थोड़ा चातुर्य सरकार से अपेक्षित था। मसलन सरकार काम के घंटे कम कर देती और चौबीसों घंटे जागृत रहती। जैसे शिफ़्ट छह-छह घंटों की होती तथा चार होतीं। इससे दफ़्तरों और काम करने के स्थानों पर अनावश्यक जमघट न होता और न ही बेरोज़गारी की मार पड़ती। ऐसा बहुत-से देशों ने किया भी। इससे मज़दूरों का पलायन न होता न घरों से बैठ कर ऑनलाइन लोग जुटे रहते। कोरोना की रफ़्तार धीमी होते ही बच्चों के स्कूल खुलते और उनको बंद कमरों में तोता-रटंत विद्या की बजाय खेल के मैदानों में ले जाकर खेल के साथ पढ़ाया जाता। इससे वे पढ़ते भी, खेलते भी और यूँ अलग-थलग न पड़ते। पढ़ाई से अधिक ज़रूरी है उनका स्वस्थ रहना, जो बिना घर से निकले सम्भव नहीं।

सरकार के पास और भी बहुत सारे उपाय थे, जिनके बूते कोरोना से निपटा जा सकता था। लेकिन सरकार तो आपदा से अवसर तलाशने के मूड में थी। इस कोरोना की भयावहता को और बढ़ा-चढ़ा कर बताने से सारी अक्षमताओं पर परदा पड़ता था। इससे कुछ लोगों, ख़ासकर अस्पताल और फ़ार्मा उद्योग की बल्ले-बल्ले थी। इसलिए सरकार ने यही किया। उसने कभी भी आम जनता के नज़रिए से इसे नहीं देखा। ग़रीबों को कुछ राशन या उनके एकाउंट में कुछ रुपए डाल देने से न कोरोना रुकने वाला था, न इस कोरोना के कारण उपजे नैराश्य को कम करने का मक़सद था। यूरोप, अमेरिका और कनाडा में लॉक-डाउन का वैसा पालन नहीं हुआ, जैसे कि भारत में। वहाँ दुक़ानें भी खुलीं और उद्योग भी, बस फ़िज़िकल डिस्टैंसिंग रखी गई।

इसके विपरीत भारत में अजीबो-गरीब पॉलिसी रही। यहाँ फ़िज़िकल की बजाय सोशल डिस्टैंसिंग को अमल में लाया गया। लोग एक-दूसरे से दूर रहने के चक्कर में बिदके ज़्यादा। मानवीय संवेदनाएँ मरती गईं। कोई किसी के गाढ़े वक्त में काम नहीं आया, यहाँ तक कि परिवारी-जन भी। एक घर में रहते हुए भी आपस में एक-दूसरे पर शक करते रहे। किसी ने खाँसा या छींका तो उससे दूरी बना ली, बजाय इसके कि उसके लिए दवा मंगाते। या उसे डॉक्टर के पास ले जाते। ख़ुदा-न-ख़ास्ता अगर घर में बीमार व्यक्ति नहीं रहा तो उसको कंधा देने वालों की कमी पड़ गई।

किंतु जब सरकार ख़ुद संवेदन-शून्य हो जाए तो किया भी क्या जा सकता है। चलिए, मान लिया कि कोरोना की पहली लहर आकस्मिक विपदा थी और सरकार को नहीं पता था कि क्या किया जाए अथवा देश में चिकित्सा के बुनियादी ढाँचे का अभाव था। लेकिन एक वर्ष बाद आई दूसरी लहर के वक्त तो सरकार के पास राहत कोष का पैसा भी था, अनुभव भी था और आपदा की भयावहता का अंदाज़ भी, तब फिर सरकार क्यों आँख मूँदे रही? जबकि दुनिया भर के वैज्ञानिक चेता रहे थे कि कोरोना की दूसरी लहर और ज़्यादा मारक होगी। सरकार ने दूसरी लहर को भी तदर्थ भाव से लिया। सोच लिया कि अरे महामारी तो आती ही रहती है। न अस्पताल, न चिकित्सक न आवश्यक दवाएँ अथवा चिकित्सकीय उपकरण। ऐसे में लोगों के पास ज़ान गँवाने के अलावा चारा क्या था! सर्वाधिक लोग इस दूसरी लहर में मरे और आज भी मर रहे हैं। लेकिन सरकार ने कोई ऐसी नीति नहीं बनायी कि भविष्य में अगर तीसरी लहर आएगी तो कैसे निपटा जाएगा?

आपदाओं से निपटने की फ़ूलप्रूफ़ तैयारी ही किसी सरकार की असली परीक्षा होती है। इससे पता चलता है कि उस सरकार के मन में अपनी जनता के कल्याण के लिए क्या-क्या योजनाएँ हैं। संकट के समय जनता को बेसहारा छोड़ देने का मतलब है कि या तो वह सरकार दिशाहीन है अथवा जनता के दुःख और पीड़ाओं के प्रति उसमें विरक्ति का भाव है। शायद यही कारण है कि ख़ुद भाजपा सरकार के मंत्री, सांसद और विधायक भी सरकार के नाकारापन के ख़िलाफ़ कुछ-कुछ बोलने लगे हैं। अभी पिछले दिनों मोदी सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री संतोष गंगवार ने उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार के विरुद्ध कड़ा बयान दिया। मंगलवार को उत्तर प्रदेश सरकार के एक और मंत्री विजय कश्यप का कोरोना से निधन हो गया। और तो और अब भाजपा का पितृ-संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी इस सरकार की निंदा करने लगा है, (भले ही दिखावे को सही)। संघ के सरसंघ चालक मोहन भागवत ने भी कहा कि सरकार कोरोना प्रबंधन में अक्षम साबित हुई है।

मोदी सरकार के लिए ये सब बातें संकेत हैं कि उसे चेत जाना चाहिए और कोरोना से लड़ने के लिए सिर्फ़ वर्चुअल मीटिंग करने की बजाय कुछ ठोस कदम उठाने चाहिए। राजनीति के लिए अभी बहुत समय है, फ़िलहाल तो ज़रूरत लोगों को बचाने की है। सब मास्क से मुँह ढक लें या घर से बाहर न निकलें समस्या का हल नहीं है। अस्पताल में पर्याप्त बेड हों, सभी ज़रूरी दवाएँ हों तथा आवश्यक उपकरण भी। अभी देश में इतने लोग बीमार नहीं हैं न संक्रमित कि दवाओं व ऑक्सीजन का टोटा पड़ जाए। असल चीज़ है इन सबके समान वितरण की। कहा जाता है कि कुछ लोग डर से दवा ख़रीद रहे हैं या अस्पताल में बेड बुक कराते हैं, तो यह भी सरकार की नाकामी है। लोग भयातुर हैं इसलिए वे तो यह सब करेंगे ही। किंतु सरकार से यह अपेक्षा होती है कि वह इन सब पर अंकुश रखे। जिस पर मोदी सरकार आँख मूँदे है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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