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डेटा: ग़रीबी कम करने में नाकाम उच्च विकास दर
सरकार को असमानता को कम करना चाहिए और जीडीपी विकास दर को बढ़ा-चढ़ा कर पेश नहीं करना चाहिए। ग़रीबों को कोने में धकेलते हुए उनकी क़ीमत पर, आय और पूंजी को चंद मुट्ठियों में जमा किया जा रहा है।
भरत डोगरा
27 Nov 2021
Translated by महेश कुमार
poverty

कोविड-19 महामारी के दौरान लंबे समय तक चले लॉकडाउन और विस्तारित आर्थिक बंद ने भारत की आबादी के हर वर्ग को चोट पहुंचाई है, लेकिन गरीबों पर इसका सबसे बड़ा बोझ पड़ा है। इसका कारण केवल यही नहीं है कि महीनों तक बंद रही उत्पादक गतिविधियों के कारण ऐसा हुआ है, बल्कि पिछले तीन दशकों से मौजदु प्रवृत्ति यानी बढ़ती असमानता को उसने ओर बढ़ा दिया है। 

यूएनडीपी द्वारा हाल ही में जारी नवीनतम बहुआयामी गरीबी रिपोर्ट में पाया गया है कि भारत के भीतर दुनिया के 1.39 अरब गरीबों में से करीब 227 मिलियन लोग रहते हैं। रिपोर्ट में यह भी पाया गया है कि छह बहुआयामी गरीबों में से पांच अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ी जातियों (एससी, एसटी और ओबीसी) से हैं। इसलिए, भारत सबसे अधिक संख्या वाले गरीबों का घर है जो भूख और कुपोषण से लड़ते हैं, शिक्षा से वंचित हैं, और जाति के आधार पर भेदभाव का सामना करते हैं। इससे पहले, प्यू रिसर्च सेंटर की मार्च 2021 की एक रिपोर्ट से पता चला था कि जैसे-जैसे महामारी का प्रभाव तेज हुआ, उसने 75 मिलियन अतिरिक्त भारतीयों को गरीबी में धकेल दिया गया था, और मध्यम वर्ग की आबादी 32 मिलियन तक सिकुड़ गई थी। 

हालांकि भारत में मुख्यधारा की चर्चा अब जीडीपी विकास दर के बारे में है, लेकिन महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या इससे गरीबों को आर्थिक रूप से संपन्न होने में मदद मिलती है? महामारी के दौरान बढ़ती असमानता के कारण भारत में गरीबी ने 60 प्रतिशत की वृद्धि का योगदान दिया है, फिर भी अरबपतियों की तीसरी सबसे बड़ी संख्या हमारे देश में है  इसलिए यह स्पष्ट है की गरीबी को कम करने में जीडीपी विकास दर का संबंध काफी कमजोर है या उसका कोई संबंध नहीं है।

भारतीय अर्थव्यवस्था में असमानता रिकॉर्ड स्तर की है। राष्ट्रीय धनराशि का करीब आधा हिस्सा अब शीर्ष 1 प्रतिशत लोगों के हाथों में जमा हो गया है। इस बीच, नीचे का 20 प्रतिशत तबका राष्ट्रीय धनराशि के लगभग 3प्रतिशत पर निर्वाह करता है। यहां तक कि जब हम सबसे कम आय वाली आबादी के 50 प्रतिशत पर विचार करते हैं, तब भी राष्ट्रीय आय में इसका केवल 15 प्रतिशत हिस्सा मिलता है, जबकि शीर्ष 1 प्रतिशत की आय का हिस्सा 20 प्रतिशत से अधिक पाया गया है। इसके अलावा, शीर्ष 1प्रतिशत ने पिछले तीस वर्षों में राष्ट्रीय धन में अपने हिस्से को लगभग तीन गुना और राष्ट्रीय आय में लगभग दोगुना कर लिया है। भारत अब दुनिया की सबसे असमान अर्थव्यवस्थाओं में शामिल होने के करीब है।

हाल के दशकों में, ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि पुनर्वितरण का काम लगभग ठप हो गया है। भूमि सीलिंग या हदबंदी कानूनों को तेजी से नजरअंदाज किया जा रहा है या उन्हे खत्म किया जा रहा है। इसके बजाय, सरकारें उद्योग और शहरीकरण के लिए भूमि हासिल करने पर ध्यान केंद्रित कर रही हैं। खासकर छोटे किसान कर्ज से तनाव में हैं। 2001 से शुरू होने वाले दशक के दौरान हर घंटे सौ किसान भूमिहीन हो रहे हैं। 

श्रम कानूनों को संहिताबद्ध करने की आड़ में, पहले हासिल किए गए सभी लाभ नष्ट हो गए हैं। असंगठित क्षेत्र के कामगारों के लिए सामाजिक सुरक्षा लाभ के खोखले वादे किए जा रहे हैं। महामारी के दौरान अल्पकालिक राहत को छोड़कर, बुजुर्गों और विधवाओं के लिए पेंशन योजनाएं स्थिर हैं, या उनके बजट आवंटन में कटौती की गई है। पहले से सीमित लाभों को कम करना शुभ संकेत नहीं है। संगठित क्षेत्र के अधिकांश श्रमिक कम सुरक्षित हैं क्योंकि संविदात्मक कार्य आदर्श बन गया है।

ये भी देखें: निजीकरण से बढ़ती है ग़रीबी, अमीर होते और अमीर

कराधान की नीतियों ने भी असमानता को बढ़ा दिया है, क्योंकि हाल के वर्षों में अप्रत्यक्ष करों की हिस्सेदारी में वृद्धि हुई है जबकि कॉर्पोरेट कर की दरों में कमी आई है। धन और आय में शीर्ष 1 प्रतिशत की तेजी से बढ़ती हिस्सेदारी से आर्थिक या सामाजिक उत्थान के लिए संसाधन जुटाने की सरकार की अनिच्छा बढ़ी है।

जनवरी में जारी 'द इनइक्वलिटी वायरस' और उसके भारत सप्लीमेंट पर ऑक्सफैम की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि एक अकुशल कर्मचारी को महामारी के दौरान एक घंटे में अरबपति मुकेश अंबानी ने जितना धन बनाया है, उसे बनाने में 10,000 साल लगेंगे। हर सेकंड, अरबपति जो धन बनाता है उसे एक कर्मचारी को कमाने में तीन साल लगेंगे। रिपोर्ट में कहा गया है कि मार्च 2020 के बाद से कई प्रमुख अरबपतियों का धन तेजी से बढ़ा, खासकर तब जब भारत ने दुनिया के सबसे बड़े लॉकडाउन की घोषणा कीथी। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि अप्रैल 2020 में कई दिनों तक हर घंटे 1,70,000 लोगों ने अपनी नौकरियां खोई हैं। 

इंडिया सप्लीमेंट से पता चलता है कि जो धन इस दौरान देश के सबसे धनी अरबपतियों ने बनाया है उससे 400 मिलियन अनौपचारिक श्रमिकों को महामारी के दौरान गरीबी में धसने के खतरे के चलते उन्हे कम से कम पांच महीने तक गरीबी रेखा से ऊपर रखा जा सकता था। ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार लॉकडाउन के बाद भारतीय अरबपति 35 प्रतिशत अमीर हुए, जिसका अर्थ है कि वे 2009 के बाद से 90 प्रतिशत अमीर हुए हैं और उन्होने 422.9 बिलियन अमेरिकी डॉलर की कमाई की है। महामारी के दौरान शीर्ष 11 भारतीय अरबपतियों द्वारा बनाई गई संपत्ति से स्वास्थ्य मंत्रालय के बजट को दस साल तक बनाए रखा जा सकता है।

अचानक हुए लॉकडाउन और अनौपचारिक श्रमिकों की अमानवीय स्थितियों के कारण बड़े पैमाने पर पलायन ने भारत में एक स्वास्थ्य आपातकाल को मानवीय संकट में बदल दिया था। लॉकडाउन के दौरान, कई अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों की भूख, आत्महत्या, थकावट, दुर्घटनाओं, पुलिस की बर्बरता और समय पर चिकित्सा न मिलने से मृत्यु हो गई थी। लॉकडाउन के सिर्फ एक महीने के भीतर, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने अप्रैल 2020 की शुरुआत में मानवाधिकारों के उल्लंघन के 2,582 से अधिक मामले दर्ज किए हैं। 

भारत के गरीबों पर इसके दीर्घकालिक प्रतिकूल प्रभाव पड़ेंगे, और जैसे-जैसे चीजें स्पष्ट होंगी, असमानताएं बढ़ेंगी। शिक्षा, ऊपर की ओर गतिशीलता का पसंदीदा मार्ग है लेकिन महामारी के दौरान यह मार्ग गंभीर रूप से आहत हुआ है, और पहले के मुक़ाबले प्राथमिक शिक्षा तक पहुंच में असमानता बढ़ी है। ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन ने एक अध्ययन में कहा कि स्कूल बंद होने से 25 करोड़ बच्चे आहत हुए हैं। स्कूली शिक्षा में लंबे समय तक व्यवधान के कारण स्कूल छोड़ने वालों की दर दोगुनी हो गई है। ड्रॉप-आउट बच्चों में अधिकांश निम्न-आय वाले परिवारों से हैं। केवल 4 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों के पास कंप्यूटर है। और 15 प्रतिशत से कम ग्रामीण परिवारों के पास इंटरनेट कनेक्शन है, जैसा कि राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय ने इस साल जुलाई में प्रकाशित "घरेलू सामाजिक उपभोग: शिक्षा" नामक अपने अध्ययन में पाया था।

लड़कियों के स्कूल जाने की संभावना कम हो गई है, जैसा कि हाल ही में बहुआयामी गरीबी अध्ययनों में पाया गया है। परिवारों के लिए गरीबी से उभरने के लिए शिक्षित महिलाएं और लड़कियां एक महत्वपूर्ण कारक हैं, लेकिन हाल के दिनों में महिलाओं को बहुत अधिक बहिष्करण का सामना करना पड़ा है। अप्रैल 2020 में लगभग 17 मिलियन महिलाओं ने अपनी नौकरी खो दी, और लॉकडाउन से पहले से मौजूद महिला बेरोजगारी दर 18प्रतिशत अब 15 प्रतिशत ओर बढ़ गई है।

नवउदारवाद के पिछले तीन दशकों में भारत में असमानताएँ और बढ़ गईं, और महामारी ने स्थिति को और बिगाड़ दिया है। केवल विकास दर की वृद्धि से काम नहीं चलेगा, क्योंकि विशिष्ट और व्यापक प्रयास ही हैं जो असमानता को कम करने में मदद करेंगे, जो भारत की बढ़ती गरीबी के मूल में है।

(भरत डोगरा एक पत्रकार और लेखक हैं जो कई सामाजिक आंदोलनों से जुड़े हुए हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

Data: Inequality Breeds Poverty, High Growth Rates Cannot Fix It

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