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बीच बहस : फ्रांस ; कार्टून और हत्या : अभिव्यक्ति की आज़ादी और आहत भावना
सीएसडीएस के प्रोफेसर हिलाल अहमद लिखते हैं कि इस्लाम के शुरुआती समाज में हमें पैगंबर मोहम्मद के साथ समझौते और क्रिटिकल बातचीत की परंपरा दिखती है। इस तरह से इस्लाम मूलभूत तौर पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की वकालत करता है।
अजय कुमार
31 Oct 2020
फ्रांस

फ्रांस में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मायने समझाते हुए इतिहास का एक प्रोफेसर फ्रांसीसी पत्रिका शार्ली हेब्दो में छपा पैगंबर मोहम्मद का कार्टून दिखाता है। 18 साल के एक मुस्लिम लड़के को यह अपनी आस्था पर किया हुआ हमला लगता है। उसे यह बर्दाश्त नहीं होता है। वह उठता है और प्रोफेसर का सर कलम कर देता है। 

इस हत्या के बाद फ़्रांस के लोग सड़क पर उतर आते हैं। फ़्रांस के दो शहरों में श्रद्धांजलि देने के लिए इतिहास के प्रोफेसर के तस्वीर के साथ पैग़ंबर मोहम्मद के कार्टून भी लगाया जाता है। एक समारोह में फ़्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों इतिहास के प्रोफेसर की तारीफ करते हैं। फ्रांस के राष्ट्रपति इतिहास के  प्रोफेसर को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की लड़ाई का चेहरा बनाकर पेश करने लगते हैं। और संकल्प लेते हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की लड़ाई जारी रहेगी।

इसके कुछ दिन बाद फ्रांस के राष्ट्रपति अपने भाषण में कहते हैं कि पूरी दुनिया इस्लामी आतंकवाद की वजह से संकट में है। केवल फ्रांस ही इसका भुक्तभोगी नहीं है। पूरे यूरोप में सबसे अधिक मुस्लिम आबादी फ्रांस में रहती है। इस्लामिक अलगाववाद फ्रांस में कट्टरता पैदा कर रहा है। फ्रांस में एक तरह की काउंटर सोसाइटी बनाने की कवायद चल रही है। इसके तहत बच्चों को वे सिद्धांत दिए जा रहे हैं जो फ्रांस के सार्वजनिक जीवन के कानून में नहीं अपनाए जाते हैं। कुछ  बच्चों को फ्रांस के पब्लिक सपोर्टिग कंपलेक्स कम्युनिटी सेंटर से दूर रखा जा रहा है।

राष्ट्रपति आगे कहते हैं कि दिसंबर में सरकार एक बिल लाएगी। यह बिल फ्रांस के साल 1905 में अपनाए गए सेकुलर फ्रांस के आधारभूत सिद्धांत को और अधिक मजबूती प्रदान करेगा। इस बिल के तहत यह प्रावधान रखा गया है की सेहत खराब हो तभी बच्चे होम स्कूलिंग करें अन्यथा जो पढ़ाई स्कूल में करवाई जाती है, वहीं पढ़ाई बच्चे पढ़ें। फ्रांस के प्राइवेट स्कूलों के करिकुलम पर ध्यान दिया जाना है कि कहीं वे सेक्युलरिजम से भटक तो नहीं रहे हैं। ठीक ऐसा ही अनुबंध फ्रांस के सार्वजनिक जगह से जुड़ी संस्थाओं से भी करने की बात की गई है कि वे सेक्युलरिजम से न भटके। फ्रांस के ऑनलाइन कंटेंट पर कड़ी निगाह रखने की बात की गई है। क्योंकि जिस 18 साल के लड़के ने प्रोफेसर की दिनदहाड़े हत्या की थी वह ऑनलाइन कंटेंट से ही जहरीला बन चुका था।

फ्रांस के राष्ट्रपति का यह भाषण पूरी दुनिया के इस्लामिक समुदाय को बर्दाश्त नहीं हुआ।  पूरी दुनिया के अधिकतर इस्लामिक बहुल देश फ्रांस की मुखालफत करने सड़कों पर उतर आए। बांग्लादेश से लेकर पाकिस्तान और इरान से लेकर तुर्की के कई जगहों पर फ्रांस के राष्ट्रपति के पुतले जलाए गए। तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोआन ने कहा  ''जिस तरह से दूसरे विश्व युद्ध के बाद यहूदियों को निशाना बनाया जा रहा था उसी तरह से मुसलमानों के ख़िलाफ़ अभियान चल रहा है। यूरोप के नेताओं को चाहिए कि वे फ़्रांस के राष्ट्रपति को नफ़रत भरे अभियान रोकने के लिए कहें।''

यानी पूरी दुनिया में फ्रांस के खिलाफ इस्लाम के खिलाफ डर पैदा करने का आरोप लगाया जाने लगा। फ्रांसीसी हुकूमत के खिलाफ धर्मांधता अपनी चरम पर तैरने लगी। 

फ्रांस के खिलाफ गुस्सा इतना अधिक बढ़ गया कि हाथ में कुरान लिए हुए और अल्लाह हू अकबर का नारा लगाते हुए 21 साल के एक नौजवान ने फ्रांस में चर्च में घुसकर 3 लोगों पर हमला कर दिया। 

फ्रांस में पिछले 8 सालों में कट्टर इस्लाम की तरफ से की गई यह 36वीं घटना या हमला है। अब तक फ्रांस के सैकड़ों लोग इसमें अपनी जान गवा चुके हैं। 

खबरों में मौजूद फ्रांस से जुड़ी खबर की पृष्ठभूमि समझ लेने के बाद अब कुछ ऐसे संदर्भ समझ लेते हैं जो इन खबरों को सही तरह से समझने के लिए जरूरी है। 

सबसे पहला सवाल कि फ्रांस में धर्म को लेकर क्या राय है? फ्रांसीसी राज्य का धर्म के प्रति सरकारी सिद्धांत क्या है? 

साल 1789 में हुई फ्रांसीसी क्रांति का नारा ही स्वतंत्रता समानता और बंधुत्व का था। इस लक्ष्य को पाने में धर्म सबसे बड़ी बाधा थी। इसलिए फ्रांस की राष्ट्रीय विचारधारा ही सेकुलर विचारधारा है। लेकिन फ्रांस के लिए सेकुलर शब्द का अर्थ ठीक वैसा ही नहीं है जैसा भारत के लिए है।

भारत में सेकुलर शब्द का अर्थ यह है कि सब को आज़ादी है कि वह जो मर्जी सो धर्म अपनाए। राज्य धार्मिक मामलों में तब तक हस्तक्षेप नहीं करेगा जब तक धार्मिक मामलों की वजह से किसी तरह का नुकसान होता न दिखे। फ्रांस में यह बात नहीं है। फ्रांस भारत की सेक्युलरिजम से कुछ कदम आगे है।

फ्रांस का सरकारी धर्म है धर्म विहीन राज्य की स्थापना करना। धर्म से मुक्ति दिलाना। इसे फ्रांसीसी भाषा में लैसिते (Laicite) नाम से जाना जाता है। लैसिते का मतलब है आम आदमी। यानी आम आदमी धर्म से ऊपर है। और उन व्यवस्थाओं की तरफ बढ़ना है जहां धर्म की बजाय आम आदमी की श्रेष्ठता हो। फ्रांस में संगठित धर्म के प्रभाव को कम करने के लिए एक संस्था भी काम करती है। इस संस्था के वेबसाइट पर लैसिते की परिभाषा यह है कि व्यक्ति की अंतरात्मा की आवाज ही सर्वोपरि है। लेकिन यह भी इतनी सर्वोपरि नहीं होगी की फ्रांस के कानूनों से ऊपर चली जाए। इन सब का मतलब यह भी नहीं है कि फ्रांस में धर्म को मानने वाले लोग नहीं है। फ्रांस में आस्तिक, नास्तिक, धार्मिक और धर्म से मुक्ति पाए हुए सभी तरह के लोग रहते हैं। सबको अपनी मान्यताओं को मानने का अधिकार है। राज्य धर्म से तटस्थ है। बस अंतर इस मायने में है कि राज्य धर्म विहीन समाज के लिए भी काम करता है।

पीयू रिसर्च के मुताबिक साल 2050 तक फ्रांस में धर्म विहीन लोगों की संख्या दुनिया में सबसे अधिक हो जाएगी। रोमन कैथोलिक चर्च के प्रभाव में रहे पूरे यूरोप में बीसवीं शताब्दी तक यह विचारधारा बहुत अधिक प्रभावी रही। लेकिन मामला धर्म का था। धर्म की प्रभुता हटाने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर बहुत अधिक काम भी करना पड़ा। तकरीबन 115 साल पुराने सेकुलर कानून होने के बावजूद भी फ्रांस के कई बुद्धिजीवी यह कहते हुए पाए जाते हैं कि लैसिते फ्रांसीसी समाज पर ऊपर से थोपा हुआ कानून है। यहां यह समझ लेना जरूरी है कि फ्रांस में मौजूद दक्षिणपंथी और वामपंथी दोनों दल एक धर्म से मुक्त समाज बनाने के सपने में विश्वास रखते हैं।

दिखने में फ्रांस का यह नजरिया बहुत लुभावना लग रहा होगा। ऐसा भी लग रहा होगा कि इसमें गलत क्या है? लेकिन इसकी सबसे बड़ी गलती यह है कि यह दुनिया की यथार्थ के मुताबिक नहीं है। दुनिया के सारे समाजों को अगर एक साथ तौला जाए तो निष्कर्ष यह निकलेगा कि कुछ समाज बहुत ऊपर हैं और कुछ समाज बहुत नीचे हैं। सारे समाजों में बराबरी नहीं है। लेकिन इसमें सबसे गहरा पहलू यह होगा कि जिस पैमाने पर तौला जाएगा वह पैमाना यूरोप केंद्रित होगा। जरा सोच कर देखिए कि दुनिया की पूरी जीवन शैली में कौन सी संस्कृति हावी है? जवाब मिलेगा यूरोप की। पूरी दुनिया जींस पहनती है। जनवरी, फ़रवरी, मार्च-अप्रैल के सहारे महीने का नाम याद रखती है। अंग्रेजी सीखनी है। अंग्रेजी को सर्वश्रेष्ठ मानती है। सारी दुनिया यूरोप की संस्कृति के प्रभुत्व में जकड़ी हुई है। इसलिए धर्म विहीन समाज बनाने का अर्थ अगर यूरोप के रंग में रंग जाना है तो कोई भी दूसरा समाज इसका विरोध करेगा। लेकिन सवाल यह है कि विरोध कौन करेगा और किस तरीके से करेगा? कट्टर इस्लाम या उदार इस्लाम।

अल जजीरा पर प्रकाशित एक इंटरव्यू में फ्रांस के सभी तरह के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के अध्यक्ष यासिर लवाटी कहते है फ्रांस में मास सर्विलांस होता है। सबकी जांच परख की जाती है। ऐसे में अगर ऐसी घटनाएं घट जाती हैं तो इस पर किसी धर्म को जिम्मेदार ठहराने की बजाय राज्य को जिम्मेदारी लेनी चाहिए। 18 महीने बाद फ्रांस में चुनाव है। अर्थव्यवस्था की हालत खराब है। ऐसे में इस्लामिक आतंकवाद का नाम लेना एक तरह से आईडेंटिटी पॉलिटिक्स करने जैसा है।

फ्रांस के सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के जॉन स्लो कहना है कि दर्दनाक घटनाओं ने फ्रांस के नागरिकों को झकझोर कर रख दिया है। फ्रांस में रेडिकल इस्लाम की दखलअंदाजी बर्दाश्त के बाहर है। इस पर सरकार कड़े से कड़े कदम उठाना सही दिशा में ही उठाया गया कदम है।

अब फ्रांस से उठी खबर पर भारत की तरफ चलते हैं। भारत की तरफ चलने से पहले धर्म और नफरत को लेकर एक दार्शनिक किस्म की बात समझ लेते हैं।

धर्म के केंद्र में आस्था होती है। यही धर्म की सबसे बड़ी खासियत भी है और यही धर्म की सबसे बड़ी कमजोरी है। खासियत इस मायने कि दुनिया में कमजोर लोगों की तादाद ज्यादा है। यह कमजोर लोग इस आस्था में भरोसा कर अपने गुस्से, अपनी तकलीफ, अपनी परेशानियों सहित जिंदगी की हर छोटी बड़ी खुशी और दर्द के लिए इस दुनिया से परे किसी दूसरी सत्ता को शुक्रगुजार और जिम्मेदार ठहराते हैं। भगवान या अल्लाह इनके लिए एक ऐसा नाम है जिसका नाम लेकर वह दूसरों के साथ सही करने की कोशिश करते हैं और अपने साथ हो रहे गलत को भगवान या अल्लाह की मर्जी मान कर स्वीकार कर लेते हैं। इस तरह से दुनिया अपने अंदर असंख्य नाइंसाफ़ियों को ढोते हुए आगे बढ़ती रहती है। लेकिन यह तो हुई आस्था की खासियत है। आस्था की यह खासियत ही धर्म की सबसे बड़ी खामी भी होती है। इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह यह है कि आस्था इंसान को तर्क करने से रोकती है। तर्क विहीन इंसान अपनी मान्यताओं को लेकर भावुक होता है। यह अजीब तरह की भावना होती है। इंसान को मंत्रमुग्ध कर सकती है, गुस्से में डाल सकती है, दूसरों के खिलाफ नफ़रती बना सकती है, जहरीला बना सकती है। कभी कभार यह इतनी हावी भी हो सकती है कि दूसरों की हत्या करते समय कुछ भी गलत ना माने। जैसे कि इन मामलों में हुआ 18 साल का लड़का इस्लाम पर मौजूद ऑनलाइन कंटेंट से इतना अधिक रेडिकल हुआ कि दिनदहाड़े प्रोफेसर की हत्या कर दी।

कुछ जगहों और लोगों को छोड़ दिया जाए तो भारत के मुस्लिम समाज ने  फ्रांस में हुए रेडिकल इस्लाम की तरफ से इन हत्याओं का खुलकर विरोध किया। कई मुस्लिम नौजवानों ने खुलकर कहा कि मजहब नाम पर किसी भी तरह की हिंसा बिना लाग लपेट के गलत ही कही जानी चाहिए। अगर यह कहा जाए कि दूसरे इस्लामी मुल्क के मुकाबले भारत के मुस्लिम समाज ने इस घटना पर परिपक्व प्रतिक्रिया दी तो इसमें कोई गलत बात नहीं है। लेकिन सबसे तकलीफदेह बयान ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के ट्विटर अकाउंट से आया। इस संस्था की तरफ से यह ट्वीट किया गया कि  पैगंबर मोहम्मद के खिलाफ किसी भी तरह का मजाक बर्दाश्त करने के काबिल नहीं हो सकता है। मोहम्मद पैगंबर का मजाक उड़ने वालों ने अपने मनोरोगी होने का सबूत दिया है।

इस ट्वीट का कई लोगों ने विरोध किया। सीएसडीएस के प्रोफेसर हिलाल अहमद ने इस ट्वीट का जवाब देते हुए लिखा कि यह बताने के बावजूद की मोहम्मद अल्लाह के संदेशवाहक थे। उन्होंने बार-बार यह भी याद दिलाया कि वह एक इंसान भी थे। इस तरह से वे हमें आमंत्रित करते हैं कि हम उनके साथ दो तरफा संबंध बनाएं। इस्लाम के शुरुआती समाज में हमें पैगंबर मोहम्मद के साथ समझौते और क्रिटिकल बातचीत की परंपरा दिखती है। इस तरह से इस्लाम मूलभूत तौर पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की वकालत करता है। पैगंबर मोहम्मद के नाम पर किसी के साथ की गई हिंसा को सही ठहराना किसी भी तरह से ठीक नहीं है। इसी तरह से भारत के सजग मुस्लिमों की तरफ से इस हमले की खूब मुखालफत की गई। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि पूरी दुनिया में ईसाई धर्म के बाद दूसरा सबसे बड़ा धर्म मुस्लिम धर्म है। तकरीबन 200 करोड़ लोग पूरी दुनिया में मुस्लिम धर्म को मानने वाले रहते हैं। इससे 20 फ़ीसदी ज्यादा लोग ही दुनिया में ईसाई धर्म को मानने वाले लोग हैं। आखिरकार मुस्लिम धर्म से जुड़े लोग अपने भीतर की धर्मांधता खत्म करने के लिए क्या योजना बना रहे हैं? इसके जवाब में अमेरिका से लेकर पूरे यूरोप के देशों को दोष दिया जा सकता है। दोष दिया जाना भी चाहिए। लेकिन सवाल यही है कि एक मुस्लिम व्यक्ति इन सभी को दोष देते हुए क्या कट्टरता की हदों को पार करे तो क्या यह उचित है? अगर उचित नहीं है तो किया क्या जा रहा है।

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