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विश्व धरोहर में धोलावीरा: आंख मूंदो, तो पांच हज़ार साल पीछे!
ये प्राचीन सभ्यताएँ कोई मिथक नहीं बल्कि हक़ीक़त हैं। इनका पता चलने से प्राचीन इतिहास के वे बंद पट खुलने लगते हैं जिनके बंद रहने से हम अंधेरे में कल्पना के घोड़े दौड़ाते हैं और हमारे हाथ कुछ अविश्वसनीय कहानियाँ ही लगती हैं, जिनका कोई ओर-छोर नहीं होता।
शंभूनाथ शुक्ल
29 Jul 2021
विश्व धरोहर में धोलावीरा:  आंख मूंदो, तो पांच हज़ार साल पीछे!

मंगलवार 27 जुलाई 2021 को धोलावीरा विश्व धरोहरों में शामिल कर लिया गया। यूनेस्को ने इसे वर्ल्ड हेरिटेज़ में स्थायी मान्यता दे दी। इस तरह यह विश्व की 40 सर्वाधिक प्राचीन धरोहरों में शामिल हो गया। हालाँकि यूनेस्को ने इसे 2014 की शुरुआत में ही अस्थायी स्मारक मान लिया था उसी समय से इसे विश्व धरोहर बनाने की कोशिशें भी शुरू हो गई थीं। जनवरी 2020 में एएसआई ने इस अभियान को और गति दी।

धोलावीरा दक्षिण एशिया की बहुत पुरानी नगरीय सभ्यता थी, ईसा से कोई 2500 और 3000 हज़ार वर्ष पूर्व की। हड़प्पा, मोअनजोदड़ो, राखीगढ़ी और गनवेरी वाला (आकार के क्रम में) की तरह यहाँ भी खुदाई से उसी पुरानी सिंधु सभ्यता के अवशेष मिले हैं। यह साइट कच्छ के रन में खदिर द्वीप में है। इसके उत्तर की तरफ़ मनसर और दक्षिण में मनहर नाम के दो मौसमी नाले हैं।

क़रीब 60 हेक्टेयर में फैले इन अवशेषों में इस सभ्यता के मकानों की बनावट (राज प्रासाद, उप प्रसाद, मध्य नगर और निचले नगर) का पता चला है। पत्थर के स्तंभ मिले हैं तथा शहर से बाहर व्यापार हेतु आने-जाने के रास्तों का पता चला है। यहाँ जल निकासी हेतु नालियाँ हैं, कुएँ हैं तथा पत्थरों को घेर कर तालाब की शक्ल में बनाए गए स्नानागार भी। 

एक और उपलब्धि है, कि यहाँ शवाधान पद्धति के प्रमाण भी मिले हैं। इससे इसके एक उन्नत सभ्यता होने की पुष्टि होती है। राज प्रासाद के उत्तरी गेट से दस अक्षरों वाला एक अभिलेख मिला है। इसके अलावा हड़प्पा सभ्यता की तरह यहाँ भी मुहरें, मुद्रण, मनके, मिट्टी के बर्तन भी प्राप्त हुए हैं।

पुरातत्त्व विशेषज्ञों के अनुसार इस नगर ने 3000 ईसा पूर्व से 1500 ईसा पूर्व तक सात बार उत्थान और पतन को देखा। चौथे और पाँचवें चरण में यह अपने चरमोत्कर्ष पर था। फिर यह नगर सिकुड़ने लगा और 1900 ईसा पूर्व के आस-पास यह एक छोटा-सा नगर रह गया और फिर गांव का रूप लेते-लेते विलुप्त हो गया।

1967 के आसपास पुरातत्त्वविद जगतपति जोशी ने इस सभ्यता के अवशेषों का पता लगाया। वे बाद में एएसआई (ASI) के महानिदेशक (डीजी) भी रहे। वर्ष 1989 में पुरातत्त्वविद पद्मश्री डॉक्टर रवींद्र सिंह बिष्ट की देखरेख में यहाँ पर खुदाई शुरू हुई। उनके साथ यदुवीर सिंह रावत रहे और सर्वाधिक लंबे समय तक कोई 13 सत्रों में इन लोगों ने यहाँ खुदाई करवाई। वर्ष 1991 से 1994 के बीच अनिल तिवारी ने यहाँ के उत्खनन कार्य में भाग लिया। यदुवीर सिंह रावत गुजरात स्टेट पुरातत्त्व विभाग के प्रमुख भी रहे। बिष्ट जी ने यहाँ काफ़ी वक्त तक डेरा डाला और कुछ मज़दूरों को लेकर पूरे जुनून के साथ जुट गए। उनके साथ ही यहाँ के उत्खनन में लगे श्रमिक जयमल भाई आज भी यहाँ हैं। वे अब इस साइट और एएसआई के गेस्ट हाउस की देख-भाल करते हैं। प्रधानमंत्री ने इस साइट को विश्व धरोहर में शामिल किए जाने पर हर्ष जताया है।

मैं कोरोना काल के कुछ पहले 2019 में इस 5000 साल पुरानी सभ्यता के खंडहर देखने गया था। इस तरह शायद मैं आख़िरी सिविलियन रहा, जो इन अवशेषों को देखने वहाँ पहुँच पाया क्योंकि इसके बाद कोरोना के चलते इस साइट पर एएसआई के विशेषज्ञों के अलावा किसी और के जाने पर रोक लगा दी गई। मैं अपने परिवार के साथ साइट पर एएसआई के गेस्ट हाउस में रुका था। जहां न बिजली थी न भोजन का इंतज़ाम। सोचिए, इस सभ्यता के अवशेषों की खुदाई कराने वाले पुरातत्त्वविदों को कितना संघर्ष करना पड़ा होगा। मुझे तब एएसआई की गुजरात इकाई के प्रमुख अनिल तिवारी ने जयमल भाई का ही नम्बर दिया था।

उस समय कच्छ के सफ़ेद रन में अंधेरे के सन्नाटे को चीरती हुई हमारी गाड़ी नमक के समंदर के बीच से गुजरी पतली-सी डामर रोड को पार कर आखिर रात आठ बजे पत्थरों से बनी एक प्राचीर के पास जाकर जब रुकी थी तब उस सन्नाटे से मुझे भी सिहरन हुई थी। यहाँ आकर सड़क ख़त्म हो जाती थी। घुप्प अंधेरा था। कुछ देर बाद दो लोग मेरे समीप आए। एक सज्जन बोले- शुक्ला जी? मैंने कहा- जी आप जयमल भाई हो? बोले- हाँ! और गले से लग गए। जयमल भाई पिछले 28 वर्षों से इस खंडहर की रखवाली कर रहे थे। एक टीले की खुदाई के वक़्त से लेकर आज ढाई सौ एकड़ में फैले धोलावीरा के खंडहर का एक-एक पत्थर जयमल भाई का दोस्त है। वे पूरा दिन और कभी-कभी रात को भी इस प्राचीर के अंदर जा कर 5000 साल से अधिक पहले की इस सभ्यता से रूबरू होते हैं। उसे जितना ही जानने का वे प्रयत्न करते हैं, उतना ही उसमें डूबते जाते हैं। कहते हैं कि यहाँ का हर पत्थर उनसे बात करता है। यह पूरा इलाका भारतीय पुरातत्त्व विभाग की देख-रेख में है।

जयमल भाई

फौरन हमारे लिए एएसआई गेस्ट हाउस के तीन रूम खुलवाए गए, साफ-सुथरे और करीने से सज़े हुए। कुछ देर के लिए जेनरेटर चलाया गया, तो बिजली की रोशनी से सब कुछ क्लीयर दिखने लगा। लगभग दो एकड़ में गेस्ट हाउस और उससे लगा हुआ 100 हेक्टेयर यानी 250 एकड़ का एएसआई प्रोटेक्टेड एरिया। जयमल भाई हमारे लिए भोजन का इंतजाम करने पड़ोस में स्थित अपने गाँव धोलावीरा चले गए। हम भी कोई 425 किमी की यात्रा कर बुरी तरह थक चुके थे। जूते उतारे और हवाई चप्पल पहन लीं। थोड़ा रिलैक्स मूड में हम सब गेस्ट हाउस के बीच में बने विशाल लान में पड़ी बेंच पर बैठ गए। उनका सहायक चाय ले आया। चाय पीते-पीते मूड बना कि खुदाई वाले परिसर में जाया जाए। जयमल भाई का सहायक भी उनके जैसा ही जुनूनी। फौरन राज़ी हो गया। एक बड़ी-सी टॉर्च ले आया और हम सब उसके पीछे चल दिए। प्रोटेक्टेड एरिया की प्राचीर का फाटक खोलते हुए, उसने चेतावनी दी कि आप लोग सँभाल कर चलिएगा, क्योंकि यहाँ साँप और बिच्छू बहुत हैं। यह सुनते ही हमें थोड़ा भय लगा और हम सब ने अपने-अपने मोबाइल के टॉर्च जला लिए। बहुत सँभल-सँभल कर पाँव रखने लगे। बच्चों को गोद में उठा लिया गया।

करीब दो सौ मीटर चलने पर एक हौज़ दिखा। लगभग 200 फीट लंबा और 100 फीट चौड़ा। इसकी गहराई कोई 20 फीट रही होगी। इसके बाद टीले ही टीले। हम लोग अब अधिक दूर नहीं जा सकते थे। इसलिए लौट आए। धोलावीरा के अवशेषों के बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं थी। मेरे समय कोर्स में बस मोअनजोदड़ो तथा हड़प्पा को ही पढ़ाया गया था। लेकिन सीबीएसई की आठवीं कक्षा में पढ़ने वाले मेरे नाती ने बताया कि उसे धोलावीरा के बारे में पढ़ाया जाता है। यह इंडस वैली सिविलिजेशन (सिंधु घाटी सभ्यता) है, जो मोअनजोदड़ो के बाद डेवलप हुई। इसके बारे में कहा गया है कि यह 2000 से 3000 ईसा पूर्व की सभ्यता है। मुझे लगा कि यदि ऐसा है, तो इसका मतलब कि आर्य सभ्यता के पहले यह विकसित हुई होगी। कहाँ से आए होंगे, यहाँ बसे लोग? मनुष्य तो लगातार इधर से उधर घूमता ही रहा है। और कहाँ विलुप्त हो गए ये लोग? यही सोचते-सोचते हम लोग वापस लौट आए। जयमल भाई ने हाल के अंदर डाइनिंग टेबल पर डिनर जमा दिया। प्योर कच्छी भोजन। लेकिन मैंने तो सिर्फ खिचड़ी और कढ़ी ही खाई। भोजन के बाद हम फिर लान में आ कर बैठ गए।

अब जेनरेटर बंद कर दिया गया था। घुप्प अंधेरा था। बहुत दिनों बाद ऐसा आसमान देखा, जिसका एक-एक तारा साफ दिख रहा था। सप्तऋषि भी और ध्रुवतारा भी। मैंने बच्चों को ये तारे दिखाए। गेस्ट हाउस एक गोलाकार मैदान में बना था, जिसके चारो तरफ चार फुट ऊंची पत्थर की दीवार थी। यह दीवार बीच-बीच में टूटी भी थी। यहाँ कोई हिंसक जानवर तो नहीं था, लेकिन भेड़िये आ जाते थे। उनकी सूचना देने के लिए कई कुत्ते गेस्ट हाउस में पले थे। चोरी का कोई खतरा नहीं था, लेकिन एक तो कमरों के बाहर की ज़मीन ऊबड़-खाबड़ थी, दूसरे साँप-बिच्छू को तो कोई रोक-टोक नहीं थी। जयमल भाई हमें बताने लगे कि यहाँ खुदाई कई बार हुई, आखिरी बार डॉ. आरएस बिष्ट ने कराई थी, और मैं उनके साथ रहा। यह बात 1989-90 की है। यहाँ जो अवशेष मिले हैं, उनसे यह तो लगता ही है कि यहाँ की सभ्यता बहुत उन्नत रही होगी। पर इससे ज्यादा वे नहीं बता सके। यह तय हुआ कि अगले रोज़ हम इन अवशेषों को देखने चलेंगे।

जयमल भाई के जाने के बाद सब लोग सोने चले गए। मैं वहीं बैठा सोचता रहा कि कैसी रही होगी, वह सभ्यता? आज का हौज़ देख कर यह एहसास तो हो ही गया कि उस समय लोगों को जल संरक्षण का ज्ञान तो रहा ही होगा, वर्ना इस इलाके में जहां नमक का रन है, लोग क्यों कर बसे होंगे? यह भी हो सकता है कि इस रेगिस्तान में मीठे पानी का स्रोत रहा हो। क्योंकि सभ्यता का विकास वहीं हो पाएगा, जहां पानी हो और लोगों को आग को संरक्षित करने का ज्ञान हो। इन दोनों चीजों के बगैर कोई सभ्यता विकसित नहीं हो सकती। मुझे प्रतीत होने लगा कि ये पत्थर उसी समय के हैं और मुझे बता रहे हैं कि प्रकृति की क्रूरता से कैसे हम उजड़ गए। अचानक किसी कुत्ते के रोने की आवाज़ आई, मुझे लग गया कि यह भेड़िये के बाबत चेतावनी देने की काल है। घड़ी देखी, बारह बज़ रहे थे। मैं उठ कर कमरे में आ गया।

लेकिन पूरी रात मुझे नींद नहीं आई। बार-बार लगे कि कोई फुसफुसा कर मुझे बुला रहा है, टॉर्च जलाओ तो कहीं कोई नहीं। एकाध बार पलक झपकी तो लगा कि मेरा कमरा कोई हिला रहा है। पर पलक खुली तो सब गायब। यह सब कोई मेरे मन का भ्रम नहीं, दरअसल मैं खुद इस सिंधु घाटी की कल्पनाओं में इतना गुम हो गया कि मुझे वह सभ्यता साक्षात दिखने लगी। मुझे बेकरारी से इंतज़ार था सुबह का। जयमल भाई कह गए थे, कि सुबह पौने सात पर हम यहाँ से आठ किमी दूर फासिल जाएंगे, वहाँ से सूर्योदय देखेंगे। और दूर-दूर तक फैले व्हाइट रन को देखेंगे तथा लाखों वर्ष से पड़े उल्का-पिंडों को भी। जयमल भाई ने यह भी बताया कि बीएसएफ की आखिरी पोस्ट भी कुछ ही दूरी पर है, उसके आगे रन और इस रन के बीच से ही पाकिस्तान का बार्डर। इसलिए इंतज़ार था, तो बस सुबह का।

आज जब इस साइट को विश्व धरोहर में शामिल कर लिया गया है, तो पुरातत्त्वविदों के चेहरे खिल गए हैं। जो लोग दिन-रात यहाँ लगे रहे उन विशेषज्ञों को लगता है, उनका श्रम सार्थक हुआ। ये प्राचीन सभ्यताएँ कोई मिथक नहीं बल्कि हक़ीक़त हैं। इनका पता चलने से प्राचीन इतिहास के वे बंद पट खुलने लगते हैं जिनके बंद रहने से हम अंधेरे में कल्पना के घोड़े दौड़ाते हैं और हमारे हाथ कुछ अविश्वसनीय कहानियाँ ही लगती हैं, जिनका कोई ओर-छोर नहीं होता। लेकिन जब वे पट खुलते हैं तब इतिहास की कड़ियाँ जुड़ने लगती हैं। 

सभी फोटो- शंभूनाथ शुक्ल के सौजन्य से

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)


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