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मज़दूर-किसान
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किसान आंदोलन: मुश्किलें बड़ी हैं, फिर भी क्यों चुप हैं पहाड़ के किसान
उत्तराखंड भी किसान आंदोलन के साथ है, लेकिन जिस तरह राज्य के मैदानी इलाके इसे लेकर मुखर हैं उसी तरह पहाड़ी इलाके मुखर नहीं हैं। दरअसल उनकी अपनी दिक्कतें हैं, रुद्रप्रयाग की एक महिला किसान बताती हैं-“हम बंदर और सूअर से इतने परेशान हैं कि मंडी की तो सोचते ही नहीं है। मंडी होती तो अच्छा होता।”
वर्षा सिंह
18 Dec 2020
 रुद्रप्रयाग में माल्टा उत्पादक किसान।
रुद्रप्रयाग में माल्टा उत्पादक किसान। फोटो साभार : जगदीश टम्टा

“आजकल पहाड़ों में पेड़ों पर खूब माल्टा लगे हैं। लेकिन अभी तक तो कोई खरीदने नहीं आया। कभी-कभी बाहरी संस्था वाले या बिचौलिया टाइप माल्टा खरीदने आ जाते हैं। लेकिन इस साल अब तक कोई खरीद नहीं हुई”। रुद्रप्रयाग के उखीमठ ब्लॉक के मैथांडा गांव के गिरजालाल मखनवाल जानते हैं कि नारंगी रंग के बेहद खट्टे फल माल्टा को बाज़ार तक पहुंचाना बहुत कठिन है। बाज़ार तक पहुंचे भी तो उसकी अच्छी कीमत हासिल करना, उससे भी ज्यादा मुश्किल है। इसके बावजूद पहाड़ों में माल्टा खूब उगाया जाता है। मखनवाल जी भी माल्टा के कई छोटे पेड़ तैयार कर रहे हैं। इस उम्मीद में कि जब इन पर फल लगेंगे तो आमदनी कुछ बढ़ेगी।

हमारा माल्टा पेड़ों पर बर्बाद हो रहा, हमको भी मंडी चाहिए

दिल्ली में चल रहे किसानों के अभूतपूर्व आंदोलन को लेकर पहाड़ का ये किसान कहता है “उनको हमारा पूरा समर्थन है। वे जो कुछ उगा रहे हैं उसका पैसा हकीकत में नहीं मिल रहा है। तपती धूप में, चिलचिलाती गर्मी में, ठंड में, बारिश में, किसान अपने खेतों में लगा रहता है। सरकार उसी पे सारे बोझ क्यों डाले जा रही है। किसान नुकसान में तो है ही। हमको भी मंडी चाहिए। ताकि हम अपनी जरूरत से ज्यादा जो भी उगाते हैं वो बाज़ार में बिक सके। हमारा माल्टा पेड़ों पर बर्बाद हो रहा है। कोई उसको खाने तक नहीं रहा। अगर कंपनियां खरीद रही होतीं तो पेड़ पर माल्टा नहीं दिखाई देते। वे तो आती भी हैं तो लूट के भाव ले हमारे फल ले जाती हैं। पेड़ों पर अच्छे-अच्छे फल चुन लेते हैं बाकि छोड़ देते हैं”।

‘माल्टा मुफ़्त में मिलता है इसलिए सरकार माल्टा ही बांटती है’

माल्टा जब कोई खरीदता नहीं तो क्यों उगाते हैं। उसकी जगह संतरा क्यों नहीं उगाते ?

इस सवाल के जवाब में मखनवाल कहते हैं “संतरे पर ज्यादा पैसा मिलता है। लेकिन विभागीय योजनाओं में हमें माल्टा के निशुल्क पौधे मिल जाते हैं। सरकार उस पर 50 फीसदी सहायता देती है। एक पौधा चालीस रुपये का होगा तो बीस रुपये सरकार देगी। पौध लगाने के लिए गढ्ढा खोदने का पैसा भी मिलता है। इसी वजह से माल्टा ज्यादा लग जा रहा है। अगर सरकार संतरा या कीनू ही बांटे तो लोग क्यों नहीं संतरा-कीनू लगाएंगे। हम वहीं से तो माल्टा के पौधे ला रहे हैं”।

काश्तकार रंजना रावत का माल्टा का बगीचा 

एमएसपी, मंडी और पहाड़ की ढुलाई

“संतरे का भाव पांच सौ रूपये प्रति सैंकड़ा (100 पीस 500 रुपये के यानी एक पीस पांच रुपये का) है। माल्टा का 250-300 रुपये प्रति सैकड़ा। 400 रुपये तक भी हो जाता है लेकिन आप ज्यादा से ज्यादा 300 ही मानकर चलो। हमारे पास 20-22 माल्टे के पेड़ हैं जिन पर फल लगे हैं। हमने 200-250 नए पौधे लगाए हैं जिन पर अभी फल नहीं आते”। रंजना रावत रुद्रप्रयाग के अगस्त्यमुनि ब्लॉक के भीरी गांव की काश्तकार हैं। वह हाल ही में पलायन आयोग की सदस्य भी बनी हैं। वह कहती हैं कि पहाड़ के किसान बिजनेस प्वाइंट ऑफ व्यू से खेती नहीं करते।

“किसान अगर मंडी तक अपनी पैदावार ले जाए तो नुकसान होता है। गांव में उपर से फल लेकर आऩे में इतनी ढुलाई देगा। सरकार ने माल्टे का एमएसपी तय किया है सात रुपये प्रति किलो। इसमें किसान के पास क्या बचेगा? जिला उद्यान केंद्र प्लांट देने में मदद करता है। लेकिन मार्केटिंग की कोई व्यवस्था नहीं है। वे अपनी तरफ से एमएसपी तय कर देते हैं। मुझे नहीं लगता कि कोई किसान वहां माल्टा ले जाता है। सब अपने-अपने स्रोत का इस्तेमाल करते हैं। कभी-कभी कंपनियां आती हैं ट्रक में जरूरतभर का माल भरकर ले जाती हैं”।

हम बंदर-सूअर से परेशान, मंडी की सोचते भी नहीं

दिल्ली में चल रहे किसान आंदोलन पर पहाड़ के किसानों की चुप्पी क्यों है ?

इस पर रंजना जवाब देती हैं “पहाड़ के किसान की ज्यादातर उपज खुद के लिए होती है। यहां दिक्कत ये है कि हम बंदर और सूअर से इतने परेशान हैं कि मंडी की तो सोचते ही नहीं है। मंडी होती तो अच्छा होता। मंडुवा, झिंगोरा, चौलाई जैसा अनाज यहां खूब होता है। लेकिन किसान को बाज़ार नहीं मिलता। मेरी कुछ किसानों से बात हुई तो उनके पास 40-50 क्विंटल मंडुवा पिछले साल का रखा हुआ है। वे बाजार ढूंढ़ रहे थे। 6 महीने की कड़ी मशक्कत के बाद उगे अनाज को एकदम सस्ते दाम भी नहीं दे सकते। 10-12 रुपये किलो बेचने में तो कोई फायदा नहीं। पहाड़ में तो हमारे खेत भी दूर होत हैं। अब भी ज्यादातर लोग बैल से हल लगाते हैं। अब कुछ जगहों पर पावर टीलर और पावर वीडर भी आने लगे हैं। फिर मार्केटिंग की प्रॉब्लम आ जाती है”।

 

माल्टा बिकने का इंतज़ार कर रहे काश्तकार

माल्टा की एमएसपी सात रुपये प्रति किलो

उत्तराखंड सरकार ने वर्ष 2020-21 के लिए माल्टा और पहाड़ी नींबू (गलगल) फलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित किया है। ’सी’  ग्रेड माल्टा का एमएसपी सात रुपये प्रति किलो और पहाड़ी नींबू 4 रुपये प्रति किलो। जिन काश्तकारों के पास उद्यान कार्ड होंगे, उन्हें ही ये एमएसपी मिलेगी। 15 दिसंबर से 31 जनवरी तक इन फलों की खरीद की जाएगी। सी ग्रेड माल्टा फल कम से कम 50 मिलीमीटर चौड़ाई वाले और नींबू (गलगल) 70 मिलीमीटर व्यास से अधिक होने जरूरी हैं। पेड़ से तोड़े जाने के बाद नमी घटने से फल का वज़न कुछ कम हो जाता है। इसलिए किसान से तौल के समय 2.50 प्रतिशत अधिक वजन लिया जाएगा।

मायूस करने वाले माल्टा की जगह संतरा क्यों नहीं उगाते

रुद्रप्रयाग में करीब 4500 रजिस्टर्ड किसान है जो खेती-बागवानी करते हैं। यहां हॉर्टीकल्चर डिपार्टमेंट में निरीक्षक जगदीश टम्टा बताते हैं “शासन जो एमएसपी तय करता है, किसान उस कीमत पर हमें फल देने के लिए तैयार नहीं होते। उन्हें 10-12 रुपये प्रति किलो की दर से कीमत बाहर ही मिल रही है तो वो हमें सात रुपये में क्यों देंगे। हां अगर किसान का माल नहीं बिका तो हम अपने सेंटर के ज़रिये माल्टा खरीद लेंगे और जूस बनाने वाली यूनिट को बेचेंगे। किसान हमसे संपर्क करते हैं तो हम उनके बगीचों में जाते हैं। अभी तक जिले में माल्टा की कोई खरीद नहीं हुई है। न ही किसी किसान ने हमसे संपर्क किया है।”

जगदीश टम्टा कहते हैं कि माल्टा खरीदने के लिए व्यापारी पहले ही आ जाते हैं। एमएसपी से अधिक रेट पर खरीद करते हैं। बहुत कम ऐसा होता है कि माल्टा खराब हो।

माल्टा की कीमत और बाज़ार दोनों ही कम है फिर संतरे की पैदावार को बढ़ावा क्यों नहीं दिया जाता? इस पर वह बताते हैं “ पहले यहां संतरा खूब होता था। हाथोंहाथ बिक जाता था। धीरे-धीरे संतरे की प्रजाति विलुप्त हो गई। संतरे का पौधा लंबे समय तक नहीं चलता। अब हम सोच रहे हैं कि माल्टा कम कर संतरे पर जोर दिया जाए। इस बार 12-13 हेक्टेअर में किसानों के यहां संतरे का प्लांटेशन कराया गया है। संतरे का पौधा लंबे समय तक चलता नहीं है। उसकी देखरेख ज्यादा करनी होती है”।

सरकारी नीतियों से काश्तकार को नुकसान

पहाड़ में माल्टा उगा रहे किसानों की मुश्किल पर कृषि विशेषज्ञ राजेंद्र कुकसाल कहते हैं “ अगर क्वालिटी फूड मार्केट में आता है तो उसके एमएसपी की जरूरत ही नहीं पड़ती। लोग 200 रुपये किलो की दर से भी खरीदने को तैयार हैं। लेकिन किसी फल की क्वालिटी-वेरायटी ऐसी है जिसकी बाज़ार में मांग ही नहीं है, तो उस पर एमएसपी की जरूरत होगी।

पहाड़ में कभी संतरा होता था लेकिन सरकारी नीतियों के चलते वो बाहर हो गया। माल्टा जंगली फल है। उसकी क्वालिटी अच्छी नहीं है। लेकिन वह बहुत तेज़ी से फैलता है और ज्यादा देखभाल की जरूरत नहीं पड़ती। उसमें बीज बहुत ज्यादा होते हैं। बीज से पौध बनाना आसान होता है इसलिए सरकार की योजनाएं में, नर्सरियों में, पौध बांटने में माल्टा पर ज़ोर दिया जाने लगा। माल्टे की सात रुपये प्रति किलो एमएसपी बहुत कम है। लेकिन इस कीमत पर भी सरकार को घाटा ही होता है।

डॉ राजेंद्र कुकसाल कहते हैं “सरकार को पता है कि माल्टा की खरीद के लिए जो पैसे दिए जा रहे हैं उसे डूबना ही है”।

वह बताते हैं “ माल्टा बहुत खट्टा होता है। पहाड़ के लोग ही धूप में बैठकर नमक लगाकर उसे खा सकते हैं। माल्टे का जूस बनाने वाली फूड प्रॉसेसिंग कंपनी को भी मैंने बंद होते देखा है। संतरे-कीनू के जूस में चीनी कम मिलानी पड़ती है। लेकिन माल्टा ज्यादा खट्टा होता है और बहुत चीनी मिलानी पड़ती है। माल्टा किसानों को भी कोई फायदा नहीं होता”।

डॉ राजेंद्र कुकसाल की सलाह है “ सरकारी योजना में माल्टा की पौध की जगह संतरे को प्रोत्साहित करना चाहिए। 25-30 वर्षों से माल्टा इतना अधिक होने लगा है। संतरा पहाड़ के बगीचों में बेहद कम हो गया। भले ही उसमें देखभाल ज्यादा हो लेकिन किसान को उसकी बेहतर कीमत मिलेगी”।

 चिपको आंदोलन के प्रणेता सुंदरलाल बहुगुणा ने किसान आंदोलन को समर्थन दिया। फोटो साभार : टाइम्स ऑफ इंडिया

किसान आंदोलन में उत्तराखंड की आवाज़

उत्तराखंड के मैदानी ज़िले ख़ासतौर पर उधमसिंह नगर और हरिद्वार के किसान कृषि कानूनों के खिलाफ लगातार विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। यहां के कई किसानों ने दिल्ली पहुंचकर कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग की। सितारगंज से खबर है कि पुलिस किसानों को दिल्ली जाने से रोक रही है। वहां बॉर्डर पर ही किसान जमे हुए हैं।

राज्य के पहाड़ी हिस्सों के किसान भी कृषि कानून के खिलाफ़ हैं। भाकपा-माले के नेतृत्व में हुए प्रदर्शन में नैनीताल, पौड़ी समेत कई पर्वतीय ज़िलों के किसानों ने अपना विरोध दर्ज कराया। लेकिन जिस तरह मैदानी हिस्सों में किसान खुलकर कृषि कानूनों का विरोध कर रहे हैं। पहाड़ के किसान तीव्र विरोध नहीं कर रहे। लेकिन आज चिपको आंदोलन के प्रणेता सुंदरलाल बहुगुणा ने कृषि क़ानूनों का विरोध कर रहे किसानों को अपना समर्थन दिया है। किसान आंदोलन के 23वें दिन पहाड़ की एक प्रबल आवाज़ आंदोलन में शामिल हुई है। सुंदरलाल बहुगुणा ने कहा कि वह अन्नदाताओं की मांगों का समर्थन करते हैं।

उम्मीद है कि उनका ये समर्थन पर्वतीय अंचल के किसानों की आवाज़ मज़बूत करेगा।

(देहरादून स्थित वर्षा सिंह स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

 

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