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आंदोलन : खरबपतियों के राज के ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं किसान
किसानों के इस आक्रोश को हम तब तक नहीं समझ सकते जब तक हम पिछले तीस सालों में हुई पूंजीवाद की यात्रा पर निगाह नहीं डालेंगे।
अरुण कुमार त्रिपाठी
23 Dec 2020
आंदोलन

अपने दो पत्रकार मित्रों ने किसान आंदोलन पर दो प्रकार की प्रतिक्रियाएं दीं। एक सज्जन धरनास्थल पर गए और वहां खड़ी बड़ी-बड़ी गाड़ियों और लगातार चल रहे उनके खानपान के स्तरीय भंडारे से कुपित होकर उसे अमीर किसानों की मटरगश्ती बताने लगे। शायद उनके मानस में 1988 में बोट क्लब पर कई दिनों तक चला चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत का धरना है जिसमें खाने पीने की बेहद साधारण व्यवस्था थी और मंच पर चौधरी साहब हुक्का गुड़गुड़ाते रहते थे। दरअसल कुछ पत्रकारों और बौद्धिकों के दिमाग में या तो वह छवि अंकित है या फिर कुछ साहित्यकार लोग प्रेमचंद के गोदान के होरी से अलग किसान की छवि निर्मित नहीं कर पाए हैं। ऐसी कृषक चेतना 1936 में ही अटकी हुई है या फिर गांवों में पिछड़े वर्ग के उभार से निर्मित जातिवादी पूर्वाग्रह पर। इसलिए उन्हें किसानों की गन्ना और जमीन बेंच कर हासिल की गई गाड़ियों से उनकी अमीरी झलकती है लेकिन वे मुकेश अंबानी और गौतम अडानी की निरंतर बढ़ती विश्व स्तरीय अमीरी की ओर नजर नहीं उठा पाते।

एक दूसरे मित्र ऐसे हैं जिन्होंने एक राष्ट्रीय चैनल की नौकरी इसलिए छोड़ दी क्योंकि उन्हें चैनल पर अपने सारे अनुभव और ज्ञान को दरकिनार करके सरकारी दस्तावेज के आधार पर किसान समस्या पर चर्चा करने को कहा गया था। उन्होंने मना कर दिया और उनका कांट्रेस्ट बढ़ाया नहीं गया। लेकिन उनकी दृष्टि एकदम अलग है। वे कहते हैं कि जब यूपीए सरकार के कार्यकाल में तकरीबन 117  साल पुराने  1894 के  भूमि अधिग्रहण कानून  को 2013 में बदला गया था तो उसके लिए सेलेक्ट कमेटी में ढाई सौ घंटों से ज्यादा बहसें हुई थीं। लेकिन जब कृषि सुधार संबंधी तीन कानून पारित किए गए तो लगभग चौबीस घंटे के भीतर 23 कानून पास कर दिए गए। यानी इतने महत्वपूर्ण और किसानों को ‘आजादी’ देने वाले कानूनों को पारित करने के लिए एक घंटे का संसदीय समय देना भी उचित नहीं समझा गया!

सरकार के यह इरादे तब समझ में आते हैं जब हम किसान आंदोलन में याराना पूंजीवाद (Crony Capitalism) का विरोध और उसके विरुद्ध अंबानी और अडानी समूह की प्रतिक्रियाएं देखते हैं। गौतम अडानी ने पूरे उत्तर भारत के अखबारों में पेज भर का विज्ञापन देकर बताया कि उनके खिलाफ झूठ फैलाया जा रहा है। वे न तो किसानों से सीधे अनाज खरीदते हैं और न ही जमाखोरी करते हैं। वे तो भारतीय खाद्य निगम के साथ तालमेल करके निजी और सरकारी मॉडल पर भंडारण व्यवस्था का निर्माण कर रहे हैं। जबकि हकीकत यह है कि सरकार उन्हें भंडारण की व्यवस्था करने के लिए तमाम तरह की सब्सिडी दे रही है और उनके लिए रेलवे लाइन बिछाने का इंतजाम भी कर रही है। दूसरी ओर मुकेश अंबानी ने वोडाफोन-आइडिया और भारतीय एयरटेल के खिलाफ ट्राई में शिकायत की है। वे इन कंपनियों पर अपने विरुद्ध दुष्प्रचार और साजिश का आरोप लगा रहे हैं।

किसानों के इस आक्रोश को हम तब तक नहीं समझ सकते जब तक हम पिछले तीस सालों में हुई पूंजीवाद की यात्रा पर निगाह नहीं डालेंगे। इस बारे में भारत पर ही केंद्रित फाइनेंसियल टाइम्स के मुंबई में ब्यूरो चीफ रहे जेम्स क्रैबट्री की 2018 में आई पुस्तक द बिलेनेयर राज (The Billionaire Raj) में तेज रोशनी डाली है। वे नवउदारवाद के साथ भारत में उभरे पूंजीपति वर्ग के प्रभाव की एक झलक के साथ अपनी पुस्तक की शुरुआत करते हैं और बताते हैं कि किस तरह अंबानी परिवार के किसी युवा ने रात के डेढ़ बजे आस्टिन मार्टिन रैपिडे जैसी महंगी कार का एक्सीडेंट किया और अचानक उसके बचाव के लिए पूरा सुरक्षा दस्ता उमड़ आया। अंबानी परिवार के एक ड्राइवर ने गामदेवी थाने में अपने को कार चालक के रूप में पेश किया। अखबारों में उस दुर्घटना की कई कहानियां छपीं और वह कार कई दिनों तक थाने के बाहर पड़ी रही और बाद में रहस्यमय ढंग से गायब हो गई।

क्रैबट्री, मुंबई में एक ओर मुकेश अंबानी के 160 मीटर ऊंचे एंटीलिया का जिक्र करते हैं और दूसरी ओर बताते हैं कि इस शहर की आधी आबादी झुग्गियों में रहती है। एंटीलिया संभवतः दुनिया का पहला भवन है जिसे एक अरब डालर की लागत के बनाया गया था। इसी के साथ वे भारत की आर्थिक तरक्की और उसकी असमानता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि यहां के एक प्रतिशत अमीरों के पास देश की 60 प्रतिशत संपदा है। हाल में अंतरराष्ट्रीय पत्रिका  `द इकानामिस्ट’ ने लिखा है कि पिछले साल देश की 21.4 प्रतिशत कमाई इन्हीं एक प्रतिशत लोगों की जेब में गई है। इस दौरान भले लोगों की नौकरियां गई हों, बेरोजगारी दर 9 प्रतिशत से ऊपर चली गई हो और जीडीपी की विकास दर 20 प्रतिशत नीचे चली गई हो लेकिन गौतम अडानी की संपत्ति दो गुना और मुकेश अंबानी की संपत्ति 25 प्रतिशत बढ़ी। गौतम अडानी तीन अरब डालर और मुकेश अंबानी 75 अरब डालर के मालिक हैं। इसी खरबपति राज की तुलना वे गृह युद्ध के बाद उन्नीसवीं सदी में उत्तरी और पश्चिमी अमेरिका में तेजी से आई समृद्धि से करते हैं।

दरअसल 1870 से 1900 के बीच हुई इस तीव्र औद्योगिक तरक्की को गिल्डेड एज (Gilded Age) कहा जाता है। इतिहासकारों ने यह रूपक 1873 में आए मार्क ट्विन और चार्ल्स डडली वार्नर के उपन्यास  `गिल्डेड एज’ से लिया है। इस रूपक का मतलब स्वर्ण युग नहीं बल्कि ऊपर से चमकदार दिखने वाले समय के भीतर चल रही पतनशील प्रक्रियाओं की विडंबना से है। उनका मानना है कि भारत उसी तैयारी में है जिसमें अगर वह अपनी उदार लोकतंत्र को कायम रख सका, भ्रष्टाचार को मिटा सका और याराना पूंजीवाद से दूर रह सका तो वह इक्कीसवीं सदी के मध्य तक एशिया में एक चमकदार आर्थिक शक्ति के रूप में उभरेगा। लेकिन शर्तें याराना पूंजीवाद से दूर रहने और भ्रष्टाचार मिटाकर लोकतंत्र को बचाकर रखने की हैं। उन्होंने यह भी कहा था कि भारत के सामने दो रास्ते हैं। एक रास्ता है लैटिन अमेरिकी देशों की तरह असमानता पर आधारित विकास किया जाए और दूसरा रास्ता है पूर्वी एशियाई देशों की तरह समाज में असमानता का स्तर कम रखते हुए समृद्धि के मार्ग पर बढ़ा जाए। भारत ने पहला रास्ता अपनाया है इसलिए वहां गैरबराबरी बनी और किसानों का तीव्र विरोध उभरा है।

दुनिया पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों यानी निगमों के बढ़ते कब्जे के प्रति अपनी आशंका जताते हुए यूएसएड प्रोग्राम से जुड़े डेविड सी कार्टन ने 1995 में एक रोचक पुस्तक लिखी थी। उसका शीर्षक था  `ह्वेन कारपोरेशन्स रूल्स द वर्ल्ड (When Corporations Rule The World)’ । बाद में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के गणित के प्रोफेसर और आजादी बचाओ आंदोलन के संस्थापक बनवारी लाल शर्मा ने उसका अनुवाद  `जब निगमों का राज चले’ शीर्षक से किया। यह पुस्तक नवउदारवाद के खतरों को बहुत भयानक ढंग से प्रस्तुत करती है। आज हम भारतीय समाज में उसी खतरे को देख रहे हैं।

पुस्तक के  `एडजस्टिंग द पूअर’ यानी गरीबों को समायोजित करना शीर्षक से लिखे अध्याय में कार्टन दो उद्धरण देते हैं। एक कहता है , ` वे अब गोलियां और रस्सियां नहीं इस्तेमाल करते। वे अब उनकी जगह पर विश्व बैंक और आईएमएफ का इस्तेमाल करते हैं।’ दूसरा उद्धरण फिलीपीन्स सरकार का फार्चून पत्रिका में दिए गए विज्ञापन का है। उसमें कहा गया है, ` आप जैसी कंपनी को आकर्षित करने के लिए हमने पहाड़ तोड़ दिए, जंगल काट डाले, दलदल भर डाले, नदियों को खिसका दिया, शहरों को विस्थापित कर दिया... यह सब इसलिए किया ताकि आप यहां आसानी से बिजनेस कर सकें।’

पुस्तक बहुत साफ शब्दों में कहती है कि कंपनियों के शासन से लोकतांत्रिक बहुलतावाद का क्षरण होगा, कॉरपोरेट अधिकारों की गारंटी दी जाएगी, कॉरपोरेट का वैश्विक साम्राज्य बनेगा, शासक वर्ग के भीतर एक आमसहमति होगी और इसी पर सवार होकर आएगा नरभक्षी कॉरपोरेटवाद। इसलिए यह महज संयोग नहीं है कि भारत में एक पार्टी के शासन का खतरा बढ़ गया और राजनीतिक बहुलतावाद यानी बहुदलीय शासन प्रणाली क्षरण की ओर है। कॉरपोरेट कभी आदिवासियों की जमीनें हड़प रहा है तो कभी किसानों की।

किसानों का यह आंदोलन उस राजनीतिक और आर्थिक स्थान पर फिर से कब्जा करने की कोशिश है जो कॉरपोरेट उनसे पिछले 30 सालों से छीन रहा है। यह बहुत व्यावहारिक और स्वाभाविक प्रक्रिया है कि इस आंदोलन में वे किसान आगे आए हैं जो तमाम आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करते हुए खेती करते हैं और दुनिया का बेहतरीन उत्पादन करते हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के किसान अगर बहुत तेजी से आंदोलन के साथ खड़े नहीं हो पाए हैं तो इसकी वजह यह है कि उन्हें अपनी आर्थिक हैसियत कभी ठीक से हासिल नहीं हुई और उनमें जो राजनीतिक चेतना थी उसे धार्मिक और जातिवादी शिकंजे में कस लिया गया है।

पंजाब और हरियाणा का किसान चाहता है कि खेती में जो दूसरी हरित क्रांति हो वह उनके नेतृत्व में हो। जबकि कॉरपोरेट चाहता है कि दूसरी हरित क्रांति उसके नेतृत्व में हो। इसी खींचतान ने एक नए किस्म का आंदोलन पैदा किया है जो आने वाले समय में देश में एक किस्म के कृषक राष्ट्रवाद का सृजन कर सकता है और पैदा कर सकता है नई राजनीति।

इस आंदोलन में अगर पंजाब के किसान अपनी मंडियों और एमएसपी की गारंटी चाह रहे हैं तो यूपी और बिहार के किसानों को अपने लिए मंडियां खोले जाने और एमएसपी दिए जाने की मांग करनी चाहिए। इसके साथ ही उनके लिए आय की गारंटी भी चाहिए। यह आंदोलन भारत में लोगों के बीच एक प्रकार से आर्थिक समता की भी गारंटी चाहता है जिसे कॉरपोरेट ने खतरनाक किस्म की असमानता में बदल दिया है। अगर किसानों की मांगें मानी जाती हैं तो देश का विकास होगा वरना यह टकराव मार्क ट्विन के उपन्यास में वर्णित गिल्डेड एज का निर्माण करेगा। भारत को अगर तरक्की करना है तो याराना पूंजीवाद और असमानता के गर्त के बाहर निकलना होगा और अपने उदार लोकतंत्र को बचाना होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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