NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
2020 में भी बोल रही हैं गौरी
2019 के लोकसभा चुनाव नतीजों ने हिंदू सर्वोच्चतावादियों को मनमर्ज़ी करने का दुस्साहस दिया है।
गीता हरिहरन
11 Sep 2020
2020 में भी बोल रही हैं गौरी

5 सितंबर, 2017 को गौरी लंकेश की बेंगलुरू स्थित उनके घर में हत्या कर दी गई थी। आखिर क्यों? इसका केवल एक ही जवाब नज़र आता है: उन्हें इसलिए मारा गया क्योंकि उन्होंने पत्रकार और एक सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर अपने काम को बेहतर ढंग से अंजाम दिया। गौरी ने तार्किक आवाज बनने के लिए बहुत मेहनत की थी। उन्होंने असहमति की आवाज बनने का माद्दा दिखाया। जब-जब गौरी ने अन्याय और असमानता देखी, उन्होंने अपनी आवाज उठाई, इन नाइंसाफियों को खत्म करने की कोशिशें कीं। इसलिए गौरी का दूसरे तर्कवादियों, विद्वानों और कार्यकर्ताओं की तरह कत्ल कर दिया गया। नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पनसारे, एम एम कलबुर्गी जैसे विद्वानों, सामाजिक कार्यकर्ताओं की गौरी के पहले हत्या की जा चुकी थी। हम इन नामों को कभी नहीं भूल सकते। आशा करते हैं कि इन लोगों ने जो काम किए और जिन चीजों के लिए संघर्ष किया, हम उन्हें भी कभी नहीं भूलेंगे। 

तीन साल बाद, 2020 में अब भी कुछ नहीं बदला है। ईमानदारी से कहें तो वक़्त और भी खराब हो गया है।

सभी विपक्षियों पर हो रही कार्रवाईयां देखिए। 2018 को याद करिए। एक जनवरी, 2018 को भीमा कोरेगांव की लड़ाई के दो सौ साल पूरे हुए थे। भीमा कोरेगांव दलितों के आत्मसम्मान का मजबूत प्रतीक है। यह उन्हें एकजुट होने की प्रेरणा भी देता है। 2018 में भीमा कोरेगांव में बड़ा कार्यक्रम करने की योजना बनाई गई। कार्यक्रम के संयोजक पुणे के रहने वाले रिटायर्ज जज बीजी कोलसे पाटिल और पीबी सावंत थे। चाहे सांप्रदायिकता के खिलाफ़ या संविधान के पक्ष में, इन लोगों ने पहले भी सार्वजनिक कार्यक्रम करवाए थे। इस बार इन लोगों ने कार्यक्रम को ऐलगार परिषद का नाम देने की घोषणा की। ऐलगार, आंदोलन का संगत शब्द है। इसका अर्थ 'तेज आवाज़ में की गई घोषणा' होता है। आयोजकों के दिमाग में जो "घोषणा" थी, दरअसल वो हिंदुत्ववादी समूहों, खासकर "गोरक्षकों" की बढ़ती हिंसा की प्रतिक्रिया में थी। घोषणा में कहा गया: दक्षिणपंथी ताकतें संविधान को नहीं मानतीं। संविधान द्वारा जिस लोकतंत्र का वायदा किया गया है और जिस समाजवाद को लाने की आशा जताई जाती है, दक्षिणपंथी ताकतें उसमें यकीन नहीं रखतीं। ना ही यह ताकतें पंथनिरपेक्षता को मानती हैं, जो खुद संविधान का आधार है। यह भारतीय लोकतंत्र को बनाने वाले संविधान को बचाने और लोगों को उसके ईर्द-गिर्द इकट्ठा करने का "ऐलगार" था।

image 1_4.jpg

कार्यक्रम में संघी बिग्रेड भी मौजूद थी। यह लोग वहां संविधान को बचाने नहीं, बल्कि संविधान द्वारा जिन लोगों की रक्षा की जाती है, उन पर हमला करने के लिए मौजूद थे। यह लोग संविधान पर हमला करने के लिए वहां पहुंचे थे। इस कार्यक्रम की कहानी ने बाद में कई रूप बदल लिए। आखिरकार कहानी पुणे पुलिस द्वारा कल्पित कथा बन गई। पुलिस के मुताबिक़,"विद्रोही विचार" और क्रांतिकारी भाषणों के चलते हिंसा हुई। लेकिन जब इससे भी मामले में वजन आता नहीं दिख रहा था, तो प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश रचे जाने की बात भी मामले में नीचे जोड़ दी गई। कवियों, विद्वानों, वकीलों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को प्रताड़ित किया गया। उनके घरों की तलाशी ली गई। उनके कंप्यूटरों, फोन और किताबों को "विद्रोही विचारों" के लिए खंगाला गया। इन विद्रोही विचारों के मानवीयकरण के लिए इन्हें "माओवादियों से संबंध" के तौर पर बताया जाता है।

अब हमारे पास एक और सूची है। कवि वरवर राव, "जनता की वकील" सुधा भारद्वाज, कई विद्वान, लेखक और मानवाधिकार कार्यकर्ता इसका हिस्सा हैं। इनकी नज़ीरों से हम सभी को मुंह बंद रखने के लिए इशारा किया जाता है: सरकार की आलोचना मत करो, हिंदुत्व पर सवाल मत उठाओ। लोगों के अधिकारों के बारे में बात मत करो।

2019 के चुनावी नतीज़ों से हिंदू सर्वोच्चतावादियों को अपनी मनमर्जी करने का दुस्साहस मिला है। कश्मीरी लोगों से किए गए वायदों को पहले ही फाड़कर फेंका जा चुका था, ऊपर से उन लोगों पर एक के बाद एक कई हमले किए गए। अनुच्छेद 370 हटा दिया गया और उनके राज्य का विभाजन कर दिया गया।

फिर पूरे भारत में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन्स (NRC) करवाए जाने की योजना सामने आई, जबकि असम में इसकी बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी थी। 

इसके बाद नागरिकता संशोधन विधेयक आया, जिसे नागरिकता संशोधन कानून या CAA के नाम से पास किया गया। CAA ने धर्म को जोड़कर, बुनियादी तौर पर नागरिकता के आधार को ही बदल दिया। इससे नागरिकता कानून, 1955 में बदलाव किए गए हैं। ताकि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़गानिस्तान से आने वाले गैर मुस्लिम "अल्पसंख्यकों" (हिंदू, सिख, बौद्ध, पारसी, जैन और ईसाई धर्मावलंबी) को नागरिकता दिए जाने की प्रक्रिया में तेजी लाई जा सके। मुस्लिमों को इस कानून से बाहर रखा जाना नुकसानदेह है। अब हर मुस्लिम के सिर तलवार लटक रही है। जैसा गोलवलकर ने कल्पना की थी, अब उनके दूसरे दर्जे के नागरिक में बदल जाने का ख़तरा है। इस ख़तरे को पूरे भारत में NRC लागू किए जाने की योजना के साथ देखा जाना चाहिए। 2019 के बाद से ही हिंदू सर्वोच्चतावादियों के हर कदम से ज़्यादा से ज़्यादा संख्या में नागरिकों को "उनके और राज्य के बीच हुए समझौतों" से दूर किया जा रहा है। 

इस बीच सभी तरह की असहमतियों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलना जारी है। सुधा भारद्वाज और वरवर राव से लेकर आनंद तेलतुंबड़े और गौतम नवलखा तक यह सूची बढ़ती ही जाती है।

2017 में आनंद तेलतुंबड़े ने गौरी लंकेश और उनके अख़बार के बारे में कहा था, "लंकेश पत्रिके प्रताड़ित और वंचित तबकों, जिनमें दलित और महिलाएं शामिल हैं, उनका मंच है। यह ऐसी पत्रकारिता की नज़ीर है, जिससे कई लोगों को प्रेरणा मिलती है। यह 'रायतारा चालुवली (किसान आंदोलन)' जैसे कई प्रगतिशील आंदोलनों, दलित आंदोलनों और गोकाक आंदोलनों का मुखपत्र बन चुकी है।"

दूसरे शब्दों में कहें तो यह वह पत्रकारिता है, जिसे किया जाना चाहिए। सक्रिय नागरिकों को ऐसा करना चाहिए। 

इन मूल्यों में यकीन करने और पालन करने के लिए आनंद तेलतुंबड़े को जेल जाना पड़ा है। कई दूसरे कार्यकर्ताओं के साथ-साथ उन्हें भी जेल में डाला गया है। हमारी राजनीतिक कैदियों की सूची बढ़ती ही जा रही है, जबकि उनके खिलाफ़ महज़ मनगढ़ंत सबूत ही मौजूद हैं। कोर्ट में सुनवाई की कोई चर्चा ही नहीं है। जबकि इन बंदियों में से कई बूढ़े और बीमार हैं। अब तो कोरोना तक जेलों में पहुंच चुका है।

तो क्या मान लेना चाहिए कि सब ख़त्म हो गया है? क्या माहौल पूरी तरह स्याह है? क्या हमारे पास गौरी के लिेए केवल बुरी ख़बरें ही हैं?

नहीं ऐसा नहीं है।

2017 के बाद से हम प्रतिरोध की कई तस्वीरें गौरी को दिखा सकते हैं। यह प्रतिरोध शिक्षण परिसरों में युवाओं द्वारा किए गए हैं, कोर्ट में हुए हैं, सड़कों से लेकर ऑनलाइन तक यह प्रतिरोध फैले हैं। किसानों के जुलूस, उनसे भरे मैदान और सड़कों का दृश्य देखकर गौरी बहुत खुश होतीं। गांवों से शहरों में आते यह किसान, कॉरपोरेट मुंबई और राज करने वाली दिल्ली को याद दिला रहे हैं कि उन्हें खाना कौन खिलाता है!

image 2_7.jpg

फिर 2019 में तो बहुत कुछ हुआ। ऐसे लोग जिनसे हम पहले कभी नहीं मिले थे, युवा छात्र और बूढ़ी दादी माएं, यह लोग नारे लगाते और गाना गाते हुए रैलियों में हिस्सा ले रहे थे। निश्चित ही गौरी ने पूरे दम-खम से CAA विरोधी प्रदर्शनों में हिस्सा लिया होता। इन प्रदर्शनों में आम लोगों और महिलाओं की आवाज़ें पूरे देश में सुनी गईं! जुलूस निकाले गए, सड़कों पर कलाकृतियां बनाई गईं, महिलाएं और बच्चे तक सड़कों पर पहुंच गए। कविता के साथ NRC का विरोध करते लोग: "हम कागज़ नहीं दिखाएंगे", अपने भारत को वापस लेते लोग: "किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है...", एक-दूसरे से वायदा और हिंदू सर्वोच्चतावादियों को याद दिलाते लोग: "हम देखेंगे, नाम पारपोमे, नावु नोडोन्ना", तमाम तरह से अपने हाथों में तिरंगा और संविधान उठाए लोग देखे गए।

गौरी लंकेश ने एक पत्रकार और एक नागरिक के तौर पर अपने कर्तव्यों का पूरी ईमानदारी से पालन किया। वह लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों से प्रेरित महिला थीं। यह मूल्य एक ऐसे भारत के निर्माण पर जोर देते हैं, जहां विभाजन और नफ़रत के खिलाफ़ बोलना हर नागरिक का अधिकार है। 2020 में बहुत हिंसा हुई, विविधता पर तमाम हमले हुए, मुस्लिमों-दलितों-महिलाओं और आदिवासियों को निशाना बनाया गया, समता पर प्रहार किए गए, लेकिन इन सबके बावजूद ऐसी आवाज़ें मौजूद रहीं, जिन्होंने मुखरता से अपनी बात रखी। ऐसी आवाज़ें जो ऑनलाइन ट्रॉलिंग, धमकियों, NIA, UAPA, देशद्रोह के मुक़दमे जैसे तमाम ख़तरों के बावजूद मुखरता से बुलंद होती रहीं। मार्च 2020 में कोरोना के आने के बाद से ही इन आवाजों के खामोश होने का अंदाजा लगाया गया। लेकिन खुद को सुनाने के लिए लोगों ने नए तरीके खोज लिए। प्रशांत भूषण से संबंधित अवमानना की सुनवाई के दिन लोगों ने ऑनलाइन ही सही, अपनी मौजूदगी दर्ज कराई। फिर गौरी की पुण्यतिथि पर 70 से ज़्यादा संगठनों ने PUCL द्वारा 28 अगस्त से 5 सितंबर के बीच प्रतिरोध सप्ताह मनाने की मांग का समर्थन किया। भीमा कोरेगांव मामले में गिरफ़्तार हुए कई कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी को 28 अगस्त को दो साल हो गए। वहीं 5 सितंबर को गौरी लंकेश की हत्या के तीन साल हो चुके हैं।

अगर हम अपनी आवाज़ उठाएंगे, तो गौरी की आवाज़ बुलंद होगी।

2017 में जब गौरी की हत्या हुई थी, लेखक बोलुवारू मोहम्मद कुंही ने उनसे कहा था: "तुम जहां भी हो, अब हर कोई तुम्हारे साथ है। जब तुम हमारे साथ थीं और जैसा सोचती थीं, तुम अब भी वैसा ही सोचो।"

अगर हम आवाज़ उठाएंगे, तो हमारे ज़रिए गौरी बोलती रहेंगी। हमारे लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए हमारी आवाज़ों को एक साथ आना होगा। इसलिए हमने 20 सितंबर, 2020 को स्वतंत्र अभिव्यक्ति और समावेशी भारत से नफ़रत करने वाली ताकतों के खिलाफ़ गौरी की लड़ाई को आगे बढ़ाने के लिए शपथ लेने फ़ैसला लिया है। हम अपने और गौरी के लिए बोलते रहेंगे। वो हमें चुप नहीं करा सकते।

इस लेख को मूलत: गौरी लंकेश न्यूज़ में प्रकाशित किया गया था।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Gauri Speaks in 2020

gauri lankesh
Intolerance
Right wing
RSS
BJP

Related Stories

भाजपा के इस्लामोफ़ोबिया ने भारत को कहां पहुंचा दिया?

कश्मीर में हिंसा का दौर: कुछ ज़रूरी सवाल

सम्राट पृथ्वीराज: संघ द्वारा इतिहास के साथ खिलवाड़ की एक और कोशिश

हैदराबाद : मर्सिडीज़ गैंगरेप को क्या राजनीतिक कारणों से दबाया जा रहा है?

ग्राउंड रिपोर्टः पीएम मोदी का ‘क्योटो’, जहां कब्रिस्तान में सिसक रहीं कई फटेहाल ज़िंदगियां

धारा 370 को हटाना : केंद्र की रणनीति हर बार उल्टी पड़ती रहती है

मोहन भागवत का बयान, कश्मीर में जारी हमले और आर्यन खान को क्लीनचिट

मंडल राजनीति का तीसरा अवतार जाति आधारित गणना, कमंडल की राजनीति पर लग सकती है लगाम 

बॉलीवुड को हथियार की तरह इस्तेमाल कर रही है बीजेपी !

गुजरात: भाजपा के हुए हार्दिक पटेल… पाटीदार किसके होंगे?


बाकी खबरें

  • Ramjas
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    दिल्ली: रामजस कॉलेज में हुई हिंसा, SFI ने ABVP पर लगाया मारपीट का आरोप, पुलिसिया कार्रवाई पर भी उठ रहे सवाल
    01 Jun 2022
    वामपंथी छात्र संगठन स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ़ इण्डिया(SFI) ने दक्षिणपंथी छात्र संगठन पर हमले का आरोप लगाया है। इस मामले में पुलिस ने भी क़ानूनी कार्रवाई शुरू कर दी है। परन्तु छात्र संगठनों का आरोप है कि…
  • monsoon
    मोहम्मद इमरान खान
    बिहारः नदी के कटाव के डर से मानसून से पहले ही घर तोड़कर भागने लगे गांव के लोग
    01 Jun 2022
    पटना: मानसून अभी आया नहीं है लेकिन इस दौरान होने वाले नदी के कटाव की दहशत गांवों के लोगों में इस कदर है कि वे कड़ी मशक्कत से बनाए अपने घरों को तोड़ने से बाज नहीं आ रहे हैं। गरीबी स
  • Gyanvapi Masjid
    भाषा
    ज्ञानवापी मामले में अधिवक्ताओं हरिशंकर जैन एवं विष्णु जैन को पैरवी करने से हटाया गया
    01 Jun 2022
    उल्लेखनीय है कि अधिवक्ता हरिशंकर जैन और उनके पुत्र विष्णु जैन ज्ञानवापी श्रृंगार गौरी मामले की पैरवी कर रहे थे। इसके साथ ही पिता और पुत्र की जोड़ी हिंदुओं से जुड़े कई मुकदमों की पैरवी कर रही है।
  • sonia gandhi
    भाषा
    ईडी ने कांग्रेस नेता सोनिया गांधी, राहुल गांधी को धन शोधन के मामले में तलब किया
    01 Jun 2022
    ईडी ने कांग्रेस अध्यक्ष को आठ जून को पेश होने को कहा है। यह मामला पार्टी समर्थित ‘यंग इंडियन’ में कथित वित्तीय अनियमितता की जांच के सिलसिले में हाल में दर्ज किया गया था।
  • neoliberalism
    प्रभात पटनायक
    नवउदारवाद और मुद्रास्फीति-विरोधी नीति
    01 Jun 2022
    आम तौर पर नवउदारवादी व्यवस्था को प्रदत्त मानकर चला जाता है और इसी आधार पर खड़े होकर तर्क-वितर्क किए जाते हैं कि बेरोजगारी और मुद्रास्फीति में से किस पर अंकुश लगाने पर ध्यान केंद्रित किया जाना बेहतर…
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License