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गुजरात : महिला स्वास्थ्यकर्मियों के यौन शोषण का आरोप कार्यस्थल पर महिलाओं की स्थिति दर्शाता है!
गुरु गोबिंद सिंह सरकारी अस्पताल की कुछ महिलाकर्मियों ने यौन उत्पीड़न का गंभीर आरोप लगाया है। उनका कहना है कि सुपरवाइजरों ने उन्हें सेवा से इसलिए हटा दिया, क्योंकि उन्होंने यौन संबंध बनाने के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था।
सोनिया यादव
18 Jun 2021
गुजरात : महिला स्वास्थ्यकर्मियों के यौन शोषण का आरोप कार्यस्थल पर महिलाओं की स्थिति दर्शाता है!
Image courtesy : Aasawari Kulkarni, (Feminism in India)

पितृसत्ता की बेड़ियों को तोड़कर घर की चार दीवारी के बाहर आज भी महिलाओं का काम करना आसान नहीं है। काम की जगह यौन शोषण से निपटने का कानून तो देश में सालों पहले बन गया बावजूद इसके आज भी तमाम महिलाओं को वर्क प्लेस पर शोषण और उत्पीड़न का दर्द सहना ही पड़ रहा है। ताजा मामला गुजरात के गुरु गोबिंद सिंह सरकारी अस्पताल का है, जहां अनुबंध पर काम करने वाली कुछ महिलाकर्मियों ने बुधवार, 16 जून को यौन उत्पीड़न के गंभीर आरोप लगाए। उनका कहना था कि सुपरवाइजरों ने उन्हें सेवा से इसलिए हटा दिया, क्योंकि उन्होंने यौन संबंध बनाने के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था।

आपको बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने विशाखा गाइडलाइन्स के तहत कार्यस्थल के मालिक के लिए ये ज़िम्मेदारी सुनिश्चित की थी कि किसी भी महिला को कार्यस्थल पर बंधक जैसा महसूस न हो, उसे कोई धमकाए नहीं। साल 1997 से लेकर 2013 तक दफ़्तरों में विशाखा गाइडलाइन्स के आधार पर ही इन मामलों को देखा जाता रहा लेकिन 2013 में 'सेक्सुअल हैरेसमेंट ऑफ वुमन एट वर्कप्लेस एक्ट' आया। हालांकि जमीनी हकीकत इसके बाद भी नहीं बदली। फिलहाल गुजरात का मामला अपने आप में अपने अंदर झांकने को मजबूर करता है कि क्या आज भी हम महिलाओं के लिए सुरक्षित कार्यस्थल बना पाए हैं?

क्या है पूरा मामला?

जामनगर के गुरु गोबिंद सिंह सरकारी अस्पताल की कुछ महिला कर्मचारियों ने पत्रकारों से बातचीत में आरोप लगाया कि उनके सुपरवाइजरों ने इसलिए उन्हें सेवा से हटा दिया, क्योंकि उन्होंने यौन संबंध के उनके प्रस्ताव को ठुकरा दिया। उन्हें एक एजेंसी के माध्यम से अनुबंध पर काम पर रखा गया था।

इस दौरान एक महिला कर्मचारी ने पत्रकारों को बताया कि सुपरवाइजर वार्ड बॉयज के जरिये उन्हें दोस्ती करने के प्रस्ताव भेजते थे। उन्होंने दावा किया कि ऐसे प्रस्तावों को ठुकराने वाली अटेंडेंट्स को सुपरवाइजरों ने लगभग तीन महीने का वेतन दिए बिना निकाल दिया।

सरकार क्या कर रही है?

राज्य मंत्रिमंडल की बैठक के दौरान बुधवार को ही इस मुद्दे पर चर्चा हुई। बैठक के बाद राज्य के गृहमंत्री प्रदीप सिंह जडेजा ने इन आरोपों की जांच के लिए तीन सदस्यीय समिति का गठन करने की घोषणा की।

प्रदीप सिंह जडेजा ने पत्रकारों से कहा, ‘गुरु गोबिंद सिंह अस्पताल की कुछ महिला कर्मचारियों ने आरोप लगाया है कि उनका यौन शोषण किया गया। मामले पर संज्ञान लेते हुए मुख्यमंत्री ने जिलाधिकारी और स्वास्थ्य आयुक्त से इन आरोपों की जांच के लिए तीन सदस्यीय समिति बनाने को कहा है।’

उन्होंने बताया कि उपमंडलीय जिलाधीश, जामनगर पुलिस के सहायक अधीक्षक और जामनगर मेडिकल कॉलेज के डीन इस समिति का हिस्सा होंगे। जांच रिपोर्ट के आधार पर आगे की कार्रवाई की जाएगी।

इस मामले पर गुजरात राज्य महिला आयोग ने भी संज्ञान लिया है। आयोग की अध्यक्ष लीलाबेन अंकोलिया ने जिला पुलिस अधीक्षक से इन आरोपों की विस्तृत रिपोर्ट तीन दिनों के भीतर देने को कहा है।

कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन शोषण

गौरतलब है कि ये कोई पहला मामला नहीं है, जब एक साथ कई महिलाओं ने कार्यस्थल पर यौन शोषण की शिकायत की हो। इससे पहले भी साल 2018 में जब मी-टू मूवमेंट की भारत में शुरुआत हुई थी तब बड़ी संख्या में महिलाओं ने बेबाक तरीक़े से अपने खिलाफ़ हुए उत्पीड़न के बारे में तमाम बातें सामने रखी थीं। इसने बड़ी शख्सियत वाले पुरुषों को नए सिरे से सार्वजनिक जांच के दायरे में ला दिया और कुछ को  इस्तीफे देने पड़े और कानूनी कार्रवाई का सामना करना पड़ा। हालांकि उस में से कितने मामले अपने अंजाम तक पहुंच पाए ये शायद ही कोई बता सके।

अनौपचारिक क्षेत्र की महिलाओं का ज्यादा शोषण होता है!

सोशल मीडिया पर चलने के कारण भारत में मी-टू आंदोलन ने अनौपचारिक क्षेत्र की महिलाओं को बाहर रखा जहां 95 प्रतिशत महिलाएं कार्यरत हैं। हम शायद इस बात को स्वीकार तक नहीं कर पाते कि फैक्टरी कर्मचारी, घरेलू कामगार, निर्माण मजदूर जैसे श्रमिकों का ज्यादा यौन उत्पीड़न किया जाता है और उन पर यौन हमले होते हैं। लेकिन गरीबी के कारण उनके पास कोई विकल्प नहीं होता, वे जानते हैं कि जो भी वे कमाते हैं वह कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।

भंवरी देवी के मामले में साल 1997 में सुप्रीम कोर्ट ने कार्यस्थल पर होने वाले यौन-उत्पीड़न के ख़िलाफ़ कुछ निर्देश जारी किए। इन निर्देशों को ही 'विशाखा गाइडलाइन्स' के रूप में जाना जाता है। तब अदालत ने कहा था कि लैंगिक समानता में यौन उत्पीड़न से सुरक्षा और गरिमा के साथ काम का अधिकार शामिल है, जो एक सार्वभौमिक मान्यता प्राप्त बुनियादी मानवाधिकार है। हालांकि, ये दिशानिर्देश वर्तमान में करीब 19.5 करोड़ श्रमिक समूह वाले अनौपचारिक क्षेत्र की महिलाओं को यौन उत्पीड़न से सुरक्षा देने में साफ़ तौर से असफल रहे हैं।

नौकरी खोने का डर और समाज में तिरस्कार

दूसरी ओर समर्थ महिलाएं भी अपनी नौकरी खोने का डर या समाज में तिरस्कार के चलते अपने साथ हुए मामलों तो रिपोर्ट नहीं कर पातीं लेकिन इन्हीं सब आशंकाओं को दूर करने के लिए साल 2013 में सेक्सुअल हैरेसमेंट ऑफ वुमन एट वर्कप्लेस एक्ट लाया गया। जिससे यदि किसी महिला के साथ कार्यस्थल पर कोई दुर्व्यवहार होता है तो वो पुलिस के पास जाने या सोशल मीडिया में लिखने से पहले अपने ऑफ़िस में बनी इस समिति में जा सकती है। इस समिति द्वारा महिला की प्राइवेसी के साथ-साथ उसकी नौकरी और सुरक्षा सभी तथ्यों को ध्यान में रखा जाता है।

2013 में आए कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम ने कार्यस्थल की परिभाषा को व्यापक किया और घरेलू कामगारों समेत अनौपचारिक क्षेत्र को इसके दायरे में लाया। पॉश नाम से लोकप्रिय यह अधिनियम स्वास्थ्य, खेल, शिक्षा के साथ–साथ सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों या सरकारी संस्थानों में और परिवहन समेत अपने नियोजन के दौरान कर्मचारी के भ्रमण के किसी भी स्थान में सभी कामगारों को सुरक्षा प्रदान करता है। इन सबके बाद भी महिलाएं यौन उत्पीड़न या हमले से निपटने के लिए भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत पुलिस शिकायत दर्ज कर सकती हैं। लेकिन वर्षों तक लंबित रह सकने वाले आपराधिक मामलों के विपरीत, शिकायत समितियों से त्वरित और प्रभावी राहत उपाय मिलने की उम्मीद होती है।

अधिकांश संगठन अभी भी क़ानून का अनुपालन करने में विफल हैं!

इंडियन नेशनल बार एसोसिएशन द्वारा 2017 में कराए गए भारत में अब तक के सबसे बड़े 6,000 से अधिक कर्मचारियों के सर्वेक्षण में पाया गया कि रोजगार के विभिन्न क्षेत्रों में यौन उत्पीड़न पांव पसारे हुए है। जिनमें अश्लील टिप्पणियों से लेकर यौन अनुग्रह की सीधी मांग तक सम्मिलित है। इसमें पाया गया कि अधिकांश महिलाओं ने लांछन, बदले की कार्रवाई के डर, शर्मिंदगी, रिपोर्ट दर्ज कराने संबंधी नीतियों के बारे में जागरूकता का अभाव या शिकायत तंत्र में भरोसा की कमी के कारण प्रबंधन के समक्ष यौन उत्पीड़न की रिपोर्ट दर्ज नहीं कराई। यह भी पाया गया कि अधिकांश संगठन अभी भी कानून का अनुपालन करने में विफल हैं, या आंतरिक समितियों के सदस्यों ने इस प्रक्रिया को पर्याप्त रूप से नहीं समझा है।

ह्यूमन राइट वॉच रिपोर्ट के मुताबिक भारत में ऐसा कोई अध्ययन नहीं है जो इस बात का दस्तावेजीकरण करता हो कि कार्यस्थल में यौन उत्पीड़न महिलाओं को नौकरी छोड़ने के लिए किस हद तक जिम्मेदार है।

इस संबंध में डेटा जर्नलिज्म वेबसाइट, इंडियास्पेंड के लिए कई किस्तों में एक जांच रिपोर्ट लिखनेवाली पत्रकार नमिता भंडारे कहती हैं, “वैयक्तिक अनुभवों के ढेर सारे स्रोत हैं। लड़कियां यौन उत्पीड़न के बारे में  बात नहीं करना चाहती हैं क्योंकि उन्हें डर सताता है कि परिवार तुरंत उन्हें काम छोड़ने के लिए कहेगा। यौन उत्पीड़न संबंधी कोई आंकड़ा या मौलिक परिमाणात्मक अध्ययन नहीं है, और अनौपचारिक क्षेत्र में तो बिल्कुल नहीं।”

मालूम हो कि आईसीसी यानी आंतरिक समितियों की परिकल्पना क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के विकल्प के तौर पर की गई थी, ताकि पीड़ित को अदालती दांवपेच में न उलझना पड़े और उन्हें न्याय दिलाया जा सके। बावजूद इसके आईसीसी महिलाओं को अक्सर न्याय नहीं दिलवा पाती। ऐसे बहुत से संस्थान हैं जहां आईसीसी निष्क्रिय बनी रहती है। अगर वह सक्रिय भी होती है तो उसकी सिफारिशों को माना नहीं जाता। जैसे द इनर्जी एंड रिसोर्सेस इंस्टिट्यूट (टेरी) और आरके पचौरी वाले मामले में हुआ था। टेरी की आईसीसी ने पचौरी के खिलाफ जांच में उन्हें दोषी माना था। लेकिन टेरी ने उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं की थी। नतीजतन पीड़िता को क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम यानी कोर्ट का सहारा लेना पड़ा था।

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VIJAY RUPANI

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