NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
क्या हम अब षडयंत्रों के आख़िरी संस्करण देख चुके हैं?
षड्यंत्र कैसे ऐसे विमर्श गढ़ते हैं, जो सत्ताधारियों को फायदा पहुँचाते हैं, अब इसकी व्याख्या करने के लिए प्रासंगिक विमर्श गढ़ने की ज़रूरत है।
अजय गुदावर्ती
15 Feb 2021
क्या हम अब षडयंत्रों के आख़िरी संस्करण देख चुके हैं?

'षड्यंत्रों की अवधारणा' के ज़रिए राजनीति को समझने वाले विचार को अक्सर खारिज़ कर दिया जाता है। लेकिन जेल में बंद रोना विल्सन के बारे में वाशिंगटन पोस्ट के हालिया खुलासे से पता चलता है कि मौजूदा सत्ता किस तरह षड्यंत्रों का उपयोग करती है। वाशिंगटन पोस्ट ने हाल में खुलासा किया है कि सामाजिक कार्यकर्ता रोना विल्सन के लैपटॉप से छेड़खानी की गई थी।

अगर लोग षड्यंत्रों को नकारने लगते हैं, अफवाहों-फर्जी ख़बरों के प्रति ज़्यादा सजग होने लगते हैं और अपने पूर्वाग्रहों (यही पूर्वाग्रह इन्हें अफ़वाहों का आसान शिकार बनाते हैं) के बारे में भी गहराई से आंकलन करने लगते हैं तो इससे अहम राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव पड़ता है। यह बात चुनावी नतीज़ों की पृष्ठभूमि में भी सटीक बैठती है। 

हाल में लाल किले पर हुए विवाद और हिंसा, जिसकी साजिश कथित तौर पर किसान आंदोलन के भीतर रची गई थी, उससे किसानों को अंदाजा हो गया है कि किस तरह से षड्यंत्र रचे जाते हैं। किसान आंदोलन के वरिष्ठ और बुजुर्ग नेताओं ने इस पर आत्मविश्लेषी ढंग से प्रतिक्रिया दी है। बीजेपी के मुस्लिमों के प्रति पूर्वाग्रह को देखकर इन लोगों ने बीजेपी को वोट देने की अपनी भयानक गलती को महसूस किया है। अब इन लोगों को महसूस हो रहा है कि कैसे मुस्लिमों के बारे में यह लोग गलत और फर्ज़ी ख़बरों पर विश्वास कर लिया करते थे। 

इन किसानों को यह भी महसूस है कि कोई व्यक्ति या किसी समाज और धर्म का एक हिस्सा अगर गलत काम में लगा है, तो इसका दोष पूरे समाज पर नहीं डाला जा सकता। इस तरह इन लोगों ने माना है कि किसी पूरे समुदाय से नफ़रत करने का कोई तुक नहीं होता। मतलब अगर हम मान भी लें कि गणतंत्र दिवस के दिन किसानों का एक हिस्सा अराजक हो गया, तो भी पूरे किसानों को दोष देने, उन्हें 'गुंडा', 'मवाली' और 'हिंसक' कहने का कोई मतलब नहीं निकलता या फिर किसी खास प्रेरणा के चलते ऐसा कहा जा रहा है। 

हरियाणा का कोई जाट किसान और दिल्ली का मध्यमवर्गीय हिंदू अब आसानी से समझ सकता है कि कैसे बड़े स्तर की हिंसा ज़्यादातर संगठित होती है। इसलिए जब कई रिपोर्टों में बताया जाता है कि उत्तरपूर्वी दिल्ली में बाहरी लोगों ने हिंसा की और इस क्षेत्र में रहने वाले हिंदू-मुस्लिम उसका हिस्सा नहीं थे, तो इस बात का अब मतलब निकलता है। तो फिर षड्यंत्र कैसे रचे जाते हैं? लाल किले की घटना और जिस तरीके से सामाजिक कार्यकर्ताओं के लैपटापों से छेड़खानी की गई, दरअसल ऐसी प्रारूपों में षड्यंत्रों को ढाला जाता है।

षड्यंत्र कैसे ऐसे विमर्श गढ़ते हैं, जो सत्ताधारियों को फायदा पहुंचाते हैं, अब इसकी व्याख्या करने के लिए प्रासंगिक विमर्श गढ़ने की जरूरत है। 

इस तरह के षड्यंत्रों की हालिया शुरुआत जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से हुई थी। वहां नकाबपोश लोगों ने नारे लगाते हुए हॉस्टलों में हिंसा की थी। इस घटना के लिए एक ऐसा विमर्श गढ़ा गया, जिसमें 'टुकड़े-टुकड़े गैंग' को तबाह करने वाली बात थी। लेकिन इस घटना में किसी तरह की भरोसेमंद जांच नहीं की गई।

जेएनयू कैंपस में हिंसा हुई, लेकिन जो लोग इसके पीड़ित थे, उन्हीं पर इस हिंसा को आयोजित करने के आरोप लगाए गए। यह बिल्कुल उन सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ किए गए व्यवहार जैसा ही है, जो खुद ध्रुवीकरण के खिलाफ खड़े थे, लेकिन दिल्ली हिंसा में दंगों के लिए उन्हें ही जिम्मेदार ठहरा दिया गया। इसी तरह संगठित अपराध के पीड़ित मुस्लिम होते हैं, लेकिन लोकप्रिय विचार में उन्हें आक्रांताओं की तरह पेश किया जाता है।

इन गढंत अवधारणाओं को ज़्यादातर बार कोई चुनौती ही नहीं मिलती, क्योंकि इनके मूल में षड्यंत्र की किसी बात को साबित कर पाना बहुत मुश्किल होता है। यहां इन षड्यंत्रों से बनी अवधारणाओं का पहले से मौजूद पूर्वाग्रह मार्गदर्शन कर रहे होते हैं।

लेकिन किसान आंदोलन और अब अमेरिकी फॉरेंसिक फर्म द्वारा विल्सन के कंप्यूटर में 'मालवेयर'  भेजे जाने के खुलासे ने विमर्शों को गढ़ने में षड्यंत्रों की भूमिका साफ़ कर दी है। अब षड्यंत्र रचे जाने की बात से इंकार किया जाना मुश्किल हो गया है। लेकिन षड्यंत्रों के बारे में बड़ी रजामंदी बनाना तब मुश्किल होता था, जब इन गढ़े गए विमर्शों और साजिशों का शिकार कोई मुस्लिम होता था। लेकिन अब पीड़ित बहुसंख्यक या उस वर्ग से है जो पहले इन पूर्वाग्रहों और गढ़े गए विमर्शों को फैलाता था। तो अब साफ़ हो जाता है कि मौजूदा सत्ता का विरोध करने वाले लोगों के खिलाफ़ एक सुगढ़ रणनीति के तहत काम किया जा रहा है।

एक बिंदु के बाद यह मायने नहीं रखता कि आप हिंदू हैं या मुस्लिम, या आप उच्च जाति के बौद्धिक हैं, कोई सामाजिक कार्यकर्ता या फिर कोई दलित हैं। षड्यंत्र एक बड़े तंत्र का हिस्सा बन जाते हैं। इसलिए तो वरवर राव से लेकर सुधा भारद्वाज और आनंद तेलतुंबड़े जैसे अलग-अलग मुद्दों का प्रितनिधित्व करने वालों को जेल में बंद कर रखा गया है।

किसान आंदोलन के बाद यह साफ़ हो गया है कि अफवाहों और इन पर केंद्रित विमर्शों के प्रसार की गति अब धीमी हो रही है। अब उन्माद और नफरती भावनाएं घट रही हैं। नफ़रत, पूर्वाग्रह युक्त भावनाओं और उन्माद को खुद को सही बताने के लिए एक स्तर के आत्मविश्वास की जरूरत होती है। वो लोग भी जो इस तरह के षड्यंत्रकारी विमर्शों के पीछे संगठित होने की इच्छा रखते हैं, उन्हें भी खुद को यह बताने की जरूरत पड़ती है कि उनके द्वारा किया जा रहा काम नैतिक तौर पर सही और राष्ट्र के व्यापक हित के लिए है।

जब इन चीजों का मुखौटा गिरना शुरू होता है, तो षड्यंत्रों के ज़रिए शासन चलाना मुश्किल हो जाता है।

यह अलग बात है कि मौजूदा सत्ता झूठ फैलाना और इन तकनीकों को प्रसार जारी रखेगी, जबकि उन्हें पता होगा कि लोग उनपर भरोसा नहीं कर रहे हैं, जैसे अभी वरिष्ठ पत्रकारों पर लगाए गए राजद्रोह समेत कई दूसरे मामलों में हुआ। यहां षड्यंत्रों का उद्देश्य अपने पक्ष में विमर्श गढ़ने के बजाए डर फैलाने के बारे में भी हो सकता है।

मौजूदा सत्ता, षड्यंत्रों का गठन कोई छुपे उद्यम की तरह नहीं, बल्कि खुली रणनीति के तहत करती है। भीमा कोरेगांव के मामले में जिन लोगों को आरोपी बनाया गया है, उनके लिए यह बात बिल्कुल सटीक बैठती है। लेकिन डर को अपनी जगह बनाने के लिए अनिश्चित्ता और नैतिक दुविधा की भावना के प्रबल होने की जरूरत पड़ती है। अभी जैसे निर्लज्ज तरीके अपनाए जा रहे हैं, उन्हें लंबे वक़्त तक जारी रखना मुश्किल है। नहीं तो, जैसा किसान कर रहे हैं, लोग खुद को सही मानकर इनके खिलाफ़ विरोध करना शुरू कर देते हैं।

ऊपर से मौजूदा सत्ता की लोकप्रियता कम हो रही है। इसलिए यह सत्ता ऐसा विमर्श और राजनीति गढ़ने की कोशिश कर रही है, जो इसके प्रचंड समर्थकों को पसंद हो। सत्ता द्वारा अपनाई जाने वाली षड़यंत्रों की ऐसी निर्लज्ज तकनीकें उन लोगों को पसंद नहीं आतीं, जो सामाजिक तौर पर वंचित समूहों से आते हैं, भले ही वे फिलहाल मौजूदा सत्ता का समर्थन कर रहे हों।

बल्कि अराजकता की स्थिति में इन्हीं लोगों में असंतोष पैदा हो सकता है, बशर्ते यह लोग इस बात की संकल्पना ना रखते हों कि इस तरह की कार्रवाई सिर्फ 'दूसरे' लोगों के लिए ही आरक्षित है। इन दूसरे लोगों में वह शामिल हैं, जो मौजूद सत्ता के समर्थक लोगों से राजनीतिक असहमति रखते हैं और सत्ता वर्ग का समर्थक सामाजिक तौर पर इन्हें पसंद नहीं करता। 

किसानों और मौजूदा भीमा-कोरेगांव में आरोपियों के खिलाफ़ जो कार्रवाईयां की गईं, उनमें यही तो हुआ है।

जो तरीके कश्मीरियों और मुस्लमों पर अपनाए जाते थे, अब उन्हें दिल्ली की कॉलोनियों में किसानों के खिलाफ़ अपनाया जा रहा है। कश्मीर में लोग विरोध में अपनी आवाज ना उठा सकें, इसलिए इंटरनेट बंद कर दिया जाता था, अब दिल्ली की सीमा पर भी इंटरनेट बंद कर दिया जाता है। लेकिन बदले में किसानों ने देश को याद दिलाया कि "हम किसान हैं, आतंकवादी नहीं।"

लेखक जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में सेंटर फ़ॉर पॉलिटिकल साइंस में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें। 

Have We Seen the Last of Conspiracies?

farmers
Farm protest
Bhima-Koregaon
Conspiracy theories
BJP
Internet Shutdown
Muslims
Newsclick
Sedition
politics
Delhi riots
Malware
Pegasus

Related Stories

बदायूं : मुस्लिम युवक के टॉर्चर को लेकर यूपी पुलिस पर फिर उठे सवाल

भाजपा के इस्लामोफ़ोबिया ने भारत को कहां पहुंचा दिया?

कश्मीर में हिंसा का दौर: कुछ ज़रूरी सवाल

सम्राट पृथ्वीराज: संघ द्वारा इतिहास के साथ खिलवाड़ की एक और कोशिश

हैदराबाद : मर्सिडीज़ गैंगरेप को क्या राजनीतिक कारणों से दबाया जा रहा है?

ग्राउंड रिपोर्टः पीएम मोदी का ‘क्योटो’, जहां कब्रिस्तान में सिसक रहीं कई फटेहाल ज़िंदगियां

धारा 370 को हटाना : केंद्र की रणनीति हर बार उल्टी पड़ती रहती है

मोहन भागवत का बयान, कश्मीर में जारी हमले और आर्यन खान को क्लीनचिट

भारत में धार्मिक असहिष्णुता और पूजा-स्थलों पर हमले को लेकर अमेरिकी रिपोर्ट में फिर उठे सवाल

मंडल राजनीति का तीसरा अवतार जाति आधारित गणना, कमंडल की राजनीति पर लग सकती है लगाम 


बाकी खबरें

  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    मुंडका अग्निकांड: सरकारी लापरवाही का आरोप लगाते हुए ट्रेड यूनियनों ने डिप्टी सीएम सिसोदिया के इस्तीफे की मांग उठाई
    17 May 2022
    मुण्डका की फैक्ट्री में आगजनी में असमय मौत का शिकार बने अनेकों श्रमिकों के जिम्मेदार दिल्ली के श्रम मंत्री मनीष सिसोदिया के आवास पर उनके इस्तीफ़े की माँग के साथ आज सुबह दिल्ली के ट्रैड यूनियन संगठनों…
  • रवि शंकर दुबे
    बढ़ती नफ़रत के बीच भाईचारे का स्तंभ 'लखनऊ का बड़ा मंगल'
    17 May 2022
    आज की तारीख़ में जब पूरा देश सांप्रादायिक हिंसा की आग में जल रहा है तो हर साल मनाया जाने वाला बड़ा मंगल लखनऊ की एक अलग ही छवि पेश करता है, जिसका अंदाज़ा आप इस पर्व के इतिहास को जानकर लगा सकते हैं।
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    यूपी : 10 लाख मनरेगा श्रमिकों को तीन-चार महीने से नहीं मिली मज़दूरी!
    17 May 2022
    यूपी में मनरेगा में सौ दिन काम करने के बाद भी श्रमिकों को तीन-चार महीने से मज़दूरी नहीं मिली है जिससे उन्हें परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है।
  • सोन्या एंजेलिका डेन
    माहवारी अवकाश : वरदान या अभिशाप?
    17 May 2022
    स्पेन पहला यूरोपीय देश बन सकता है जो गंभीर माहवारी से निपटने के लिए विशेष अवकाश की घोषणा कर सकता है। जिन जगहों पर पहले ही इस तरह की छुट्टियां दी जा रही हैं, वहां महिलाओं का कहना है कि इनसे मदद मिलती…
  • अनिल अंशुमन
    झारखंड: बोर्ड एग्जाम की 70 कॉपी प्रतिदिन चेक करने का आदेश, अध्यापकों ने किया विरोध
    17 May 2022
    कॉपी जांच कर रहे शिक्षकों व उनके संगठनों ने, जैक के इस नए फ़रमान को तुगलकी फ़ैसला करार देकर इसके खिलाफ़ पूरे राज्य में विरोध का मोर्चा खोल रखा है। 
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License