NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
आंदोलन
नज़रिया
भारत
राजनीति
फ़ासीवाद से मुक्ति के लिए हिंदू धर्म को एक सांस्कृतिक आंदोलन चाहिए
यह समझना जरूरी है कि संघ परिवार और भाजपा की सत्ता-कामना सिर्फ मुस्लिम-विद्वेष पर आधारित नहीं है, यह हिंदू धर्म को पीछे ले जाने के लक्ष्य से भी संचालित है। 
अनिल सिन्हा
02 Jan 2022
protest
फ़ोटो साभार: The New Indian Express

इसमें कोई शक नहीं कि धर्मसंसदों के नफरती भाषणों और मुसलमानों के नरसंहार की अपील के पीछे उत्तेजना फैलाना संघ परिवार का मुख्य उद्देश्य है क्योंकि यह उसकी समझ में आ गया है कि बगैर धार्मिक विभाजन के उत्तर प्रदेश के चुनावों में कुछ सीटें भी हासिल करना मुश्किल है। लेकिन यह समझना जरूरी है कि आरएसएस सिर्फ इसी तात्कालिक उद्देश्य के लिए काम नहीं कर रहा है। अगर गहराई से विचार करेंगे तो पता चलेगा कि उसका लक्ष्य हिदू धर्म को ऐसे धर्म में बदल देना है जो फासीवाद के काम आए। फासीवाद का मायने सामाजिक तथा आर्थिक रूप से संपन्न लोगों का शासन है।

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने हिदुत्व और हिंदू धर्म  में भेद करने की बात कर उस बिंदु को जरूर छुआ है। लेकिन उनकी सोच और रणनीति में अधिक स्पष्टता की जरूरत है। उन्हें उस निश्चय को भी मजबूती से दोहराने की जरूरत है कि धर्म तथा राजनीति को अलग रखने के लिए महात्मा गांधी, डॉ. आंबेडकर और जवहरलाल नेहरू ने क्या किया था। यह असल मायने में आजादी के आंदोलन का संकल्प था जिसे संविधान ने पूरी दृढ़ता  से दर्ज किया है। उन्हें कांग्रेस को उन फिसलनों से बचाना होगा जिनका शिकार उनकी पार्टी होती रही है। लेकिन हिंदू धर्म को फासीवादी ढांचे में फिट करने की भाजपा की कोशिश को सिर्फ राजनीति के जरिए मात नहीं दी जा सकती है। इसके लिए एक बड़े संस्कृतिक आंदोलन की जरूरत है।

इस सांस्कृतिक आंदोलन की सबसे ज्यादा जरूरत हिंदुओं को है क्योंकि उनकी आबादी सबसे बड़ी है। हिंदू धर्म को पतन के उस रास्ते से बचाना होगा जिस ओर संघ परिवार उसे धकेल रहा है।

हिंदुओं ने अपने महान धर्म गुरुओं और संतों- बुद्ध, महावीर, कबीर, नानक, रैदास, मीरा बाई, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद के सहारे अब तक जो सीखा है और अनेक मतों- शैव,  शाक्त, वैष्णव, तंत्र आदि के सहारे जो विविधता हासिल की है, उसे कायम रखने के लिए संघर्ष में उतरना होगा। यह भारत को उस सांप्रदायिक आग से बचाने के लिए जरूरी है जो भारत को तो झुलसाएगा ही उस ज्ञान को भी स्वाहा कर देगा जो वेद, उपनिषदों से होकर आजीवक,  बौद्ध, जैन भक्ति और सूफी दर्शनों के सहारे उसने अर्जित किया है।

हिंदू धर्म ने अपने इस ज्ञान के जरिए भोगवाद की जगह  त्याग और करूणा की विराट परंपरा विकसित की है और विषमता की जगह समता, तिरस्कार की जगह भ्रातत्व,  घृणा की जगह करुणा की प्रेरणा को तमाम विपरीत परिस्थितियों में जिंदा रखा है। इसी ज्ञान ने एक विषम समाज को समतावादी समाज में बदलने की कोशिश हर दौर में कायम रखी है। संघ परिवार इस समतावाद की ओर से मिलने वाली चुनौती को सदा के लिए खत्म करना चाहता है और इसके लिए हिंदू धर्म का तालीबानीकरण को जरूरी मानता है। 

धर्मसंसद के बाबाओं के बयान में संघ परिवार के लक्ष्यों का पूरा खाका मिलता है। इसमें हिंदू राष्ट्र की उसकी तस्वीर की झलक हमें मिलती है। इसमें बाबा लोग संविधान और राजनीति पर टिप्पणियां कर रहे हैं। वे राष्ट्र को आकार देने की बात कर रहे हैं और आजादी के आंदेलन के इतिहास के संघी नजरिया को पेश कर रहे हैं। जाहिर है उन्हें गांधी सबसे ज्यादा खटकते हैं क्योंकि उस अधनंगे फकीर की उपस्थिति में वे सावरकर और गोलवलकर समेत हिंदुत्व के उनके वे सारे योद्धा फेल नजर आते हैं जो अंग्रेजों की दया और सांप्रदायिक नफरत से ताकत पा रहे थे। वे धर्म के साथ संसद जोड़ कर यह भ्रम पैदा कर रहे हैं कि उन्होंने धर्म का लोकतंत्रीकरण कर दिया है। यह संसद संघ परिवार से जुड़े संगठनों की तरह काम करती है और संघ जो काम राजनीति के मंच पर नहीं कर पाता, उसे इन्हीं संसदों और परिषदों के जरिए करता है। राम मंदिर आंदोलन में इन संसदों और परिषदों की भूमिका हम देख चुके हैं। संघ परिवार अपने दीर्घकालिक लक्ष्यों के लिए इनका इस्तेमाल कर रहा है।

सवाल उठता है कि हिंदू धर्म में समग्र बदलाव की इस चुनौती का सामना किस तरह किया जाए?  धर्म को राजनीति से अलग रखने लड़ाई अपनी जगह ठीक है और यह लड़ाई राजनीति के जरिए लड़ी जा सकती है। लेकिन संघ परिवार ने धर्म और संस्कृति के क्षेत्र में जो युद्ध छेड़ रखा है, उससे लड़ने का तरीका क्या हो?

देश में लोकतंत्र बचाने के लिए जरूरी है कि संघ परिवार के हिंदू राष्ट्र के प्रोजेक्ट का सामना केवल राजनीति के जरिए नहीं हो, बल्कि उन धार्मिेक तथा आध्यात्मिक चिंतन के भी सहारे किया जाए जिन्हें हिंदू धर्म के संतों  और गुरुओं ने विकसित किया है। इसके लिए उन सवालों को भी हमें उठाना पड़ेगा जो बुद्ध, महावीर से लेकर शंकराचार्य, अभिनवगुप्त, बसव, रामानुज, कबीर, रैदास, रामकुष्ण परमहंस और विवेकानंद ने उठाए थे। इन सवालों को उन सवालों के साथ जोड़ना पड़ेगा जो महात्मा फुले और डॉ. आंबेडकर ने हिदू धर्म के सामाजिक पक्ष को लेकर उठाए है। हमें धर्म और राजनीति के संबंधों पर महात्मा गांधी के विचारों पर भी गौर करना पड़ेगा। 

हमें अयोध्या से लेकर बनारस तक धर्म को कर्मकांड में डुबो देने के विरोध में खड़ा होना होगा। इन कर्मकांडों को वापस लाने का का असली उद्देश्य दलित, पिछडों और स्त्रियों को उनके अधिकारों से वंचित करना है। सैकड़ों साल की लड़ाई के बाद उन्हें ये अधिकार हासिल हुए हैं। लोगों को बताना होगा कि आस्था तथा पूजा-अर्चना के नाम पर कर्मकांडों को वापस लाने वाले ये लोग कौन हैं और वे क्या चाहते हैं?

कर्मकांड त्यागने का संदेश और मन तथा कर्म की शुद्धि का संदेश बुद्ध से लेकर स्वामी विवेकांनंद तक देते रहे हैं। उन्हें बताना होगा कि अब धर्म की संसदों तथा परिषदों के जरिए कर्मकांड की सत्ता वापस क्यों लाई जा रही है। जनता की आस्था के नाम पर धर्म और समाज को पीछे ले जाने की साजिश का पर्दाफाश जरूरी है।

यह समझना जरूरी है कि संघ परिवार और भाजपा की सत्ता-कामना सिर्फ मुस्लिम-विद्वेष पर आधारित नहीं है, यह हिंदू धर्म को पीछे ले जाने के लक्ष्य से भी संचालित है। 

संघ परिवार ने आस्था भी बाजार की वस्तु में तब्दील कर दिया है। अयोध्या से लेकर बनारस में यही दिखाई दे रहा है। अयोध्या जमीन खरीदने-बेचने का केंद्र बन गया है और बनारस एक पर्यटन का बाजार। 

सैकड़ों साल तक सगुण और निर्गुण उपासना के केंद्र रहे ये तीर्थस्थल पहले भी व्यापार के केंद्र थे। प्राचीन व्यापारिक रास्तों पर बसे इन शहरों में बाजार चलाने वालों ने कभी सादगी तथा अपरिग्रह की सांस्कृतिक धारा को छिन्न-भिन्न करने का साहस नहीं किया है। उन्होंने इसे बनाए रखने में मदद की। होटल नहीं धर्मशाला खोले। इन तीर्थों में कर्मकांडी पंडे भी थे तो वाममार्गी औघड़ों तथा संन्यासियों का हजूम भी।

बनारस विचारों के संघर्ष तथा समन्वय का जीता-जागता केंद्र रहा है। वहां सगुण के उपासक तुलसीदास हैं तो निर्गुण की उपासना करने वाले कबीर भी। विचारों के संघर्ष और समन्वय की यह प्रक्रिया मध्यकालीन मुस्लिम शासकों के दौर में भी जारी रही। नालंदा तथा विक्रमशिला के विश्वविद्यालयों के नष्ट होने के बाद बनारस जैसे केंद्र ही जीवित रहे जिन्होंने केंद्रीयकरण को अस्वीकार किया। उन्होंने स्वायत्त चिंतन की परंपरा को जारी रखा।

काशी-विश्वनाथ कॉरीडोर बनारस की गलियों में अलग-अलग धार्मिक धाराओं को लेकर चलने वाली संस्कृति को नष्ट करने की साजिश है जो भारतीय मानस की सैकडों साल की यात्रा से पनपी है। आध्यात्मिक केंद्र को पर्यटन स्थल में बदलने के कारपोरेट लक्ष्य के सच को भी समझना होगा। इसके लिए जरुरी है कि संघ परिवार हिंदू धर्म की विविधता को खत्म कर दे और इसे तालिबानी रूप दे। इसके लिए जरूरी है कि वह इसे कर्मकांडी बना दे। इसके बगैर  वह आस्था का बाजार नहीं चला सकता है। कर्नाटक सरकार सरकारी देखरेख में चलने वाले मंदिरों को कारपोरेट के हाथ में सौंपने के लिए कानून बना रही है ताकि इसकी संपत्ति और आमदनी पूंजीपतियों के मिल सके। इसके लिए जरूरी है कि सनातनी, बौद्ध, जैन, शैव, वैष्णवों, सिखों तथा इस्लाम के धार्मिक संगम वाले बनारस सरीखे तीर्थस्थलों को एक मंदिर, एक प्रबंधन वाले केंद्रों में बदला जा सके। भाजपा ने कारपोरेट फायदे और  फासिस्ट इरादों के लिए इसकी श्रेष्ठता की बलि चढा दी है। बनारस विपन्न हो चुका है।

यह कहानी अंग्रेजों के समय शुरू हुई थी। अंग्रेजों के आने के बाद राममोहन राय, केशवचंद्र सेन समेत अनेक लोगों ने पाश्चात्य विचारों की रोशनी में न केवल हिंदू धर्म की पड़ताल की बल्कि इसे नई सोच से संपन्न किया। हिंदू धर्म को नए विचारों से भरने का यह सिलसिला स्वामी विवेकानंद और अरविंद से होकर महात्मा गांधी तक चलता रहा है। महात्मा फुले, पेरियार और आंबेडकर ने इसे गैर-बराबरी और शोषण से मुक्त करने का अभियान चलाया और वंचितों को सदियों के अत्याचार से मुक्ति दिलाई। सुधार और समन्वय की धाराएं एक साथ चलीं। आजादी के आंदोलन में धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक विचारों का विलक्षण प्रवाह है। यही संविधान के रूप में हमारे सामने आया है।

औपनिवेशिक शासन ने समन्वय के रास्ते में कदम-कदम पर बाधाएं खड़ी कीं। इसके लिए उन्हें कांग्रेस की जगह मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा या आरएसएस की जरूरत थी। हिंदूवादी संगठन इतने खोखले थे कि वे न तो कोई विवेकानंद दे सके और न ही कोई अरविंद। उन्होंने सावरकर या गोलवलकर दिया जिनके पास नफरत के सिवा कुछ नहीं था। कांग्रेस को तो यह श्रेय तो देना ही पड़ेगा कि उसके नेताओं ने धर्म को परिभाषित करने में भी अहम भूमिका निभाई। हिंदुओं के ग्रंथ गीता की आधुनिक टीकाएं लिखने का श्रेय भी उन्हें ही जाता है। लोकमान्य तिलक ने गीता रहस्य लिखा तो विनोबा भावे ने गीता प्रवचन। कांग्रेस से जुड़े नेताओं ने इस्लाम को भी संपन्न करने में योगदान दिया। मौलाना आजाद की इस्लाम पर लिखी किताबें आज सर्वाधिक मान्य हैं। 

देश में एक व्यापक सांस्कृतिक आंदोलन की जरूरत है जो सभी धर्मों को कट्टरपंथियों और अवसरवादियों से बचाए। अगर यह नहीं हुआ तो आस्था के नाम पर मॉब लिंचिंग भी चलती रहेगी और बनारस जैसे शहरों का ढहाना भी जारी रहेगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

hinduism
Hindutva
Fascism
dharm sansad
cultural movement

Related Stories

कविता का प्रतिरोध: ...ग़ौर से देखिये हिंदुत्व फ़ासीवादी बुलडोज़र

‘(अ)धर्म’ संसद को लेकर गुस्सा, प्रदर्शन, 76 वकीलों ने CJI को लिखी चिट्ठी

किसान आंदोलन: तानाशाही और तबाही के 7 साल बनाम प्रतिरोध और उम्मीद के 6 महीने

दुष्प्रचार अभियान के ख़िलाफ़ आर्थिक मुद्दों के साथ लड़ता किसान आंदोलन

बतकही: अब तुमने सुप्रीम कोर्ट पर भी सवाल उठा दिए!

किसान आंदोलन लोकतंत्र के लिए प्रतिरोध का निर्णायक मोर्चा है

कॉर्पोरेट-हिंदुत्व ’राष्ट्रवाद’ का जवाब बनता किसान आंदोलन

संघ स्वदेशी के किसानी सरोकार—मुट्ठी भी तनी रहे और कांख भी ढकी रहे

हिंदुत्व को होश दिलाने आए पंजाब के किसान

दिल्ली हिंसा; यह हिन्दू-मुस्लिम दंगा नहीं, फ़ासीवादी हमला है : अरुंधति रॉय


बाकी खबरें

  • Mothers and Fathers March
    पीपल्स डिस्पैच
    तख़्तापलट का विरोध करने वाले सूडानी युवाओं के साथ मज़बूती से खड़ा है "मदर्स एंड फ़ादर्स मार्च"
    28 Feb 2022
    पूरे सूडान से बुज़ुर्ग लोगों ने सैन्य शासन का विरोध करने वाले युवाओं के समर्थन में सड़कों पर जुलूस निकाले। इस बीच प्रतिरोधक समितियां जल्द ही देश में एक संयुक्त राजनीतिक दृष्टिकोण का ऐलान करने वाली हैं।
  • गौरव गुलमोहर
    यूपी चुनाव: क्या भाजपा के लिए मुश्किल खड़ी कर सकते हैं सिटिंग विधायक?
    28 Feb 2022
    'यदि भाजपा यूपी में कम अंतर से चुनाव हारती है तो उसमें एक प्रमुख कारण काम न करने वाले सिटिंग विधायकों का टिकट न काटना होगा।'
  • manipur
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    मणिपुर में पहले चरण का चुनाव, 5 ज़िलों की 38 सीटों के लिए 67 फ़ीसदी से ज़्यादा मतदान
    28 Feb 2022
    मणिपुर विधानसभा के लिए आज पहले चरण का मतदान संपन्न हो गया। मतदान का समय केवल शाम 4 बजे तक ही था। अपराह्न तीन बजे तक औसतन 67.53 फ़ीसदी मतदान हुआ। अंतिम आंकड़ों का इंतज़ार है।
  • jharkhand
    अनिल अंशुमन
    झारखंड : फिर ज़ोर पकड़ने लगी है ‘स्थानीयता नीति’ बनाने की मांग : भाजपा ने किया विरोध
    28 Feb 2022
    हेमंत सोरेन सरकार को राज्य में होने वाली सरकारी नियुक्तियों के लिए घोषित विसंगतिपूर्ण नियोजन नीति को छात्रों-युवाओं के विरोध के बाद वापस लेना पड़ा है। लेकिन मामला यहीं थम नहीं रहा है।
  • Sergey Lavrov
    भाषा
    यूक्रेन की सेना के हथियार डालने के बाद रूस ‘किसी भी क्षण’ बातचीत के लिए तैयार: लावरोव
    28 Feb 2022
    लावरोव ने यह भी कहा कि रूस के सैन्य अभियान का उद्देश्य यूक्रेन का ‘‘विसैन्यीकरण और नाजी विचारधारा से’’ मुक्त कराना है और कोई भी उस पर कब्जा नहीं करने वाला है।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License