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भारत के सामने नौकरियों का बड़ा संकट: पिछले साल छिन गईं 1.7 करोड़ नौकरियाँ
सितंबर 2020 से अब तक 90 लाख नौकरियाँ जा चुकी हैं, लेकिन सरकार अब भी इस तरीके से व्यवहार कर रही है, जैसे सबकुछ बहुत ही सही चल रहा हो।
सुबोध वर्मा
18 Jan 2021
भारत के सामने नौकरियों का बड़ा संकट: पिछले साल छिन गईं 1.7 करोड़ नौकरियाँ

लॉकडाउन हटने के बाद भारत की अर्थव्यवथा में सुधार की खुशफहमी भरी बातों में बड़ा झोल नजर आ रहा है। “सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकनॉमी (CMIE)” सर्वे के हालिया आंकड़ों के मुताबिक़, दिसंबर 2019 से तुलना में आज देश में 1.7 करोड़ कम लोगों के पास रोज़गार है। कुल रोज़गार प्राप्त लोगों की संख्या सितंबर, 2020 के 39.8 करोड़ के आंकड़े से घटकर 38.9 करोड़ रह गई है। यह बताती है कि तीन महीनों में 90 लाख लोगों के हाथ से नौकरियां जा चुकी हैं। (नीचे चार्ट देखिए)

बल्कि 2020-21 की तीसरी तिमाही (अक्टूबर-दिसंबर) में रोज़गार में पिछले वित्तवर्ष में इसी अवधि की तुलना में 2.8 फ़ीसदी की कमी आई है। इसी पैमाने पर, 2020-21 की पहली तिमाही में आई बड़ी गिरावट के बाद दूसरी तिमाही में 2.6 फ़ीसदी की सिकुड़न दर्ज की गई थी। मतलब तीसरी तिमाही में दूसरी तिमाही से ज़्यादा गिरावट आई है।

दिसंबर 2020 में बेरोज़गारी दर 9.1 फ़ीसदी थी, यह सितंबर (6.7 फ़ीसदी) से और पिछले साल दिसंबर (7.1 फ़ीसदी) से ज़्यादा थी। दिसंबर में शहरी बेरोज़गारी में बड़ा उछाल आया है। यह नवंबर में 6.2 फ़ीसदी से बढ़कर दिसंबर में 9.2 फ़ीसदी पहुंच गई है।

नौकरियाँ जाने का ख़ामियाज़ा युवा, शिक्षित और वेतनभोगियों को भोगना पड़ा

इस बुरी स्थिति में और भी ज़्यादा भयावह गहराईयां मौजूद हैं। जनसंख्या के विभिन्न हिस्सों के लोगों की नौकरियां जाने के अलग-अलग विश्लेषण से पता चलता है कि शहरी क्षेत्रों में ज़्यादा नौकरियां युवा कामग़ारों, महिलाओं और वेतनभोगी कर्मचारियो से छिनी हैं। भारत में महिलाओं की रोज़गार दर हमेशा कम रही है। ऐसा लगता है कि पिछले साल लॉकडाउन और आर्थिक गिरावट से पैदा हुई बेरोज़गारी का बड़ा ख़ामियाजा महिलाओं को भुगतना पड़ा है। हालांकि कुल श्रमशक्ति में महिलाओं की हिस्सेदारी सिर्फ़ 11 फ़ीसदी ही है, लेकिन जितनी नौकरियां गई हैं, उनमें से 52 फ़ीसदी नौकरियां महिलाओं की थी। 

दूसरे जनसांख्यकीय-आर्थिक वर्ग वह हैं, जिन्हें विकास का इंजन माना जाता था। युवा लोगों में चालीस साल से कम उम्र के लोगों के बीच, 2019-20 की इस साल से तुलना के मुताबिक, इस साल 2.17 करोड़ लोगों की नौकरियां गईं। इस समूह में जो लोग 30 से 39 साल की उम्र के बीच थे, उन पर सबसे ज़्यादा बुरा असर पड़ा। 40 साल से कम उम्र के जिन लोगों की नौकरियां गईं, उनमें “30 से 39 साल की उम्र” वर्ग की हिस्सेदारी 48 फ़ीसदी रही, जबकि देश की कुल श्रमशक्ति में इनकी हिस्सेदारी सिर्फ़ 23 फ़ीसदी है। 40 साल से ज़्यादा उम्र के कामग़ारों और कर्मचारियों ने इसी अवधि में 72 लाख नौकरियां हासिल कीं।

कुल रोज़गार में 21 फ़ीसदी वैतनिक कर्मचारी हैं, लेकिन पिछले साल इस समूह में 71 फ़ीसदी नौकरियां चली गईं। इसी तरह उच्च शिक्षा प्राप्त कर्मचारी (ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट) कुल रोज़गार का केवल 13 फ़ीसदी हिस्सा हैं, लेकिन इस समूह में 65 फ़ीसदी लोगों की नौकरियां चली गईं। CMIE का अनुमान है कि इन उच्च शिक्षित लोगों में से 95 लाख की नौकरियां चली गईं।

नौकरियों की अनिश्चित्ता वाली स्थिति

इसके बाद बचता क्या है? भारत में कृषि और दूसरे क्षेत्रों की बड़ी अनौपचारिक श्रमशक्ति खुद को बचाए रखने में कामयाब रही। ऐसा इसलिए है, क्योंकि उनके पास कोई विकल्प नहीं था। उनके पास कोई बचत नहीं थी, ना ही सुरक्षा का कोई आवरण था। किसी भी स्थिति में कम पैसे पर रहने के अलावा उनके पास कोई विकल्प ही नहीं था। यह लोग लॉकडाउन में सबसे ज़्यादा परेशान हुए, क्योंकि सरकार ने किसी भी तरह की आर्थिक मदद देने से हाथ खड़े कर दिए थे। और उनका काम अचानक लॉकडाउन की घोषणा के बाद ठप पड़ गया। लेकिन उनकी बेहद अनिश्चित स्थिति के बावजूद उन्हें काम ढूंढने के लिए मजबूर होना पड़ा। भले ही इससे उन्हें किसी भी मात्रा में पैसा मिले। इनमें से कई लोग कृषि कार्यों में लग गए, पहले खरीफ़ की फसल के दौरान और उसके बाद रबी की फसल में इन्होंने हाथ बंटाया।

जैसा CMIE बताता है, इसका मतलब यह हुआ कि भारत की श्रमशक्ति की मूल प्रवृत्ति में बदलाव आया है। यह बदलाव कई मायनों में बुरा साबित हुआ है। रोज़गार के पुराने स्त्रोतों से अब वेतन-भत्ता कम मिल रहा है और यह पहले से कहीं ज़्यादा अनिश्चित हो चुका है। युवा लोगों और महिलाओं को नौकरियां नहीं मिल रही हैं, अब पहले से कहीं ज़्यादा आय में अनिश्चित्ता आई है।

बदतर हालात आना अभी बाकी

क्या यह सब सिर्फ़ महामारी की वजह से है? सभी संकेत इस कड़वी सच्चाई की तरफ इशारा करते हैं कि एक सिकुड़ती अर्थव्यवस्था में नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा पैसे खर्च करने से जो बिना तर्क और खुल्ला इंकार किया गया है, जबकि इस खर्च से आम आदमी की क्रय शक्ति बढ़ती और अर्थव्यवस्था में विस्तार होता, वह खर्च का इंकार इन भयावह घटनाओं के लिए ज़िम्मेदार है। कुप्रबंधित लॉकडाउन ने इसमें और योगदान ही दिया है। कॉरपोरेट को करों में कटौती और दूसरी सुविधाएं देने की सरकार की प्रवृत्ति ने भी इसे तेज किया है।

इस पूरे घटनाक्रम में सबसे बुरी बात यह है कि सरकार इससे कोई सीख लेने और खुद में बदलाव लाने के बजाए, देश की बिखरती अर्थव्यवस्था में इस ज़हर की मात्रा और तेज कर रही है। सार्वजनिक क्षेत्रों के लगातार निजीकरण, कठोर कृषि कानूनों को वापस ना लेने का सरकार का अड़ियल रवैया इसी मूर्खता का उदाहरण हैं। इन सभी चीजों से एक दिशा में इशारा होता है कि अभी भारत के लोगों के लिए और भी ज़्यादा दुख आना बाकी है। बशर्ते सरकार को अपने क्रियाकलापों में बदलाव लाने के लिए मजबूर ना कर दिया जाए, इस देश के साहसी किसान यही करने की कोशिश कर रहे हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

India Faces Grim Jobs Crisis: 1.7 crore Jobs Lost in Past Year

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