NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
पर्यावरण
भारत
UN में भारत: देश में 30 करोड़ लोग आजीविका के लिए जंगलों पर निर्भर, सरकार उनके अधिकारों की रक्षा को प्रतिबद्ध
संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत ने दावा किया है कि देश में 10 करोड़ से ज्यादा आदिवासी और दूसरे समुदायों के मिलाकर कुल क़रीब 30 करोड़ लोग किसी ना किसी तरह से भोजन, जीविका और आय के लिए जंगलों पर आश्रित हैं। और वह जंगलों के साथ साथ आदिवासियों आदि आश्रितों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। यह बात भारत की तरफ़ से संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच (United Nations Forum on Forests) पर कही गई है। खास है कि यूनाईटेड नेशन्स फोरम ऑन फ़ॉरेस्ट का 17वां अधिवेशन 9 मई से 13 मई के बीच न्यूयार्क में आयोजित किया गया था।
सबरंग इंडिया
24 May 2022
poverty

युनाईटेड नेशन्स फोरम ऑन फ़ॉरेस्ट के 17वें अधिवेशन में बोलते हुए भारत के फॉरेस्ट महानिदेशक और स्पेशल सेक्रेट्री चंद्रप्रकाश गोयल ने कहा, “भारत की परंपरा और संस्कृति, बराबरी और ईमानदारी में बसती है। इससे हमें अपने संसाधनों को सस्टेनेबल तरीक़े मेनेज करने में मदद मिली है।” मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार उन्होंने आगे कहा, “जंगल और जंगली जीव जंतुओं को बचाने और उनके प्रबंधन के लिए देश में मज़बूत संस्थागत ढाँचा और नीतियाँ हैं।”

कहा कि भारत जंगल और पेड़ों के मामले में दुनिया के 10 टॉप के देशों में शुमार है। उन्होंने बताया कि भारत में 8 करोड़ हेक्टेयर से ज़्यादा ज़मीन पर जंगल खड़ा है और भारत दुनिया की जैव विविधता में 8% का योगदान करता है। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच से बताया कि भारत में कम से कम 173000 वर्ग किलोमीटर में 987 संरक्षित जंगल हैं। 

भारत की तरफ़ से संयुक्त राष्ट्र संघ के इस मंच के 17वें अधिवेशन में दावा किया कि देश में जंगल बढ़ा है। उन्होंने कहा कि दुनिया की कुल भूमि का भारत के पास सिर्फ़ 2.4 प्रतिशत है जबकि दुनिया की कुल आबादी का 17% और जानवरों की कुल संख्या का 18% भारत में है। उन्होंने कहा कि भारत ग्लोबल फ़ॉरेस्ट गोल के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए प्रतिबद्ध है।

यही नहीं, यहां राजस्थान के बांसवाड़ा में एक कार्यक्रम में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कहा ‘कांग्रेस आदिवासियों के इतिहास की रक्षक है’। उन्होंने देश को एकजुट करने और जोड़े रखने की बात कही, और कहा कि भाजपा की विचारधारा विभाजन करने की है। कहा देश में आज दो विचारधाराओं के बीच लड़ाई है। उन्होंने लोगों को याद दिलाया कि यूपीए सरकार आदिवासी समुदायों के लिए वनाधिकार अधिनियम लाई थी। उन्होंने कहा, “हम आपके इतिहास की रक्षा करते हैं। हम आपके इतिहास को दबाना या मिटाना नहीं चाहते। 

राहुल ने अपनी पार्टी के समावेशी स्वभाव और भाजपा के अमीरों के प्रति लगाव के बीच अंतर की भी बात कही। उन्होंने कहा कि भाजपा दो हिंदुस्तान बनाना चाहती है एक अमीर उद्योगपतियों का, और दूसरा दलितों, आदिवासियों, किसानों, गरीबों और वंचितों का। लेकिन कांग्रेस एक भारत के पक्ष में हैं। राहुल गांधी की इस रैली में राजस्थान के आदिवासियों के अलावा पड़ोसी गुजरात, मध्य प्रदेश के आदिवासी भी आए थे, जिसका राजनीतिक महत्व साफ़ है।

अब भले दुनिया के सबसे बड़े फोरम पर दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करने वाली भाजपानीत भारत सरकार कुछ दावा करें या फिर देश पर सबसे लंबे समय तक राज करने वाली कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष कुछ कहे लेकिन जमीनी हकीकत एकदम उलट है। वन अधिकार अधिनियम 2006 के आने के 16 साल बाद भी वनाश्रितों के अधिकारों को मान्यता सपना सरीखा साबित हो रहा है। उलटे यदा कदा तथाकथित विकास के नाम पर उन्हें जंगलों से बेदखल करने की खबरें ही सुर्खियां बटोरती दिखती है। व्यक्तिगत अधिकारों के मामलों में जरूर कुछ राज्यों ने कदम उठाए हैं लेकिन इच्छाशक्ति के अभाव में आधा अधूरा ही काम हो सका है। 

दूसरा, वन उपज के प्रबंधन आदि से जुड़े सामुदायिक अधिकारों पर अमल किया जाना अभी भी दूर की कौड़ी ही बना है। यही नहीं यूपी उत्तराखंड के साथ छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्यप्रदेश, पश्चिमी बंगाल, तेलांगना, आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, बिहार, महाराष्ट्र सभी जगह कमोबेश एक सी ही स्थिति है। लगभग सभी राज्यों में आदिवासी लगातार आंदोलन भी कर रहे हैं। लेकिन शायद सरकारों के भी खाने और दिखाने के दांत अलग अलग होते हैं। यानी कथनी करनी का अंतर साफ है।

हिमालयी राज्यों में ही जहां 40-65% वनभूमि है, वहां भी वन निवासी की परिभाषा झमेले में पड़ी है। उत्तराखंड में वनभूमि का आंकड़ा 65 फीसदी है जिस पर बड़ी संख्या में लोगों की पुश्तैनी खेती, जंगल, निवास आदि हैं। लेकिन वन विभाग की नजर में यहां शून्य वनाश्रित हैं, जबकि यहां की तहसीलों में हजारों वनवासियों ने वनाधिकार के अनुसार व्यक्तिगत और सामूहिक दावे फॉर्म जमा कर रखे हैं। उत्तराखंड में हजारों वन ग्राम हैं लेकिन लोगों को अधिकार तो दूर, अभी तक एक भी वन गांव को राजस्व का दर्जा तक नहीं मिल सका है। सर्वे तक नहीं हुआ है। 

उत्तर प्रदेश में कई टोंगिया गांवों को राजस्व का दर्जा जरूर मिला है लेकिन सिर्फ कागजों में ही मिला दिखता है। ज्यादातर ग्रामीणों के ग्राम सभा से पास दावों को, कानून की मनमानी व्याख्या गढ़ते हुए, निरस्त कर दिया जा रहा है। जिन करीब एक चौथाई लोगों को व्यक्तिगत अधिकार पत्र दिए गए हैं, उनके तहसील के राजस्व रिकॉर्ड में समुचित इंद्राज तक नहीं हो सके हैं।

कुल मिलाकर दोनों राज्यों में आलम यह है कि (वन) गांव हैं लेकिन गांव में रहने वालों का अपना कोई वजूद नहीं दिखता है। सामुदायिक अधिकारों पर तो लगभग चुप्पी ही साध ली गई है। कुछ चंद लोगों को काबिज काश्त के आधे अधूरे अधिकार, ऐतिहासिक अन्याय खत्म करने की (वनाधिकार) कानून की मंशा पर भी बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं। यही नहीं, मध्यप्रदेश हो या छत्तीसगढ़, झारखंड, महाराष्ट्र व असम हो या फिर गुजरात, हर कहीं  (हसदेव अरण्य, डोलू चाय बागान, सिवनी, बस्तर व नवसारी आदि) में आदिवासी लगातार आंदोलनरत है जो उनके दमन की स्थिति को भी बखूबी बयां करती है।

अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन की राष्ट्रीय महासचिव रोमा कहती हैं कि टोंगिया ग्रामीण हों, वन गुर्जर हों या फिर वनों में रहने वाले अन्य वनाश्रित समुदाय हों, सभी लोग आज़ादी से बहुत पहले से वन भूमि पर बसे हैं और इनकी आजीविका भी पूरी तरह से वनों पर ही आश्रित है। वनाधिकार कानून, लोगों के वन भूमि पर अधिकारों को मान्यता देने की बात करता है लेकिन कहीं दावे नकार कर तो कहीं अभ्यारण्य व पुनर्वास आदि के नाम पर वन विभाग, उल्टे लोगों की जंगल से बेदखली की कोशिशों में ही ज्यादा लगा है। रोज अलग-अलग तरकीबें व साजिश रच रहा है। जंगलों में आग की घटनाओं में भी बढ़ोत्तरी है।

खास है कि वनों के बीच निवास करने वाले समुदायों के पास पीढ़ियों से अपनी आजीविका चलाने को खेती, मकान, गौशाला और चरागाह आदि हैं। इन्होंने मवेशियों को पालने और पेयजल के लिए तालाब भी बनाए हैं। बाद में अंग्रेजों के बने वन कानून ने इन वनवासियों की भूमि को वनभूमि के रूप में पेश करके इन्हें अतिक्रमणकारी करार दे दिया गया। इसके कारण अरसे तक इनकी आजीविका से छेड़छाड़ होती रही है। कई तरह के अन्याय और शोषण के कारण इन्हें एक जंगल से दूसरे जंगल में शरण लेनी पड़ी है।

आजादी के बाद भी इन वनवासियों की पहचान करने में अरसा (59साल) गुजर गया। जब देश में कई स्थानों पर सामाजिक संगठनों ने वन समुदायों के अधिकारों के लिए संघर्ष किया, तो अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वनाधिकारों की मान्यता) अधिनियम-2006 बना। वनाधिकार कानून के नाम से पहचान वाला यह कानून, सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद राज्यों में 16 साल बाद भी पूरी तरह जमीन पर नहीं उतर पाया है। ऐसे में सरकारों/नेताओं के सार्वजनिक मंचों पर किए दावों का सच जाना समझा जा सकता है।

साभार : सबरंग 

India
UN
poverty
India Livelihoods
Jungle

Related Stories

लू का कहर: विशेषज्ञों ने कहा झुलसाती गर्मी से निबटने की योजनाओं पर अमल करे सरकार

‘जलवायु परिवर्तन’ के चलते दुनियाभर में बढ़ रही प्रचंड गर्मी, भारत में भी बढ़ेगा तापमान

पर्वतों में सिर्फ़ पर्यटन ही नहीं, पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र का संरक्षण भी ज़रूरी है

हर नागरिक को स्वच्छ हवा का अधिकार सुनिश्चित करे सरकार

भारत की जलवायु परिवर्तन नीति का विश्लेषण

रिपोर्ट के मुताबिक सभी प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं की जलवायु योजनायें पेरिस समझौते के लक्ष्य को पूरा कर पाने में विफल रही हैं 

सीओपी26: नेट जीरो उत्सर्जन को लेकर बढ़ता दबाव, क्या भारत इसके प्रति खुद को प्रतिबद्ध करेगा?

महिलाएं जल संकट की मार झेलने के लिए विवश

मौसम परिवर्तन और आशा की किरण


बाकी खबरें

  • बिहार मिड-डे-मीलः सरकार का सुधार केवल काग़ज़ों पर, हक़ से महरूम ग़रीब बच्चे
    एम.ओबैद
    बिहार मिड-डे-मीलः सरकार का सुधार केवल काग़ज़ों पर, हक़ से महरूम ग़रीब बच्चे
    11 May 2022
    "ख़ासकर बिहार में बड़ी संख्या में वैसे बच्चे जाते हैं जिनके घरों में खाना उपलब्ध नहीं होता है। उनके लिए कम से कम एक वक्त के खाने का स्कूल ही आसरा है। लेकिन उन्हें ये भी न मिलना बिहार सरकार की विफलता…
  • मार्को फ़र्नांडीज़
    लैटिन अमेरिका को क्यों एक नई विश्व व्यवस्था की ज़रूरत है?
    11 May 2022
    दुनिया यूक्रेन में युद्ध का अंत देखना चाहती है। हालाँकि, नाटो देश यूक्रेन को हथियारों की खेप बढ़ाकर युद्ध को लम्बा खींचना चाहते हैं और इस घोषणा के साथ कि वे "रूस को कमजोर" बनाना चाहते हैं। यूक्रेन
  • assad
    एम. के. भद्रकुमार
    असद ने फिर सीरिया के ईरान से रिश्तों की नई शुरुआत की
    11 May 2022
    राष्ट्रपति बशर अल-असद का यह तेहरान दौरा इस बात का संकेत है कि ईरान, सीरिया की भविष्य की रणनीति का मुख्य आधार बना हुआ है।
  • रवि शंकर दुबे
    इप्टा की सांस्कृतिक यात्रा यूपी में: कबीर और भारतेंदु से लेकर बिस्मिल्लाह तक के आंगन से इकट्ठा की मिट्टी
    11 May 2022
    इप्टा की ढाई आखर प्रेम की सांस्कृतिक यात्रा उत्तर प्रदेश पहुंच चुकी है। प्रदेश के अलग-अलग शहरों में गीतों, नाटकों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का मंचन किया जा रहा है।
  • srilanka
    न्यूज़क्लिक टीम
    श्रीलंका: निर्णायक मोड़ पर पहुंचा बर्बादी और तानाशाही से निजात पाने का संघर्ष
    10 May 2022
    पड़ताल दुनिया भर की में वरिष्ठ पत्रकार भाषा सिंह ने श्रीलंका में तानाशाह राजपक्षे सरकार के ख़िलाफ़ चल रहे आंदोलन पर बात की श्रीलंका के मानवाधिकार कार्यकर्ता डॉ. शिवाप्रगासम और न्यूज़क्लिक के प्रधान…
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License