NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
आंदोलन
समाज
भारत
राजनीति
एक नज़र इधर भी : अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस और मैला ढोती महिलाएं
आज के दिन हमारे देश में मैला ढोने वाली महिलाओं की क्या स्थिति है इससे भी रूबरू होना ज़रूरी है।
राज वाल्मीकि
08 Mar 2020
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस और मैला ढोती महिलाएं

भारत सहित दुनिया के विभिन्न देशों में महिलाओं के प्रति सम्मान के लिए अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 8 मार्च को मनाया जाता है। इस दिन महिलाओं की आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक उपलब्धियों का सम्मान किया जाता है। उन पर गर्व किया जाता है। उनका गरिमा के साथ जीना मानवीय अधिकारों का आनंद एक उत्सव की तरह सेलिब्रेट किया जाता है। पर हमारे देश में मैला ढोने वाली महिलाओं की क्या स्थिति है इससे भी रूबरू होना ज़रूरी है।

ग्लोबलाइजेशन (वैश्वीकरण) के इस दौर में जब पूरे विश्व में समान मानव अधिकारों की बात की जा रही है, हमारे देश में गरिमा के साथ जीने के अधिकार का सरेआम उल्लंघन किया जा रहा है। आज भी भारत में लगभग एक लाख से अधिक महिलाएं मानव-मल ढोने की घृणित और अमानवीय प्रथा में लगी हैं। तकनीक के इस युग में मैनुअल स्केवेनजिंग (मैला प्रथा) का जारी रहना शर्म की बात है।

भारत विश्व का सबसे बड़ा विकासशील देश है। इसमें दो राय नहीं है कि भारत तेजी से विकास कर रहा है। पर इस इक्कीसवीं सदी में भी इस घृणित प्रथा का जारी रहना हम सबके लिए शर्मनाक है। प्रश्न उठता है कि इस आधुनिक समय में भी सदियों से चली आ रही यह अमानवीय प्रथा अस्तित्व में क्यों है? इस पर विचार करने से ज्ञात होता है कि इसकी जड़ें हमारी सामाजिक व्यवस्था में हैं।

मैला ढोती महिला एक (1).jpg

जातिवादी व्यवस्था और पितृसत्ता

अगर हम इसकी पृष्ठभूमि पर विचार करें तो पता चलता है कि यहां जाति व्यवस्था और मैला प्रथा साथ-साथ चल रही हैं। भारतीय समाज में जाति बुनियादी ईकाई है। हिन्दू समाज व्यवस्था जातियों को चार भागों में बांटती है। यह जातीय व्यवस्था उच्च-नीच-वंश क्रम पर आधारित है। ब्राह्मण सर्वोच्च है शूद्र निम्नतर। शूद्रों में भी बहुत-सी उप जातियों में से एक जाति को भंगी नाम दिया गया। इस जाति विशेष का कार्य बना दिया गया लोगों के घरों की गंदगी साफ करना। ऐसा भी प्रतीत होता है कि परम्पराओं और प्रचलित व्यवस्था को न मानने वाले लोगों को भी सज़ा के तौर पर यह घृणित कार्य करवाया गया। ऐसी एक लोकोक्ति भी सुनने को मिलती है - ‘मार-मार के भंगी बना देना’। खैर...।

कारण चाहे जो भी रहे हों किन्तु यथार्थ यह है कि जातिवादी व्यवस्था ने एक जाति विशेष का काम ही सदियों से लोगों के मल-मूत्र साफ करने का बन गया। दुखद यह है कि आज के इस तकनीकी युग में भी यह बदस्तूर जारी है।

मानव मल ढोने के इस कार्य में इस जाति विशेष की महिलाएं सर्वाधिक शामिल हैं। प्रश्न यह उठता है कि महिलाएं ही इन घृणित कार्य से क्यों जुड़ी हुई हैं? इस पर विचार करने पर हम पाते हैं कि इसका कारण है - पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था। पितृसत्ता में महिलाओं को पुरुषों से निम्नस्तर का माना गया है। पुरुषों को देव और महिलाओं को दासी की संज्ञा दी गई है। अतः घर से लेकर बाहर तक सफाई के जितने कार्य हैं या यों कहें कि सफाई आदि 'गन्दे' कार्यों को अधिकतर महिलाओं को सौंप दिया गया है। ऐसा नहीं है कि कथित ‘निम्न जाति’ के पुरुष ऐसे काम नहीं करते किन्तु उनका प्रतिशत काफी कम है।

मैला ढोने वाली महिलाओं की स्थिति

एक सैंपल सर्वे रिपोर्ट के अनुसार चार राज्य बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और झारखंड में मैला ढोने वाली महिलायों के स्थिति इस प्रकार है:

शुष्क शौचालयों की संख्या : 2055

मैला प्रथा के सभी रूपों में महिला सफाई कर्मचारियों की संलिप्तता : 1172

मैला प्रथा के सभी रूपों में पुरूष सफाई कर्मचारियों की संलिप्तता : 514

शुष्क शौचालयों को साफ करने वालों में महिलाओं का प्रतिशत : 92%

जिन महिलाओं के साथ जातिगत भेदभाव हुआ उनका प्रतिशत : 85%

जिन महिलाओं ने परिवार में और अन्य जातियों की हिंसा को सहा उनकी संख्या : 429

छुआछूत की भावना

भले ही भारतीय संविधान ने छुआछूत का उन्मूलन कर दिया हो और इसे दंडनीय अपराध माना हो पर ज़मीनी यथार्थ अलग ही है। उच्च-निम्न क्रम पर आधारित सामाजिक व्यवस्था के कारण मैला ढोने वाली इन महिलायों के साथ छुआछूत और भेदभाव किया जाता है। इन्हें कोई कथित ‘उच्च जाति’ का परिवार अपने घर में बिठाने और अपने बर्तनों में खिलाने के लायक भी नहीं समझता। इनके साथ अच्छे व्यवहार की उम्मीद करना तो व्यर्थ ही है। ज़रा-ज़रा सी बात पर जाति-सूचक गाली देना, इन्हें ज़लील करना, अपमानित करना कथित उच्च जाति के लोग अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं। ये अगर स्वाभिमान से जीने का प्रयास करें तो इनके साथ हिंसक वारदातें हो जाती हैं। कई बार तो उनके स्वाभिमान को कुचलने के लिए ही बलात्कारों की घटनाओं को अंजाम दिया जाता है।

मैला प्रथा के विरुद्ध एकजुट होती मैला ढोने वाली महिलायें_0.JPG

कई बार तो स्थिति यह देखने को मिलती है कि यदि ये महिलाएं मैला ढोना छोड़ना भी चाहें तो दबंग जातियों द्वारा मैला ढोना न छोड़ने के लिए धमकियाँ दी जाती हैं। अगर ये महिलाएं कुछ और आजीविका करना चाहें तो उसे चलने नहीं दिया जाता।

सरकारी उदासीनता

हालाँकि सरकार ने मैला ढोने की प्रथा के उन्मूलन और मैनुअल स्केवेंजरों के पुनर्वास के लिए एक नहीं बल्कि दो-दो कानून बना रखे हैं। पहला “मैला ढोने का कार्य और शुष्क शौचालय निर्माण (निषेध) अधिनियम 1993” और “मैनुअल स्केवेंजरों के रोजगार का निषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम 2013”। सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय ने इनके लिए एक स्व-रोजगार योजना भी बनाई है जिसे SRMS कहा जाता है। इसके लिए सरकार ने वित्त वर्ष 2019-20 में 110 करोड़ रुपये आवंटित किए थे और 2020-2021 में भी 110 करोड़ रुपये आवंटित किए हैं। यह धनराशि अधिक नहीं है पर इसे भी खर्च नहीं किया जाता। यही कारण है कि इन महिलायों का पुनर्वास नहीं हो पता।

ii.JPG

कानून में तो प्रावधान है कि मैनुअल स्केवेंजरों का चिह्नीकरण (identification) क्या जाए। चिह्नीकरण के तुरंत बाद उन्हें 40,000 रुपयों की राहत राशि दी जाए फिर उनके पसंद के गरिमामय पेशे में उनका पुनर्वास किया जाए। जिससे कि वे इज़्ज़त से अपनी जिंदगी बिता सकें। सुप्रीम कोर्ट ने तो यहाँ तक कहा है कि यदि उनके पास घर नहीं है है उन्हें घर देकर पुनर्वासित किया जाए। और जो लोग किसी से जबरन मैला ढोने का कार्य करवा रहे हैं तो उन्हें जेल भेजा जाए और उन पर जुर्माना भी लगाया जाए।

पर वास्तव में ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा है। क्यों?

सब जानते हैं कि सरकार की जातिवादी मानसिकता इसके लिए जिम्मेदार है। यह मानसिकता ये मानकर चलती है कि हमारी गंदगी साफ़ करना तो इनका काम है। इस जाति को तो काम ही साफ-सफाई करना है। इनका तो जन्म ही हमारी सेवा करने के लिए हुआ है। इसलिए इनका पुनर्वास करने की ज़रूरत ही क्या है। इस तरह सरकार में इच्छाशक्ति का न होना भी एक बड़ा कारण है - अभी भी इन महिलायों का मानव-मल ढोने में संलिप्त होने का।

इसके अलावा सफाई समुदाय में व्याप्त गरीबी, अशिक्षा, अन्धविश्वास, कुरीतियाँ भी इनको आगे बढ़ने से रोकती हैं।

मैला प्रथा का खात्मा और मैला ढोने वाली इन महिलायों की मुक्ति

आज की जरूरत है कि इस आधुनिक तकनीक के युग में - इस इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में- मैला ढोने जैसी अमानवीय, घृणित और जघन्य प्रथा का खत्मा हो ही जाना चाहिए। इसके लिए सफाई कर्मचारी आंदोलन लंबे समय से जुटा है। सरकार पर दबाब बना रहा है कि कानून का क्रियान्वयन कर इस कुप्रथा का अंत किया जाए और मैनुअल स्केवेंजरों को मुक्त कर इज़्ज़तदार पेशों में उनका पुनर्वास किया जाए। इस तरह की सोच रखने वाले कुछ अन्य संगठन भी इसमें लगे हैं।

हमारा सभ्य और जागरूक समाज जैसे सामाजिक कार्यकर्त्ता, बुद्धिजीवी, लेखक, पत्रकार, शिक्षाविद, वकील,उच्च अधिकारी, प्रोफ़ेसर तथा मीडिया हमारे साथ-साथ सरकार पर और अधिक दबाब बनाएं और सरकार को विवश करें कि वह मैला प्रथा उन्मूलन को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता (top priority) पर रखे तो ये निश्चित है कि इस मुद्दे को इतिहास बनते देर नहीं लगेगी। दुष्यंत कुमार कह गए हैं कि – "कैसे आकाश में सूराख़ हो नहीं सकता / एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।"

(लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं)

women's day
Women Rights
Scavenging Women
Caste System
patriarchal society
untouchability
Unequal society
male dominant society
gender discrimination

Related Stories

विचारों की लड़ाई: पीतल से बना अंबेडकर सिक्का बनाम लोहे से बना स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी

बीएचयू: लाइब्रेरी के लिए छात्राओं का संघर्ष तेज़, ‘कर्फ्यू टाइमिंग’ हटाने की मांग

बीएचयू: 21 घंटे खुलेगी साइबर लाइब्रेरी, छात्र आंदोलन की बड़ी लेकिन अधूरी जीत

किसान आंदोलन: उत्साह से मना अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस: क़ाफ़िला ये चल पड़ा है, अब न रुकने पाएगा...

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस: महिला किसानों के नाम

पोलैंडः गर्भपात पर प्रतिबंध को लेकर अदालत के फ़ैसले के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन

उत्तर प्रदेश: निरंतर गहरे अंधेरे में घिरते जा रहे हैं सत्य, न्याय और भाईचारा

हाथरस मामले में आंदोलन से लेकर अधिकारियों के निलंबन तक, जानें अब तक क्या-क्या हुआ?

तुर्की : महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा के विरोध में हज़ारों ने मार्च किया


बाकी खबरें

  • विकास भदौरिया
    एक्सप्लेनर: क्या है संविधान का अनुच्छेद 142, उसके दायरे और सीमाएं, जिसके तहत पेरारिवलन रिहा हुआ
    20 May 2022
    “प्राकृतिक न्याय सभी कानून से ऊपर है, और सर्वोच्च न्यायालय भी कानून से ऊपर रहना चाहिये ताकि उसे कोई भी आदेश पारित करने का पूरा अधिकार हो जिसे वह न्यायसंगत मानता है।”
  • रवि शंकर दुबे
    27 महीने बाद जेल से बाहर आए आज़म खान अब किसके साथ?
    20 May 2022
    सपा के वरिष्ठ नेता आज़म खान अंतरिम ज़मानत मिलने पर जेल से रिहा हो गए हैं। अब देखना होगा कि उनकी राजनीतिक पारी किस ओर बढ़ती है।
  • डी डब्ल्यू स्टाफ़
    क्या श्रीलंका जैसे आर्थिक संकट की तरफ़ बढ़ रहा है बांग्लादेश?
    20 May 2022
    श्रीलंका की तरह बांग्लादेश ने भी बेहद ख़र्चीली योजनाओं को पूरा करने के लिए बड़े स्तर पर विदेशी क़र्ज़ लिए हैं, जिनसे मुनाफ़ा ना के बराबर है। विशेषज्ञों का कहना है कि श्रीलंका में जारी आर्थिक उथल-पुथल…
  • आज का कार्टून
    कार्टून क्लिक: पर उपदेस कुसल बहुतेरे...
    20 May 2022
    आज देश के सामने सबसे बड़ी समस्याएं महंगाई और बेरोज़गारी है। और सत्तारूढ़ दल भाजपा और उसके पितृ संगठन आरएसएस पर सबसे ज़्यादा गैर ज़रूरी और सांप्रदायिक मुद्दों को हवा देने का आरोप है, लेकिन…
  • राज वाल्मीकि
    मुद्दा: आख़िर कब तक मरते रहेंगे सीवरों में हम सफ़ाई कर्मचारी?
    20 May 2022
    अभी 11 से 17 मई 2022 तक का सफ़ाई कर्मचारी आंदोलन का “हमें मारना बंद करो” #StopKillingUs का दिल्ली कैंपेन संपन्न हुआ। अब ये कैंपेन 18 मई से उत्तराखंड में शुरू हो गया है।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License