NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
नज़रिया
भारत
राजनीति
नज़रिया: जस्टिस बोबडे पूरे कार्यकाल के दौरान सरकार के रक्षक-प्रहरी बने रहे
कुल मिला जस्टिस बोबडे ने बतौर प्रधान न्यायाधीश अपने पूरे कार्यकाल में ऐसा कुछ नहीं किया जिससे कि सुप्रीम कोर्ट की साख पर आई खरोचें मिट सकें और लोगों का उसके प्रति भरोसा बहाल हो।
अनिल जैन
27 Apr 2021
Sharad Arvind Bobde

सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश पद से एसए बोबडे सेवानिवृत्त हो गए हैं। 23 अप्रैल को उनके कार्यकाल का आखिरी दिन था। करीब 17 महीने पहले जब उन्होंने प्रधान न्यायाधीश का पदभार संभाला था, उस वक्त देश की सर्वोच्च अदालत की साख और विश्वसनीयता पर संदेह का जो धुआं मंडरा रहा था, वह उनके कार्यकाल में जरा भी छंटा नहीं बल्कि और अधिक गहराया ही है। अब तो स्थिति यह हो गई है कि सरकार या सरकार के करीबी किसी रसूखदार व्यक्ति से जुड़ा कोई मामला सुप्रीम कोर्ट में जाता है तो उसकी सुनवाई शुरू होने से पहले लोगों को अंदाजा लग जाता है कि इस मामले में क्या फैसला आएगा।

अपने पूरे कार्यकाल के दौरान जस्टिस बोबडे पूरी तरह अपने पूर्ववर्ती जस्टिस रंजन गोगोई, उनके पूर्ववर्ती जस्टिस दीपक मिश्र और उनके भी पूर्ववर्ती जस्टिस जेएस खेहर के नक्श-ए-कदम पर ही चलते हुए दिखाई दिए। यही नहीं, अपने 522 दिन के कार्यकाल के दौरान कई मामलों में तो उन्होंने अपने इन सभी पूर्ववर्तियों से भी तेज चलते हुए पूरी तरह सरकार के रक्षक-प्रहरी की भूमिका निभाई। उन्होंने कई महत्वपूर्ण मामलों में सरकार को असुविधाजनक स्थिति से उबारने का काम किया, सरकार के मनमाफिक फैसले सुनाए और कई मामलों को बिना किसी उचित वजह के लटकाए रखा।

दुनिया के किसी भी लोकतांत्रिक देश के न्यायिक इतिहास में यह भी पहली बार हुआ कि सरकार की ओर से देश की न्यायपालिका को सार्वजनिक तौर पर 'नसीहत’ दी गई कि वह लोक महत्व के संवेदनशील मामलों में फैसले ऐसे दें कि सरकार जिन्हें लागू करा सके या लोग भी उन पर अमल कर सके। देश के गृह मंत्री और कानून मंत्री की ओर से मिली इन निहायत असंवैधानिक नसीहतों पर न्यायपालिका की ओर से भी कोई एतराज नहीं जताया गया। जस्टिस बोबडे की अध्यक्षता वाली बैंच ने पीएम केयर फंड, इलेक्टोरल बॉन्ड्स जैसे मामलों में तथ्यों की अनदेखी और कानून की अजीबोगरीब व्याख्या करते हुए वैसे ही फैसले दिए जैसे सरकार चाहती थी।

जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाने और उसका पूर्ण राज्य का दर्जा खत्म कर उसे केंद्र शासित प्रदेश बनाने के बाद सरकार ने वहां कई दिनों तक अखबारों की संचार सुविधाएं बंद कर दी गई और कई महीनों तक पूरे राज्य को इंटरनेट सेवा से वंचित रखा गया। यह मामला जब सुप्रीम कोर्ट के समक्ष ले जाया गया तो वहां केंद्र सरकार ने जो भी गलत बयानी की उसे सुप्रीम कोर्ट ने बिना जांचे-परखे ही मान लिया।

यही नहीं, संविधान के अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाने के खिलाफ दायर याचिकाओं का मामला हो या कश्मीरी नेताओं की गिरफ्तारी के खिलाफ बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाएं हो या फिर विवादास्पद नागरिकता संशोधन कानून को चुनौती देने जैसे महत्वपूर्ण मामले, जस्टिस बोबडे के रहते इनमें से किसी भी मामले की आज तक सुनवाई शुरू नहीं हुई है। सुप्रीम कोर्ट सहित देश के कई हाई कोर्ट में पिछले लंबे समय से बडी संख्या में जजों के पद खाली पड़े हैं, जिसकी वजह से मुकदमों का अंबार लगा हुआ है। नए जजों की नियुक्ति के मामले में प्रधान न्यायाधीश की अहम भूमिका होती है, लेकिन जस्टिस बोबडे ने इस मामले को भी लटकाए रखा। इसकी वजह सिर्फ यही है कि सरकार इन मामलों को लटकाए रखना चाहती है।

यह सही है कि पिछले करीब सवा साल से कोरोना वायरस के संक्रमण की वजह से अदालत का काम पूरी रफ्तार से नहीं हो रहा है और उसे वर्चुअल सुनवाई ही करनी पड रही है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट में इस मामले में कोई प्राथमिकता तय नहीं की है। वर्चुअल सुनवाई भी उन्हीं मामलों की हो रही है जिनका संबंध सीधे तौर पर सरकार से या सरकार से जुड़े रसूखदार लोगों से है। जैसे सरकार समर्थक एक टीवी चैनल के मालिक और अर्णब गोस्वामी का मामला।

गोस्वामी न सिर्फ बहुचर्चित टीआरपी घोटाले के मुख्य आरोपी हैं, बल्कि उन पर देश की सुरक्षा से संबंधित गंभीर सूचनाओं को लीक करने का आरोप भी है। उन्हें आत्महत्या के लिए उकसाने के एक गंभीर आपराधिक मामले में जब बॉम्बे हाई कोर्ट ने अंतरिम जमानत देने से इनकार कर दिया तो वे सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए। सुप्रीम कोर्ट ने गोस्वामी को न सिर्फ जमानत दी बल्कि बॉम्बे हाई कोर्ट को फटकार लगाते हुए यह भी कहा कि न्यायपालिका को सुनिश्चित करना चाहिए कि आपराधिक कानून नागरिकों का चुनिंदा तरीके से उत्पीड़न करने के लिए हथियार न बने। यहां यह उल्लेखनीय है कि जब महाराष्ट्र पुलिस ने अर्नब गोस्वामी के खिलाफ आत्महत्या के लिए उकसाने के मामले में मुकदमा दर्ज किया था तो केंद्रीय गृह मंत्री समेत केंद्र सरकार के तमाम मंत्री और भाजपा के शीर्ष नेता अर्नब के बचाव में उतर आए थे।

एक साल पहले कोरोना महामारी शुरू होने के बाद मीडिया के काफी बडे हिस्से ने इस महामारी को देश में फैलाने के लिए तब्लीगी जमात के बहाने पूरे मुस्लिम समुदाय को जिम्मेदार बताते हुए उसके खिलाफ सुनियोजित तरीके से नफरत फैलाने का अभियान चलाया था। जब इस अभियान को रुकवाने लिए सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की गई तो सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए याचिका सुनने से इंकार कर दिया कि वह अभिव्यक्ति या मीडिया की आजादी में दखल नहीं दे सकता।

लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट के जाने-माने वकील प्रशांत भूषण ने प्रधान न्यायाधीश बोबडे की एक गैर अदालती गतिविधि और उनके द्वारा सार्वजनिक स्थान पर कोविड प्रोटोकॉल का पालन न करने को लेकर ट्वीट कर दिया तो सुप्रीम कोर्ट ने नागरिक अधिकारों और अभिव्यक्ति की आजादी की अपनी ही दलील को भुला कर उन्हें अदालत की अवमानना का दोषी करार देने में जरा भी देर नहीं लगाई, जबकि भूषण के ट्वीट का अदालत की किसी कार्यवाही या फैसले से कोई संबंध ही नहीं था। यह और बात है कि भूषण को दोषी ठहराने और एक रुपए के प्रतीकात्मक जुर्माने की सजा के फैसले का आम लोगों ने खूब मजाक उड़ाया। यह बताने की आवश्यकता नहीं कि प्रशांत भूषण ने जनहित याचिकाओं के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार के खिलाफ कई मामले उठाए हैं और जिनमें से कई अभी भी विचाराधीन हैं, जिनकी वजह से वे हमेशा ही केंद्र सरकार की आंखों की किरकिरी बने रहते हैं।

यह भी जस्टिस बोबडे के कार्यकाल के दौरान ही हुआ कि जब-जब भी किसी हाई कोर्ट ने केंद्र सरकार के प्रतिकूल कोई आदेश पारित किया तो सुप्रीम कोर्ट ने फौरन उस पर स्थगन आदेश जारी कर दिया। खुद जस्टिस बोबडे ने भी अपने कार्यकाल के आखिरी दिन वही काम किया, जो उन्होंने पिछले साल मई में किया था। पिछले साल देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मजदूरों के पलायन के समय की कहानी हूबहू ऑक्सीजन की कमी के मामले में दोहराई गई।

पिछले साल इन्हीं दिनों पूरे देश में एक अभूतपूर्व त्रासदी घटित हो रही थी। देश के महानगरों और ज्यादातर बडे शहरों से प्रवासी मजदूरों का पलायन हो रहा था। आजादी के बाद वह पहला मौका था जब इतनी बड़ी संख्या में लोगों का पलायन हो रहा था। लोग चिलचिलाती धूप में अपने बच्चों और बुजुर्गो को लेकर पैदल चल रहे थे। तब देश की छह हाई कोर्ट में इस मसले पर जनहित याचिकाओं पर सुनवाई हो रही थी। सभी हाई कोर्ट ने इस पर बहुत सख्त रुख अख्तियार किया था और केंद्र से लेकर संबंधित राज्यों की सरकारों को कठघऱे मे खड़ा किया था।

उस समय सुप्रीम कोर्ट ने सभी हाई कोर्ट से प्रवासी मजदूरों का मुद्दा अपने पास मंगा लिया था। सुप्रीम कोर्ट ने उस पर सुनवाई की थी और राज्यों से सिर्फ इतना पूछा था कि उनके यहां कितने मजदूर लौटे हैं, उनके आने-जाने का क्या साधन है और राज्य सरकारें उनके लिए क्या कर रही हैं। इसी सिलसिले में केंद्र से सरकार से भी जवाब तलब किया गया था, जिस पर केंद्र सरकार की ओर से कहा गया था कि वह तो उन मजदूरों को उनके घर पहुंचाने के लिए इंतजाम करने के लिए तैयार है लेकिन मजदूर खुद ही पैदल जाना चाहते हैं। हकीकत से दूर केंद्र सरकार की इस 'मासूम’ दलील पर सुप्रीम कोर्ट ने कोई सवाल नहीं किया था। उस मामले पर आगे सितंबर में सुनवाई की तारीख तय हुई थी। मगर हैरानी की बात है कि महीनों तक कई राज्य सरकारों ने जवाब नहीं दिया और वह मामला अपनी मौत मर गया।

बहरहाल उसी तरह सुप्रीम कोर्ट ने इस बार देश के कई राज्यों में ऑक्सीजन की कमी का मुद्दा अपने पास बुला लिया। इस बार भी छह राज्यों में हाई कोर्ट इस मामले की सुनवाई करते हुए केंद्र और राज्य सरकारों को कठघरे में खडा कर रहे थे। सरकारों से जवाब देते नहीं बन रहा था। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लेकर यह मामला सुना और केंद्र सरकार को नोटिस जारी करते हुए 27 अप्रैल तक सुनवाई टाल दी। सोचने वाली बात है कि जहां अस्पतालों में घंटे-दो घंटे तक की ऑक्सीजन बची थी, कई जगहों से ऑक्सीजन के अभाव में कोरोना से संक्रमित मरीजों के मरने की खबरें आ रही थीं और तत्काल कार्रवाई की जरू रत थी, वहां चार दिन के लिए सुनवाई टालने से किसको राहत मिली होगी।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस मामले की सुनवाई अपने हाथ में लिए जाने पर सोशल मीडिया पर लोगों ने कई सवाल उठाए थे और आशंका जाहिर की थी कि सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को राहत पहुंचाने के मामले को अपने हाथ में लिया है। अपनी इस आलोचना पर सुप्रीम कोर्ट ने नाराजगी भी जाहिर की और स्पष्ट किया कि हाई कोर्ट इस मामले को सुन सकते हैं और आदेश भी दे सकते है। लेकिन इसके बावजूद यह मामला भी काफी हद तक पटरी से उतरा है।

यही नहीं, केंद्र सरकार के बनाए तीन कृषि कानूनों के विरोध में पिछले पांच महीने से जारी किसानों के आंदोलन को लेकर भी जस्टिस बोबडे की अध्यक्षता वाली बैंच ने स्वत: संज्ञान लेते हुए दखल दिया, लेकिन कोई फैसला नहीं हो पाया और जस्टिस बोबडे रिटायर भी हो गए। केंद्र सरकार इस बारे में कोई फैसला नहीं कर पा रही है तो उसका कारण समझ में आता है। इन कानूनों को बनाने के पीछे उसका अपना एजेंडा है। कुछ बडे कॉरपोरेट घरानों के हितों के सामने किसानों के हित उसके लिए कोई मायने नहीं रखते हैं। लेकिन सवाल है कि सुप्रीम कोर्ट के सामने ऐसी क्या मजबूरी है जो वह फैसला नहीं ले पाया और अभी भी नहीं ले पा रहा है? आखिर सुप्रीम कोर्ट ने ही तीन सदस्यों की एक कमेटी बनाई थी और वे तीनों सदस्य सरकार की तरफ ही झुकाव रखते हैं। उस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट भी सुप्रीम कोर्ट को सौंप दी है लेकिन कोर्ट उस विचार क्यों नहीं कर रहा है, यह समझ से परे है।

सुप्रीम कोर्ट जब तक इस बारे में कोई फैसला नहीं करता तब तक यथास्थिति बनी रहेगी। कोर्ट ने कानूनों के अमल पर रोक लगा रखी है और दूसरी तरफ किसान धरने पर बैठे हैं। कोरोना के बढते संक्रमण की वजह से किसानों की सेहत और जान खतरे में है, यह जानते हुए भी जस्टिस बोबडे ने मामले को प्राथमिकता के आधार पर नहीं लिया और कोई फैसला सुनाए बगैर वे रिटायर हो गए।

कुल मिला जस्टिस बोबडे ने बतौर प्रधान न्यायाधीश अपने पूरे कार्यकाल में ऐसा कुछ नहीं किया जिससे कि सुप्रीम कोर्ट की साख पर आई खरोचें मिट सकें और लोगों का उसके प्रति भरोसा बहाल हो। उनके दिए गए तमाम फैसलों से सुप्रीम कोर्ट की हनक पहले से ज्यादा कमजोर हुई है और उसके प्रति आम लोगों के भरोसा और कम हुआ है।

(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

इसे भी पढ़ें : मुख्य न्यायाधीश एस ए बोबडे पर कुछ चिंतन

Sharad Arvind Bobde
Supreme Court
BJP
democracy

Related Stories

विचार: सांप्रदायिकता से संघर्ष को स्थगित रखना घातक

ख़बरों के आगे-पीछे: केजरीवाल के ‘गुजरात प्लान’ से लेकर रिजर्व बैंक तक

यूपी में संघ-भाजपा की बदलती रणनीति : लोकतांत्रिक ताकतों की बढ़ती चुनौती

इस आग को किसी भी तरह बुझाना ही होगा - क्योंकि, यह सब की बात है दो चार दस की बात नहीं

ख़बरों के आगे-पीछे: भाजपा में नंबर दो की लड़ाई से लेकर दिल्ली के सरकारी बंगलों की राजनीति

बहस: क्यों यादवों को मुसलमानों के पक्ष में डटा रहना चाहिए!

ख़बरों के आगे-पीछे: गुजरात में मोदी के चुनावी प्रचार से लेकर यूपी में मायावती-भाजपा की दोस्ती पर..

कश्मीर फाइल्स: आपके आंसू सेलेक्टिव हैं संघी महाराज, कभी बहते हैं, और अक्सर नहीं बहते

उत्तर प्रदेशः हम क्यों नहीं देख पा रहे हैं जनमत के अपहरण को!

जनादेश-2022: रोटी बनाम स्वाधीनता या रोटी और स्वाधीनता


बाकी खबरें

  • रवि शंकर दुबे
    दिल्ली और पंजाब के बाद, क्या हिमाचल विधानसभा चुनाव को त्रिकोणीय बनाएगी AAP?
    09 Apr 2022
    इस साल के आखिर तक हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं, तो प्रदेश में आप की एंट्री ने माहौल ज़रा गर्म कर दिया है, हालांकि भाजपा ने भी आप को एक ज़ोरदार झटका दिया 
  • जोश क्लेम, यूजीन सिमोनोव
    जलविद्युत बांध जलवायु संकट का हल नहीं होने के 10 कारण 
    09 Apr 2022
    जलविद्युत परियोजना विनाशकारी जलवायु परिवर्तन को रोकने में न केवल विफल है, बल्कि यह उन देशों में मीथेन गैस की खास मात्रा का उत्सर्जन करते हुए जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न संकट को बढ़ा देता है। 
  • Abhay Kumar Dubey
    न्यूज़क्लिक टीम
    हिंदुत्व की गोलबंदी बनाम सामाजिक न्याय की गोलबंदी
    09 Apr 2022
    पिछले तीन दशकों में जातिगत अस्मिता और धर्मगत अस्मिता के इर्द गिर्द नाचती उत्तर भारत की राजनीति किस तरह से बदल रही है? सामाजिक न्याय की राजनीति का क्या हाल है?
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    बिहारः प्राइवेट स्कूलों और प्राइवेट आईटीआई में शिक्षा महंगी, अभिभावकों को ख़र्च करने होंगे ज़्यादा पैसे
    09 Apr 2022
    एक तरफ लोगों को जहां बढ़ती महंगाई के चलते रोज़मर्रा की बुनियादी ज़रूरतों के लिए अधिक पैसे खर्च करने पड़ रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ उन्हें अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए भी अब ज़्यादा से ज़्यादा पैसे खर्च…
  • आज का कार्टून
    कार्टून क्लिक: इमरान को हिन्दुस्तान पसंद है...
    09 Apr 2022
    अविश्वास प्रस्ताव से एक दिन पहले देश के नाम अपने संबोधन में इमरान ख़ान ने दो-तीन बार भारत की तारीफ़ की। हालांकि इसमें भी उन्होंने सच और झूठ का घालमेल किया, ताकि उनका हित सध सके। लेकिन यह दिलचस्प है…
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License